भगवद गीता अध्याय 8.1 || ब्रह्म,अध्यात्म,अर्जुन के सात प्रश्न उत्तर || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय आठ  (Chapter -8)

भगवद गीता अध्याय 8.1 में  शलोक 01 से  शलोक 07  तक ब्रह्म, अध्यात्म और  कर्मादि  के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर !

भगवत्प्राप्ति

अर्जुन उवाच

किं  तद्ब्रह्म  किमध्यात्मं  किं   कर्म  पुरुषोत्तम ।

अधिभूतं    च  किं   प्रोक्तमधिदैवं   किमुच्यते ॥ १ ॥ 

अर्जुनः उवाच  –  अर्जुन ने कहा  ;   किम्  –   क्या  ;   तत्  –  वह  ;   ब्रह्म  –  ब्रह्म  ;   किम्  –  क्या ;  अध्यात्मम्   –  आत्मा   ; किम्  –   क्या   ;  कर्म   –  सकाम कर्म  ;  पुरुष-उत्तम   –   हे परमपुरुष  ;   च  –  तथा  ;  अधि-भूतम्   –  भौतिक जगत्  ;  किम्  –  क्या   ;   प्रोक्तम्   –   कहलाता है   ; अघि-देवम्   –  देवतागण   ;   किम्  –  क्या   ;   उच्यते  –  कहलाता है  ।  

अर्जुन ने कहा- हे भगवान् ! हे पुरुषोत्तम ! ब्रह्म क्या है ? आत्मा क्या है ? सकाम कर्म क्या है ? यह भौतिक जगत् क्या है ? तथा देवता क्या है ? कृपा करके यह सब मुझे बताइये । 

तात्पर्य :- इस अध्याय में भगवान् कृष्ण अर्जुन के द्वारा पूछे गये , ” ब्रह्म क्या है ? ” आदि प्रश्नों का उत्तर देते हैं । भगवान् कर्म , भक्ति तथा योग और शुद्ध भक्ति की भी व्याख्या करते हैं । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि परम सत्य ब्रह्म , परमात्मा तथा भगवान् के  नाम से जाना जाता है । साथ ही जीवात्मा या जीव को ब्रह्म भी कहते हैं ।

अर्जुन आत्मा के विषय में भी पूछता है , जिससे शरीर , आत्मा तथा मन का बोध होता है । वैदिक कोश ( निरुक्त ) के अनुसार आत्मा का अर्थ मन , आत्मा , शरीर तथा इन्द्रियाँ भी होता है । अर्जुन ने परमेश्वर को पुरुषोत्तम या परम पुरुष कहकर सम्बोधित किया है , जिसका अर्थ यह होता है कि वह ये सारे प्रश्न अपने एक मित्र से नहीं , अपितु परमपुरुष से , उन्हें परम प्रमाण मानकर , पूछ रहा था , जो निश्चित उत्तर दे सकते थे । 

अधियज्ञः   कथं   कोऽत्र   देहेऽस्मिन्मधुसूदन । 

प्रयाणकाले  च  कथं  ज्ञेयोऽसि  नियतात्मभिः ॥ २ ॥ 

अधिवज्ञः  –  यज्ञ का स्वामी   ;   कथम्  –  किस तरह  ;  कः  –  कौन   ;   अत्र  – यहाँ  ;   देहे  – शरीर में  ;   अस्मिन्  –  इस  ;  मधुसूदन  –  हे मधुसूदन  ;  प्रयाण-काले   –   मृत्यु के समय  ;   च  –   तथा  ;  कथम्  –  कैसे   ;   ज्ञेयः असि  –  जाने जा सकते हो   ;   नियत-आत्मभिः  – आत्मसंयमी के द्वारा । 

हे मधुसूदन ! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है ? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं ? 

तात्पर्य : – अधियज्ञ का तात्पर्य इन्द्र या विष्णु हो सकता है । विष्णु समस्त देवताओं में , जिनमें ब्रह्मा तथा शिव सम्मिलित हैं , प्रधान देवता हैं और इन्द्र प्रशासक देवताओं में प्रधान हैं । इन्द्र तथा विष्णु दोनों की पूजा यज्ञ द्वारा की जाती है । किन्तु अर्जुन प्रश्न करता है कि वस्तुतः यज्ञ का स्वामी कौन है और भगवान् किस तरह जीव के शरीर के भीतर निवास करते हैं ?

