अध्याय नौ (Chapter -9)
भगवद गीता अध्याय 9.1 में शलोक 01 से शलोक 06 तक परम गोपनीय ज्ञानोपदेश , उपासनात्मक ज्ञान , ईश्वर का विस्तार का वर्णन !
परमगुह्यज्ञान
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १ ॥
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा ; इदम् – इस ; तु – लेकिन ; ते – तुम्हारे लिए ; गुहा-तमम् – अत्यन्त गुह्य ; प्रवक्ष्यामि – कह रहा हूँ ; अनसूयवे – ईर्ष्या न करने वाले को ; ज्ञानम् – ज्ञान को ; विज्ञान – अनुभूत ज्ञान ; सहितम् – सहित ; यत् – जिसे ; ज्ञात्वा – जानकर ; मोक्ष्यसे – मुक्त हो सकोगे ; अशुभात् – इस कष्टमय संसार से ।
श्रीभगवान् ने कहा — हे अर्जुन ! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते , इसलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा , जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे ।
तात्पर्य :- ज्यों – ज्यों भक्त भगवान् के विषयों में अधिकाधिक सुनता है , त्यों – त्यों वह आत्मप्रकाशित होता जाता है । यह श्रवण विधि श्रीमद्भागवत में इस प्रकार अनुमोदित है –
” भगवान् के संदेश शक्तियों से पूरित होते हैं जिनकी अनुभूति तभी होती है , जब भक्त जन भगवान् सम्बन्धी कथाओं की परस्पर चर्चा करते हैं । इसे मनोधर्मियों या विद्यालयीन विद्वानों के सान्निध्य से नहीं प्राप्त किया सकता , क्योंकि यह अनुभूत ज्ञान ( विज्ञान ) है । “
भक्तगण परमेश्वर की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं । भगवान् उस जीव विशेष की मानसिकता तथा निष्ठा से अवगत रहते हैं , जो कृष्णभावनाभावित होता है और उसे ही वे भक्तों के सान्निध्य में कृष्णविद्या को समझने की बुद्धि प्रदान करते हैं ।
कृष्ण की चर्चा अत्यन्त शक्तिशाली है और यदि सौभाग्यवश किसी को ऐसी संगति प्राप्त हो जाये और वह इस ज्ञान को आत्मसात् करे तो वह आत्म – साक्षात्कार की दिशा में अवश्य प्रगति करेगा ।
कृष्ण अर्जुन को अपनी अलौकिक सेवा में उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्साहित करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय में उसे परम गुह्य बातें बताते हैं जिन्हें इसके पूर्व उन्होंने अन्य किसी से प्रकट नहीं किया था ।
भगवद्गीता का प्रथम अध्याय शेष ग्रंथ की भूमिका जैसा है , द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन हुआ है वह गुह्य कहा गया है , सातवें तथा आठवें अध्याय में जिन विषयों की विवेचना हुई है वे भक्ति से सम्बन्धित हैं और कृष्णभावनामृत पर प्रकाश डालने के कारण गुह्यतर कहे गये हैं ।
किन्तु नवें अध्याय में तो अनन्य शुद्ध भक्ति का ही वर्णन हुआ है । फलस्वरूप यह परमगुह्य कहा गया है । जिसे कृष्ण का यह परमगुह्य ज्ञान प्राप्त है , वह दिव्य पुरुष है , अतः इस संसार में रहते हुए भी उसे भौतिक क्लेश नहीं सताते ।
भक्तिरसामृत सिन्धु में कहा गया है कि जिसमें भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की उत्कृष्ट इच्छा होती है , वह भले ही इस जगत् में बद्ध अवस्था में रहता हो , किन्तु उसे मुक्त मानना चाहिए । इसी प्रकार भगवद्गीता के दसवें अध्याय में हम देखेंगे कि जो भी इस प्रकार लगा रहता है , वह मुक्त पुरुष है ।
इस प्रथम श्लोक का विशिष्ट महत्त्व है । इदं ज्ञानम् ( यह ज्ञान ) शब्द शुद्धभक्ति के द्योतक हैं , जो नो प्रकार की होती है – श्रवण , कीर्तन , स्मरण , पाद – सेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य तथा आत्म – समर्पण भक्ति के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्यात्मिक चेतना अथवा कृष्णभावनामृत तक उठ पाता है ।
इस प्रकार , जब मनुष्य का हृदय भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है तो वह कृष्णविद्या को समझ सकता है । केवल यह जान लेना कि जीव भौतिक नहीं है , पर्याप्त नहीं होता । यह तो आत्मानुभूति का शुभारम्भ हो सकता है , किन्तु उस मनुष्य को शरीर के कार्यों तथा उस भक्त के आध्यात्मिक कार्यों के अन्तर को समझना होगा , जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है ।
