अध्याय सात (Chapter -8)
भगवद गीता अध्याय 8.2 में शलोक 08 से शलोक 22 तक भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार का वर्णन !
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८ ॥
अभ्यास-योग – अभ्यास से ; युक्तेन – ध्यान में लगे रहकर ; चेतसा – मन तथा बुद्धि से ; न अन्य गामिना – विना विचलित हुए ; परमम् – परम ; पुरुषम् – भगवान् को ; दिव्यम् – दिव्य ; याति – प्राप्त करता है ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; अनुचिन्तयन् – निरन्तर चिन्तन करता हुआ ।
हे पार्थ ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरन्तर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है , वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में भगवान् कृष्ण अपने स्मरण किये जाने की महत्ता पर बल देते हैं । महामन्त्र हरे कृष्ण का जप करने से कृष्ण की स्मृति हो आती है । भगवान् के शब्दोच्चार ( ध्वनि ) के जप तथा श्रवण के अभ्यास से मनुष्य के कान , जीभ तथा मन व्यस्त रहते हैं । इस ध्यान का अभ्यास अत्यन्त सुगम है और इससे परमेश्वर को प्राप्त करने में सहायता मिलती है ।
पुरुषम् का अर्थ भोक्ता है । यद्यपि सारे जीव भगवान् की तटस्था शक्ति हैं , किन्तु वे भौतिक कल्मष से युक्त हैं । वे स्वयं को भोक्ता मानते हैं , जबकि वे होते नहीं । यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् ही अपने विभिन्न स्वरूपों तथा नारायण , वासुदेव आदि स्वांशों के रूप में परम भोक्ता हैं ।
भक्त हरे कृष्ण का जप करके अपनी पूजा के लक्ष्य परमेश्वर का , उनके किसी भी रूप नारायण , कृष्ण , राम आदि का निरन्तर चिन्तन कर सकता है । ऐसा करने से वह शुद्ध हो जाता है और निरन्तर जप करते रहने से जीवन के अन्त में वह भगवद्धाम को जाता है । योग अन्तःकरण के परमात्मा का ध्यान है । इसी प्रकार हरे कृष्ण के जप द्वारा मनुष्य अपने मन को परमेश्वर में स्थिर करता है ।
मन चंचल है , अतः आवश्यक है कि मन को वलपूर्वक कृष्ण – चिन्तन में लगाया जाय । प्रायः उस एक प्रकार के कीट का दृष्टान्त दिया जाता है जो तितली बनना चाहता है और वह इसी जीवन में तितली वन जाता है । इसी प्रकार यदि हम निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करते रहें , तो यह निश्चित है कि हम जीवन के अन्त में कृष्ण जैसा शरीर प्राप्त कर सकेंगे ।
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ॥ ९ ॥
कविम् – सर्वज्ञ ; पुराणम् – प्राचीनतम , पुरातन ; अनुशासितारम् – नियन्ता ; अणो: – अणु की तुलना में ; अणीयांसम् – लघुतर ; अनुस्मरेत् – सदेव सोचता है ; यः – जो ; सर्वस्य – हर वस्तु का ; धातारम् – पालक ; अचिन्त्य – अकल्पनीय ; रूपम् – जिसका स्वरूप ; आदित्य-वर्णम् – सूर्य के समान प्रकाशमान ; तमस: – अंधकार से ; परस्तात् – दिव्य परे ।
मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ , पुरातन , नियन्ता , लघुतम से भी लघुतर , प्रत्येक का पालनकर्ता , समस्त भौतिकबुद्धि से परे , अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे । वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे , दिव्य रूप हैं ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में परमेश्वर के चिन्तन की विधि का वर्णन हुआ है । सबसे प्रमुख बात यह है कि वे निराकार या शून्य नहीं हैं । कोई निराकार या शून्य का चिन्तन कैसे कर सकता है ? यह अत्यन्त कठिन है । किन्तु कृष्ण के चिन्तन की विधि अत्यन्त सुगम है और तथ्य रूप में यहाँ वर्णित है ।
पहली बात तो यह है कि भगवान् पुरुष हैं हम राम तथा कृष्ण को पुरुष रूप में सोचते हैं । चाहे कोई राम का चिन्तन करे या कृष्ण का , वे जिस तरह के हैं उसका वर्णन भगवद्गीता के इस श्लोक में किया गया है । भगवान् कवि हैं अर्थात् वे भूत , वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता हैं , अतः वे सब कुछ जानने वाले हैं । वे प्राचीनतम पुरुष हैं क्योंकि वे समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं , प्रत्येक वस्तु उन्हीं से उत्पन्न है । वे ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भी हैं ।
वे मनुष्यों के पालक तथा शिक्षक हैं । वे अणु से भी सूक्ष्म हैं । जीवात्मा बाल के अग्र भाग के दस हजारवें अंश के बराबर है , किन्तु भगवान् अचिन्त्य रूप से इतने लघु हैं कि वे इस अणु के भी हृदय में प्रविष्ट रहते हैं । इसीलिए वे लघुतम से भी लघुतर कहलाते हैं । परमेश्वर के रूप में वे परमाणु में तथा लघुतम के भी हृदय में प्रवेश कर सकते हैं और परमात्मा रूप में उसका नियन्त्रण करते हैं ।
इतना लघु होते हुए भी वे सर्वव्यापी हैं और सबों का पालन करने वाले हैं । उनके द्वारा इन लोकों का धारण होता है । प्रायः हम आश्चर्य करते हैं कि ये विशाल लोक किस प्रकार वायु में तैर रहे हैं । यहाँ यह बताया गया है कि परमेश्वर अपनी अचिन्त्य शक्ति द्वारा इन समस्त विशाल लोकों तथा आकाशगंगाओं को धारण किए हुए हैं । इस प्रसंग में अचिन्त्य शब्द अत्यन्त सार्थक है ।
ईश्वर की शक्ति हमारी कल्पना या विचार शक्ति के परे है , इसीलिए अचिन्त्य कहलाती है । इस बात का खंडन कौन कर सकता है ? वे इस भौतिक जगत् में व्याप्त हैं फिर भी इससे परे हैं । हम इसी भौतिक जगत् को ठीक – ठीक नहीं समझ पाते जो आध्यात्मिक जगत् की तुलना में नगण्य है तो फिर हम कैसे जान सकते हैं कि इसके परे क्या है ?
