भगवद गीता अध्याय 7.2 || संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय सात  (Chapter -7)

भगवद गीता अध्याय 7.2  में शलोक 08 से  शलोक 12  तक संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन का वर्णन !

रसोऽहमप्सु  कौन्तेय  प्रभास्मि  शशिसूर्ययोः । 

      प्रणवः   सर्ववेदेषु    शब्दः    खे    पौरुषं   नृषु ॥ ८ ॥ 

रसः  –  स्वाद  ;  अहम्  –  मैं  ;  अप्सु  –  जल में  ;   कौन्तेय  –  हे कुन्तीपुत्र  ;  प्रभा  –  प्रकाश ;  अस्मि  –  हूँ   ;   शशि-सूर्ययो:   –  चन्द्रमा तथा सूर्य का  ;  प्रणवः  –  ओंकार के अ , उ , म – ये तीन अक्षर  ;   सर्व   –  समस्त  ;   वेदेषु  –  वेदों में  ;   शब्द:  –  शब्द , ध्वनि  ;   खे  –  आकाश में  ;  पौरुषम्  –  शक्ति , सामर्थ्य  ;  नृषु  –  मनुष्यों में

हे कुन्तीपुत्र ! मैं जल का स्वाद हूँ , सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ , वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ , आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ । 

तात्पर्य :- यह श्लोक बताता है कि भगवान् किस प्रकार अपनी विविध परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वव्यापी हैं । परमेश्वर की प्रारम्भिक अनुभूति उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा हो सकती है और इस प्रकार उनका निराकार रूप में अनुभव होता है ।

जिस प्रकार सूर्यदेवता एक पुरुष है और अपनी सर्वव्यापी शक्ति – सूर्यप्रकाश – द्वारा अनुभव किया जाता है , उसी प्रकार भगवान् अपने धाम में रहते हुए भी अपनी सर्वव्यापी शक्तियों द्वारा अनुभव किये जाते हैं ।

जल का स्वाद जल का मूलभूत गुण है । कोई भी व्यक्ति समुद्र का जल नहीं पीना चाहता क्योंकि इसमें शुद्ध जल के स्वाद के साथ साथ नमक मिला रहता है । जल के प्रति आकर्षण का कारण स्वाद की शुद्धि है और यह शुद्ध स्वाद भगवान् की शक्तियों में से एक है ।

निर्विशेषवादी व्यक्ति जल में भगवान् की उपस्थिति जल के स्वाद के कारण अनुभव करता है और सगुणवादी भगवान् का गुणगान करता है , क्योंकि वे प्यास बुझाने के लिए सुस्वादु जल प्रदान करते हैं ।

परमेश्वर को अनुभव करने की यही विधि है । गुणवाद तथा निर्विशेषवाद में कोई मतभेद नहीं है । जो इंचर को जानता है वह यह भी जानता है कि प्रत्येक वस्तु में एकसाथ सगुणबोध तथा निर्गुणोध निहित होता है और इनमें कोई विरोध नहीं है ।

अतः भगवान् चैतन्य ने अपना शुद्ध सिद्धान्त प्रतिपादित किया जो अचिन्त्य भेदाभेद – तत्त्व कहलाता है । सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश भी मूलतः ब्रह्मज्योति से निकलता है , जो भगवान् का निर्विशेष प्रकाश है । प्रणव या ओंकार प्रत्येक वैदिक मन्त्र के प्रारम्भ में भगवान को सम्बोधित करने के लिए प्रयुक्त दिव्य ध्वनि है ।

चूंकि निर्विशेषवादी परमेश्वर कृष्ण को उनके असंख्य नामों के द्वारा पुकारने से भयभीत रहते हैं , अतः वे ओंकार का उच्चारण करते हैं , किन्तु उन्हें इसकी तनिक भी अनुभूति नहीं होती कि ओंकार कृष्ण का शब्द स्वरूप है ।

कृष्णभावनामृत का क्षेत्र व्यापक है और जो इस भावनामृत को जानता है यह धन्य है । जो कृष्ण को नहीं जानते थे मोहग्रस्त रहते हैं । अतः कृष्ण का ज्ञान मुक्ति है और उनके प्रति अज्ञान वन्धन है । 

