भगवद गीता अध्याय 7.5 || भगवान के स्वरूप और महिमा || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय सात (Chapter -7 )

भगवद गीता अध्याय 7.5  में शलोक 24 से  शलोक 30  तक भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जाननेवालों की महिमा का वर्णन !

अव्यक्तं   व्यक्तिमापत्रं  मन्यन्ते   मामबुद्धयः । 

     परं      भावमजानन्तो     ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ २४ ॥ 

अव्यक्तम्     –   अप्रकट   ;    व्यक्तिम्   –   स्वरूप को   ;   आपत्रम्   –   प्राप्त हुआ   ;    मन्यन्ते   –   सोचते हैं   ;    माम्   – मुझको   ;   अबुद्धयः  –  अल्पज्ञानी व्यक्ति   ;  परम्  –   परम  ;   भावम्  –   सत्ता   ;   अजानन्त:   –   बिना जाने  ;   मम  –  मेरा ;   अव्ययम्   –  अनश्वर   ;   अनुत्तमम्  – सर्वश्रेष्ठ  । 

बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं ( भगवान् कृष्ण ) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरूप को धारण किया है । वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते । 

तात्पर्य : देवताओं के उपासकों को अल्पज्ञ कहा जा चुका है और इस श्लोक में निर्विशेषवादियों को भी अल्पज्ञ कहा गया है । भगवान् कृष्ण अपने साकार रूप में यहाँ पर अर्जुन से बातें कर रहे हैं , किन्तु तब भी निर्विशेषवादी अपने अज्ञान के कारण तर्क करते रहते हैं कि परमेश्वर का अन्ततः कोई स्वरूप नहीं होता ।

श्रीरामानुजाचार्य की परम्परा के महान भगवद्भक्त यामुनाचार्य ने इस सम्बन्ध में दो अत्यन्त उपयुक्त श्लोक कहे हैं ( स्तोत्र रत्न १२ ) –

त्वां     शीलरूपचरितैः   परमप्रकृष्टे : 

         सत्त्वेन   सात्त्विकतया   प्रबलैश्च   शास्त्रैः । 

प्रख्यातदैवपरमार्थविदां     मतैश्च 

         नैवासुरप्रकृतयः     प्रभवन्ति     बोद्धुम् ॥

 ” हे प्रभु ! व्यासदेव तथा नारद जैसे भक्त आपको भगवान् रूप में जानते हैं । मनुष्य विभिन्न वैदिक ग्रंथों को पढ़कर आपके गुण , रूप तथा कार्यों को जान सकता है और इस तरह आपको भगवान् के रूप में समझ सकता है । किन्तु जो लोग रजो तथा तमोगुण के वश में हैं , ऐसे असुर तथा अभक्तगण आपको नहीं समझ पाते । ऐसे अभक्त वेदान्त , उपनिषद् तथा वैदिक ग्रंथों की व्याख्या करने में कितने ही निपुण क्यों न हों , वे भगवान् को नहीं समझ पाते । ”

ब्रह्मसंहिता में यह बताया गया है कि केवल वेदान्त साहित्य के अध्ययन से भगवान् को नहीं समझा जा सकता । परमपुरुष को केवल भगवत्कृपा से जाना जा सकता है । अतः इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न केवल देवताओं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं , अपितु वे अभक्त भी जो कृष्णभावनामृत से रहित हैं , जो वेदान्त तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगे रहते हैं , अल्पज्ञ हैं और उनके लिए ईश्वर के साकार रूप को समझ पाना सम्भव नहीं है ।

जो लोग परमसत्य को निर्विशेष करके मानते हैं वे अबुद्धयः बताये गये हैं जिसका अर्थ है , वे लोग जो परमसत्य के परम स्वरूप को नहीं समझते । श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि निर्विशेष ब्रह्म से ही परम अनुभूति प्रारम्भ होती है जो ऊपर उठती हुई अन्तर्यामी परमात्मा तक जाती है , किन्तु परमसत्य की अन्तिम अवस्था तो भगवान् है ।

आधुनिक निर्विशेषवादी तो और भी अधिक अल्पज्ञ हैं , क्योंकि वे अपने पूर्वगामी शंकराचार्य का भी अनुसरण नहीं करते जिन्होंने स्पष्ट बताया है कि कृष्ण परमेश्वर हैं । अतः निर्विशेषवादी परमसत्य को न जानने के कारण सोचते हैं कि कृष्ण देवकी तथा वसुदेव के पुत्र हैं या कि राजकुमार हैं या कि शक्तिमान जीवात्मा हैं ।

