भगवद गीता अध्याय 6.6 || योगभ्रष्ट पुरुष और ध्यानयोगी || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय छह (Chapter -6)

भगवद गीता अध्याय 6.6 में शलोक 37 से  शलोक 47  तक  योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा  का वर्णन !

अर्जुन उवाच

  अयतिः       श्रद्धयोपेतो       योगाच्चलितमानसः ।

            अप्राप्य योगसंसिद्धिं   कां  गतिं  कृष्ण  गच्छति ॥ ३७ ॥

अर्जुनः उवाच  –   अर्जुन ने कहा  ;  अयति:  –  असफल योगी  ;   श्रद्धया  –  बद्धा से  ;  उपेतः  –  लगा हुआ , संलग्न  ;   योगात्  –  योग से  ;  चलित  – विचलित   ;   मानस:  –  मन वाला  ;  अप्राप्य  –  प्राप्त न करके  ;  योग-संसिद्धिम्  –  योग की सर्वोच्च सिद्धि को   ;  काम्  –  किम  ;   गतिम्   –  लक्ष्य को   ;  कृष्ण  –  हे कृष्ण  ;  गच्छति  –  प्राप्त करता है

अर्जुन ने कहाः हे कृष्ण ! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म – साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है , किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ? 

तात्पर्य :- भगवद्गीता में आत्म – साक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है । आत्म – साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है , अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्वत जीवन , आनन्द तथा ज्ञान में निहित है । ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं । आत्म – साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है । इसके लिए विधि या भक्तियोग का अभ्यास करना होता है ।

इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति , भगवान् से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है , जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध – अवस्था प्राप्त कर सके । इन तीनों विधियों में से किसी एक का भी पालन करके मनुष्य देर – सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है ।

भगवान् ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है कि दिव्यमार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है । इन तीनों में से इस युग के लिए भक्तियोग विशेष रूप से उपयुक्त है , क्योंकि ईश – साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है , अतः अर्जुन पुनः आश्वस्त होने की दृष्टि से भगवान् कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है ।

भले ही कोई आत्म – साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे , किन्तु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है , अतः निरन्तर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है । पहला कारण तो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये । दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलना जैसा है ।

फलतः जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है , तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है । बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणों द्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुनः मोहित होने की सम्भावना बनी रहती है । यही योगाच्चलितमानस अर्थात् दिव्य पथ से विचलन कहलाता है । अर्जुन आत्म – साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के सम्बन्ध में जिज्ञासा करता है ।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव   नश्यति । 

         अप्रतिष्ठो  महाबाहो  विमूढो  ब्रह्मणः  पथि ॥ ३८ ॥ 

कच्चित्  –   क्या  ;  न  –  नहीं  ;  उभय  –  दोनों  ;  इव  –  सदृश  ;  नश्यति  –  नष्ट हो जाता है   ;  विभ्रष्ट:  –  विचलित  ;  छिन्न  –  छिन्न-भिन्न  ;  अभ्रम्  –  वादल  ;  अप्रतिष्ठः  –  बिना किसी पद के ; महाबाहो  –  हे बलिष्ठ भुजाओं वाले कृष्ण   ;   विमूढः  –  मोहग्रस्त  ;  ब्रह्मणः   –  ब्रह्म-प्राप्ति के  ;  पथि  –  मार्ग में

 हे महाबाहु कृष्ण ! क्या ब्रह्म – प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्युत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता ? 

तात्पर्य :- उन्नति के दो मार्ग हैं । भौतिकतावादी व्यक्तियों की अध्यात्म में कोई रुचि नहीं होती , अतः वे आर्थिक विकास द्वारा भौतिक प्रगति में अत्यधिक रुचि लेते हैं या फिर समुचित कार्य द्वारा उच्चतर लोकों को प्राप्त करने में अधिक रुचि रखते हैं । यदि कोई अध्यात्म के मार्ग को चुनता है , तो उसे सभी प्रकार के तथाकथित भौतिक सुख से विरक्त होना पड़ता है ।

