अध्याय सात (Chapter -8)
भगवद गीता अध्याय 8.3 में शलोक 23 से शलोक 28 तक भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार का वर्णन !
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥
यत्र – जिस ; काले – समय में ; तु – तथा ; अनावृत्तिम् – वापस न आना ; आवृत्तिम् – वापसी ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; योगिनः – विभिन्न प्रकार के योगी ; प्रयाताः – प्रयाण करने वाले ; यान्ति – प्राप्त करते है ; तम् – उस ; कालम् – काल को ; वक्ष्यामि – कहूँगा ; भरत-ऋषभ – हे भरतों में श्रेष्ठ !
हे भरतश्रेष्ठ ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा , जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता ।
तात्पर्य :- परमेश्वर के अनन्य , पूर्ण शरणागत भक्तों को इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वे कब और किस तरह शरीर को त्यागेंगे । वे सब कुछ कृष्ण पर छोड़ देते हैं और इस तरह सरलतापूर्वक , प्रसन्नता सहित भगवद्धाम जाते हैं ।
किन्तु जो अनन्य भक्त नहीं हैं । और कर्मयोग , ज्ञानयोग तथा हठयोग जैसी आत्म – साक्षात्कार की विधियों पर आश्रित रहते हैं , उन्हें उपयुक्त समय में शरीर त्यागना होता है , जिससे वे आश्वस्त हो सकें कि इस जन्म – मृत्यु वाले संसार में उनको लौटना होगा या नहीं । यदि योगी सिद्ध होता है तो वह इस जगत से शरीर छोड़ने का समय तथा स्थान चुन सकता है ।
किन्तु यदि वह इतना पटु नहीं होता तो उसकी सफलता उसके अचानक शरीर त्याग के संयोग पर निर्भर करती है । भगवान् ने अगले श्लोक में ऐसे उचित अवसरों का वर्णन किया है कि कब मरने से कोई वापस नहीं आता । आचार्य बलदेव विद्याभूषण के अनुसार यहाँ पर संस्कृत के काल शब्द का प्रयोग काल के अधिष्ठाता देव के लिए हुआ है ।
अग्निज्योतिरहः शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।
तंत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ २४ ॥
अग्निः – अग्नि ; ज्योतिः – प्रकाश ; अहः – दिन ; शुक्ल: – शुक्लपक्ष ; षट्-मासा: – छह महीने ; उत्तर-अयणम् – जब सूर्य उत्तर दिशा की ओर रहता है ; तत्र – वहाँ ; प्रयाता: – मरने वाले ; गच्छन्ति – जाते हैं ; ब्रह्म – ब्रह्म को ; ब्रह्म-विदः – ब्राह्मज्ञानीः ; जनाः – लोग ।
जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं , वे अग्निदेव के प्रभाव में , प्रकाश में , दिन के शुभक्षण में , शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है , उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं ।
तात्पर्य :- जब अग्नि , प्रकाश , दिन तथा पक्ष का उल्लेख रहता है तो यह समझना चाहिए कि इस सबों के अधिष्ठाता देव होते हैं जो आत्मा की यात्रा की व्यवस्था करते हैं । मृत्यु के समय मन मनुष्य को नवीन जीवन मार्ग पर ले जाता है ।
यदि कोई अकस्मात् या योजनापूर्वक उपर्युक्त समय पर शरीर त्याग करता है तो उसके लिए निर्विशेष ब्रह्मज्योति प्राप्त कर पाना सम्भव होता है । योग में सिद्ध योगी अपने शरीर को त्यागने के समय तथा स्थान की व्यवस्था कर सकते हैं । अन्यों का इस पर कोई वश नहीं होता ।
यदि संयोगवश वे शुभमुहूर्त में शरीर त्यागते हैं , तब तो उनको जन्म – मृत्यु के चक्र में लौटना नहीं पड़ता , अन्यथा उनके पुनरावर्तन की सम्भावना बनी रहती है । किन्तु कृष्णभावनामृत में शुद्धभक्त के लिए लौटने का कोई भय नहीं रहता , चाहे वह शुभ मुहूर्त में शरीर त्याग करे या अशुभ क्षण में , चाहे अकस्मात् शरीर त्याग करे या स्वेच्छापूर्वक ।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तंत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ २५ ॥
धूमः – धुआं ; रात्रिः – रात ; तथा – और ; कृष्णः – कृष्णपक्ष ; षट्-मासाः – छह मास की अवधि ; दक्षिण-अयणम् – जव सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है ; तत्र – वहाँ ; चान्द्र-मसम् – चन्द्रलोक को ; ज्योतिः – प्रकाश ; योगी – योगी ; प्राप्य – प्राप्त करके ; निवर्तते – वापस आता है ।
जो योगी धुएँ , रात्रि , कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है , वह चन्द्रलोक को जाता है , किन्तु वहाँ से पुनः ( पृथ्वी पर ) चला आता है I