अर्जुन ने भगवान् को मधुसूदन कहकर सम्बोधित किया क्योंकि कृष्ण ने एक बार मधु नामक असुर का वध किया था । वस्तुतः ये सारे प्रश्न , जो शंका के रूप में हैं , अर्जुन के मन में नहीं उठने चाहिए थे , क्योंकि अर्जुन एक कृष्णभावनाभावित भक्त था । अतः ये सारी शंकाएँ असुरों के सदृश हैं ।

चूँकि कृष्ण असुरों के मारने में सिद्धहस्त थे , अतः अर्जुन उन्हें मधुसूदन कहकर सम्बोधित करता है , जिससे कृष्ण उस के मन में उठने वाली समस्त आसुरी शंकाओं को नष्ट कर दें ।

इस श्लोक का प्रयाणकाले शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि अपने जीवन में हम जो भी करते हैं , उसकी परीक्षा मृत्यु के समय होनी है । अर्जुन उन लोगों के विषय में जो निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगे रहते हैं यह जानने के लिए अत्यन्त इच्छुक है कि अन्त समय उनकी क्या दशा होगी ? मृत्यु के समय शरीर के सारे कार्य रुक जाते हैं और मन सही दशा में नहीं रहता ।

इस प्रकार शारीरिक स्थिति बिगड़ जाने से हो सकता है कि मनुष्य परमेश्वर का स्मरण न कर सके । परम भक्त महाराज कुलशेखर प्रार्थना करते हैं ,

” हे भगवान् ! इस समय में पूर्ण स्वस्थ हूँ । अच्छा हो कि मेरी मृत्यु इसी समय हो जाय जिससे मेरा मन रूपी हंस आपके चरणकमलोंरूपी नाल के भीतर प्रविष्ट हो सके । ”

यह रूपक इसलिए प्रयुक्त किया गया है क्योंकि हंस , जो एक जल पक्षी है , वह कमल के पुष्पों को कुतरने में आनन्द का अनुभव करता है , इस तरह वह कमलपुष्प के भीतर प्रवेश करना चाहता है । महाराज कुलशेखर भगवान् से कहते हैं ,

” इस समय मेरा मन स्वस्थ है और में भी पूरी तरह स्वस्थ हूँ । यदि में आपके चरणकमलों का चिन्तन करते हुए तुरन्त मर जाऊँ तो मुझे विश्वास है कि आपके प्रति मेरी भक्ति पूर्ण हो जायेगी , किन्तु यदि मुझे अपनी सहज मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़े तो मैं नहीं जानता कि क्या होगा क्योंकि उस समय मेरा शरीर कार्य करना बन्द कर देगा , मेरा गला रुँध जायेगा और मुझे पता नहीं कि मैं आपके नाम का जप कर पाऊँगा या नहीं । अच्छा यही होगा कि मुझे तुरन्त मर जाने दें । ”

अर्जुन प्रश्न करता है कि ऐसे समय मनुष्य किस तरह कृष्ण के चरणकमलों में अपने मन को स्थिर कर सकता है ? 

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं  ब्रह्म  परमं   स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।

भूतभावोद्भवकरो     विसर्गः    कर्मसंज्ञितः ॥ ३ ॥ 

श्रीभगवान्   उवाच   –  भगवान् ने कहा   ;   अक्षरम्   –  अविनाशी  ;   ब्रह्म   –  ब्रह्म   ;   परमम्  – दिव्य   ;   स्वभाव:   –  सनातन प्रकृति  ;   अध्यात्मम्  –आत्मा   ;   उच्यते   –  कहलाता है  ;  भूत-भाव-उद्भव-कर:   –   जीवों के भौतिक शरीर को उत्पन्न करने वाला   ;   विसर्गः   –   सृष्टि  ;   कर्म  – सकाम कर्म   ;  संज्ञितः   –  कहलाता है  । 

भगवान् ने कहा- अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है । जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है । 

तात्पर्य :-  ब्रह्म अविनाशी तथा नित्य है और इसका विधान कभी भी नहीं बदलता । किन्तु ब्रह्म से भी परे परब्रह्म होता है । ब्रह्म का अर्थ है जीव तथा परब्रह्म का अर्थ भगवान् है । जीव का स्वरूप भौतिक जगत् में उसकी स्थिति से भिन्न होता है । भौतिक चेतना में उसका स्वभाव पदार्थ पर प्रभुत्व जताना है , किन्तु आध्यात्मिक चेतना या कृष्णभावनामृत में उसकी स्थिति परमेश्वर की सेवा करना है ।

जब जीव भौतिक चेतना में होता है तो उसे इस संसार में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं । यह भौतिक चेतना के कारण कर्म अथवा विविध सृष्टि कहलाता है । वैदिक साहित्य में जीव को जीवात्मा तथा ब्रह्म कहा जाता है , किन्तु उसे कभी परब्रह्म नहीं कहा जाता ।