अचिन्त्य का अर्थ है इस भौतिक जगत् से परे जिसे हमारा तर्क , नीतिशास्त्र तथा दार्शनिक चिन्तन छू नहीं पाता और जो अकल्पनीय है । अतः बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि व्यर्थ के तर्कों तथा चिन्तन से दूर रहकर वेदों , भगवद्गीता तथा भागवत जैसे शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है , उसे स्वीकार कर लें और उनके द्वारा सुनिश्चित किए गए नियमों का पालन करें । इससे ज्ञान प्राप्त हो सकेगा ।
प्रयाणकाल मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
ध्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ १० ॥
प्रयाण-काले – मृत्यु के समय ; मनसा – मन से ; अचलेन – अचल , दृढ ; भक्त्या – भक्ति से ; युक्तः – लगा हुआ ; योग-बलेन – योग शक्ति के द्वारा ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; ध्रुवोः – दोनों भौहों के ; मध्ये – मध्य में ; प्राणम् – प्राण को ; आवेश्य – स्थापित करे ; सम्यक् – पूर्णतया ; सः – वह ; तम् – उस ; परम् – दिव्य ; पुरुषम् – भगवान् को ; उपेति – प्राप्त करता है ; दिव्यम् – दिव्य भगवद्धाम को ।
मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है , वह निश्चित रूप से भगवान् को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि मृत्यु के समय मन को भगवान् की भक्ति में स्थिर करना चाहिए । जो लोग योगाभ्यास करते हैं उनके लिए संस्तुति की गई है कि वे प्राण को भौहों के बीच ( आज्ञा चक्र ) में ले आयें । यहाँ पर षट्चक्रयोग के अभ्यास का प्रस्ताव है , जिसमें छः चक्रों पर ध्यान लगाया जाता है ।
परन्तु निरन्तर कृष्णभावनामृत में लीन रहने के कारण शुद्ध भक्त भगवत्कृपा से मृत्यु के समय योगाभ्यास के बिना भगवान् का स्मरण कर सकता है । इसकी व्याख्या चौदहवें श्लोक में की गई है । इस श्लोक में योगबलेन शब्द का विशिष्ट प्रयोग महत्त्वपूर्ण है क्योंकि योग के अभाव में चाहे वह षट्चक्रयोग हो या भक्तियोग – मनुष्य कभी भी मृत्यु के समय इस दिव्य अवस्था ( भाव ) को प्राप्त नहीं होता ।
कोई भी मृत्यु के समय परमेश्वर का सहसा स्मरण नहीं कर पाता , उसे किसी न किसी योग का , विशेषतया भक्तियोग का अभ्यास होना चाहिए । चूँकि मृत्यु के समय मनुष्य का मन अत्यधिक विचलित रहता है , अतः अपने जीवन में मनुष्य को योग के माध्यम से अध्यात्म का अभ्यास करना चाहिए ।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥
यत् – जिस ; अक्षरम् – अक्षर ॐ को ; वेद-विदः – वेदों के ज्ञाता ; वदन्ति – कहते हैं ; विशन्ति – प्रवेश करते हैं ; यत् – जिसमें ; यतयः – बड़े – बड़े मुनि ; वीत-रागा: – संन्यास आश्रम में रहने वाले संन्यासी ; यत् – जो ; इच्छन्तः – इच्छा करने वाले ; ब्रह्मचर्यम् – ब्रह्मचर्य का ; चरन्ति – अभ्यास करते हैं ; तत् – उस ; ते – तुमको ; पदम् – पद को ; सङ्ग्रहेण – संक्षेप में ; प्रवक्ष्ये – मैं बतलाऊँगा ।
जो वेदों के ज्ञाता है , जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े – बड़े मुनि हैं , वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं । ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं । अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा , जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति – लाभ कर सकता है ।
तात्पर्य :- श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए षट्चक्रयोग की विधि का अनुमोदन कर चुके हैं , जिसमें प्राण को भौहों के मध्य स्थिर करना होता है । यह मानकर कि हो सकता है अर्जुन को षट्चक्रयोग अभ्यास न आता हो , कृष्ण अगले श्लोकों में इसकी विधि बताते हैं । भगवान् कहते हैं कि ब्रह्म यद्यपि अद्वितीय है , किन्तु उसके अनेक स्वरूप होते हैं । विशेषतया निर्विशेषवादियों के लिए अक्षर या ओंकार ब्रह्म है ।
कृष्ण यहाँ पर निर्विशेष ब्रह्म के विषय में बता रहे हैं जिसमें संन्यासी प्रवेश करते हैं । ज्ञान की वैदिक पद्धति में छात्रों को प्रारम्भ से गुरु के पास रहने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए ओंकार का उच्चारण तथा परम निर्विशेष ब्रह्म की शिक्षा दी जाती है । इस प्रकार वे ब्रह्म के दो स्वरूपों से परिचित होते हैं ।