सातवें अध्याय में भगवान् की ऐश्वर्यमयी शक्ति , उनकी विभिन्न शक्तियों – परा तथा अपरा – तथा इस भौतिक जगत् का वर्णन किया जा चुका है । अब नवें अध्याय में भगवान् की महिमा का वर्णन किया जायेगा ।
इस श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । सामान्यतया बड़े से बड़े विद्वान् भाष्यकार भी भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करते हैं । यहाँ तक कि बहुश्रुत विद्वान् भी भगवद्गीता के विषय में अशुद्ध व्याख्या करते हैं । चूँकि वे कृष्ण के प्रति ईर्ष्या रखते
हैं , अतः उनकी टीकाएँ व्यर्थ होती हैं । केवल कृष्णभक्तों द्वारा की गई टीकाएँ ही प्रामाणिक हैं । कोई भी ऐसा व्यक्ति , जो कृष्ण के प्रति ईर्ष्यालु है , न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है , न पूर्णज्ञान प्रदान कर सकता है । जो व्यक्ति कृष्ण को जाने बिना उनके चरित्र की आलोचना करता है , वह मूर्ख है ।
अतः ऐसी टीकाओं से सावधान रहना चाहिए । जो व्यक्ति यह समझते हैं कि कृष्ण भगवान् हैं और शुद्ध तथा दिव्य पुरुष हैं , उनके लिए ये अध्याय लाभप्रद होंगे ।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥ २ ॥
राज-विद्या – विद्याओं का राजा ; राज-गुह्यम् – गोपनीय ज्ञान का राजा ; पवित्रम् – शुद्धतम ; इदम् – यह ; उत्तमम् – दिव्य ; प्रत्यक्ष – प्रत्यक्ष अनुभव से ; अवगमम् – समझा गया ; धर्म्यम् – धर्म ; सु-सुखम् – अत्यन्त सुखी ; कर्तुम् – सम्पन्न करने में ; अव्ययम् – अविनाशी ।
यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है , जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है । यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है , अतः यह धर्म का सिद्धान्त है । यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है ।
तात्पर्य :- भगवद्गीता का यह अध्याय विद्याओं का राजा ( राजविद्या ) कहलाता है , क्योंकि यह पूर्ववर्ती व्याख्यायित समस्त सिद्धान्तों एवं दर्शनों का सार है । भारत के प्रमुख दार्शनिक गौतम , कणाद , कपिल , याज्ञवल्क्य , शाण्डिल्य तथा वैश्वानर हैं । सबसे अन्त में व्यासदेव आते हैं , जो वेदान्तसूत्र के लेखक हैं । अतः दर्शन या दिव्यज्ञान के क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव नहीं है ।
अव भगवान् कहते हैं कि यह नवम अध्याय ऐसे समस्त ज्ञान का राजा है , यह वेदाध्ययन से प्राप्त ज्ञान एवं विभिन्न दर्शनों का सार है । यह गुह्यतम है , क्योंकि गुह्य या दिव्यज्ञान में आत्मा तथा शरीर के अन्तर को जाना जाता है । समस्त गुह्यज्ञान के इस राजा ( राजविद्या ) की पराकाष्ठा है , भक्तियोग । सामान्यतया लोगों को इस गुह्यज्ञान की शिक्षा नहीं मिलती ।
उन्हें बाह्य शिक्षा दी जाती है । जहाँ तक सामान्य शिक्षा का सम्बन्ध है उसमें राजनीति , समाजशास्त्र , भौतिकी , रसायनशास्त्र , गणित , ज्योतिर्विज्ञान , इंजीनियरी आदि में मनुष्य व्यस्त रहते हैं ।
विश्वभर में ज्ञान के अनेक विभाग हैं और अनेक बड़े – बड़े विश्वविद्यालय हैं , किन्तु दुर्भाग्यवश कोई ऐसा विश्वविद्यालय या शैक्षिक संस्थान नहीं है , जहाँ आत्म – विद्या की शिक्षा दी जाती हो । फिर भी आत्मा शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है , आत्मा के बिना शरीर महत्त्वहीन है ।
तो भी लोग आत्मा की चिन्ता न करके जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं । भगवद्गीता में द्वितीय अध्याय से ही आत्मा की महत्ता पर बल दिया गया है । प्रारम्भ में ही भगवान् कहते हैं कि यह शरीर नश्वर है और आत्मा अविनश्वर । ( अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ) । यही ज्ञान का गुह्य अंश है — केवल यह जान लेना कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है , यह निर्विकार , अविनाशी और नित्य है ।
इससे आत्मा के विषय में कोई सकारात्मक सूचना प्राप्त नहीं हो पाती । कभी – कभी लोगों को यह भ्रम रहता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है और जब शरीर नहीं रहता या मनुष्य को शरीर से मुक्ति मिल जाती है तो आत्मा शून्य में रहता है और निराकार बन जाता है । किन्तु यह वास्तविकता नहीं है । जो आत्मा शरीर के भीतर इतना सक्रिय रहता है वह शरीर से मुक्त होने के बाद इतना निष्क्रिय कैसे हो सकता है ?