जीवात्मा विभिन्न स्थितियाँ ग्रहण करता है – कभी वह अन्धकार पूर्ण भौतिक प्रकृति से मिल जाता है और पदार्थ को अपना स्वरूप मान लेता है तो कभी वह परा आध्यात्मिक प्रकृति के साथ मिल जाता है ।

इसीलिए वह परमेश्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है । भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के साथ अपनी पहचान के अनुसार ही उसे भौतिक या आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है ।

भौतिक प्रकृति में वह चौरासी लाख योनियों में से कोई भी शरीर धारण कर सकता है , किन्तु आध्यात्मिक प्रकृति में उसका एक ही शरीर होता है । भौतिक प्रकृति में वह अपने कर्म के अनुसार कभी मनुष्य रूप में प्रकट होता है तो कभी देवता , पशु , पक्षी आदि के रूप में प्रकट होता है ।

स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा वहाँ का सुख भोगने की इच्छा से वह कभी – कभी यज्ञ सम्पन्न करता है , किन्तु जब उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पुनः मनुष्य रूप में पृथ्वी पर वापस आ जाता है । यह प्रक्रिया कर्म कहलाती है । छांदोग्य उपनिषद् में वैदिक यज्ञ – अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है ।

यज्ञ की वेदी में पाँच अग्नियों को पाँच प्रकार की आहुतियाँ दी जाती हैं । ये पाँच अग्नियाँ स्वर्गलोक , बादल , पृथ्वी , मनुष्य तथा स्त्री रूप मानी जाती हैं और श्रद्धा , सोम , वर्षा , अन्न तथा वीर्य ये पाँच प्रकार की आहुतियाँ हैं । यज्ञ प्रक्रिया में जीव अभीष्ट स्वर्गलोकों की प्राप्ति के लिए विशेष यज्ञ करता है । और उन्हें प्राप्त करता है ।

जब यज्ञ का पुण्य क्षीण हो जाता है तो जीव पृथ्वी पर वर्षा के रूप में उतरता है और अन्न का रूप ग्रहण करता है । इस अन्न को मनुष्य खाता है जिससे यह बीर्य में परिणत होता है जो स्त्री के गर्भ में जाकर फिर से मनुष्य का रूप धारण करता है । यह मनुष्य पुनः यज्ञ करता है और पुनः वही चक्र चलता है ।

इस प्रकार जीव शाश्वत रीति से आता और जाता रहता है । किन्तु कृष्णभावनाभावित पुरुष ऐसे यज्ञों से दूर रहता है । वह सीधे कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है और इस प्रकार ईश्वर के पास वापस जाने की तैयारी करता है ।

भगवद्गीता के निर्विशेषवादी भाष्यकार बिना कारण के कल्पना करते हैं कि इस जगत् में ब्रह्म जीव का रूप धारण करता है और इसके समर्थन में वे गीता के पँद्रहवें अध्याय के सातवें श्लोक को उद्धृत करते हैं । किन्तु इस श्लोक में भगवान् जीव को “ मेरा शाश्वत अंश ” भी कहते हैं ।

भगवान् का यह अंश , जीव , भले ही भौतिक जगत् में आ गिरता है , किन्तु परमेश्वर ( अच्युत ) कभी नीचे नहीं गिरता । अतः यह विचार कि ब्रह्म जीव का रूप धारण करता है ग्राह्य नहीं है । यह स्मरण रखना होगा कि वैदिक साहित्य में ब्रह्म ( जीवात्मा ) को परब्रह्म ( परमेश्वर ) से पृथक् माना जाता है । 

अधिभूतं   क्षरो   भावः   पुरुषश्चाधिदैवतम् । 

अधियज्ञोऽहमेवात्र    देहे    देहभृतां     वर ॥ ४ ॥ 

अधिभूतम्   –  भौतिक जगत्  ;   क्षरः  –  निरन्तर परिवर्तनशील  ;   भावः  –  प्रकृति  ;   पुरुष:  –  सूर्य , चन्द्र जैसे समस्त देवताओं सहित विराट रूप   ;   च  –  तथा   ;   अधिदैवतम्   –  अधिदैव नामक   ;   अधियज्ञः  –  परमात्मा   ;   अहम्   –  मैं ( कृष्ण )   ;   एव  –  निश्चय ही  ;   अत्र  –  इस  ;   देहे  –  शरीर में   ;   देह-भृताम्   –  देहधारियों में   ;   वर  –  हे श्रेष्ठ । 