भगवद्गीता में ( ९ .११ ) भी इसकी भर्त्सना की गई है । अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् केवल मूर्ख ही मुझे सामान्य पुरुष मानते हैं । तथ्य तो यह है कि कोई बिना भक्ति के तथा कृष्णभावनामृत विकसित किये बिना कृष्ण को नहीं समझ सकता । इसकी पुष्टि भागवत में ( १०.१४.२ ९ ) हुई है

अथापि     ते    देव   पदाम्बुजद्वय    प्रसादलेशानुगृहीत     एव   हि ।

जानाति  तत्त्वं  भगवन्  महिम्नो  न  चान्य  एकोऽपि  चिरं  विचिन्वन् ॥

 ” हे प्रभु ! यदि कोई आपके चरणकमलों की रंचमात्र भी कृपा प्राप्त कर लेता है तो वह आपकी महानता को समझ सकता है । किन्तु जो लोग भगवान् को समझने के लिए मानसिक कल्पना करते हैं वे वेदों का वर्षों तक अध्ययन करके भी नहीं समझ पाते । ”

कोई न तो मनोधर्म द्वारा , न ही वैदिक साहित्य की व्याख्या द्वारा भगवान् कृष्ण या उनके रूप को समझ सकता है । भक्ति के द्वारा ही उन्हें समझा जा सकता है । जब मनुष्य कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस महानतम जप से प्रारम्भ करके कृष्णभावनामृत में पूर्णतया तन्मय हो जाता है , तभी वह भगवान् को समझ सकता है ।

अभक्त निर्विशेषवादी मानते हैं कि भगवान् कृष्ण का शरीर इसी भौतिक प्रकृति का बना है और उनके कार्य , उनका रूप इत्यादि सभी माया है । ये निर्विशेषवादी मायावादी कहलाते हैं । ये परमसत्य को नहीं जानते । बीसवें श्लोक में स्पष्ट है – कामैस्तेस्तेर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः- जो लोग कामेच्छाओं से अन्धे हैं वे अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं ।

यह स्वीकार किया गया है कि भगवान् के अतिरिक्त अन्य देवता भी हैं , जिनके अपने – अपने लोक हैं और भगवान् का भी अपना लोक है । जैसा कि तेईसवें श्लोक में कहा गया है – देवान् देवयजो यान्ति भद्भक्ता यान्ति मामपि देवताओं के उपासक उनके लोकों को जाते हैं और जो कृष्ण के भक्त हैं वे कृष्णलोक को जाते हैं ।

यद्यपि यह स्पष्ट कहा गया है , किन्तु तो भी मूर्ख मायावादी यह मानते हैं कि भगवान् निर्विशेष हैं और ये विभिन्न रूप उन पर ऊपर से थोपे गये हैं । क्या गीता के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि देवता तथा उनके धाम निर्विशेष हैं ? स्पष्ट है कि न तो देवतागण , न ही कृष्ण निर्विशेष हैं । वे सभी व्यक्ति हैं । भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं , उनका अपना लोक है और देवताओं के भी अपने – अपने लोक हैं ।

अतः यह अद्वैतवादी तर्क कि परमसत्य निर्विशेष है और रूप ऊपर से थोपा ( आरोपित ) हुआ है , सत्य नहीं उतरता । यहाँ स्पष्ट बताया गया है कि यह ऊपर से धोपा हुआ नहीं है । भगवद्गीता से हम स्पष्टतया समझ सकते हैं कि देवताओं के रूप तथा परमेश्वर का स्वरूप साथ – साथ विद्यमान हैं और भगवान् कृष्ण सच्चिदानन्द रूप हैं ।

वेद भी पुष्टि करते हैं कि परमसत्य आनन्दमयोऽभ्यासात् अर्थात् वे स्वभाव से ही आनन्दमय हैं और वे अनन्त शुभ गुणों के आगार हैं । गीता में भगवान् कहते हैं कि यद्यपि वे अज ( अजन्मा ) हैं , तो भी वे प्रकट होते हैं । भगवद्गीता से हम इन सारे तथ्यों को जान सकते हैं । अतः हम यह नहीं समझ पाते कि भगवान् किस तरह निर्विशेष हैं ?

