अध्याय नौ (Chapter -9)
भगवद गीता अध्याय 9.5 में शलोक 20 से शलोक 25 तक सकाम और निष्काम उपासना का फल का वर्णन !
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥ २०॥
त्रै-विद्या: – तीन वेदों के ज्ञाता ; माम् – मुझको ; सोम-पा: – सोम रसपान करने वाले ; पूत – पवित्र ; पापा: – पापों का ; यज्ञैः – यज्ञों के साथ ; इष्ट्वा – पूजा करके ; स्वः-गतिम् – स्वर्ग की प्राप्ति के लिए ; प्रार्थयन्ते – प्रार्थना करते हैं ; ते – वे ; पुण्यम् – पवित्र ; आसाद्य – प्राप्त करके ; सुर-इन्द्र – इन्द्र के ; लोकम् – लोक को ; अश्नन्ति – भोग करते हैं ; दिव्यान् – देवी ; दिवि – स्वर्ग में ; देव-भोगान् – देवताओं के आनन्द को ।
जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं , वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं । वे पापकर्मों से शुद्ध होकर , इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं , जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं ।
तात्पर्य :- त्रैविद्याः शब्द तीन वेदों – साम , यजुः तथा ऋग्वेद का सूचक है । जिस ब्राह्मण ने इन तीनों वेदों का अध्ययन किया है वह त्रिवेदी कहलाता है । जो इन तीनों वेदों से प्राप्त ज्ञान के प्रति आसक्त रहता है , उसका समाज में आदर होता है ।
दुर्भाग्यवश वेदों के ऐसे अनेक पण्डित हैं जो उनके अध्ययन के चरमलक्ष्य को नहीं समझते । इसीलिए कृष्ण अपने को त्रिवेदियों के लिए परमलक्ष्य घोषित करते हैं । वास्तविक त्रिवेदी भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं और भगवान् को प्रसन्न करने के लिए उनकी शुद्धभक्ति करते हैं ।
भक्ति का सूत्रपात हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन तथा साथ – साथ कृष्ण को वास्तव में समझने के प्रयास से होता है । दुर्भाग्यवश जो लोग वेदों के नाममात्र के छात्र हैं वे इन्द्र तथा चन्द्र जैसे विभिन्न देवों को आहुति प्रदान करने में रुचि लेते हैं ।
ऐसे प्रयत्न से विभिन्न देवों के उपासक निश्चित रूप से प्रकृति के निम्न गुणों के कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं । फलस्वरूप वे उच्चतर लोकों , यथा महर्लोक , जनलोक , तपलोक आदि को प्राप्त होते हैं । एक बार इन उच्च लोकों में पहुँच कर वहाँ इस लोक की तुलना में लाखों गुना अच्छी तरह इन्द्रियों की तुष्टि की जा सकती है ।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ २१ ॥
ते – वे ; तम् – उसको ; भुक्त्वा – भोग करके ; स्वर्ग-लोकम् – स्वर्ग को ; विशालम् – विस्तृत ; क्षीणे – समाप्त हो जाने पर ; पुण्ये – पुण्यकर्मों के फल ; मर्त्य-लोकम् – मृत्युलोक में ; विशन्ति – नीचे गिरते हैं ; एवम् – इस प्रकार ; त्रयी – तीनों वेदों के ; धर्मम् – सिद्धान्तों के ; अनुप्रपन्ना: – पालन करने वाले ; गत-आगतम् – मृत्यु तथा जन्म को ; काम-कामाः – इन्द्रियसुख चाहने वाले ; लभन्ते – प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार जब वे ( उपासक ) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे इस मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं । इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं , उन्हें जन्म – मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है ।
भगवद गीता अध्याय 9.5, भगवद गीता अध्याय 9.5, भगवद गीता अध्याय 9.5, भगवद गीता अध्याय 9.5
तात्पर्य :- जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घजीवन तथा विषयसुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं , तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता । पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है ।
जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है , ( जन्माद्यस्य यतः ) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण कृष्ण को नहीं समझता , वह जीवन के चरमलक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता । वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वीलोक को जाता -आता रहता है , मानो वह किसी चक्र पर स्थित हो , जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है ।
सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म – मृत्यु चक्र में घूमता रहता है । अच्छा तो यह होगा कि सच्चिदानन्दमय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति की जाये , क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लोटना नहीं होता ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ २२ ॥
अनन्या: – जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो , अनन्य भाव से ; चिन्तयन्तः – चिन्तन करते हुए ; माम् – मुझको ; ये – जो ; जनाः – व्यक्ति ; पर्युपासते – ठीक से पूजते हैं ; तेषाम् – उन ; नित्य – सदा ; अभियुक्तानाम् – भक्ति में लीन मनुष्यों की ; योग – आवश्यकताएँ ; क्षेमम् – सुरक्षा आश्रय ; बहामि – वहन करता हूँ ; अहम् – मैं ।
किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं , उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं , उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है , उसकी रक्षा करता हूँ ।
तात्पर्य :- जो एक क्षण भी कृष्णभावनामृत के बिना नहीं रह सकता , वह चौबीस घण्टे कृष्ण का चिन्तन करता है और श्रवण , कीर्तन , स्मरण , पादसेवन , वन्दन , अर्चन , दास्य , सख्यभाव तथा आत्मनिवेदन के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की सेवा में रत रहता है ।
ऐसे कार्य शुभ होते हैं और आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण होते हैं , जिससे भक्त को आत्म साक्षात्कार होता है और उसकी यही एकमात्र कामना रहती है कि वह भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करे । ऐसा भक्त निश्चित रूप से बिना किसी कठिनाई के भगवान् के पास पहुँचता है । यह योग कहलाता है ।
ऐसा भक्त भगवत्कृपा से इस संसार में पुनः नहीं आता । क्षेम का अर्थ है भगवान् द्वारा कृपामय संरक्षण । भगवान् योग द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने में सहायक बनते हैं और जब भक्त पूर्ण कृष्णभावनाभावित हो जाता है तो भगवान् उसे दुखमय बद्धजीवन में फिर से गिरने से उसकी रक्षा करते हैं ।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ २३ ॥
ये – जो ; अपि – भी ; अन्य – दूसरे ; देवता – देवताओं के ; भक्ताः – भक्तगण ; यजन्ते – पूजते हैं ; श्रद्धया अन्विता: – श्रद्धापूर्वक ; ते – वे ; अपि – भी ; माम् – मुझको ; एव – केवल ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; यजन्ति – पूजा करते हैं ; अविधि-पूर्वकम् – त्रुटिपूर्ण ढंग से ।
हे कुन्तीपुत्र ! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं , वास्तव में वे भी मेरी ही पूजा करते हैं , किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं ।
तात्पर्य :- श्रीकृष्ण का कथन है ” जो लोग अन्य देवताओं की पूजा में लगे होते हैं , वे अधिक बुद्धिमान नहीं होते , यद्यपि ऐसी पूजा अप्रत्यक्षतः मेरी ही पूजा है । ” उदाहरणार्थ , जब कोई मनुष्य वृक्ष की जड़ों में पानी न डालकर उसकी पत्तियों तथा टहनियों में डालता है , तो वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसे पर्याप्त ज्ञान नहीं होता या वह नियमों का ठीक से पालन नहीं करता ।
इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों की सेवा करने का अर्थ हे आमाशय में भोजन की पूर्ति करना । इसी तरह विभिन्न देवता भगवान् की सरकार के विभिन्न अधिकारी तथा निर्देशक हैं । मनुष्य को अधिकारियों या निर्देशकों द्वारा नहीं अपितु सरकार द्वारा निर्मित नियमों का पालन करना होता है । इसी प्रकार हर एक को परमेश्वर की ही पूजा करनी होती है ।
इससे भगवान् के सारे अधिकारी तथा निर्देशक स्वतः प्रसन्न होंगे । अधिकारी तथा निर्देशक तो सरकार के प्रतिनिधि होते हैं , अतः इन्हें घूस देना अवेध है । यहाँ पर इसी को अविधिपूर्वकम् कहा गया है । दूसरे शब्दों में कृष्ण अन्य देवताओं की व्यर्थ पूजा का समर्थन नहीं करते ।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ २४ ॥