हे देहधारियों में श्रेष्ठ ! निरन्तर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत ( भौतिक अभिव्यक्ति ) कहलाती है । भगवान् का विराट रूप , जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं , अधिदैव कहलाता है । तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ ( यज्ञ का स्वामी ) कहलाता हूँ । 

तात्पर्य :- यह भौतिक प्रकृति निरन्तर परिवर्तित होती रहती है । सामान्यतः भौतिक शरीरों को छह अवस्थाओं से निकलना होता है – वे उत्पन्न होते हैं , वढ़ते हैं , कुछ काल तक रहते हैं , कुछ गौण पदार्थ उत्पन्न करते हैं , क्षीण होते हैं और अन्त में विलुप्त हो जाते हैं । यह भौतिक प्रकृति अधिभूत कहलाती है । यह किसी निश्चित समय में उत्पन्न की जाती है और किसी निश्चित समय में विनष्ट कर दी जाती है ।

परमेश्वर के विराट स्वरूप की धारणा , जिसमें सारे देवता तथा उनके लोक सम्मिलित हैं , अधिदैवत कहलाती है । प्रत्येक शरीर में आत्मा सहित परमात्मा का वास होता है , जो भगवान् कृष्ण का अंश स्वरूप है । यह परमात्मा अधियज्ञ कहलाता है और हृदय में स्थित होता है । इस श्लोक के प्रसंग में एवं शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि इसके द्वारा भगवान् वल देकर कहते हैं कि परमात्मा उनसे भिन्न नहीं है ।

यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा के पास आसीन है और आत्मा के कार्यकलापों का साक्षी है तथा आत्मा की विभिन्न चेतनाओं का उद्गम है । यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा को मुक्त भाव से कार्य करने की छूट देता है और उसके कार्यों पर निगरानी रखता है । परमेश्वर के इन विविध स्वरूपों के सारे कार्य उस कृष्णभावनाभावित भक्त को स्वतः स्पष्ट हो जाते हैं , जो भगवान् की दिव्यसेवा में लगा रहता है ।

अधिदैवत नामक भगवान के विराट स्वरूप का चिन्तन उन नवदीक्षितों के लिए है जो भगवान् के परमात्मा स्वरूप तक नहीं पहुँच पाते । अतः उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे उस विराट पुरुष का चिन्तन करें जिसके पाँव अधोलोक है , जिसके नेत्र सूर्य तथा चन्द्र हैं और जिसका सिर उच्चलोक है । 

अन्तकाले   च   मामेव  स्मरन्मुक्त्वा  कलेवरम् । 

यः  प्रयाति  स  मद्भावं  याति  नास्त्यत्र  संशयः ॥ ५ ॥ 

अन्त-काले  –   मृत्यु के समय   ;   च  –  भी  ;   माम्  –  मुझको   ;   एव  –  निश्चय ही   ;   स्मरन्  –   स्मरण करते हुए   ;   मुक्त्वा –   त्याग कर   ;   कलेवरम्   –   शरीर को   ;  यः   –  जो  ;   प्रयाति  – जाता है   ;   सः  –  वह   ;    मत्-भावम्   –   मेरे स्वभाव को   ;   याति   –  प्राप्त करता है  ;   न  – नहीं   ;   अस्ति  –  है   ;   अत्र  –   यहाँ   ;    संशयः   –  सन्देह । 

और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है , वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है । इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है । 

तात्पर्य :- इस श्लोक में कृष्णभावनामृत की महत्ता दर्शित की गई है । जो कोई भी कृष्णभावनामृत में अपना शरीर छोड़ता है , वह तुरन्त परमेश्वर के दिव्य स्वभाव ( मद्भाव ) को प्राप्त होता है । परमेश्वर शुद्धातिशुद्ध है , अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होता है , वह भी शुद्धातिशुद्ध होता है ।

स्मरन् शब्द महत्त्वपूर्ण है । श्रीकृष्ण का स्मरण उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता जिसने भक्ति में रहकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास नहीं किया ।अतः मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करे ।

यदि जीवन के अन्त में सफलता वांछनीय है तो कृष्ण का स्मरण करना अनिवार्य है । अतः मनुष्य को निरन्तर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस महामन्त्र का जप करना चाहिए । भगवान् चैतन्य ने उपदेश दिया है कि मनुष्य को वृक्ष के समान सहिष्णु होना चाहिए ( तरोरिवसहिष्णुना ) ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप करने वाले व्यक्ति को अनेक व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है । तो भी इस महामन्त्र का जप करते रहना चाहिए , जिससे जीवन के अन्त समय कृष्णभावनामृत का पूरा – पूरा लाभ प्राप्त हो सके ।