यदि महत्त्वाकांक्षी ब्रह्मवादी असफल होता है तो वह दोनों ओर से जाता है । दूसरे शब्दों में , वह न तो भौतिक सुख भोग पाता है , न आध्यात्मिक सफलता ही प्राप्त कर सकता है । उसका कोई स्थान नहीं रहता , वह छिन्न – भिन्न वादल के समान होता है । कभी – कभी आकाश में एक वादल छोटे बादलखंड से विलग होकर एक बड़े खंड से जा मिलता है , किन्तु यदि वह बड़े खंड से नहीं जुड़ पाता तो वायु उसे वहा ले जाती है और वह विराट आकाश में लुप्त हो जाता है ।

ब्रह्मणः पथि ब्रह्म – साक्षात्कार का मार्ग है जो अपने आपको परमेश्वर का अभिन्न अंश जान लेने पर प्राप्त होता है और यह परमेश्वर ब्रह्म , परमात्मा तथा भगवान् रूप में प्रकट होता है । भगवान् श्रीकृष्ण परमसत्य के पूर्ण प्राकट्य हैं , अतः जो इस परमपुरुष की शरण में जाता है वही सफल योगी है । ब्रह्म तथा परमात्मा साक्षात्कार के माध्यम से जीवन के इस लक्ष्य तक पहुँचने में अनेकानेक जन्म लग जाते हैं ( बहूनां जन्मनामन्त ) । अतः दिव्य – साक्षात्कार का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भक्तियोग या कृष्णभावनामृत की प्रत्यक्ष विधि है । 

एतन्मे    संशयं     कृष्ण   छेत्तुमर्हस्यशेषतः । 

        त्वदन्यः  संशयस्यास्य  छेत्ता  न  ह्युपपद्यते ॥ ३९ ॥ 

एतत्  –  यह है  ;   मे  –  मेरा  ;  संशयम्  –  सन्देह   ;  कृष्ण  –  हे कृष्ण   ;   छेत्तुम्  –  दूर करने के लिए   ;  अर्हसि  – आपसे प्रार्थना है  ;   अशेषतः  – पूर्णतया   ;  त्वत्  –  आपकी अपेक्षा  ;   अन्यः –   दूसरा   ;  संशयस्य  –  सन्देह का  ;  अस्य   –  इस  ;   छेत्ता  –  दूर करने वाला  ;   न  –  नहीं  ;  हि  –  निश्चय ही  ;   उपपद्यते  –   पाया जाना सम्भव है । 

हे कृष्ण ! यही मेरा सन्देह है , और मैं आपसे इसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ । आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है , जो इस सन्देह को नष्ट कर सके । 

तात्पर्य : – कृष्ण भूत , वर्तमान तथा भविष्य के जानने वाले हैं । भगवद्गीता के प्रारम्भ में भगवान् ने कहा है कि सारे जीव व्यष्टि रूप में भूतकाल में विद्यमान थे , इस समय विद्यमान हैं और भववन्धन से मुक्त होने पर भविष्य में भी व्यष्टि रूप में बने रहेंगे । इस प्रकार उन्होंने व्यष्टि जीव के भविष्य विषयक प्रश्न का स्पष्टीकरण कर दिया है ।

अब अर्जुन असफल योगियों के भविष्य के विषय में जानना चाहता है । कोई न तो कृष्ण के समान है , न ही उनसे वड़ा । तथाकथित वड़े – बड़े ऋषि तथा दार्शनिक , जो प्रकृति की कृपा पर निर्भर हैं , निश्चय ही उनकी समता नहीं कर सकते । अतः समस्त सन्देहों का वर्तमान पूरा – पूरा उत्तर पाने के लिए कृष्ण का निर्णय अन्तिम तथा पूर्ण है क्योंकि वे भूत , तथा भविष्य के ज्ञाता हैं , किन्तु उन्हें कोई भी नहीं जानता । कृष्ण तथा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही जान सकते हैं कि कौन क्या है । 

श्रीभगवानुवाच 

पार्थ    नैवेह    नामुत्र     विनाशस्तस्य    विद्यते । 

         न  हि  कल्याणकृत्कश्चिद्  दुर्गतिं  तात  गच्छति ॥ ४० ॥ 

श्रीभगवान्  उवाच   –   भगवान् ने कहा  ;   पार्थ   –  हे पृथापुत्र  ;  न एव  –  कभी ऐसा नहीं है   ;  इह  –  इस संसार में  ;  न  – कभी नहीं   ;  अमुत्र  –  अगले जन्म में  ;   विनाशः  –  नाश  ;   तस्य  – उसका   ;  विद्यते  –  होता है  ;   न  –  कभी नहीं   ;   हि –  निश्चय ही   ;   कल्याण-कृत्   – शुभ कार्यों में लगा हुआ  ;   कश्चित्  –  कोई भी  ;   दुर्गतिम्  –  पतन को   ;  तात  –  हे मेरे मित्र   ;  गच्छति   –  जाता है

