अध्याय सात (Chapter -7)
भगवद गीता अध्याय 7.4 में शलोक 20 से शलोक 23 तक अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल का वर्णन !
कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ २० ॥
कामे: – इच्छाओं द्वारा ; तैः-तैः – उन उन ; हृत – विहीन ; ज्ञानाः – ज्ञान से ; प्रपद्यन्ते – शरण लेते हैं ; अन्य – अन्य ; देवताः – देवताओं की ; तम् तम् – उस उस ; नियमम् – विधान का ; आस्थाय – पालन करते हुए ; प्रकृत्या – स्वभाव से ; नियताः – वश में हुए ; स्वया – अपने आप ।
जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है , वे देवताओं की शरण में जाते हैं । और वे अपने – अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि – विधानों का पालन करते हैं ।
तात्पर्य : जो समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं , वे भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं और उनकी भक्ति में तत्पर होते हैं । जब तक भौतिक कल्मष धुल नहीं जाता , तब तक चे स्वभावतः अभक्त रहते हैं । किन्तु जो भौतिक इच्छाओं के होते हुए भी भगवान् की ओर उन्मुख होते हैं , वे बहिरंगा प्रकृति द्वारा आकृष्ट नहीं होते ।
चूँकि वे सही उद्देश्य की ओर अग्रसर होते हैं , अतः वे शीघ्र ही सारी भौतिक कामेच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि स्वयं को वासुदेव के प्रति समर्पित करे और उनकी पूजा करे , चाहे वह भौतिक इच्छाओं से रहित हो या भौतिक इच्छाओं से पूरित हो या भौतिक कल्मष से मुक्ति चाहता हो । जैसा कि भागवत में ( २.३.१० ) कहा गया है
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥
जो अल्पज्ञ हैं तथा जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक चेतना खो दी है , वे भौतिक इच्छाओं की अविलम्ब पूर्ति के लिए देवताओं की शरण में जाते हैं । सामान्यतः ऐसे लोग भगवान् की शरण में नहीं जाते क्योंकि वे निम्नतर गुणों वाले ( रजो तथा तमोगुणी ) होते हैं , अतः ये विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं । वे पूजा के विधि – विधानों का पालन करने में ही प्रसन्न रहते हैं ।
देवताओं के पूजक छोटी – छोटी इच्छाओं के द्वारा प्रेरित होते हैं । और यह नहीं जानते कि परमलक्ष्य तक किस प्रकार पहुँचा जाय । किन्तु भगवद्भक्त कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होता । चूँकि वैदिक साहित्य में विभिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न – भिन्न देवताओं के पूजन का विधान है , अतः जो भगवद्भक्त नहीं हैं वे सोचते हैं कि देवता कार्यों के लिए भगवान् से श्रेष्ठ हैं ।
किन्तु शुद्धभक्त जानता है कि भगवान् कृष्ण ही सबके स्वामी हैं । चैतन्यचरितामृत में ( आदि ५.१४२ ) कहा गया है- एकले ईश्वर कृष्ण , आर सब भृत्य- केवल भगवान् कृष्ण ही स्वामी हैं और अन्य सब दास हैं । फलतः शुद्धभक्त कभी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देवताओं के निकट नहीं जाता । वह तो परमेश्वर पर निर्भर रहता है और वे जो कुछ देते हैं , उसी से संतुष्ट रहता है ।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥ २१ ॥
यः यः – जो जो ; याम् याम् – जिस जिस ; तनुम् – देवता के रूप को ; भक्तः – भक्त ; श्रद्धया – श्रद्धा से ; अर्चितुम् – पूजा करने के लिए ; इच्छति – इच्छा करता है ; तस्य-तस्य – उस उसकी ; अचलाम् – स्थिर ; श्रद्धाम् – श्रद्धा को ; ताम् – उस ; एव – निश्चय ही ; विदधामि – देता हूँ ; अहम् – मैं ।
में प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ । जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है , मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ , जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके ।
तात्पर्य : ईश्वर ने हर एक को स्वतन्त्रता प्रदान की है , अतः यदि कोई पुरुष भौतिक भोग करने का इच्छुक है और इसके लिए देवताओं से सुविधाएँ चाहता है तो प्रत्येक हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित भगवान् उसके मनोभावों को जानकर ऐसी सुविधाएँ प्रदान करते है । समस्त जीवों के परम पिता के रूप में वे उनकी स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करते , अपितु उन्हें सुविधाएँ प्रदान करते हैं , जिससे वे अपनी भौतिक इच्छाएँ पूरी कर सकें ।