यह सदैव सक्रिय रहता है । यदि यह शाश्वत है , तो यह शाश्वत सक्रिय रहता है और वैकुण्ठलोक में इसके कार्यकलाप अध्यात्मज्ञान के गुह्यतम अंश हैं । अतः आत्मा के कार्यों को यहाँ पर समस्त ज्ञान का राजा , समस्त ज्ञान का गुह्यतम अंश कहा गया है । वृक्ष यह ज्ञान समस्त कार्यों का शुद्धतम रूप है , जैसा कि वैदिक साहित्य में बताया गया है ।
पद्मपुराण में मनुष्य के पापकर्मों का विश्लेषण किया गया है और दिखाया गया है कि ये पापों के फल हैं । जो लोग सकामकर्मों में लगे हुए हैं वे पापपूर्ण कर्मों के विभिन्न रूपों एवं अवस्थाओं में फँसे रहते हैं ।
उदाहरणार्थ , जब वीज बोया जाता है तो तुरन्त नहीं तैयार हो जाता , इसमें कुछ समय लगता है । पहले एक छोटा सा अंकुर रहता है , फिर यह वृक्ष का रूप धारण करता है , तब इसमें फूल आते हैं , फल लगते हैं और तब बीज बोने वाले व्यक्ति फूल तथा फल का उपभोग कर सकते हैं ।
इसी प्रकार जव कोई मनुष्य पापकर्म करता है , तो वीज की ही भाँति इसके भी फल मिलने में समय लगता है । इसमें भी कई अवस्थाएँ होती हैं । भले ही व्यक्ति में पापकर्मों का उदय होना बन्द हो चुका हो , किन्तु किये गये पापकर्म का फल तब भी मिलता रहता है । कुछ पाप तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं , कुछ फलीभूत हो चुके होते हैं , जिन्हें हम दुख तथा वेदना के रूप में अनुभव करते है ।
जैसा कि सातवें अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में बताया गया है जो व्यक्ति समस्त पापकर्मों के फलों ( बन्धनों ) का अन्त करके भौतिक जगत् के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है , वह भगवान् कृष्ण की भक्ति में लग जाता है । दूसरे शब्दों में , जो लोग भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं , वे समस्त कर्मफलों ( बन्धनों ) से पहले से मुक्त हुए रहते हैं । इस कथन की पुष्टि पद्मपुराण में हुई है
अप्रारब्धफलं पापं कूटं बीजं फलोन्मुखम् ।
क्रमेणैव प्रलीयेत विष्णुभक्तिरतात्मनाम् ॥
जो लोग भगवद्भक्ति में रत हैं उनके सारे पापकर्म चाहे फलीभूत हो चुके हों , सामान्य हों या बीज रूप में हों , क्रमशः नष्ट हो जाते हैं । अतः भक्ति की शुद्धिकारिणी शक्ति अत्यन्त प्रवल है और पवित्रम् उत्तमम् अर्थात् विशुद्धतम कहलाती है । उत्तम का तात्पर्य दिव्य है । तमस् का अर्थ यह भौतिक जगत् या अंधकार है और उत्तम का अर्थ भौतिक कार्यों से परे हुआ ।
भक्तिमय कार्यों को कभी भी भौतिक नहीं मानना चाहिए । यद्यपि कभी – कभी ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त भी सामान्य जनों की भाँति रत रहते हैं । जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होता है , वही जान सकता है कि भक्तिमय कार्य भौतिक नहीं होते । वे आध्यात्मिक होते हैं और प्रकृति के गुणों से सर्वथा अदूषित होते हैं । कहा जाता है कि भक्ति की सम्पन्नता इतनी पूर्ण होती है कि उसके फलों का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है ।
हमने अनुभव किया है कि जो व्यक्ति कृष्ण के पवित्र नाम ( हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हर ) का कीर्तन करता है उसे जप करते समय कुछ दिव्य आनन्द का अनुभव होता है और वह तुरन्त ही समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है । ऐसा सचमुच दिखाई पड़ता है ।
यहीं नहीं , यदि कोई श्रवण करने में ही नहीं अपितु भक्तिकार्यों के सन्देश को प्रचारित करने में भी लगा रहता है या कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्यों में सहायता करता है , तो उसे क्रमशः आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता रहता है । आध्यात्मिक जीवन की यह प्रगति किसी पूर्व शिक्षा या योग्यता पर निर्भर नहीं करती । यह विधि स्वयं इतनी शुद्ध है कि इसमें लगे रहने से मनुष्य शुद्ध वन जाता है ।
वेदान्तसूत्र में ( ३.२.२६ ) भी इसका वर्णन प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात् के रूप में हुआ है , जिसका अर्थ है कि भक्ति इतनी समर्थ है कि भक्तिकार्यों में रत होने मात्र से बिना किसी संदेह के प्रकाश प्राप्त हो जाता है । इसका उदाहरण नारद जी के पूर्वजन्म में देखा जा सकता है , जो पहले दासी के पुत्र थे ।