तात्पर्य :- भागवत के तृतीय स्कंध में कपिल मुनि उल्लेख करते हैं कि जो लोग कर्मकाण्ड तथा यज्ञकाण्ड में निपुण हैं , वे मृत्यु होने पर चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं । ये महान आत्माएँ चन्द्रमा पर लगभग १० हजार वर्षों तक ( देवों की गणना से ) रहती हैं और सोमरस का पान करते हुए जीवन का आनन्द भीगती हैं । अन्ततोगत्वा वे पृथ्वी पर लोट आती है । इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रमा में उच्चश्रेणी के प्राणी रहते हैं , भले ही हम अपनी स्थूल इन्द्रियों से उन्हें देख न सकें ।
शुक्लकृष्णे गती होते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥ २६ ॥
शुक्ल – प्रकाश ; कृष्णे – तथा अंधकार ; गती – जाने के मार्ग ; हि – निश्चय ही ; एते – ये दोनों ; जगतः – भौतिक जगत् का ; शाश्वते – वेदों के ; मते – मत से ; एक – एक के द्वारा ; याति – जाता है ; अनावृत्तिम् – न लौटने के लिए ; अन्यया – अन्य के द्वारा ; आवर्तले – आ जाता है ; पुनः – फिर से ।
वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं- एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का । जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता , किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुनः लौटकर आता है ।
तात्पर्य :- आचार्य बलदेव विद्याभूषण ने छान्दोग्य उपनिषद् से ( ५.१०.३-५ ) ऐसा ही विवरण उद्धृत किया है । जो अनादि काल से सकाम कर्मी तथा दार्शनिक चिन्तक रहे हैं वे निरन्तर आवागमन करते रहे हैं । वस्तुतः उन्हें परममोक्ष प्राप्त नहीं होता , क्योंकि वे कृष्ण की शरण में नहीं जाते ।
नेते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७॥
न – कभी नहीं ; एते – इन दोनों ; सृती – विभिन्न मार्गों को ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; जानन् – जानते हुए भी ; योगी – भगवद्भक्त ; मुह्यति – मोहग्रस्त होता है ; कश्चन – कोई ; तस्मात् – अतः ; सर्वेषु कालेषु – सदैव ; योग-युक्त: – कृष्णभावनामृत में तत्पर ; भव – होवो ; अर्जुन – हे अर्जुन ।
हे अर्जुन ! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं , किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते । अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो ।
तात्पर्य :- कृष्ण अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं कि उसे इस जगत् से आत्मा के प्रयाण करने के विभिन्न मार्गों को सुनकर विचलित नहीं होना चाहिए । भगवद्भक्त को इसकी चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि वह स्वेच्छा से मरेगा या देववशात् । भक्त को कृष्णभावनामृत में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर हरे कृष्ण का जप करना चाहिए ।
उसे यह जान लेना चाहिए कि इन दोनों मार्गों में से किसी की भी चिन्ता करना कष्टदायक है । कृष्णभावनामृत में तल्लीन होने की सर्वोत्तम विधि यही है कि भगवान् की सेवा में सदेव रत रहा जाय । इससे भगवद्धाम का मार्ग स्वतः सुगम , सुनिश्चित तथा सीधा होगा । इस श्लोक का योगयुक्त शब्द विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है । जो योग में स्थिर है , वह अपनी सभी गतिविधियों में निरन्तर कृष्णभावनामृत में रत रहता है ।
श्री रूप गोस्वामी का उपदेश है- अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः- मनुष्य को सांसारिक कार्यों से अनासक्त रहकर कृष्णभावनामृत में सब कुछ करना चाहिए । इस विधि से , जिसे युक्तवैराग्य कहते हैं , मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है । अतएव भक्त कभी इन वर्णनों से विचलित नहीं होता , क्योंकि वह जानता रहता है कि भक्ति के कारण भगवद्राम तक का उसका प्रयाण सुनिश्चित है ।
वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥ २८ ॥
वेदेषु – वेदाध्ययन में ; यज्ञेषु – यक्ष सम्पन्न करने में ; तपः सु – विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ करने में ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; दानेषु – दान देने में ; यत् – जो ; पुण्य-फलम् – पुण्यकर्म का फल ; प्रदिष्टम् – सूचित ; अत्येति – लाँघ जाता है ; तत् सर्वम् – ये सब ; इदम् – यह ; विदित्वा – जानकर ; योगी – योगी ; परम् – परम ; स्थानम् – धाम को ; उपैति – प्राप्त करता है ; च – भी ; आद्यम् – मूल , आदि ।