जहाँ तक गीता के कथन हैं , उनके अनुसार निर्विशेषवादी अद्वैतवादियों का यह आरोपित सिद्धान्त मिथ्या है । यहाँ यह स्पष्ट है कि परमसत्य भगवान् कृष्ण के रूप और व्यक्तित्व दोनों हैं । 

नाहं    प्रकाशः     सर्वस्य    योगमायासमावृतः । 

      मूढोऽयं  नाभिजानाति  लोको  मामजमव्ययम् ॥ २५ ॥ 

न   –   न तो   ;   अहम्   –   मैं    ;    प्रकाश:   –  प्रकट   ;  सर्वस्य   –   सबों के लिए   ;  योग-माया  –  अन्तरंगा शक्ति से  ;  समावृतः   –   आच्छादित   ;     मूढः   –   मूर्ख   ;    अयम्   – यह   ;  न  – नहीं   ;   अभिजानाति  –   समझ सकता है ; लोकः   –  लोग   ;   माम्   –   मुझको   ;  अजम्   –   अजन्मा को   ;   अव्ययम्  –   अविनाशी की । 

मैं मूखों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ । उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ , अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ । 

तात्पर्य : यह तर्क दिया जा सकता है कि जब कृष्ण इस पृथ्वी पर विद्यमान थे और सर्वो के लिए दृश्य थे तो अब वे सबों के समक्ष क्यों नहीं प्रकट होते ? किन्तु वास्तव में वे हर एक के समक्ष प्रकट नहीं थे । जब कृष्ण विद्यमान थे तो उन्हें भगवान् रूप में समझने वाले व्यक्ति थोड़े ही थे ।

जब कुरु सभा में शिशुपाल ने कृष्ण के सभाध्यक्ष चुने जाने का विरोध किया तो भीष्म ने कृष्ण के नाम का समर्थन किया और उन्हें परमेश्वर घोषित किया । इसी प्रकार पाण्डव तथा कुछ अन्य लोग उन्हें परमेश्वर के रूप में जानते थे , किन्तु सभी ऐसे नहीं थे ।

अभक्तों तथा सामान्य व्यक्ति के लिए वे प्रकट नहीं थे । इसीलिए भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि उनके विशुद्ध भक्तों के अतिरिक्त अन्य सारे लोग उन्हें अपनी तरह समझते हैं । वे अपने भक्तों के समक्ष ही आनन्द के आगार के रूप में प्रकट होते थे , किन्तु अन्यों के लिए , अल्पज्ञ अभक्तों के लिए , वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से आच्छादित रहते थे ।

 श्रीमद्भागवत में ( १.८.१ ९ ) कुन्ती ने अपनी प्रार्थना में कहा है कि भगवान् योगमाया के आवरण से आवृत हैं , अतः सामान्य लोग उन्हें समझ नहीं पाते । ईशोपनिषद् में ( मन्त्र १५ ) भी इस योगमाया आवरण की पुष्टि हुई है , जिसमें भक्त प्रार्थना करता है –

हिरण्मयेन  पात्रेण  सत्यस्यापिहितं  मुखम् ।

पूषन्नपावृणु     सत्यधर्माय    तत्त्वं     दृष्टये ॥

 ” हे भगवान् ! आप समग्र ब्रह्माण्ड के पालक हैं और आपकी भक्ति सर्वोच्च धर्म है । अतः मेरी प्रार्थना है कि आप मेरा भी पालन करें । आपका दिव्यरूप योगमाया से आवृत है । ब्रह्मज्योति आपकी अन्तरंगा शक्ति का आवरण है । कृपया इस तेज को हटा लें क्योंकि यह आपके सच्चिदानन्द विग्रह के दर्शन में बाधक है । ”

भगवान् अपने दिव्य सच्चिदानन्द रूप में ब्रह्मज्योति की अन्तरंगाशक्ति से आवृत हैं , जिसके फलस्वरूप अल्पज्ञानी निर्विशेषवादी परमेश्वर को नहीं देख पाते । श्रीमद्भागवत में भी ( १०.१४.७ ) ब्रह्मा द्वारा की गई यह स्तुति है- ” हे भगवान् , हे परमात्मा , हे समस्त रहस्यों के स्वामी ! संसार में ऐसा कौन है जो आपकी शक्ति तथा लीलाओं का अनुमान लगा सके ? आप सदैव अपनी अन्तरंगाशक्ति का विस्तार करते रहते हैं , अतः कोई भी आपको नहीं समझ सकता ।