कुछ लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर जीवों को ऐसी सुविधाएँ प्रदान करके उन्हें माया के पाश में गिरने ही क्यों देते हैं ? इसका उत्तर यह है कि यदि परमेश्वर उन्हें ऐसी सुविधाएँ प्रदान न करें तो फिर स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता । अतः वे सर्वो को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं चाहे कोई कुछ करे – किन्तु उनका अन्तिम उपदेश हमें भगवद्गीता में प्राप्त होता है मनुष्य को चाहिए कि अन्य सारे कार्यों को त्यागकर उनकी शरण में आए ।
इससे मनुष्य सुखी रहेगा । जीवात्मा तथा देवता दोनों ही परमेश्वर की इच्छा के अधीन हैं , अतः जीवात्मा न तो स्वेच्छा से किसी देवता की पूजा कर सकता है , न ही देवता परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध कोई वर दे सकते हैं जैसी कि कहावत है – ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ती भी नहीं हिलती । सामान्यतः जो लोग इस संसार में पीड़ित हैं , वे देवताओं के पास जाते हैं , क्योंकि वेदों में ऐसा करने का उपदेश है कि अमुक – अमुक इच्छाओं वाले को अमुक अमुक देवताओं की शरण में जाना चाहिए ।
उदारहणार्थ , एक रोगी को सूर्यदेव की पूजा करने का आदेश है । इसी प्रकार विद्या का इच्छुक सरस्वती की पूजा कर सकता है और सुन्दर पत्नी चाहने वाला व्यक्ति शिवजी की पत्नी देवी उमा की पूजा कर सकता है । इस प्रकार शास्त्रों में विभिन्न देवताओं के पूजन की विधियाँ बताई गई हैं । चूँकि प्रत्येक जीव विशेष सुविधा चाहता है , अतः भगवान् उसे विशेष देवता से उस वर को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा की प्रेरणा देते हैं और उसे वर प्राप्त हो जाता है ।
किसी विशेष देवता के पूजन की विधि भी भगवान् द्वारा ही नियोजित की जाती है । जीवों में वह प्रेरणा देवता नहीं दे सकते , किन्तु भगवान् परमात्मा हैं जो समस्त जीवों के हृदयों में उपस्थित रहते हैं , अतः कृष्ण मनुष्य को किसी देवता के पूजन की प्रेरणा प्रदान करते है । सारे देवता परमेश्वर के विराट शरीर के विभिन्न अंगस्वरूप हैं , अतः वे स्वतन्त्र नहीं होते ।
वैदिक साहित्य में कथन है , ” परमात्मा रूप में भगवान् देवता के हृदय में भी स्थित रहते हैं , अतः वे देवता के माध्यम से जीव की इच्छा को पूरा करने की व्यवस्था करते हैं । किन्तु जीव तथा देवता दोनों ही परमात्मा की इच्छा पर आश्रित हैं । वे स्वतन्त्र नहीं है ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥ २२ ॥
सः – वह ; तथा – उस ; श्रद्धया – श्रद्धा से ; युक्तः – युक्त ; तस्य – उस देवता की ; आराधनम् – पूजा के लिए ; ईहते – आकांक्षा करता है ; लभते – प्राप्त करता है ; च – तथा ; ततः – उससे ; कामान् – इच्छाओं को ; मया – मेरे द्वारा ; एव – ही ; विहितान् – व्यवस्थित ; हि – निश्चय ही ; तान् – उन ।
ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है । किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं ।
तात्पर्य : देवतागण परमेश्वर की अनुमति के बिना अपने भक्तों को वर नहीं दे सकते । जीव भले ही यह भूल जाय कि प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की सम्पत्ति है , किन्तु देवता इसे नहीं भूलते । अतः देवताओं की पूजा तथा वांछित फल की प्राप्ति देवताओं के कारण नहीं , अपितु उनके माध्यम से भगवान् के कारण होती है ।
अल्पज्ञानी जीव इसे नहीं जानते , अतः वे मूर्खतावश देवताओं के पास जाते हैं । किन्तु शुद्धभक्त आवश्यकता पड़ने पर परमेश्वर से ही याचना करता है परन्तु वर माँगना शुद्धभक्त का लक्षण नहीं है । जीव सामान्यतया देवताओं के पास इसीलिए जाता है , क्योंकि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पगलाया रहता है ।
ऐसा तब होता है जब जीव अनुचित कामना करता है जिसे स्वयं भगवान् पूरा नहीं करते । चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि जो व्यक्ति परमेश्वर की पूजा के साथ – साथ भौतिकभोग की कामना करता है वह परस्पर विरोधी इच्छाओं वाला होता है । परमेश्वर की भक्ति तथा देवताओं की पूजा समान स्तर पर नहीं हो सकती , क्योंकि देवताओं की पूजा भौतिक और परमेश्वर की भक्ति नितान्त आध्यात्मिक है ।