 भगवान् ने कहा हे पृथापुत्र ! कल्याण कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है । हे मित्र ! भलाई करने वाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता ।

 तात्पर्य :- श्रीमद्भागवत में ( १.५.१७ ) श्री नारद मुनि व्यासदेव को इस प्रकार उपदेश देते है-

त्यक्त्वा   स्वधर्म    चरणाम्बुजं    हरेभंजन्त्रपकोऽथ   पतेततो   यदि ।

यंत्र  के  वाभद्रमभूदमुष्य   किं  को  वार्थ  आप्तोऽभजतां  स्वधर्मतः ॥

“ यदि कोई समस्त भौतिक आशाओं को त्याग कर भगवान् की शरण में जाता है । तो इसमें न तो कोई क्षति होती है और न पतन । दूसरी ओर अभक्त जन अपने – अपने व्यवसायों में लगे रह सकते हैं फिर भी वे कुछ प्राप्त नहीं कर पाते । ” भौतिक लाभ के लिए अनेक शास्त्रीय तथा लौकिक कार्य हैं । जीवन में आध्यात्मिक उन्नति अर्थात् कृष्णभावनामृत के लिए योगी को समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग करना होता है ।

कोई यह तर्क कर सकता है कि यदि कृष्णभावनामृत पूर्ण हो जाय तो इससे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त हो सकती है , किन्तु यदि यह सिद्धि प्राप्त न हो पाई तो भौतिक एवं • आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से मनुष्य को क्षति पहुँचती है । शास्त्रों का आदेश है कि यदि कोई स्वधर्म का आचरण नहीं करता तो उसे पापफल भोगना पड़ता है , अतः जो दिव्य कार्यों को ठीक से नहीं कर पाता उसे फल भोगना होता है ।

भागवत पुराण आश्वस्त करता है कि असफल योगी को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । भले ही उसे ठीक से स्वधर्माचरण न करने का फल भोगना पड़े तो भी वह घाटे में नहीं रहता क्योंकि शुभ कृष्णभावनामृत कभी विस्मृत नहीं होता । जो इस प्रकार से लगा रहता है वह अगले जन्म में निम्नयोनि में भी जन्म लेकर पहले की भाँति भक्ति करता है ।

दूसरी ओर , जो केवल नियत कार्यों को दृढतापूर्वक करता है , किन्तु यदि उसमें कृष्णभावनामृत का अभाव है तो आवश्यक नहीं कि उसे शुभ फल प्राप्त हो । इस श्लोक का तात्पर्य इस प्रकार है – मानवता के दो विभाग किये जा सकते हैं नियमित तथा अनियमित । जो लोग अगले जन्म तथा मुक्ति के ज्ञान के बिना पाशविक इन्द्रियतृप्ति में लगे रहते हैं वे अनियमित विभाग में आते हैं ।

जो लोग शास्त्रों में वर्णित कर्तव्य के सिद्धान्तों का पालन करते हैं वे नियमित विभाग में वर्गीकृत होते हैं । अनियमित विभाग के संस्कृत तथा असंस्कृत , शिक्षित तथा अशिक्षित , वली तथा निर्वल लोग पाशविक वृत्तियों से पूर्ण होते हैं । उनके कार्य कभी भी कल्याणकारी नहीं होते क्योंकि वे पशुओं की भाँति आहार , निद्रा , भय तथा मैथुन का भोग करते हुए इस संसार में निरन्तर रहते हैं , जो सदा ही दुखमय है ।

किन्तु जो लोग शास्त्रीय आदेशों के अनुसार संयमित रहते हैं और इस प्रकार क्रमशः कृष्णभावनामृत को प्राप्त होते हैं , वे निश्चित रूप से जीवन में उन्नति करते हैं । कल्याण – मार्ग के अनुयायियों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- ( १ ) भौतिक सम्पन्नता का उपभोग करने वाले शास्त्रीय विधि – विधानों के अनुयायी , ( २ ) इस संसार से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील लोग तथा ( ३ ) कृष्णभावनामृत के भक्त ।