पुण्यो   गन्धः  पृथिव्यां  च  तेजश्चास्मि  विभावसौ । 

        जीवनं      सर्वभूतेषु       तपश्चास्मि      तपस्विषु ॥ ९ ॥ 

पुण्य  –  मूल आद  ;  गन्धः  – सुगंध  ;  पृथिव्याम्  –  पृथ्वी में  ;   च  –  भी   ;  तेजः  –  प्रकाश  ;   च  –  भी   ;   अस्मि –  हूँ  ;  विभावसौ  –  अग्नि में  ;   जीवनम्  –  प्राण  ;  सर्व  –  समस्त  ;   भूतेषु  –  जीवों में  ;  तपः  –  तपस्या  ;  च  –  भी   ;  तपस्विषु  –  तपस्वियों में ।

मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ । में समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ । 

तात्पर्य :-  पुण्य का अर्थ है जिसमें विकार न हो , अतः आद्य इस जगत् में प्रत्येक वस्तु में कोई न कोई सुगंध होती है , यथा फूल की सुगंध या जल , पृथ्वी , अग्नि , वायु आदि की सुगंध समस्त वस्तुओं में व्याप्त अदूषित भोतिक गन्ध , जो आद्य सुगंध है , वह कृष्ण है । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का एक विशिष्ट स्वाद ( रस ) होता है और इस स्वाद को रसायनों के मिश्रण द्वारा बदला जा सकता है ।

अतः प्रत्येक मूल वस्तु में कोई न कोई गन्ध तथा स्वाद होता है । विभावसु का अर्थ अग्नि है । अग्नि के बिना न तो फैक्टरी चल सकती है , न भोजन पक सकता है । यह अग्नि कृष्ण है । अग्नि का तेज ( कृष्णा ) भी कृष्ण ही है । वैदिक चिकित्सा के अनुसार कुपच का कारण पेट में अग्नि की मंदता है । अतः पाचन तक के लिए अग्नि आवश्यक है ।

कृष्णभावनामृत में हम इस बात से अवगत होते हैं कि पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु तथा प्रत्येक सक्रिय तत्त्व , सारे रसायन तथा सारे भौतिक तत्त्व कृष्ण के कारण है । मनुष्य की आयु भी कृष्ण के कारण है । अतः कृष्ण की कृपा से ही मनुष्य अपने को दीर्घायु या अल्पजीवी बना सकता है । अतः कृष्णभावनामृत प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय रहता है ।

बीजं  मां  सर्वभूतानां  विद्धि  पार्थ  सनातनम् ।

          बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि       तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ १० ॥ 

बीजम्   –  वीज  ;   माम् –  मुझको  ;   सर्व-भूतानाम्  –  समस्त जीवों का   ;   विद्धि  –  जानने का प्रयास करो   ;   पार्थ  –  हे पृथापुत्र  ;   सनातनम्  – आदि , शाश्वत  ;  बुद्धिः  –  बुद्धि  ;   बुद्धि-मताम्   –   बुद्धिमानों की   ;  अस्मि  – हूँ  ;  तेज:  –  तेज  ;  तेजस्विनाम्  –  तेजस्वियों का  ;   अहम्  –   मैं । 

हे पृथापुत्र ! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ , बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ । 

तात्पर्य :- कृष्ण समस्त पदार्थों के बीज हैं । कई प्रकार के चर तथा अचर जीव हैं । पक्षी , पशु , मनुष्य तथा अन्य सजीव प्राणी चर हैं , पेड़ पौधे अचर हैं – वे चल नहीं सकते , केवल खड़े रहते हैं । प्रत्येक जीव चौरासी लाख योनियों के अन्तर्गत है , जिनमें से कुछ चर हैं और कुछ अचर ।

किन्तु इन सबके जीवन के बीजस्वरूप श्रीकृष्ण हैं । जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा गया है ब्रह्म या परमसत्य वह है जिससे प्रत्येक वस्तु उद्भूत है । कृष्ण परब्रह्म या परमात्मा हैं । ब्रह्म तो निर्विशेष है , किन्तु परब्रह्म साकार है । निर्विशेष ब्रह्म साकार रूप में आधारित है – यह भगवद्गीता में कहा गया है । अतः आदि रूप में कृष्ण समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं ।