यह प्रथा छात्रों के आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए अत्यावश्यक है , किन्तु इस समय ऐसा ब्रह्मचर्य जीवन ( अविवाहित जीवन ) बिता पाना विल्कुल सम्भव नहीं है । विश्व का सामाजिक ढाँचा इतना बदल चुका है कि छात्र जीवन के प्रारम्भ से ब्रह्मचर्य जीवन विताना संभव नहीं है । यद्यपि विश्व में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के लिए अनेक संस्थाएँ हैं , किन्तु ऐसी मान्यता प्राप्त एक भी संस्था नहीं है जहाँ ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों में शिक्षा प्रदान की जा सके ।
ब्रह्मचर्य के विना आध्यात्मिक जीवन में उन्नति कर पाना अत्यन्त कठिन है । अतः इस कलियुग के लिए शास्त्रों के आदेशानुसार भगवान् चैतन्य ने घोषणा की है कि भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे के जप के अतिरिक्त परमेश्वर के साक्षात्कार का कोई अन्य उपाय नहीं है ।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥ १२ ॥
सर्व-द्वाराणि – शरीर के समस्त द्वारों को ; संयम्य – वश में करके ; मनः – मन को ; हृदि – हृदय में ; निरुध्य – वन्द कर ; च – भी ; मूर्ध्नि – सिर पर ; आधाय – स्थिर करके ; आत्मन: – अपने ; प्राणम् – प्राणवायु को ; आस्थितः – स्थित ; योग-धारणाम् – योग की स्थिति ।
समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति ( योगधारणा ) कहा जाता है । इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में बताई गई विधि से योगाभ्यास के लिए सबसे पहले इन्द्रियभोग के सारे द्वार वन्द करने होते हैं । यह प्रत्याहार अथवा इन्द्रियविषयों से इन्द्रियों को हटाना कहलाता है । इसमें ज्ञानेन्द्रियों – नेत्र , कान , नाक , जीभ तथा स्पर्श को पूर्णतया वश में करके उन्हें इन्द्रियतृप्ति में लिप्त होने नहीं दिया जाता ।
इस प्रकार मन हृदय में स्थित परमात्मा पर केन्द्रित होता है और प्राणवायु को सिर के ऊपर तक चढ़ाया जाता है । इसका विस्तृत वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है । किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है अव यह विधि व्यावहारिक नहीं है । सबसे उत्तम विधि तो कृष्णभावनामृत है । यदि कोई भक्ति में अपने मन को कृष्ण में स्थिर करने में समर्थ होता है , तो उसके लिए अविचलित दिव्य समाधि में बने रहना सुगम हो जाता है ।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ १३ ॥
ॐ – ओंकार ; इति – इस तरह ; एक-अक्षरम् – एक अक्षर ; ब्रह्म – परब्रह्म का ; व्याहरन् – उच्चारण करते हुए ; माम् – मुझको ( कृष्ण को ) ; अनुस्मरन् – स्मरण करते हुए ; यः – जो ; प्रयाति – जाता है ; त्यजन् – छोड़ते हुए ; देहम् – इस शरीर को ; सः – वह ; याति – प्राप्त करता है ; परमाम् – परम ; गतिम् – गन्तव्य , लक्ष्य ।
इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान् का चिन्तन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है , तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है।
तात्पर्य :- यहाँ स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि ओम् , ब्रह्म तथा भगवान् कृष्ण परस्पर भिन्न नहीं हैं । ओम् , कृष्ण की निर्विशेष ध्वनि है , लेकिन हरे कृष्ण में यह ओम् सन्निहित है । इस युग के लिए हरे कृष्ण मन्त्र जप की स्पष्ट संस्तुति है । अतः यदि कोई- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे- इस मन्त्र का जप करते हुए शरीर त्यागता है तो वह अपने अभ्यास के गुणानुसार आध्यात्मिक लोकों में से किसी एक लोक को जाता है । कृष्ण के भक्त कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन को जाते हैं । सगुणवादियों के लिए आध्यात्मिक आकाश में अन्य अनेक लोक हैं , जिन्हें वैकुण्ठ लोक कहते हैं , किन्तु निर्विशेषवादी तो ब्रह्मज्योति में ही रह जाते हैं ।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ १४ ॥
अनन्य-चेताः – अविचलित मन से ; सततम् – सदैव ; यः – जो ; माम् – मुझ ( कृष्ण ) को ; स्मरति – स्मरण करता है ; नित्यशः – नियमित रूप से ; तस्य – उस ; अहम् – मैं हूँ ; सु-लभः – सुलभ , सरलता से प्राप्य ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; नित्य – नियमित रूप से ; युक्तस्य – लगे हुए ; योगिनः – भक्त के लिए ।