प्रथम वर्ग के अनुयायियों को पुनः दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है – सकामकर्मी तथा इन्द्रियतृप्ति की इच्छा न करने वाले । सकामकर्मी जीवन के उच्चतर स्तर तक उठ सकते है – यहाँ तक कि स्वर्गलोक को जा सकते हैं तो भी इस संसार से मुक्त न होने के कारण चे सही ढंग से शुभ मार्ग का अनुगमन नहीं करते । शुभ कर्म तो वे हैं जिनसे मुक्ति प्राप्त हो ।

कोई भी ऐसा कार्य जो परम आत्म – साक्षात्कार या देहात्मबुद्धि से मुक्ति की ओर उन्मुख नहीं होता वह रंचमात्र भी कल्याणप्रद नहीं होता । कृष्णभावनामृत सम्बन्धी कार्य ही एकमात्र शुभ कार्य है और जो भी कृष्णभावनामृत के मार्ग पर प्रगति करने के उद्देश्य से स्वेच्छा से समस्त शारीरिक असुविधाओं को स्वीकार करता है वही घोर तपस्या के द्वारा पूर्णयोगी कहलाता है ।

चूंकि अष्टांगयोग पद्धति कृष्णभावनामृत की चरम अनुभूति के लिए होती है , अतः यह पद्धति भी कल्याणप्रद है , अतः जो कोई इस दिशा में यथाशक्य प्रयास करता है उसे कभी अपने पतन के प्रति भयभीत नहीं होना चाहिए । 

प्राप्य  पुण्यकृतां  लोकानुषित्वा  शाश्वतीः  समाः ।

        शुचीनां    श्रीमतां     गेहे     योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥

प्राप्य  –  प्राप्त करके  ;  पुण्य-कृताम्  –  पुण्य कर्म करने वालों के  ;   लोकान्  –   लोकों में  ; उधित्वा  –  निवास करके  ;  शाश्वती:  –  अनेक  ;  समाः  –  वर्ष  ;   शुचीनाम्  –  पवित्रात्माओं के ;    श्री-मताम्   –   सम्पन्न लोगों के   ;   गेहे  –  घर में   ;  योग-भ्रष्ट:  –  आत्म-साक्षात्कार के पथ से च्युत व्यक्ति  ;  अभिजायते  –  जन्म लेता है । 

असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या कि धनवानों के कुल में जन्म लेता है ।

तात्पर्य :- असफल योगियों की दो श्रेणियाँ हैं – एक वे जो बहुत थोड़ी उन्नति के बाद ही भ्रष्ट होते हैं , दूसरे वे जो दीर्घकाल तक योगाभ्यास के बाद भ्रष्ट होते हैं । जो योगी अल्पकालिक अभ्यास के बाद भ्रष्ट होता है यह स्वर्गलोक को जाता है जहाँ केवल पुण्यात्माओं को प्रविष्ट होने दिया जाता है ।

वहाँ पर दीर्घकाल तक रहने के बाद उसे पुनः इस लोक में भेजा जाता है जिससे वह किसी सदाचारी ब्राह्मण वैष्णव के कुल में या धनवान वणिक के कुल में जन्म ले सके ।

योगाभ्यास का वास्तविक उद्देश्य कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करना है , जैसा कि इस अध्याय के अन्तिम श्लोक में बताया गया है , किन्तु जो इतने अध्यवसायी नहीं होते और जो भौतिक प्रलोभनों के कारण असफल हो जाते हैं , उन्हें अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने की अनुमति दी जाती है ।

तत्पश्चात् उन्हें सदाचारी या धनवान परिवारों में सम्पन्न जीवन विताने का अवसर प्रदान किया जाता है । ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले इन सुविधाओं का लाभ उठाते हुए अपने आपको पूर्ण कृष्णभावनामृत तक ऊपर ले जाते हैं ।

अथवा  योगिनामेव  कुले  भवति  धीमताम् ।  

          एतद्धि   दुर्लभतरं   लोके   जन्म  यदीदृशम् ॥ ४२ ॥ 

अथवा  –  या  ;  योगिनाम्  –  विद्वान योगियों के   ;   एव  –  निश्चय ही  ;  कुले  –  परिवार में  ;  भवति  –  जन्म लेता है  ;   धी-मताम्   –  परम बुद्धिमानों के   ;  एतत्  –  यह  ;   हि  – निश्चय ही ;   दुर्लभ-तरम्  –   अत्यन्त दुर्लभ  ;  लोके  –   इस संसार में  ;  जन्म  –  जन्म  ;  यत्  –  जो  ;   ईदृशम् –   इस प्रकार का