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है , वह वेदाध्ययन , तपस्या , दान , दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता । वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- यह श्लोक सातवें तथा आठवें अध्यायों का उपसंहार है , जिनमें कृष्णभावनामृत तथा भक्ति का विशेष वर्णन है । मनुष्य को अपने गुरु के निर्देशन में वेदाध्ययन करना होता है , उन्हीं के आश्रम में रहते हुए तपस्या करनी होती है । ब्रह्मचारी को गुरु के घर में एक दास की भाँति रहना पड़ता है और द्वार – द्वार भिक्षा माँगकर गुरु के पास लाना होता है ।
उसे गुरु के आदेश पर ही भोजन करना होता है और यदि किसी दिन गुरु शिष्य को भोजन करने के लिए बुलाना भूल जाय तो शिष्य को उपवास करना होता है । ब्रह्मचर्य पालन के ये कुछ वैदिक नियम हैं । अपने गुरु के आश्रम में जब छात्र पाँच से बीस वर्ष तक वेदों का अध्ययन कर लेता है तो वह परम चरित्रवान बन जाता है । वेदों का अध्ययन मनोधर्मियों के मनोरंजन के लिए नहीं , अपितु चरित्र – निर्माण के लिए है ।
इस प्रशिक्षण के बाद ब्रह्मचारी को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके विवाह करने की अनुमति दी जाती है । गृहस्थ के रूप में उसे अनेक यज्ञ करने होते हैं , जिससे वह आगे उन्नति कर सके । उसे देश , काल तथा पात्र के अनुसार तथा सात्त्विक , राजसिक तथा तामसिक दान में अन्तर करते हुए दान देना होता है , जैसा कि भगवद्गीता में वर्णित है ।
गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना पड़ता है , जिसमें उसे जंगल में रहते हुए वृक्ष की छाल पहन कर तथा क्षोर कर्म आदि किये बिना कठिन तपस्या करनी होती है । इस प्रकार मनुष्य ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ तथा अन्त में संन्यास आश्रम का पालन करते हुए जीवन की सिद्धावस्था को प्राप्त होता है ।
तब इनमें से कुछ स्वर्गलोक को जाते हैं और यदि वे और अधिक उन्नति करते हैं तो अधिक उच्चलोकों को या तो निर्विशेष ब्रह्मज्योति को , या वैकुण्ठलोक या कृष्णलोक को जाते हैं । वैदिक ग्रंथों में इसी मार्ग की रूपरेखा प्राप्त होती है । किन्तु कृष्णभावनामृत की विशेषता यह है कि मनुष्य एक ही झटके में भक्ति करने के कारण मनुष्य जीवन के विभिन्न आश्रमों के अनुष्ठानों को पार कर जाता है ।
इदं विदित्वा शब्द सूचित करते हैं कि मनुष्य को भगवद्गीता के इस अध्याय में तथा सातवें अध्याय में दिये हुए कृष्ण के उपदेशों को समझना चाहिए । उसे विद्वत्ता या मनोधर्म से इन दोनों अध्यायों को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए , अपितु भक्तों की संगति से श्रवण करके समझना चाहिए । सातवें से लेकर बारहवें तक के अध्याय भगवद्गीता के सार रूप हैं ।
प्रथम छह अध्याय तथा अन्तिम छह अध्याय इन मध्यवर्ती छहाँ अध्यायों के लिए आवरण मात्र हैं जिनकी सुरक्षा भगवान् करते हैं । यदि कोई गीता के इन छह अध्यायों को भक्त की संगति में भलीभाँति समझ लेता है तो उसका जीवन समस्त तपस्याओं , यज्ञों , दाना , चिन्तनों को पार करके महिमा – मण्डित हो उठेगा , क्योंकि केवल कृष्णभावनामृत के द्वारा उसे इतने कर्मों का फल प्राप्त हो जाता है ।
जिसे भगवद्गीता में तनिक भी श्रद्धा नहीं है , उसे किसी भक्त से भगवद्गीता समझनी चाहिए , क्योंकि चौथे अध्याय के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि केवल भक्तगण ही गीता को समझ सकते हैं , अन्य कोई भी भगवद्गीता के अभिप्राय को नहीं समझ सकता । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भक्त से भगवद्गीता पढ़े ; मनोधर्मियों से नहीं । यह श्रद्धा का सूचक है ।
जब भक्त की खोज की जाती है और अन्ततः भक्त की संगति प्राप्त हो जाती है , उसी क्षण से भगवद्गीता का वास्तविक अध्ययन तथा उसका ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है । भक्त की संगति से भक्ति आती है और भक्ति के कारण कृष्ण या ईश्वर तथा कृष्ण के कार्यकलापों , उनके रूप , नाम , लीलाओं आदि से संबंधित सारे भ्रम दूर हो जाते हैं ।
इस प्रकार भ्रमों के दूर हो जाने पर वह अपने अध्ययन में स्थिर हो जाता है । तब उसे भगवद्गीता के अध्ययन में रस आने लगता है और कृष्णभावनाभावित होने की अनुभूति होने लगती है । आगे बढ़ने पर वह कृष्ण के प्रेम में पूर्णतया अनुरक्त हो जाता है । यह जीवन की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था है , जिससे भक्त कृष्ण के धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है , जहाँ वह नित्य सुखी रहता है ।
इस प्रकार भगवद गीता के आठवें अध्याय “ भगवत्प्राप्ति ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।