हे अर्जुन ! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ , क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में उन निष्काम भक्तों द्वारा प्राप्तव्य अन्तिम गन्तव्य का वर्णन है जो भक्तियोग के द्वारा भगवान् की सेवा करते हैं । पिछले श्लोकों में चार प्रकार के भक्तों का वर्णन हुआ है – आर्त , जिज्ञासु , अर्थार्थी तथा ज्ञानी । मुक्ति की विभिन्न विधियों का भी वर्णन हुआ है – कर्मयोग , ज्ञानयोग तथा हठयोग ।
इन योग पद्धतियों के नियमों में कुछ न कुछ भक्ति मिली रहती है , लेकिन इस श्लोक में शुद्ध भक्तियोग का वर्णन है , जिसमें ज्ञान , कर्म या हठ का मिश्रण नहीं होता । जैसा कि अनन्यचेताः शब्द से सूचित होता है , भक्तियोग में भक्त कृष्ण के अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं करता । शुद्धभक्त न तो स्वर्गलोक जाना चाहता है , न ब्रह्मज्योति से तादात्म्य या मोक्ष या भववन्धन से मुक्ति ही चाहता है ।
शुद्धभक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता । चेतन्यचरितामृत में शुद्धभक्त को निष्काम कहा गया है । उसे ही पूर्णशान्ति का लाभ होता है , उन्हें नहीं जो स्वार्थ में लगे रहते हैं । एक ओर जहाँ ज्ञानयोगी , कर्मयोगी या हठयोगी का अपना – अपना स्वार्थ रहता है , वहीं पूर्णभक्त में भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं होती ।
अतः भगवान् कहते हैं कि जो एकनिष्ठ भाव से उनकी भक्ति में लगा रहता है , उसे वे सरलता से प्राप्त होते हैं । शुद्धभक्त सदैव कृष्ण के विभिन्न रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है । कृष्ण के अनेक स्वांश तथा अवतार हैं , यथा राम तथा नृसिंह जिनमें से भक्त किसी एक रूप को चुनकर उसकी प्रेमाभक्ति में मन को स्थिर कर सकता है ।
ऐसे भक्त को उन अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता , जो अन्य योग के अभ्यासकर्ताओं को झेलनी पड़ती हैं । भक्तियोग अत्यन्त सरल , शुद्ध तथा सुगम है । इसका शुभारम्भ हरे कृष्ण जप से किया जा सकता है । भगवान् सबों पर कृपालु हैं , किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करते हैं वे उनके ऊपर विशेष कृपालु रहते हैं ।
भगवान् ऐसे भक्तों की सहायता अनेक प्रकार से करते हैं । जैसा कि वेदों में ( कठोपनिषद् १.२-२३ ) कहा गया है – यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् जिसने पूरी तरह से भगवान् की शरण ले ली है और जो उनकी भक्ति में लगा हुआ है वही भगवान् को यथारूप में समझ सकता है ।
तथा गीता में भी ( १०.१० ) कहा गया है- ददामि बुद्धियोगं तम्- ऐसे भक्त को भगवान् पर्याप्त बुद्धि प्रदान करते हैं , जिससे वह उन्हें भगवद्धाम में प्राप्त कर सके ।
शुद्धभक्त का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह देश अथवा काल का विचार किये बिना अनन्य भाव से कृष्ण का ही चिन्तन करता रहता है । उसको किसी तरह का व्यवधान नहीं होना चाहिए । उसे कहीं भी और किसी भी समय अपना सेवा कार्य करते रहने में समर्थ होना चाहिए ।
कुछ लोगों का कहना है कि भक्तों को वृन्दावन जैसे पवित्र स्थानों में , या किसी पवित्र नगर में , जहाँ भगवान् रह चुके हैं , रहना चाहिए , किन्तु शुद्धभक्त कहीं भी रहकर अपनी भक्ति से वृन्दावन जैसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है । श्री अद्वैत ने चैतन्य महाप्रभु से कहा था , ” आप जहाँ भी हैं , हे प्रभु ! वहीं वृन्दावन है । ”
जैसा कि सततम् तथा नित्यशः शब्दों से सूचित होता है , शुद्धभक्त निरन्तर कृष्ण का ही स्मरण करता है और उन्हीं का ध्यान करता है । ये शुद्धभक्त के गुण हैं , जिनके लिए भगवान् सहज सुलभ हैं । गीता समस्त योग पद्धतियों में से भक्तियोग की ही संस्तुति करती है ।
सामान्यतया भक्तियोगी पाँच प्रकार से भक्ति में लगे रहते हैं- ( १ ) शान्त भक्त , जो उदासीन रहकर भक्ति में युक्त होते हैं , ( २ ) दास्य भक्त , जो दास के रूप में भक्ति में युक्त होते हैं , ( ३ ) सख्य भक्त , जो सखा रूप में भक्ति में युक्त होते हैं , ( ४ ) वात्सल्य भक्त , जो माता – पिता की भाँति भक्ति में युक्त होते हैं तथा ( ५ ) माधुर्य भक्त , जो परमेश्वर के साथ दाम्पत्य प्रेमी की भाँति भक्ति में युक्त होते हैं ।