विज्ञानी तथा विद्वान् भले ही भौतिक जगत् की परमाणु संरचना का या कि विभिन्न ग्रहों का अन्वेषण कर लें , किन्तु अपने समक्ष आपके विद्यमान होते हुए भी वे आपकी शक्ति की गणना करने में असमर्थ हैं । ” भगवान् कृष्ण न केवल अजन्मा हैं , अपितु अव्यय भी हैं । वे सच्चिदानन्द रूप हैं और उनकी शक्तियाँ अव्यय हैं ।

वेदाहं     समतीतानि     वर्तमानानि     चार्जुन । 

भविष्याणि  च  भूतानि  मां   तु  वेद  न  कश्चन ॥ २६ ॥ 

वेद   –   जानता हूँ   ;   अहम्   –  मैं   ;   समतीतानि   –  भूतकाल को  ;  वर्तमानानि  –  वर्तमान को ;  च  –  तथा   ;   अर्जुन  –  हे अर्जुन   ;   भविष्याणि  –   भविष्य को   ;  च  –  भी  ;   भूतानि   –  सारे जीवों को  ;    माम्  –  मुझको  ;  तु  –  लेकिन  ;  वेद  –  जानता है  ;   न  –  नहीं   ;  कश्चन  – कोई  ।

 हे अर्जुन ! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है , जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है , वह सब कुछ जानता हूँ । में समस्त जीवों को भी जानता हूँ , किन्तु मुझे कोई नहीं जानता । 

तात्पर्य : यहाँ पर साकारता तथा निराकारता का स्पष्ट उल्लेख है । यदि भगवान् कृष्ण का स्वरूप माया होता , जैसा कि मायावादी मानते हैं , तो उन्हें भी जीवात्मा की भाँति अपना शरीर बदलना पड़ता और विगत जीवन के विषय में सब कुछ विस्मरण हो जाता । कोई भी भौतिक देहधारी अपने विगत जीवन की स्मृति बनाये नहीं रख पाता , न ही वह भावी जीवन के विषय में या वर्तमान जीवन की उपलब्धि के विषय में भविष्यवाणी कर सकता है ।

अतः वह यह नहीं जानता कि भूत , वर्तमान तथा भविष्य में क्या घट रहा है । भौतिक कल्मष से मुक्त हुए बिना वह ऐसा नहीं कर सकता । सामान्य मनुष्यों से भिन्न भगवान् कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि वे यह भलीभाँति जानते हैं कि भूतकाल में क्या घटा , वर्तमान में क्या हो रहा है और भविष्य में क्या होने वाला है लेकिन सामान्य मनुष्य ऐसा नहीं जानते हैं ।

अध्याय में हम देख चुके हैं कि लाखों वर्ष पूर्व उन्होंने सूर्यदेव विवस्वान को जो उपदेश दिया था वह उन्हें स्मरण है । कृष्ण प्रत्येक जीव को जानते हैं क्योंकि वे सबों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं । किन्तु अल्पज्ञानी प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित होने तथा श्रीभगवान् के रूप में उपस्थित रहने पर भी श्रीकृष्ण को परमपुरुष के रूप में नहीं जान पाते , भले ही वे निर्विशेष ब्रह्म को क्यों न समझ लेते हों ।

निस्सन्देह श्रीकृष्ण का दिव्य शरीर अनश्वर है । वे सूर्य के समान हैं और माया बादल के समान है । भौतिक जगत् में हम सूर्य को देखते हैं , बादलों को देखते हैं और विभिन्न नक्षत्र तथा ग्रहों को देखते हैं । आकाश में बादल इन सबों को अल्पकाल के लिए ढक सकता है , किन्तु यह आवरण हमारी दृष्टि तक ही सीमित होता है । सूर्य , चन्द्रमा तथा तारे सचमुच ढके नहीं होते ।

इसी प्रकार माया परमेश्वर को आच्छादित नहीं कर सकती । वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अल्पज्ञों को दृश्य नहीं होते । जैसा कि इस अध्याय के तृतीय श्लोक में कहा गया है कि करोड़ों पुरुषों में से कुछ ही सिद्ध बनने का प्रयत्न करते हैं और सहस्रों ऐसे सिद्ध पुरुषों में से कोई एक भगवान् कृष्ण को समझ पाता है । भले ही कोई निराकार ब्रह्म या अन्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति के कारण सिद्ध हो ले , किन्तु कृष्णभावनामृत के बिना वह भगवान् श्रीकृष्ण को समझ ही नहीं सकता । 