वे मूल हैं । जिस प्रकार मूल सारे वृक्ष का पालन करता है । उसी प्रकार कृष्ण मूल होने के कारण इस जगत् के समस्त प्राणियों का पालन करते हैं । इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य में ( कठोपनिषद् २.२.१३ ) हुई है 

नित्यो    नित्यानां     चेतनश्चेतनानाम्

एको   बहूनां  यो  विदधाति  कामान्

वे समस्त नित्यों के नित्य हैं । वे समस्त जीवों के परम जीव हैं और वे ही समस्त जीवों का पालन करने वाले हैं । मनुष्य बुद्धि के बिना कुछ नहीं कर सकता और कृष्ण भी कहते हैं कि मैं ही समस्त बुद्धि का मूल हूँ । जब तक मनुष्य बुद्धिमान नहीं होता , वह भगवान् कृष्ण को नहीं समझ सकता ।

बलं   बलवतां   चाहं   कामरागविवर्जितम् ।

         धर्माविरुद्धो  भूतेषु  कामोऽस्मि  भरतर्षभ ॥ ११ ॥

बलम्   –   शक्ति   ;   बल-वताम्  –  बलवानों का  ;  च  –  तथा  ;  अहम्  –  मैं हूँ   ;  काम   – विषयभोग   ;   राग  –   तथा आसक्ति से  ;   विवर्जितम्  –  रहित  ;   धर्म-अविरुद्धः  – जो धर्म के विरुद्ध नहीं है  ;   भूतेषु  –   समस्त जीवों में   ;  काम:  –  विषयी जीवन  ;  अस्मि  –  हूँ   ;   भरत-ऋषभ   –   हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ

में बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ । हे भरतश्रेष्ठ ( अर्जुन ) ! मैं वह काम हूँ , जो धर्म के विरुद्ध नहीं है । 

तात्पर्य :-  बलवान पुरुष की शक्ति का उपयोग दुर्बलों की रक्षा के लिए होना चाहिए , व्यक्तिगत आक्रमण के लिए नहीं । इसी प्रकार धर्म – सम्मत मैथुन सन्तानोत्पति के लिए होना चाहिए , अन्य कार्यों के लिए नहीं । अतः माता – पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपनी सन्तान को कृष्णभावनाभावित बनाएँ ।

ये  चैव  सात्त्विका  भावा  राजसास्तामसाश्च  ये ।

         मत्त  एवेति  तान्विद्धि  न  त्वहं   तेषु   ते   मयि ॥ १२ ॥

ये  –  जो   ;   च  –  तथा  ;  एव  –  निश्चय ही  ;  सात्त्विका:  –   सतोगुणी   ;   भावा:  –  भाव   ; राजसा:   –   रजोगुणी   ; तामसा:  –  तमोगुणी  ;   च   –   भी  ;  ये  – जो  ;  मत्तः  – मुझसे  ;   एव  –   निश्चय ही   ;   इति  –  इस प्रकार  ;  तान्  –  उनको   ;   विद्धि  –   जानो  ;  न  –  नहीं  ;  तु  – लेकिन   ;  अहम्  –  मैं   ;  तेषु  –  उनमें   ;   ते  –  वे  ;  मयि  – मुझमें । 

तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं , चाहे वे सतोगुण हों , रजोगुण हों या तमोगुण हों । एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ , किन्तु हूँ स्वतन्त्र । मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ , अपितु वे मेरे अधीन हैं । 

तात्पर्य :- संसार के सारे भौतिक कार्यकलाप प्रकृति के गुणों के अधीन सम्पन्न होते हैं । यद्यपि प्रकृति के गुण परमेश्वर कृष्ण से उद्भूत हैं , किन्तु भगवान् उनके अधीन नहीं होते । उदाहरणार्थ , राज्य के नियमानुसार कोई दण्डित हो सकता है , किन्तु नियम बनाने वाला राजा उस नियम के अधीन नहीं होता ।

इसी तरह प्रकृति के सभी गुण – सतो , रजो तथा तमोगुण- भगवान् कृष्ण से उद्भूत हैं , किन्तु कृष्ण प्रकृति के अधीन नहीं हैं । इसीलिए वे निर्गुण हैं , जिसका तात्पर्य है कि सभी गुण उनसे उद्भूत हैं , किन्तु ये उन्हें प्रभावित नहीं करते । यह भगवान् का विशेष लक्षण है ।

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भगवद गीता अध्याय 7.2

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