शुद्धभक्त इनमें से किसी में भी परमेश्वर की प्रेमाभक्ति में युक्त होता है और उन्हें कभी नहीं भूल पाता , जिससे भगवान् उसे सरलता से प्राप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार शुद्धभक्त क्षणभर के लिए भी भगवान् को नहीं भूलता , उसी प्रकार भगवान् भी अपने शुद्धभक्त को क्षणभर के लिए भी नहीं भूलते । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस महामन्त्र के कीर्तन की कृष्णभावनाभावित विधि का यही सबसे बड़ा आशीर्वाद है ।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ १५ ॥
माम् – मुझको ; उपेत्य – प्राप्त करके ; पुनः – फिर ; जन्म – जन्म ; दुःख-आलयम् – दुखों के स्थान को ; अशाश्वतम् – क्षणिक ; न – कभी नहीं ; आप्नुवन्ति – प्राप्त करते हैं ; महा-आत्मानः – महान पुरुष ; संसिद्धिम् – सिद्धि को ; परमाम् – परम ; गताः – प्राप्त हुए ।
मुझे प्राप्त करके महापुरुष , जो भक्तियोगी हैं , कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते , क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है ।
तात्पर्य :- चूँकि यह नश्वर जगत् जन्म , जरा तथा मृत्यु के क्लेशों से पूर्ण है , अतः जो परम सिद्धि प्राप्त करता है और परमलोक कृष्णलोक या गोलीक वृन्दावन को प्राप्त होता है , वह वहाँ से कभी वापस नहीं आना चाहता । इस परमलोक को वेदों में अव्यक्त , अक्षर तथा परमा गति कहा गया है ।
दूसरे शब्दों में , यह लोक हमारी भौतिक दृष्टि से परे है । और अवर्णनीय है , किन्तु यह चरमलक्ष्य है , जो महात्माओं का गन्तव्य है । महात्मा अनुभवसिद्ध भक्तों से दिव्य सन्देश प्राप्त करते हैं और इस प्रकार वे धीरे – धीरे कृष्णभावनामृत में भक्ति विकसित करते हैं और दिव्यसेवा में इतने लीन हो जाते हैं कि वे न तो किसी भौतिक लोक में जाना चाहते हैं , यहाँ तक कि न ही वे किसी आध्यात्मिक लोक में जाना चाहते हैं ।
वे केवल कृष्ण तथा कृष्ण का सामीप्य चाहते हैं , अन्य कुछ नहीं । यही जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि है । इस श्लोक में भगवान् कृष्ण के सगुणवादी भक्तों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है । ये भक्त कृष्णभावनामृत में जीवन की परमसिद्धि प्राप्त करते हैं । दूसरे शब्दों में , वे सर्वोच्च आत्माएँ हैं ।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥
आ-ब्रह्म-भुवनात् – ब्रह्मलोक तक ; लोका: – सारे लोक ; पुनः – फिर ; आवर्तिनः – लौटने वाले ; अर्जुन – हे अर्जुन ; माम् – मुझको ; उपेत्य – पाकर ; तु – लेकिन ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; पुनः जन्म – पुनर्जन्म ; न – कभी नहीं ; विद्यते – होता है ।
इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं , जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है । किन्तु हे कुन्तीपुत्र ! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है , वह फिर कभी जन्म नहीं लेता ।
तात्पर्य :- समस्त योगियों को चाहे वे कर्मयोगी हों , ज्ञानयोगी या हठयोगी – अन्ततः भक्तियोग या कृष्णभावनामृत में भक्ति की सिद्धि प्राप्त करनी होती है , तभी वे कृष्ण के दिव्य धाम को जा सकते हैं , जहाँ से वे फिर कभी वापस नहीं आते ।
किन्तु जो सर्वोच्च भौतिक लोकों अर्थात् देवलोकों को प्राप्त होता है , उसका पुनर्जन्म होता रहता है । जिस प्रकार इस पृथ्वी के लोग उच्चलोकों को जाते हैं , उसी तरह ब्रह्मलोक , चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोक जैसे उच्चतर लोकों से लोग पृथ्वी पर गिरते रहते हैं । छान्दोग्य उपनिषद् में जिस पंचाग्नि विद्या का विधान है , उससे मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है , किन्तु
यदि ब्रह्मलोक में वह कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं करता , तो उसे पृथ्वी पर फिर से लौटना पड़ता है । जो उच्चतर लोकों में कृष्णभावनामृत में प्रगति करते हैं , वे क्रमशः और ऊपर जाते रहते हैं और प्रलय के समय वे नित्य परमधाम को भेज दिये जाते हैं । श्रीधर स्वामी ने अपने भगवद्गीता भाष्य में यह श्लोक उद्धृत किया है
ब्रह्मणा सह ते सर्व सम्प्राप्ते प्रतिसञ्चरे ।
परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम् ॥
“ जब इस भौतिक ब्रह्माण्ड का प्रलय होता है , तो ब्रह्मा तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर प्रवृत्त उनके भक्त अपनी इच्छानुसार आध्यात्मिक ब्रह्माण्ड को तथा विशिष्ट वैकुण्ठ लोकों को भेज दिये जाते हैं । ”
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ १७ ॥