अथवा ( यदि दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो ) वह ऐसे योगियों के में जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं । निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है ।

तात्पर्य :- यहाँ पर योगियों के बुद्धिमान कुल में जन्म लेने की प्रशंसा की गई है क्योंकि ऐसे कुल में उत्पन्न वालक को प्रारम्भ से ही आध्यात्मिक प्रोत्साहन प्राप्त होता है । विशेषतया आचार्यों या गोस्वामियों के कुल में ऐसी परिस्थिति है । ऐसे कुल अत्यन्त विद्वान होते हैं और परम्परा तथा प्रशिक्षण के कारण श्रद्धावान होते हैं । इस प्रकार वे गुरु बनते हैं । भारत में ऐसे अनेक आचार्य कुल हैं , किन्तु अब ये अपर्याप्त विद्या तथा प्रशिक्षण के कारण पतनशील हो चुके हैं ।

भगवत्कृपा से अभी भी कुछ ऐसे परिवार हैं जिनमें पीढ़ी – दर – पीढ़ी योगियों को प्रश्रय मिलता है । ऐसे परिवारों में जन्म लेना सचमुच ही अत्यन्त सौभाग्य की बात है । सोभाग्यवश हमारे गुरु विष्णुपाद श्री श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज को तथा स्वयं हमें भी ऐसे परिवारों में जन्म लेने का अवसर प्राप्त हुआ । हम दोनों को बचपन से ही भगवद्भक्ति करने का प्रशिक्षण दिया गया । बाद में दिव्य व्यवस्था के अनुसार हमारी उनसे भेंट हुई । 

तत्र  तं   बुद्धिसंयोगं   लभते  पौर्वदेहिकम् ।

           यतते  च  ततो  भूयः  संसिद्धौ  कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥ 

तत्र   –  वहाँ  ;   तम्  –  उस  ;   बुद्धि-संयोगम्   –  चेतना की जागृति को  ;   लभते  –  प्राप्त होता है  ;    पौर्व-देहिकम्   –   पूर्व देह से  ;  यतते  –  प्रयास करता है  ;  च  –  भी  ;  ततः  –  तत्पश्चात्   ;  भूयः   –  पुन  ;   संसिद्धौ  –  सिद्धि के लिए   ;   कुरुनन्दन  –  हे कुरुपुत्र । 

हे कुरुनन्दन ! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है ।

तात्पर्य :- राजा भरत , जिन्हें तीसरे जन्म में उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म मिला , पूर्व दिव्यचेतना की पुनःप्राप्ति के लिए उत्तम जन्म के उदाहरणस्वरूप हैं । भरत विश्व भर के सम्राट थे और तभी से यह लोक देवताओं के बीच भारतवर्ष के नाम से विख्यात है ।

पहले यह इलावृतवर्ष के नाम से ज्ञात था । भरत ने अल्पायु में ही आध्यात्मिक सिद्धि के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया था , किन्तु वे सफल नहीं हो सके । अगले जन्म में उन्हें उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लेना पड़ा और वे जड़ भरत कहलाये क्योंकि वे एकान्त वास करते थे तथा किसी से बोलते न थे ।

बाद में राजा रहूगण ने इन्हें महानतम योगी के रूप में पाया । उनके जीवन से यह पता चलता है कि दिव्य प्रयास अथवा योगाभ्यास कभी व्यर्थ नहीं जाता । भगवत्कृपा से योगी को कृष्णभावनामृत में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के बारम्बार सुयोग प्राप्त होते रहते हैं । 

पूर्वाभ्यासेन  तेनैव  हियते  ह्यवशोऽपि  सः ।

          जिज्ञासुरपि    योगस्य    शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४ ॥