वे न तो शिक्षित थे , न ही राजकुल में उत्पन्न हुए थे , किन्तु जब उनकी माता भक्तों की सेवा करती रहती थीं , नारद भी सेवा करते थे और कभी – कभी माता की अनुपस्थिति में भक्तों की सेवा स्वयं करते रहते थे । नारद स्वयं कहते हैं
उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः
सकृत्स्म भुजे तदपास्तकिल्बिषः ।
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस
स्तद्धर्म एवात्मरुचिः प्रजायते ॥
श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में ( १.५.२५ ) नारद जी अपने शिष्य व्यासदेव से अपने पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं । वे कहते हैं कि पूर्वजन्म में बाल्यकाल में वे चातुर्मास में शुद्धभक्तों ( भागवतों ) की सेवा किया करते थे जिससे उन्हें उनकी संगति प्राप्त हुई । कभी कभी वे ऋषि अपनी थालियों में उच्छिष्ट भोजन छोड़ देते और यह बालक थालियाँ धोते समय उच्छिष्ट भोजन को चखना चाहता था ।
अतः उसने उन ऋषियों से अनुमति माँगी और जब उन्होंने अनुमति दे दी तो बालक नारद उस उच्छिष्ट भोजन को खाता था । फलस्वरूप वह अपने समस्त पापकर्मों से मुक्त हो गया । ज्यों – ज्यों वह उच्छिष्ट खाता रहा त्यों – त्यों वह ऋषियों के समान शुद्ध – हृदय बनता गया । चूँकि वे महाभागवत भगवान् की भक्ति का आस्वाद श्रवण तथा कीर्तन द्वारा करते थे अतः नारद ने भी क्रमशः वैसी रुचि विकसित कर ली । नारद आगे कहते हैं –
तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायताम्
अनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः ।
ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः
प्रियश्रवस्यंग ममाभवद् रुचिः ॥
ऋषियों की संगति करने से नारद में भी भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की रुचि उत्पन्न हुई और उन्होंने भक्ति की तीव्र इच्छा विकसित की । अतः जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है- प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात् जो भगवद्भक्ति के कार्यों में केवल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभूति हो जाती है और वह सब समझने लगता है । इसी का नाम प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष अनुभूति है ।
धर्म्यम् शब्द का अर्थ हे “ धर्म का पथ ” । नारद वास्तव में दासी पुत्र थे । उन्हें किसी पाठशाला में जाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था । वे केवल माता के कार्यों में सहायता करते थे और सोभाग्यवश उनकी माता को भक्तों की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ था । बालक नारद को भी यह सुअवसर उपलब्ध हो सका कि वे भक्तों की संगति करने से ही समस्त धर्म के परमलक्ष्य को प्राप्त कर सके ।
यह लक्ष्य है – भक्ति , जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है ( स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षज ) । सामान्यतः धार्मिक व्यक्ति यह नहीं जानते कि धर्म का परमलक्ष्य भक्ति की प्राप्ति है जैसा कि हम पहले ही आठवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या करते हुए कह चुके हैं ( वेदेषु तपःसु चैव सामान्यतया आत्म – साक्षात्कार के लिए वैदिक ज्ञान आवश्यक है ।
किन्तु यहाँ पर नारद न तो किसी गुरु के पास पाठशाला में गये थे , न ही उन्हें वैदिक नियमों की शिक्षा मिली थी , तो भी उन्हें वैदिक अध्ययन के सर्वोच्च फल प्राप्त हो सके । यह विधि इतनी सशक्त है कि धार्मिक कृत्य किये बिना ही मनुष्य सिद्धि – पद को प्राप्त होता है ।
यह कैसे सम्भव होता है ? इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य में मिलती है आचार्यवान् पुरुषो वेद महान आचार्यों के संसर्ग में रहकर मनुष्य आत्म – साक्षात्कार के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान से अवगत हो जाता है , भले ही वह अशिक्षित हो या उसने वेदों का अध्ययन न किया हो ।
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर ( सुसुखम् ) होता है । ऐसा क्यों ? क्योंकि भक्ति में श्रवणं कीर्तन विष्णोः रहता है , जिससे मनुष्य भगवान् की महिमा के कीर्तन को सुन सकता है , या प्रामाणिक आचायों द्वारा दिये गये दिव्यज्ञान के दार्शनिक भाषण सुन सकता है । मनुष्य केवल बैठे रहकर सीख सकता है , ईश्वर को अर्पित अच्छे स्वादिष्ट भोजन का उच्छिष्ट खा सकता है ।