सहस्त्र – एक हजार ; युग – युग ; पर्यन्तम् – सहित ; अहः – दिन ; यत् – जो ; ब्रह्मणः – ब्रह्मा का ; विदुः – वे जानते हैं ; रात्रिम् – रात्रि ; युग – युग ; सहस्रान्ताम् – इसी प्रकार एक हजार वाद समाप्त होने वाली ; ते – वे ; अहः-रात्र – दिन-रात ; विदः – जानते हैं ; जनाः – लोग ।
मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है । और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है ।
तात्पर्य :- भौतिक ब्रह्माण्ड की अवधि सीमित है । यह कल्पों के चक्र रूप में प्रकट होती है । यह कल्प ब्रह्मा का एक दिन है जिसमें चतुर्युग – सत्य , त्रेता , द्वापर तथा कलि- के एक हजार चक्र होते हैं । सतयुग में सदाचार , ज्ञान तथा धर्म का बोलवाला रहता है । और अज्ञान तथा पाप का एक तरह से नितान्त अभाव होता है ।
यह युग १७,२८,००० वर्षों तक चलता है । त्रेता युग में पापों का प्रारम्भ होता है और यह युग १२ , ९ ६,००० वर्षों तक चलता है । द्वापर युग में सदाचार तथा धर्म का हास होता है और पाप बढ़ते हैं । यह युग ८,६४,००० वर्षों तक चलता है । सबसे अन्त में कलियुग ( जिसे हम विगत ५ हजार वर्षों से भोग रहे हैं ) आता है जिसमें कलह , अज्ञान , अधर्म तथा पाप का प्राधान्य रहता है और सदाचार का प्रायः लोप हो जाता है ।
यह युग ४,३२,००० वर्षों तक चलता है । इस युग में पाप यहाँ तक बढ़ जाते हैं कि इस युग के अन्त में भगवान् स्वयं कल्कि अवतार धारण करते हैं , असुरों का संहार करते हैं , भक्तों की रक्षा करते हैं और दूसरे सतयुग का शुभारम्भ होता है । इस तरह यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है । ये चारों युग एक सहस्र चक्र कर लेने पर ब्रह्मा के एक दिन के तुल्य होते हैं ।
इतने ही वर्षों की उनकी एक रात्रि होती है । ब्रह्मा ऐसे एक सौ वर्ष जीवित रहते हैं और तब उनकी मृत्यु होती है । ब्रह्मा के ये १०० वर्ष गणना के अनुसार पृथ्वी के ३१,१०,४०,००,००,००,००० वर्ष के तुल्य हैं । इन गणनाओं से ब्रह्मा की आयु अत्यन्त विचित्र तथा न समाप्त होने वाली लगती है , किन्तु नित्यता की दृष्टि से यह बिजली की चमक जैसी अल्प है ।
कारणार्णव में असंख्य ब्रह्मा अटलांटिक सागर में पानी के बुलबुलों के समान प्रकट होते और लोप होते रहते हैं । ब्रह्मा तथा उनकी सृष्टि भौतिक ब्रह्माण्ड के अंग हैं , फलस्वरूप निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं । इस भौतिक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा भी जन्म , जरा , रोग तथा मरण की क्रिया से अछूते नहीं हैं । किन्तु चूँकि ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करते हैं , इसीलिए वे भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा में लगे रहते हैं ।
फलस्वरूप उन्हें तुरन्त मुक्ति प्राप्त हो जाती है । यहाँ तक कि सिद्ध संन्यासियों को भी ब्रह्मलोक भेजा जाता है , जो इस ब्रह्माण्ड का सर्वोच्च लोक है । किन्तु कालक्रम से ब्रह्मा तथा ब्रह्मलोक के सारे वासी प्रकृति के नियमानुसार मरणशील होते हैं ।
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
राज्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ १८ ॥
अव्यक्तात् – अव्यक्त से ; व्यक्तयः – जीव ; सर्वाः – सारे ; प्रभवन्ति – प्रकट होते हैं ; अहः-आगमे – दिन होने पर ; रात्रि-आगमे – रात्रि आने पर ; प्रलीयन्ते – विनष्ट हो जाते हैं ; तत्र – उसमें ; एव – निश्चय ही ; अव्यक्त – अप्रकट ; संज्ञके – नामक , कहे जाने वाले ।
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं ।
भूतग्रामः स भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ १९ ॥
भूत-ग्रामः – समस्त जीवों का समूह ; सः – वही ; एव – निश्चय ही ; अयम् – यह ; भूत्वा भूत्वा – बारम्बार जन्म लेकर ; प्रलीयते – विनष्ट हो जाता है ; रात्रि – रात्रि के ; आगमे – आने पर ; अवशः – स्वतः ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; प्रभवति – प्रकट होता है ; अहः – दिन ; आगमे – आने पर ।
जब – जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं ।