 पूर्व  –  पिछला  ;  अभ्यासेन  –  अभ्यास से  ;  तेन  –  उससे  ;   एव  –  ही  ;   हियते  –  आकर्षित होता है   ;   हि  –  निश्चय ही   ;  अवशः   –   स्वतः   ;   अपि  –  भी  ;   सः  –  वह  ;   जिज्ञासुः  –   उत्सुक  ;   अपि  –  भी  ;   योगस्य  –  योग के विषय में  ;   शब्द-ब्रह्म   –  शास्त्रों के अनुष्ठान  ;  अतिवर्तते   –  परे चला जाता है  , उल्लंघन करता है

अपने पूर्वजन्म की देवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है । ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है ।

तात्पर्य :- उन्नत योगीजन शास्त्रों के अनुष्ठानों के प्रति अधिक आकृष्ट नहीं होते , किन्तु योग – नियमों के प्रति स्वतः आकृष्ट होते हैं , जिनके द्वारा वे कृष्णभावनामृत में आरूढ हो सकते हैं । श्रीमद्भागवत में ( ३.३३.७ ) उन्नत योगियों द्वारा वैदिक अनुष्ठानों के प्रति अवहेलना की व्याख्या इस प्रकार की गई है 

अहो  बत  श्वपचोऽतो  गरीयान्  यज्जिह्वाग्रे  वर्तते  नाम  तुभ्यम् ।

तेपुस्तपस्ते   जुहुवुः   सस्नुरार्या   ब्रह्मानूचुर्नाम    गृणन्ति  ये   ते ॥

 ” हे भगवन् ! जो लोग आपके पवित्र नाम का जप करते हैं , वे चाण्डालों के परिवारों में जन्म लेकर भी आध्यात्मिक जीवन में अत्यधिक प्रगत होते हैं । ऐसे जपकर्ता निस्सन्देह सभी प्रकार के तप और यज्ञ कर चुके होते हैं , तीर्थस्थानों में स्नान कर चुके होते हैं और समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर चुके होते हैं । ”

इसका सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवान् चैतन्य ने प्रस्तुत किया , जिन्होंने ठाकुर हरिदास को अपने परमप्रिय शिष्य के रूप में स्वीकार किया । यद्यपि हरिदास का जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था , किन्तु भगवान् चैतन्य ने उन्हें नामाचार्य की पदवी प्रदान की क्योंकि वे प्रतिदिन नियमपूर्वक तीन लाख भगवान् के पवित्र नामों- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप करते थे ।

और चूँकि वे निरन्तर भगवान् के पवित्र नाम का जप करते रहते थे , अतः यह समझा जाता है कि पूर्वजन्म में उन्होंने शब्दब्रह्म नामक वेदवर्णित कर्मकाण्डों को पूरा किया होगा । अतएव जब तक कोई पवित्र नहीं होता तब तक कृष्णभावनामृत के नियमों को ग्रहण नहीं करता या भगवान् के पवित्र नाम हरे कृष्ण का जप नहीं कर सकता ।

प्रयत्नाद्यितमानस्तु   योगी  संशुद्धकिल्बिषः ।

          अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो  याति  परां  गतिम् ॥ ४५ ॥ 

प्रयत्नात्   –   कठिन अभ्यास से  ;   यतमानः   –   प्रयास करते हुए   ;  तु   –  तथा   ;   योगी   –  ऐसा योगी   ;   संशुद्ध   –   शुद्ध होकर  ;   किल्बिष:  –  जिसके सारे पाप   ;  अनेक  –  अनेकानेक  ;  जन्म  –   जन्मों के बाद   ;   संसिद्धः  –   सिद्धि प्राप्त करके   ;   ततः   –   तत्पश्चात्  ;   याति   –  प्राप्त करता है  ;   पराम्   –   सर्वोच्च   ;   गतिम्  –  गन्तव्य को । 

और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है , तो अन्ततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात् सिद्धि – लाभ करके वह परम गन्तव्य को प्राप्त करता है । 

तात्पर्य :- सदाचारी , धनवान या पवित्र कुल में उत्पन्न पुरुष योगाभ्यास के अनुकूल परिस्थिति से सचेष्ट हो जाता है । अतः वह दृढ़ संकल्प करके अपने अधूरे कार्य को करने में लग जाता है और इस प्रकार वह अपने को समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध कर लेता है । समस्त कल्मष से मुक्त होने पर उसे परम सिद्धि – कृष्णभावनामृत प्राप्त होती है । कृष्णभावनामृत ही समस्त कल्मष से मुक्त होने की पूर्ण अवस्था है । इसकी पुष्टि भगवद्गीता में ( ७.२८ ) हुई है –