यं  यं   वापि  स्मरन्भावं   त्यजत्यन्ते  कलेवरम् । 

तं   तमेवैति    कौन्तेय    सदा   तद्भावभावितः ॥ ६ ॥ 

यम्  यम्   –   जिस  ;   वा  अपि    –   किसी भी  ;   स्मरन्  –   स्मरण करते हुए  ;   भावम्   –  स्वभाव को  ;   त्यजति  – परित्याग करता है   ;   अन्ते   –  अन्त में   ;   कलेवरम्   –  शरीर को   ;  तम्  तम्   –   वैसा ही   ;    एव  –  निश्चय ही   ;   एति  –  प्राप्त करता है  ;   कौन्तेय   –  हे कुन्तीपुत्र  ;    सदा  –  सदैव  ;   तत्  –  उस  ;   भाव  –  भाव  ;   भावितः   –  स्मरण करता हुआ । 

हे कुन्तीपुत्र ! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस – जिस भाव का स्मरण करता है , वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है । 

तात्पर्य :- यहाँ पर मृत्यु के समय अपना स्वभाव बदलने की विधि का वर्णन है । जो व्यक्ति अन्त समय कृष्ण का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग करता है , उसे परमेश्वर का दिव्य स्वभाव प्राप्त होता है । किन्तु यह सत्य नहीं है कि यदि कोई मृत्यु के समय कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ सोचता है तो उसे भी दिव्य अवस्था प्राप्त होती है ।

इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए । तो फिर कोई मन की सही अवस्था में किस प्रकार मरे ? महापुरुष होते हुए भी महाराज भरत ने मृत्यु के समय एक हिरन का चिन्तन किया , अतः अगले जीवन में हिरन के शरीर में उनका देहान्तरण हुआ । यद्यपि हिरन के रूप में उन्हें अपने विगत कर्मों की स्मृति थी , किन्तु उन्हें पशु शरीर धारण करना ही पड़ा ।

निस्सन्देह मनुष्य के जीवन भर के विचार संचित होकर मृत्यु के समय उसके विचारों को प्रभावित करते हैं , अतः इस जीवन से उसका अगला जीवन बनता है । अगर कोई इस जीवन में सतोगुणी होता है और निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है तो सम्भावना यही है कि मृत्यु के समय उसे कृष्ण का स्मरण बना रहे । इससे उसे कृष्ण के दिव्य स्वभाव को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी ।

यदि कोई दिव्यरूप से कृष्ण की सेवा में लीन रहता है तो उसका अगला शरीर दिव्य ( आध्यात्मिक ) ही होगा , भौतिक नहीं । अतः जीवन के अन्त समय अपने स्वभाव को सफलतापूर्वक बदलने के लिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप करना सर्वश्रेष्ठ विधि है । 

तस्मात्सर्वेषु  कालेषु  मामनुस्मर  युध्य  च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः       ॥ ७ ॥ 

तस्मात्   –  अतएव  ;   सर्वेषु  –  समस्त   ;   कालेषु  –  कालों में  ;   माम्  –  मुझको  ;   अनुस्मर  – स्मरण करते रहो   ;    युध्य  –  युद्ध करो  ;  च  – भी   ;   मयि  –  मुझमें  ;   अर्पित  –  शरणागत होकर  ;   मनः   – मन  ;   बुद्धिः  –   बुद्धि  ;  माम्  –  मुझको  ;   एव  –   निश्चय ही  ;   एष्यसि   –  प्राप्त करोगे   ;   असंशय:   –निस्सन्देह ही  ।  

अतएव , हे अर्जुन ! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए । अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे ।

तात्पर्य :- अर्जुन को दिया गया यह उपदेश भौतिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले समस्त व्यक्तियों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है । भगवान् यह नहीं कहते कि कोई अपने कर्तव्यों को त्याग दे । मनुष्य उन्हें करते हुए साथ – साथ हरे कृष्ण का जप करके कृष्ण का चिन्तन कर सकता है ।

इससे मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो जायेगा और अपने मन तथा बुद्धि को कृष्ण में प्रवृत्त करेगा । कृष्ण का नाम – जप करने से मनुष्य परमधाम कृष्णलोक को प्राप्त होगा , इसमें कोई सन्देह नहीं है ।

भगवद गीता अध्याय 8.1~ब्रह्म,अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न उत्तर
भगवद गीता अध्याय 8.1

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