जो जीव भगवद्धाम जाने का इच्छुक है , उसके मार्ग में भौतिक इच्छाएँ बाधक हैं । अतः भगवान् के शुद्धभक्त को वे भौतिक लाभ नहीं प्रदान किये जाते , जिनकी कामना अल्पज्ञ जीव करते रहते हैं , जिसके कारण वे परमेश्वर की भक्ति न करके देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं ।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥
अन्त-वत् – नाशवान ; तु – लेकिन ; फलम् – फल ; तेषाम् – उनका ; तत् – वह ; भवति – होता है ; अल्प-मेधसाम् – अल्पज्ञों का ; देवान् – देवताओं के पास ; देव-यजः – देवताओं को पूजने वाले ; यान्ति – जाते हैं ; मत् – मेरे ; भक्ता: – भक्तगण ; यान्ति – जाते हैं ; माम् – मेरे पास ; अपि – भी ।
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं । देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं , किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्य : भगवद्गीता के कुछ भाष्यकार कहते हैं कि देवता की पूजा करने वाला व्यक्ति परमेश्वर के पास पहुँच सकता है , किन्तु यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि देवताओं के उपासक भिन्न लोक को जाते हैं , जहाँ विभिन्न देवता स्थित हैं – ठीक उसी प्रकार जिस तरह सूर्य की उपासना करने वाला सूर्य को या चन्द्रमा का उपासक चन्द्रमा को प्राप्त होता है ।
इसी प्रकार यदि कोई इन्द्र जैसे देवता की पूजा करना चाहता है , तो उसे पूजे जाने वाले उसी देवता का लोक प्राप्त होगा । ऐसा नहीं है कि जिस किसी भी देवता की पूजा करने से भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है । यहाँ पर इसका निषेध किया गया है , क्योंकि यह स्पष्ट कहा गया है कि देवताओं के उपासक भौतिक जगत् के अन्य लोकों को जाते हैं , किन्तु भगवान् का भक्त भगवान् के ही परमधाम को जाता है ।
यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि विभिन्न देवता परमेश्वर के शरीर के विभिन्न अंग हैं , तो उन सबकी पूजा करने से एक ही जैसा फल मिलना चाहिए । किन्तु देवताओं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं , क्योंकि वे यह नहीं जानते कि शरीर के किस अंग को भोजन दिया जाय । उनमें से कुछ इतने मूर्ख होते हैं कि वे यह दावा करते हैं कि अंग अनेक हैं , अतः भोजन देने के ढंग अनेक हैं ।
किन्तु यह बहुत उचित नहीं है । क्या कोई कानों या आँखों से शरीर को भोजन पहुँचा सकता है ? वे यह नहीं जानते कि ये देवता भगवान् के विराट शरीर के विभिन्न अंग हैं और वे अपने अज्ञानवश यह विश्वास कर बैठते हैं कि प्रत्येक देवता पृथक् ईश्वर है तथा परमेश्वर का प्रतियोगी है । न केवल सारे देवता , अपितु सामान्य जीव भी परमेश्वर के अंग ( अंश ) हैं ।
श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ब्राह्मण परमेश्वर के सिर हैं , क्षत्रिय उनकी बाहें हैं , वैश्य उनकी कटि तथा शूद्र उनके पाँव हैं , और इन सबके अलग – अलग कार्य हैं । यदि कोई देवताओं को तथा अपने आपको परमेश्वर का अंश मानता है तो उसका ज्ञान पूर्ण है । किन्तु यदि वह इसे नहीं समझता तो उसे भिन्न लोकों की प्राप्ति होती है , जहाँ देवतागण निवास करते हैं ।
यह वह गन्तव्य नहीं है , जहाँ भक्तगण जाते हैं । देवताओं से प्राप्त वर नाशवान होते हैं , क्योंकि इस भौतिक जगत् के भीतर सारे लोक , सारे देवता तथा उनके सारे उपासक नाशवान हैं । अतः इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि ऐसे देवताओं की उपासना से प्राप्त होने वाले सारे फल नाशवान होते हैं , अतः ऐसी पूजा केवल अल्पज्ञों द्वारा की जाती है ।
इसी प्रकार परमेश्वर की भक्ति में कृष्णभावनामृत में संलग्न व्यक्ति ज्ञान से पूर्ण दिव्य आनन्दमय लोक की प्राप्ति करता है अतः उसकी तथा देवताओं के सामान्य उपासक की उपलब्धियाँ पृथक् – पृथक् होती हैं । परमेश्वर असीम हैं , उनका अनुग्रह अनन्त है , उनकी दया भी अनन्त है । अतः परमेश्वर की अपने शुद्धभक्तों पर कृपा भी असीम होती है ।
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