प्रत्येक दशा में भक्ति सुखमय है । मनुष्य गरीबी की हालत में भी भक्ति कर सकता है । भगवान् कहते हैं – पत्रं पुष्पं फलं तोयं वे भक्त से हर प्रकार की भेंट लेने को तैयार रहते हैं । चाहे पत्र हो , पुष्प हो , फल हो या थोड़ा सा जल , जो कुछ भी संसार के किसी भी कोने में उपलब्ध हो , या किसी व्यक्ति द्वारा , उसकी सामाजिक स्थिति पर विचार किये बिना , अर्पित किये जाने पर भगवान् को वह स्वीकार है , यदि उसे प्रेमपूर्वक चढ़ाया जाय ।
इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं । भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदल का आस्वादन करके सनत्कुमार जैसे मुनि महान भक्त बन गये । अतः भक्तियोग अति उत्तम है और इसे प्रसन्न मुद्रा में सम्पन्न किया जा सकता है । भगवान् को तो वह प्रेम प्रिय है , जिससे उन्हें वस्तुएँ अर्पित की जाती हैं । यहाँ पर कहा गया है कि भक्ति शाश्वत है ।
यह वैसी नहीं है , जैसा कि मायावादी चिन्तक साधिकार कहते हैं । यद्यपि वे कभी – कभी भक्ति करते हैं , किन्तु उनकी यह भावना रहती है कि जब तक मुक्ति न मिल जाये , तब तक उन्हें भक्ति करते रहना चाहिए , किन्तु अन्त में जब वे मुक्त हो जाएँगे तो ईश्वर से उनका तादात्म्य हो जाएगा । इस प्रकार की अस्थायी सीमित स्वार्धमय भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं मानी जा सकती ।
वास्तविक भक्ति तो मुक्ति के बाद भी बनी रहती है । जब भक्त भगवद्धाम को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान् की सेवा में रत हो जाता है । वह भगवान् से तदाकार नहीं होना चाहता । जैसा कि भगवद्गीता में देखा जाएगा , वास्तविक भक्ति मुक्ति के बाद प्रारम्भ होती है । मुक्त होने पर जब मनुष्य ब्रह्मपद पर स्थित होता है ( ब्रह्मभूत ) तो उसकी भक्ति प्रारम्भ होती है ( समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ) ।
कोई भी मनुष्य कर्मयोग , ज्ञानयोग , अष्टांगयोग या अन्य योग करके भगवान् को नहीं समझ सकता । इन योग विधियों से भक्तियोग की दिशा में किंचित प्रगति हो सकती है , किन्तु भक्ति अवस्था को प्राप्त हुए बिना कोई भगवान् को समझ नहीं पाता ।
श्रीमद्भागवत में इसकी भी पुष्टि हुई है कि जब मनुष्य भक्तियोग सम्पन्न करके विशेष रूप से किसी महात्मा से श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता सुनकर शुद्ध हो जाता है , तो वह कृष्णविद्या या तत्त्वज्ञान को समझ सकता है ।
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः । जब मनुष्य का हृदय समस्त व्यर्थ की बातों से रहित हो जाता है , तो वह समझ सकता है कि ईश्वर क्या है । इस प्रकार भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त विद्याओं का राजा और समस्त गुह्यज्ञान का राजा है । यह धर्म का शुद्धतम रूप है और इसे बिना कठिनाई के सुखपूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है । अतः मनुष्य को चाहिए कि इसे ग्रहण करे ।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ३ ॥
अश्रद्दधानाः – श्रद्धाविहीन ; पुरुषा: – पुरुष ; धर्मस्य – धर्म के प्रति ; अस्य – इस ; परन्तप – हे शत्रुहन्ता ; अप्राप्य – विना प्राप्त किये ; माम् – मुझको ; निवर्तन्ते – लौटते हैं ; मृत्युः – मृत्यु के ; संसार – संसार में ; वर्त्मनि – पथ में ।
हे परन्तप ! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते , वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते । अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म – मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं ।
तात्पर्य :- श्रद्धाविहीन के लिए भक्तियोग पाना कठिन है , यही इस श्लोक का तात्पर्य है । श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जाती है । महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी अभागे लोग ईश्वर में श्रद्धा नहीं रखते । वे झिझकते रहते हैं और भगवद्भक्ति में दृढ़ नहीं रहते ।
इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है । चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो यह पूर्ण विश्वास है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही सेवा द्वारा सारी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । यही वास्तविक श्रद्धा है । श्रीमद्भागवत में ( ४.३१.१४ ) कहा गया है :-