तात्पर्य :- अल्पज्ञानी पुरुष , जो इस भौतिक जगत् में बने रहना चाहते हैं , उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते हैं , किन्तु उन्हें पुनः इस धरालोक पर आना होता है । वे ब्रह्मा का दिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तथा निम्नतर लोकों में अपने कार्यों का प्रदर्शन करते हैं , किन्तु ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे विनष्ट हो जाते हैं ।
दिन में उन्हें भौतिक कार्यों के लिए नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं , किन्तु रात्रि के होते ही उनके शरीर विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं । वे पुनः ब्रह्मा का दिन आने पर प्रकट होते हैं । भूत्वा भूत्वा प्रलीयते – दिन के समय वे प्रकट होते हैं और रात्रि के समय पुनः विनष्ट हो जाते हैं । अन्ततोगत्वा जब ब्रह्मा जीवन समाप्त होता है , तो उन सबका संहार हो जाता है और वे करोड़ों वर्षों तक अप्रकट रहते हैं ।
अन्य कल्प में ब्रह्मा का पुनर्जन्म होने पर चे पुनः प्रकट होते हैं । इस प्रकार वे भौतिक जगत् के जादू से मोहित होते रहते हैं । किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति कृष्णभावनामृत स्वीकार करते हैं , वे इस मनुष्य जीवन का उपयोग भगवान् की भक्ति करने में तथा हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन में विताते हैं । इस प्रकार वे इसी जीवन में कृष्णलोक को प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्त होकर सतत आनन्द का अनुभव करते हैं ।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ २० ॥
परः – परम ; तस्मात् – उस ; तु – लेकिन ; भावः – प्रकृति ; अन्य: – दूसरी ; अव्यक्तः – अव्यक्त ; अव्यक्तात् – अव्यक्त से ; सनातनः – शाश्वत ; यः सः – वह जो ; सर्वेषु – समस्त ; भूतेषु – जीवों के ; नश्यत्सु – नाश होने पर ; न – कभी नहीं ; विनश्यति – विनष्ट होती है ।
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है , जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है । यह परा ( श्रेष्ठ ) और कभी नाश न होने वाली है । जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है , तब भी उसका नाश नहीं होता ।
तात्पर्य :- कृष्ण की पराशक्ति दिव्य और शाश्वत है । यह उस भौतिक प्रकृति के समस्त परिवर्तनों से परे है , जो ब्रह्मा के दिन के समय व्यक्त और रात्रि के समय विनष्ट होती रहती हैं । कृष्ण की पराशक्ति भौतिक प्रकृति के गुण से सर्वथा विपरीत है । परा तथा अपरा प्रकृति की व्याख्या सातवें अध्याय में हुई है ।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ २१ ॥
अव्यक्तः – अप्रकट ; अक्षर: – अविनाशी ; इति – इस प्रकार ; उक्त: – कहा गया ; तम् – उसको ; आहु: – कहा जाता है ; परमाम् – परम ; गतिम् – गन्तव्य ; यम् – जिसको ; प्राप्य – प्राप्त करके ; न – कभी नहीं ; निवर्तन्ते – वापस आते हैं ; तत् – वह ; धाम – निवास ; परमम् – परम ; मम – मेरा ।
जिसे वेदान्ती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं , जो परम गन्तव्य है , जिसे प्राप्तः कर लेने पर कोई वापस नहीं आता , वही मेरा परमधाम है ।
तात्पर्य :- ब्रह्मसंहिता में भगवान् कृष्ण के परमधाम को चिन्तामणि धाम कहा गया है , जो ऐसा स्थान है जहाँ सारी इच्छाएँ पूरी होती हैं । भगवान् कृष्ण का परमधाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और वह पारसमणि से निर्मित प्रासादों से युक्त है । वहाँ पर वृक्ष भी हैं , जिन्हें कल्पतरु कहा जाता है , जो इच्छा होने पर किसी भी तरह का खाद्य पदार्थ प्रदान करने वाले हैं ।
वहाँ गौएँ भी हैं , जिन्हें सुरभि गोएँ कहा जाता है और वे अनन्त दुग्ध देने वाली हैं । इस धाम में भगवान् की सेवा के लिए लाखों लक्ष्मियाँ हैं । वे आदि भगवान् गोविन्द तथा समस्त कारणों के कारण कहलाते हैं । भगवान् वंशी बजाते रहते हैं ( वेणुं कणन्तम् ) । उनका दिव्य स्वरूप समस्त लोकों में सर्वाधिक आकर्षक है , उनके नेत्र कमलदलों के समान हैं और उनका शरीर मेघों के वर्ण का है ।
वे इतने रूपवान हैं कि उनका सौन्दर्य हजारों कामदेवों को मात करता है । वे पीत वस्त्र करते हैं , उनके गले में माला रहती है और केशों में मोरपंख लगे रहते हैं । भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण अपने निजी धाम , गोलोक वृन्दावन का संकेत मात्र करते हैं , जो आध्यात्मिक जगत् में सर्वश्रेष्ठ लोक है । इसका विशद वृत्तान्त ब्रह्मसंहिता में मिलता है ।