इच्छाद्वेषसमुत्थेन      द्वन्द्वमोहेन     भारत ।  

     सर्वभूतानि  सम्मोहं  सर्गे  यान्ति   परन्तप ॥ २७ ॥

इच्छा   –  इच्छा  ;   द्वेष  –   तथा घृणा   ;   समुत्थेन  –  उदय होने से  ;   द्वन्द्व  –  द्वन्द्व से   ;  मोहेन  –  मोह के द्वारा   ;   भारत  – हे भरतवंशी   ;   सर्व  –  सभी  ;  भूतानि  –  जीव  ;   सम्मोहम्  –  मोह को   ;   सर्गे  –  जन्म लेकर   ;  यान्ति  –  जाते है, प्राप्त होते हैं   ;   परन्तप   –   हे शत्रुओं के विजेता । 

हे भरतवंशी ! हे शत्रुविजेता ! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं । 

तात्पर्य : जीव की स्वाभाविक स्थिति शुद्धज्ञान रूप परमेश्वर की अधीनता है । मोहवश जब मनुष्य इस शुद्धज्ञान से दूर हो जाता है तो वह माया के वशीभूत हो जाता है और भगवान् को नहीं समझ पाता । यह माया इच्छा तथा घृणा के हुन्छ रूप में प्रकट होती है । इसी इच्छा तथा घृणा के कारण मनुष्य परमेश्वर से तदाकार होना चाहता है और भगवान् के रूप में कृष्ण से ईर्ष्या करता है ।

किन्तु शुद्धभक्त इच्छा तथा घृणा से मोहग्रस्त नहीं होते अतः चे समझ सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अन्तरंगाशक्ति से प्रकट होते हैं । पर जो द्वन्द्व तथा अज्ञान के कारण मोहग्रस्त हैं , वे यह सोचते हैं कि भगवान् भौतिक ( अपरा ) शक्तियों द्वारा उत्पन्न होते हैं । यही उनका दुर्भाग्य है ।

ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति मान – अपमान , दुख – सुख , स्त्री – पुरुष , अच्छा – बुरा , आनन्द – पीड़ा जैसे द्वन्द्रों में रहते सोचते रहते हैं ” यह मेरी पत्नी है , यह मेरा घर है , मैं इस घर का स्वामी हूँ , में इस स्त्री का पति हूँ । ” ये ही मोह के द्वन्द्व हैं । जो लोग ऐसे द्वन्द्वों से मोहग्रस्त रहते हैं , वे निपट मूर्ख हैं और वे भगवान् को नहीं समझ सकते । 

येषां   त्वन्तगतं  पापं  जनानां   पुण्यकर्मणाम् । 

      ते  द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता    भजन्ते  मां    दृढव्रताः ॥ २८ ॥ 

येषाम्   –   जिन   ;   तु   –  लेकिन   ;   अन्त-गतम्   –  पूर्णतया विनष्ट  ;   पापम्   –  पाप  ;   जनानाम्   –   मनुष्यों का  ;   पुण्य  –   पवित्र  ;   कर्मणाम्  –   जिनके पूर्व कर्म   ;   ते  –  वे   ;  इन्द्व  –   द्वैत के  ;   मोह  –   मोह से  ;   निर्मुक्ताः  –  मुक्त  ; भजन्ते  –  भक्ति में तत्पर होते हैं  ;   माम्  –   मुझको  ;   दृढ-व्रताः  –  संकल्पपूर्वक । 

जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है , वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं । 

तात्पर्य : इस अध्याय में उन लोगों का उल्लेख है जो दिव्य पद को प्राप्त करने के अधिकारी हैं । जो पापी , नास्तिक , मूर्ख तथा कपटी हैं उनके लिए इच्छा तथा घृणा के द्वन्द्व को पार कर पाना कठिन है । केवल ऐसे पुरुष भक्ति स्वीकार करके क्रमशः भगवान् के शुद्धज्ञान को प्राप्त करते हैं , जिन्होंने धर्म के विधि – विधानों का अभ्यास करने , पुण्यकर्म करने तथा पापकर्मों के जीतने में अपना जीवन लगाया है ।