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कंधभुजोपशाखाः ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥
“ वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें , टहनियाँ तथा पत्तियाँ तुष्ट होती हैं और आमाशय को भोजन प्रदान करने से शरीर की सारी इन्द्रियाँ तृप्त होती हैं । इसी तरह भगवान् की दिव्यसेवा करने से सारे देवता तथा अन्य समस्त जीव स्वतः प्रसन्न होते हैं । ”
अतः गीता पढ़ने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह गीता के इस निष्कर्ष को प्राप्त हो – मनुष्य को अन्य सारे कार्य छोड़कर भगवान् कृष्ण की सेवा करनी चाहिए । यदि वह इस जीवन – दर्शन से विश्वस्त हो जाता है , तो यही श्रद्धा है । इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है । कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियाँ हैं ।
तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं । यदि ऐसे लोग ऊपर – ऊपर भक्ति में लगे भी रहें तो भी उन्हें सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती । सम्भावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएँ । वे भले ही भक्ति में लगे रहें , किन्तु पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है ।
अपने प्रचार कार्यों के दौरान हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं । किन्तु जैसे ही उनकी आर्थिक दशा कुछ सुधर जाती है कि वे इस विधि को त्यागकर पुनः पुराने ढर्रे पर लग जाते हैं । कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है ।
जहाँ तक श्रद्धा की बात है , जो व्यक्ति भक्ति – साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है , वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है । दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति – शास्त्रों का ज्ञान नहीं है , किन्तु स्वतः ही उनकी दृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है , अतः वे इसे ग्रहण करते हैं ।
इस प्रकार वे तृतीय कोटि के उन लोगों से श्रेष्ठतर हैं , जिन्हें न तो शास्त्रों का पूर्णज्ञान है और न श्रद्धा ही है , अपितु संगति तथा सरलता के द्वारा वे उसका पालन करते हैं । तृतीय कोटि के व्यक्ति कृष्णभावनामृत से च्युत हो सकते हैं , किन्तु द्वितीय कोटि के व्यक्ति च्युत नहीं होते । प्रथम कोटि के लोगों के च्युत होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
प्रथम कोटि के व्यक्ति निश्चित रूप से प्रगति करके अन्त में अभीष्ट फल प्राप्त करते हैं । तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो रहती है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है , किन्तु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता ।
कभी – कभी इस तृतीय कोटि के व्यक्तियों की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी – कभी वे विचलित होते रहते हैं , किन्तु ज्योंही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है , वे कृष्णभावनामृत की द्वितीय कोटि या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं ।
कृष्ण के प्रति श्रद्धा भी तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है । भागवत के ग्यारहवें स्कंध में प्रथम , द्वितीय तथा तृतीय कोटि की आस्तिकता का भी वर्णन हुआ है । जो लोग कृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है , उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है , भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न हों । उन्हें सिद्धि प्राप्त होने की बहुत कम आशा है । इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है ।
मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥ ४ ॥
मया – मेरे द्वारा ; ततम् – व्याप्त है ; इदम् – यह ; अव्यक्त-मूर्तिना – अव्यक्त रूप द्वारा ; मत्-स्थानि – मुझमें ; सर्वम् – समस्त ; जगत् – दृश्य जगत् ; सर्व-भूतानि – समस्त जीव ; न – नहीं ; च – भी ; अहम् – में ; तेषु – उनमें ; अवस्थितः – स्थित ।
यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है । समस्त जीव मुझमे हैं , किन्तु में उनमें नहीं हूँ ।
तात्पर्य :- भगवान् की अनुभूति स्थूल इन्द्रियों से नहीं हो पाती । कहा गया है कि –