वैदिक ग्रंथ ( कठोपनिषद् १.३.११ ) बताते हैं कि भगवान् का धाम सर्वश्रेष्ठ है और यही परमधाम हे ( पुरुषात्र परं किञ्चित्सा काष्ठा परमा गतिः ) । एक बार वहाँ पहुँच कर फिर से भौतिक संसार में वापस नहीं आना होता कृष्ण का परमधाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं , क्योंकि वे दोनों एक से गुण वाले हैं । आध्यात्मिक आकाश में स्थित इस गोलोक वृन्दावन की प्रतिकृति ( वृन्दावन ) इस पृथ्वी पर दिल्ली से ९ ० मील दक्षिण – पूर्व स्थित है ।
जब कृष्ण ने इस पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था , तो उन्होंने इसी भूमि पर , जिसे वृन्दावन कहते हैं और जो भारत में मथुरा जिले के चौरासी वर्गमील में फैला हुआ है , क्रीड़ा की थी ।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥ २२ ॥
पुरुष: – परमपुरुष ; सः – वह ; परः – परम, जिनसे बढ़कर कोई नहीं है ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; भक्त्या – भक्ति के द्वारा ; लभ्यः – प्राप्त किया जा सकता है ; तु – लेकिन ; अनन्यया – अनन्य , अविचल ; यस्य – जिसके ; अन्तः-स्थानि – भीतर ; भूतानि – यह सारा जगत ; येन – जिनके द्वारा ; सर्वम् – समस्त ; इदम् – जो कुछ हम देख सकते हैं ; ततम् – व्याप्त है ।
भगवान् , जो सबसे महान हैं , अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं । यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं , तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है ।
तात्पर्य :- यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि जिस परमधाम से फिर लोटना नहीं होता , वह परमपुरुष कृष्ण का धाम है । ब्रह्मसंहिता में इस परमधाम को आनन्दचिन्मय रस कहा गया है जो ऐसा स्थान है जहाँ सभी वस्तुएँ परम आनन्द से पूर्ण हैं । जितनी भी विविधता प्रकट होती है वह सब इसी परमानन्द का गुण है – वहाँ कुछ भी भौतिक नहीं है ।
यह विविधता भगवान् के विस्तार के साथ ही विस्तृत होती जाती है , क्योंकि वहाँ की सारी अभिव्यक्ति पराशक्ति के कारण है , जैसा कि सातवें अध्याय में बताया गया है । जहाँ तक इस भौतिक जगत् का प्रश्न है , यद्यपि भगवान् अपने धाम में ही सदैव रहते है , तो भी वे अपनी भौतिक शक्ति ( माया ) द्वारा सर्वव्याप्त हैं ।
इस प्रकार वे अपनी परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वत्र भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ब्रह्माण्डों में उपस्थित रहते हैं । यस्यान्तः स्थानि का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु उनमें या उनकी परा या अपरा शक्ति में निहित है । इन्हीं दोनों शक्तियों के द्वारा भगवान् सर्वव्यापी हैं ।
कृष्ण के परमधाम में या असंख्य वैकुण्ठ लोकों में भक्ति के द्वारा ही प्रवेश सम्भव है , जैसा कि भक्त्या शब्द द्वारा सूचितं होता है । किसी अन्य विधि से परमधाम की प्राप्ति सम्भव नहीं है ।
वेदों में ( गोपाल – तापनी उपनिषद् ३.२ ) भी परमधाम तथा भगवान् का वर्णन मिलता है । एको वशी सर्वगः कृष्णः । उस धाम में केवल एक भगवान् रहता है , जिसका नाम कृष्ण है । वह अत्यन्त दयालु विग्रह है और एक रूप में स्थित होकर भी वह अपने को लाखों स्वांशों में विस्तृत करता रहता है ।
वेदों में भगवान् की उपमा उस शान्त वृक्ष से दी गई है , जिसमें नाना प्रकार के फूल तथा फल लगे हैं और जिसकी पत्तियाँ निरन्तर बदलती रहती हैं ।
बैकुण्ठ लोक की अध्यक्षता करने वाले भगवान् के स्वांश चतुर्भुजी हैं और विभिन्न नामों से विख्यात है- पुरुषोत्तम , त्रिविक्रम , केशव , माधव , अनिरुद्ध , हृषीकेश , संकर्षण , प्रद्युम्न , श्रीधर , वासुदेव , दामोदर , जनार्दन , नारायण , वामन , पद्मनाभ आदि ।
ब्रह्मसंहिता में ( ५.३७ ) भी पुष्टि हुई है कि यद्यपि भगवान् निरन्तर परमधाम गोलोक वृन्दावन में रहते हैं , किन्तु वे सर्वव्यापी हैं ताकि सब कुछ सुचारु रूप से चलता रहे ( गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः ) ।
वेदों में ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.८ ) कहा गया है परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते । स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च – उनकी शक्तियाँ इतनी व्यापक हैं कि वे परमेश्वर के दूरस्थ होते हुए भी दृश्यजगत में बिना किसी त्रुटि के सब कुछ सुचारु रूप से संचालित करती रहती हैं ।