अहम् – मैं ; हि – निश्चित रूप से ; सर्व – समस्त ; यज्ञानाम् – यज्ञों का ; भोक्ता – भोग करने वाला ; च – तथा ; प्रभुः – स्वामी ; एव – भी ; न – नहीं ; तु – लेकिन ; माम् – मुझको ; अभिजानन्ति – जानते हैं ; तत्वेन – वास्तव में ; अतः – अतएव ; च्यवन्ति – नीचे गिरते हैं ; ते – वे ; च – तथा ।
मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ । अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते , वे नीचे गिर जाते हैं ।
तात्पर्य :- यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि वैदिक साहित्य में अनेक प्रकार के यज्ञ अनुष्ठानों का आदेश है , किन्तु वस्तुतः वे सब भगवान् को ही प्रसन्न करने के निमित्त है । यज्ञ का अर्थ है विष्णु भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में यह स्पष्ट कथन है कि मनुष्य को चाहिए कि यज्ञ या विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ही कर्म करे ।
मानवीय सभ्यता का समग्ररूप वर्णाश्रम धर्म है और यह विशेष रूप से विष्णु को प्रसन्न करने के लिए है । इसीलिए इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं , ” में समस्त यज्ञों का भोक्ता हूँ , क्योंकि में परम प्रभु हूँ । ” किन्तु अल्पज्ञ इस तथ्य से अवगत न होने के कारण क्षणिक लाभ के लिए देवताओं को पूजते हैं ।
अतः वे इस संसार में आ गिरते हैं और उन्हें जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता । यदि किसी को अपनी भौतिक इच्छा की पूर्ति करनी हो तो अच्छा यही होगा कि वह इसके लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे ( यद्यपि यह शुद्धभक्ति नहीं है ) और इस प्रकार उसे वांछित फल प्राप्त हो सकेगा ।
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ २५ ॥
यान्ति – जाते हैं ; देव-व्रताः – देवताओं के उपासक ; देवान् – देवताओं के पास ; पितॄन् – पितरों के पास ; यान्ति – जाते हैं ; पितृ-व्रता: – पितरों के उपासक ; भूतानि – भूत-प्रेतों के पास ; यान्ति – जाते हैं ; भूत-इज्या: – भूत-प्रेतों के उपासक ; यान्ति – जाते हैं ; मत् – मेरे ; याजिन: – भक्तगण ; अपि – लेकिन ; माम् – मेरे पास ।
जो देवताओं की पूजा करते हैं , वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे , जो पितरों को पूजते हैं , वे पितरों के पास जाते हैं , जो भूत – प्रेतों की उपासना करते हैं , वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं ।
तात्पर्य : यदि कोई चन्द्रमा , सूर्य या अन्य लोक को जाना चाहता है तो वह अपने गन्तव्य को बताये गये विशिष्ट वैदिक नियमों का पालन करके प्राप्त कर सकता है । इनका विशद वर्णन वेदों के कर्मकाण्ड अंश दर्शपौर्णमासी में हुआ है , जिसमें विभिन्न लोकों में स्थित देवताओं के लिए विशिष्ट पूजा का विधान है ।
इसी प्रकार विशिष्ट यज्ञ करके पितृलोक प्राप्त किया जा सकता है । इसी प्रकार मनुष्य भूत – प्रेत लोकों में जाकर यक्ष , रक्ष या पिशाच बन सकता है । पिशाच पूजा को काला जादू कहते हैं । अनेक लोग इस काले जादू का अभ्यास करते हैं और सोचते हैं कि यह अध्यात्म है , किन्तु ऐसे कार्यकलाप नितान्त भौतिकतावादी हैं ।
इसी तरह शुद्धभक्त केवल भगवान् की पूजा करके निस्सन्देह वैकुण्ठलोक तथा कृष्णलोक की प्राप्ति करता है । इस श्लोक के माध्यम से यह समझना सुगम है कि जब देवताओं की पूजा करके कोई स्वर्ग प्राप्त कर सकता है , तो फिर शुद्धभक्त कृष्ण या विष्णु के लोक क्यों नहीं प्राप्त कर सकता ?
अतः दुर्भाग्यवश अनेक लोगों को कृष्ण तथा विष्णु के दिव्यलोकों की सूचना नहीं है , और न जानने के कारण वे नीचे गिर जाते हैं । यहाँ तक कि निर्विशेषवादी भी ब्रह्मज्योति से नीचे गिरते हैं । इसीलिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन इस दिव्य सूचना को समूचे मानव समाज में वितरित करता है कि केवल हरे कृष्ण मन्त्र के जाप से ही मनुष्य सिद्ध हो सकता है और भगवद्धाम को वापस जा सकता है ।