येषां  त्वन्तगतं  पापं  जनानां  पुण्यकर्मणाम् ।

ते   इन्द्रमोहनिर्मुक्ता   भजन्ते  मां  दृढव्रताः ॥

” अनेक जन्मों तक पुण्यकर्म करने से जब कोई समस्त कल्मष तथा मोहमय इन्हों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है , तभी वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग पाता है । ” 

तपस्विभ्योऽधिको  योगी  ज्ञानिभ्योऽपि  मतोऽधिकः ।

  कर्मिभ्यश्चाधिको      योगी     तस्माद्योगी    भवार्जुन ॥ ४६ ॥ 

तपस्विभ्यः  –   तपस्वियों से   ;   अधिक  –   श्रेष्ठ , बढ़कर   ;   योगी  –  योगी  ;  ज्ञानिध्य:   –  ज्ञानियों से  ;   अपि  –  भी  ;   मतः  –  माना जाता है  ;  अधिक  –  बढकर  ;   कर्मिभ्य:   –  सकाम कर्मियों की अपेक्षा  ;   च   –  भी   ;   अधिक:   –  श्रेष्ठ   ;   योगी  –  योगी   ;   तस्मात्  –  अत  ; योगी  –   योगी  ;   भव  –  वनों  , होओ   ;   अर्जुन   –   हे अर्जुन

 योगी पुरुष तपस्वी से , ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है । अतः हे अर्जुन ! तुम सभी प्रकार से योगी बनो । 

तात्पर्य :- जब हम योग का नाम लेते हैं तो हम अपनी चेतना को परमसत्य के साथ जोड़ने की बात करते हैं । विविध अभ्यासकर्ता इस पद्धति को ग्रहण की गई विशेष विधि के अनुसार विभिन्न नामों से पुकारते हैं । जब यह योगपद्धति सकामकमों से मुख्यतः सम्बन्धित होती है तो कर्मयोग कहलाती है , जब यह चिन्तन से सम्बन्धित होती है तो ज्ञानयोग कहलाती है और जब यह भगवान की भक्ति से सम्बन्धित होती है तो भक्तियोग कहलाती है ।

भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त योगों की परमसिद्धि है , जैसा कि अगले श्लोक में बताया जायेगा । भगवान् ने यहाँ पर योग की श्रेष्ठता की पुष्टि की है , किन्तु उन्होंने इसका उल्लेख नहीं किया कि यह भक्तियोग से श्रेष्ठ है । भक्तियोग पूर्ण आत्मज्ञान है , अतः इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है । आत्मज्ञान के बिना तपस्या अपूर्ण है ।

परमेश्वर के प्रति समर्पित हुए बिना ज्ञानयोग भी अपूर्ण है । सकामकर्म भी कृष्णाभावनामृत के बिना समय का अपव्यय है । अतः यहाँ पर योग का सर्वाधिक प्रशंसित रूप भक्तियोग है और इसकी अधिक व्याख्या अगले श्लोक में की गई है । 

योगिनामपि       सर्वेषां      मद्गतेनान्तरात्मना । 

         श्रद्धावान्भजते  यो  मां  स  मे  युक्ततमो  मतः ॥ ४७ ॥ 

योगिनाम्   –   योगियों में से   ;   अपि  –  भी   ;  सर्वेषाम्  –   समस्त प्रकार के  ;   मत्-गतेन   –  मेरे परायण, सदैव मेरे विषय में सोचते हुए   ;   अन्तः-आत्मना    –   अपने भीतर श्रद्धावान  –   श्रद्धा सहित   ;  भजते  –   दिव्य प्रेमाभक्ति करता है   ;   यः  – जो  ;   माम्   –  मेरी ( परमेश्वर की )  ;   सः  –   यह  ;   मे  –  मेरे द्वारा  ;   युक्त-तमः   –   परम योगी   ;   मतः  –  माना जाता है । 

और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है , अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है ।

  तात्पर्य :- यहाँ पर भजते शब्द महत्त्वपूर्ण है । भजते भज् धातु से बना है जिसका अर्थ है – सेवा करना । अंग्रेजी शब्द वर्शिप ( पूजन ) से यह भाव व्यक्त नहीं होता , क्योंकि इससे पूजा करना , सम्मान दिखाना तथा योग्य का सम्मान करना सूचित होता है । किन्तु प्रेम तथा श्रद्धापूर्वक सेवा तो श्रीभगवान् के निमित्त है ।