फिर वे क्रमशः भगवान् का ध्यान समाधि में करते हैं । आध्यात्मिक पद पर आसीन होने की यही विधि है । शुद्धभक्तों की संगति में कृष्णभावनामृत के अन्तर्गत ही ऐसी पद प्राप्ति सम्भव है , क्योंकि महान भक्तों की संगति से ही मनुष्य मोह से उबर सकता है ।

श्रीमद्भागवत में ( ५.५.२ ) कहा गया है कि यदि कोई सचमुच मुक्ति चाहता है तो उसे भक्तों की सेवा करनी चाहिए ( महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तः ) , किन्तु जो भौतिकतावादी पुरुषों की संगति करता है वह संसार के गहन अंधकार की ओर अग्रसर होता रहता हे ( तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम् ) । भगवान् के सारे भक्त विश्व भर का भ्रमण इसीलिए करते हैं जिससे वे बद्धजीवों को उनके मोह से उवार सकें ।

मायावादी यह नहीं जान पाते कि परमेश्वर के अधीन अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूलना ही ईश्वरीय नियम की सबसे बड़ी अवहेलना है । जब तक वह अपनी स्वाभाविक स्थिति को पुनः प्राप्त नहीं कर लेता , तब तक परमेश्वर को समझ पाना या संकल्प के साथ उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में पूर्णतया प्रवृत्त हो पाना कठिन है ।

जरामरणमोक्षाय     मामाश्रित्य      यतन्ति     ये ।

       ते  ब्रह्म  तद्विदुः  कृत्स्त्रमध्यात्मं  कर्म  चाखिलम् ॥ २ ९ ॥ 

जरा   –   वृद्धावस्था से  ;   मरण   –  तथा मृत्यु से   ;   मोक्षाय   –  मुक्ति के लिए  ;   माम्  –  मुझको  , मेरे   ;   आश्रित्य   –  आश्रय बनाकर शरण लेकर  ;   यतन्ति  –   प्रयत्न करते हैं  ;   ये  –  जो   ;  ते  –  ऐसे व्यक्ति   ;   ब्रह्म   –   ब्रह्म   ;   तत्  –  वास्तव मेंउस  ;    विदु:  –  ये जानते हैं   ;    कृत्स्त्रम्  – सब कुछ  ;    अध्यात्मम्   –  दिव्य   ;   कर्म  –  कर्म  ;    च  –  भी  ;   अखिलम्  –   पूर्णतया  । 

जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं , वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं । वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं । 

तात्पर्य   जन्म , मृत्यु , जरा तथा रोग इस भौतिक शरीर को सताते हैं , आध्यात्मिक शरीर को नहीं । आध्यात्मिक शरीर के लिए न जन्म है , न मृत्यु , न जरा , न रोग । अतः जिसे आध्यात्मिक शरीर प्राप्त हो जाता है वह भगवान् का पार्षद बन जाता है और नित्य भक्ति करता है । वही मुक्त है । अहं ब्रह्मास्मि में आत्मा हूँ ।

कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि वह यह समझे कि में ब्रह्म या आत्मा हूँ । जीवन का यह ब्रह्मबोध ही भक्ति है , जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है । शुद्धभक्त ब्रह्म पद पर आसीन होते हैं और वे दिव्य कर्मों के विषय में सब कुछ जानते रहते हैं । भगवान् की दिव्यसेवा में रत रहने वाले चार प्रकार के अशुद्ध भक्त हैं जो अपने अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं और भगवत्कृपा से जब वे पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं , तो परमेश्वर की संगति का लाभ उठाते हैं ।

किन्तु देवताओं के उपासक कभी भी भगवदाम नहीं पहुँच पाते । यहाँ तक कि अल्पज्ञ ब्रह्मभूत व्यक्ति भी कृष्ण के परमधाम , गोलोक वृन्दावन को प्राप्त नहीं कर पाते । केवल ऐसे व्यक्ति जो कृष्णभावनामृत में कर्म करते हैं ( माम् आश्रित्य ) वे ही ब्रह्म कहलाने के अधिकारी होते हैं , क्योंकि वे सचमुच ही कृष्णधाम पहुँचने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।

ऐसे व्यक्तियों को कृष्ण के विषय में कोई भ्रान्ति नहीं रहती और वे सचमुच ब्रह्म हैं । जो लोग भगवान् के अर्चा ( स्वरूप ) की पूजा करने में लगे रहते हैं या भवबन्धन से मुक्ति पाने के लिए निरन्तर भगवान् का ध्यान करते हैं , वे भी ब्रह्म अधिभूत आदि के तात्पर्य को समझते हैं , जैसा कि भगवान् ने अगले अध्याय में बताया है ।