अतः श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियैः ।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के नाम , यश , लीलाओं आदि को भौतिक इन्द्रियों से नहीं समझा जा सकता । जो समुचित निर्देशन से भक्ति में लगा रहता है उसे ही भगवान् का साक्षात्कार हो पाता है । ब्रह्मसंहिता में ( ५.३८ ) कहा गया हे
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति यदि किसी ने भगवान् के प्रति दिव्य प्रेमाभिरुचि उत्पन्न कर ली है , तो वह सदैव अपने भीतर तथा बाहर भगवान् गोविन्द को देख सकता है ।
इस प्रकार वे सामान्यजनों के लिए दृश्य नहीं हैं । यहाँ पर कहा गया है कि यद्यपि भगवान् सर्वव्यापी हैं और सर्वत्र उपस्थित रहते हैं , किन्तु वे भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य नहीं हैं । इसका संकेत अव्यक्तमूर्तिना शब्द द्वारा हुआ है । भले ही हम उन्हें न देख सकें , किन्तु वास्तविकता तो यह है कि उन्हीं पर सब कुछ आश्रित है ।
जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण दृश्य जगत् उनकी दो विभिन्न शक्तियों – परा या आध्यात्मिक शक्ति तथा अपरा या भौतिक शक्ति का संयोग मात्र है । जिस प्रकार सूर्यप्रकाश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैला रहता है उसी प्रकार भगवान् की शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि में फैली है और सारी वस्तुएँ उसी शक्ति पर टिकी हैं ।
फिर भी किसी को इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए कि सर्वत्र फैले रहने के कारण भगवान् ने अपनी व्यक्तिगत सत्ता खो दी है । ऐसे तर्क का निराकरण करने के लिए ही भगवान् कहते हैं –
” मैं सर्वत्र हूँ और प्रत्येक वस्तु मुझमें है तो भी मैं पृथक् हूँ । ”
उदाहरणार्थ , राजा किसी सरकार का अध्यक्ष होता है और सरकार उसकी शक्ति का प्राकट्य होती है , विभिन्न सरकारी विभाग राजा की शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते और प्रत्येक विभाग राजा की क्षमता पर निर्भर रहता है । तो भी राजा से यह आशा नहीं की जाती कि वह प्रत्येक विभाग में स्वयं उपस्थित हो ।
यह एक मोटा सा उदारहण दिया गया । इसी प्रकार हम जितने स्वरूप देखते हैं और जितनी भी वस्तुएँ इस लोक में तथा परलोक में विद्यमान हैं वे सब भगवान् की शक्ति पर आश्रित हैं । सृष्टि की उत्पत्ति भगवान् की विभिन्न शक्तियों के विस्तार से होती है और जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है – विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम् – वे अपने साकार रूप के कारण अपनी विभिन्न शक्तियों के विस्तार से सर्वत्र विद्यमान हैं ।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृत्र च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥
न – कभी नहीं ; च – भी ; मत्-स्थानि – मुझमें स्थित ; भूतानि – सारी सृष्टि ; पश्य – देखो ; मे – मेरा ; योगम् ऐश्वरम् – अचिन्त्य योगशक्ति ; भूत-भृत् – समस्त जीवों का पालक ; न – नहीं ; च – भी ; भूत-स्थः – विराट अभिव्यक्ति में ; मम – मेरा ; आत्मा – स्व , आत्म ; भूत-भावन: – समस्त अभिव्यक्तियों का स्रोत ।
तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं । जरा , मेरे योग – ऐश्वर्य को देखो ! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक ( भर्ता ) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ , लेकिन में इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ , क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ ।
तात्पर्य :- भगवान् का कथन है कि सब कुछ उन्हीं पर आश्रित है ( मत्स्थानि सर्वभूतानि ) । इसका अन्य अर्थ नहीं लगाना चाहिए । भगवान् इस भौतिक जगत के पालन तथा निर्वाह के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी नहीं हैं । कभी – कभी हम एटलस ( एक रोमन देवता ) को अपने कंधों पर गोला उठाये देखते हैं , वह अत्यन्त थका लगता है और इस विशाल पृथ्वीलोक को धारण किये रहता है ।
हमें किसी ऐसे चित्र को मन में नहीं लाना चाहिए , जिसमें कृष्ण इस सृजित ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए हों । उनका कहना है कि यद्यपि सारी वस्तुएँ उन पर टिकी हैं , किन्तु वे पृथक् रहते हैं । सारे लोक अन्तरिक्ष में तैर रहे हैं और यह अन्तरिक्ष परमेश्वर की शक्ति है । किन्तु वे अन्तरिक्ष से भिन्न हैं , वे पृथक् स्थित हैं ।