साधिभूताधिदैवं  मां  साधियज्ञं  च  ये  विदुः ।

         प्रयाणकालेऽपि  च  मां  ते   विदुर्युक्तचेतसः ॥ ३० ॥ 

स-अधिभूत  –   तथा भौतिक जगत् को चलाने वाले सिद्धान्त   ;   अधिदेवम्  –  समस्त देवताओं को नियन्त्रित करने वाले   ;  माम्  –  मुझको  ;   स-अधियज्ञम्  –  तथा समस्त यज्ञों को नियन्त्रित करने वाले   ;   च   –  भी   ;   ये  –  जी  ;   विदुः  –  जानते हैं ;  प्रयाण  –  मृत्यु के   ;   काले  –  समय में   ;   अपि   –  भी   ;   च   –   तथा   ;   माम्  –  मुझको  ;   ते  –  वे  ;   विदुः  –  जानते हैं   ;  युक्त-चेतसः   –  जिनके मन मुझमें लगे हैं । 

जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत् का , देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं , वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं ।

  तात्पर्य : कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाले मनुष्य कभी भी भगवान् को पूर्णतया समझने के पथ से विचलित नहीं होते । कृष्णभावनामृत के दिव्य सान्निध्य से मनुष्य यह समझ सकता है कि भगवान् किस तरह भौतिक जगत् तथा देवताओं तक के नियामक हैं । धीरे – धीरे ऐसी दिव्य संगति से मनुष्य का भगवान् में विश्वास बढ़ता है , अतः मृत्यु के समय ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को कभी भुला नहीं पाता ।

अतएव यह सहज ही भगवद्धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है । यह सातवाँ अध्याय विशेष रूप से बताता है कि कोई किस प्रकार से पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो सकता है । कृष्णभावना का शुभारम्भ ऐसे व्यक्तियों के सानिध्य से होता है जो कृष्णभावनाभावित होते हैं । ऐसा सान्निध्य आध्यात्मिक होता है और इससे मनुष्य प्रत्यक्ष भगवान् के संसर्ग में आता है और भगवत्कृपा से वह कृष्ण को भगवान् समझ सकता है ।

साथ ही वह जीव के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है और यह समझ सकता है कि किस प्रकार जीव कृष्ण को भुलाकर भौतिक कार्यों में उलझ जाता है । सत्संगति में रहने से कृष्णभावना के क्रमिक विकास से जीव यह समझ सकता है । कि किस प्रकार कृष्ण को भुलाने से वह प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध हुआ है ।

वह यह भी समझ सकता है कि यह मनुष्य जीवन कृष्णभावनामृत को पुनः प्राप्त करने के लिए मिला है , अतः इसका सदुपयोग परमेश्वर की अहेतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए करना चाहिए । इस अध्याय में जिन अनेक विषयों की विवेचना की गई है वे हैं – दुख में पड़ा हुआ मनुष्य , जिज्ञासु मानव , अभावग्रस्त मानव , ब्रह्म ज्ञान , परमात्मा ज्ञान , जन्म , मृत्यु तथा रोग से मुक्ति एवं परमेश्वर की पूजा ।

किन्तु जो व्यक्ति वास्तव में कृष्णभावनामृत को प्राप्त है , वह विभिन्न विधियों की परवाह नहीं करता । वह सीधे कृष्णभावनामृत के कार्यों में प्रवृत्त होता है और उसी से भगवान् कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करता है । ऐसी अवस्था में वह शुद्धभक्ति में परमेश्वर के श्रवण तथा गुणगान में आनन्द पाता है ।

उसे पूर्ण विश्वास रहता है कि ऐसा करने से उसके सारे उद्देश्यों की पूर्ति होगी । ऐसी दृढ़ श्रद्धा दृढव्रत कहलाती है और यह भक्तियोग या दिव्य प्रेमाभक्ति की शुरुआत होती है । समस्त शास्त्रों का भी यही मत है । भगवद्गीता का यह सातवाँ अध्याय इसी निश्चय का सारांश है । 

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय ” भगवद्ज्ञान ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।

भगवद-गीता-अध्याय-7.5-_-भगवान-के-प्रभाव-और-स्वरूप-को-जानने-वालों-की-महिमा-का-वर्णन
भगवद गीता अध्याय 7.5

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