अतः भगवान् कहते हैं ” यद्यपि ये सब रचित पदार्थ मेरी अचिन्त्य शक्ति पर टिके हैं , किन्तु भगवान् के रूप में मैं उनसे पृथक् रहता हूँ । ” यह भगवान् का अचिन्त्य ऐश्वर्य है । वैदिककोश निरुक्ति में कहा गया है- युज्यतेऽनेन दुर्घटेषु कार्येषु परमेश्वर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अचिन्त्य आश्चर्यजनक लीलाएँ कर रहे हैं । उनका व्यक्तित्व विभिन्न शक्तियों से पूर्ण है और उनका संकल्प स्वयं एक तथ्य है ।
भगवान् को इसी रूप में समझना चाहिए । हम कोई काम करना चाहते हैं , तो अनेक विघ्न आते हैं और कभी कभी हम जो चाहते हैं वह नहीं कर पाते । किन्तु जब कृष्ण कोई कार्य करना चाहते हैं , तो सब कुछ इतनी पूर्णता से सम्पन्न हो जाता है कि कोई सोच नहीं पाता कि यह सब कैसे हुआ ।
भगवान् इसी तथ्य को समझाते हैं – यद्यपि वे समस्त सृष्टि के पालक तथा धारणकर्ता हैं , किन्तु वे इस सृष्टि का स्पर्श नहीं करते । केवल उनकी परम इच्छा से प्रत्येक वस्तु का सृजन , धारण , पालन एवं संहार होता है ।
उनके मन और स्वयं उनमें कोई भेद नहीं है जैसा हमारे भौतिक मन में और स्वयं हम में भेद होता है , क्योंकि वे परमात्मा हैं । साथ ही वे प्रत्येक वस्तु में उपस्थित रहते हैं , किन्तु सामान्य व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वे साकार रूप में किस तरह उपस्थित हैं । वे भौतिक जगत् से भिन्न हैं तो भी प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आश्रित है । यहाँ पर इसे ही योगम् ऐश्वरम् अर्थात् भगवान् की योगशक्ति कहा गया है ।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥
यथा – जिस प्रकार ; आकाश-स्थितः – आकाश में स्थित ; नित्यम् – सदैव ; वायु: – हवा ; सर्वत्र-गः – सभी जगह बहने वाली ; महान – महान ; तथा – उसी प्रकार ; सर्वाणि-भूतानि – सारे प्राणी ; मत्-स्थानि – मुझमें स्थित ; इति – इस प्रकार ; उपधारय – समझो ।
जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है , उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो ।
तात्पर्य : सामान्यजन के लिए यह समझ पाना कठिन है कि इतनी विशाल सृष्टि भगवान् पर किस प्रकार आंश्रित है । किन्तु भगवान् उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिससे हमें समझने में सहायता मिले । आकाश हमारी कल्पना के लिए सबसे महान अभिव्यक्ति है और उस आकाश में वायु विराट जगत् की सबसे महान अभिव्यक्ति है ।
वायु की गति से प्रत्येक वस्तु की गति प्रभावित होती है । किन्तु वायु महान होते हुए भी आकाश के अन्तर्गत ही स्थित रहती है , वह आकाश से परे नहीं होती । इसी प्रकार समस्त विचित्र विराट अभिव्यक्तियों का अस्तित्व भगवान् की परम इच्छा के फलस्वरूप है और वे सब इस परम इच्छा के अधीन हैं जैसा कि हमलोग प्रायः कहते हैं उनकी इच्छा के विना एक पत्ता भी नहीं हिलता ।
इस प्रकार प्रत्येक वस्तु उनकी इच्छा के अधीन गतिशील है , उनकी ही इच्छा से सारी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं , उनका पालन होता है और उनका संहार होता है । इतने पर भी वे प्रत्येक वस्तु से उसी तरह पृथक् रहते हैं , जिस प्रकार वायु के कार्यों से आकाश रहता है ।
उपनिषदों में कहा गया है- यद्भीषा वातः पवते ” वायु भगवान् के भय से प्रवाहित होती है ” ( तैत्तिरीय उपनिषद् २.८.१ ) । वृहदारण्यक उपनिषद् में ( ३.८.९ ) कहा गया है – एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्यचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृतौ तिष्ठतः- ” भगवान् की अध्यक्षता में परमादेश से चन्द्रमा , सूर्य तथा अन्य विशाल लोक घूम रहे हैं । ” ब्रह्मसंहिता में ( ५.५२ ) भी कहा गया है
यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो
गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ॥
यह सूर्य की गति का वर्णन है । कहा गया है कि सूर्य भगवान् का एक नेत्र है और इसमें ताप तथा प्रकाश फैलाने की अपार शक्ति है । तो भी यह गोविन्द की परम इच्छा और आदेश के अनुसार अपनी कक्षा में घूमता रहता है ।
अतः हमें वैदिक साहित्य से इसके प्रमाण प्राप्त हैं कि यह विचित्र तथा विशाल लगने वाली भौतिक सृष्टि पूरी तरह भगवान् के वश में है । इसकी व्याख्या इसी अध्याय के अगले श्लोकों में की गई है ।
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