किसी सम्माननीय व्यक्ति या देवता की पूजा न करने वाले को अशिष्ट कहा जा सकता है , किन्तु भगवान् की सेवा न करने वाले की तो पूरी तरह भर्त्सना की जाती है । प्रत्येक जीव भगवान् का अंशस्वरूप है और इस तरह प्रत्येक जीव को अपने स्वभाव के अनुसार भगवान् की सेवा करनी चाहिए । ऐसा न करने से वह नीचे गिर जाता है । भागवत पुराण में ( ११.५.३ ) इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है 

य     एषां    पुरुष     साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम् ।

न  भजन्त्यवजानन्ति  स्थानाद्भ्रष्टाः  पतन्त्यधः ॥

 ” जो मनुष्य अपने जीवनदाता आद्य भगवान् की सेवा नहीं करता और अपने कर्तव्य में शिथिलता वरतता है , वह निश्चित रूप से अपनी स्वाभाविक स्थिति से नीचे गिरता है ।”

भागवत पुराण के इस श्लोक में भजन्ति शब्द व्यवहृत हुआ है । भजन्ति शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है , जबकि वर्शिप ( पूजन ) का प्रयोग देवताओं या अन्य किसी सामान्य जीव के लिए किया जाता है । इस श्लोक में प्रयुक्त अवजानन्ति शब्द भगवद्गीता में भी पाया जाता है – अवजानन्ति मां मूढा : – केवल मुर्ख तथा धूर्त भगवान् कृष्ण का उपहास करते हैं ।

ऐसे मूर्ख भगवद्भक्ति की प्रवृत्ति न होने पर भी भगवद्गीता का भाष्य कर बैठते हैं । फलतः वे भजन्ति तथा वर्शिप ( पूजन ) शब्दों के अन्तर को नहीं समझ पाते ।भक्तियोग समस्त योगों की परिणति है । अन्य योग तो भक्तियोग में भक्ति तक पहुँचने के साधन मात्र हैं । योग का वास्तविक अर्थ भक्तियोग है – अन्य सारे योग भक्तियोग रूपी गन्तव्य की दिशा में अग्रसर होते हैं ।

कर्मयोग से लेकर भक्तियोग तक का लम्बा रास्ता आत्म – साक्षात्कार तक जाता है । निष्काम कर्मयोग इस रास्ते ( मार्ग ) का आरम्भ है । जब कर्मयोग में ज्ञान तथा वैराग्य की वृद्धि होती है तो यह अवस्था ज्ञानयोग कहलाती है । जब ज्ञानयोग में अनेक भौतिक विधियों से परमात्मा के ध्यान में वृद्धि होने लगती है और मन उन पर लगा रहता है तो इसे अष्टांगयोग कहते हैं ।

इस अष्टांगयोग को पार करने पर जब मनुष्य श्रीभगवान् कृष्ण के निकट पहुँचता है तो यह भक्तियोग कहलाता है । यथार्थ में भक्तियोग ही चरम लक्ष्य है , किन्तु भक्तियोग का सूक्ष्म विश्लेषण करने के लिए अन्य योगों को समझना होता है । अतः जो योगी प्रगतिशील होता है वह शाश्वत कल्याण के सही मार्ग पर रहता है । जो किसी एक विन्दु पर दृढ़ रहता है और आगे प्रगति नहीं करता वह कर्मयोगी , ज्ञानयोगी , ध्यानयोगी , राजयोगी , हठयोगी आदि नामों से पुकारा जाता है ।

यदि कोई इतना भाग्यशाली होता है कि भक्तियोग को प्राप्त हो सके तो यह समझना चाहिए कि उसने समस्त योगों को पार कर लिया है । अतः कृष्णभावनाभावित होना योग की सर्वोच्च अवस्था है , ठीक उसी तरह जैसे कि हम यह कहते हैं कि विश्व भर के पर्वतों में हिमालय सबसे ऊँचा है , जिसकी सर्वोच्च चोटी एवरेस्ट है । कोई विरला भाग्यशाली ही वैदिक विधान के अनुसार भक्तियोग के पथ को स्वीकार करके कृष्णभावनाभावित हो पाता है ।

आदर्श योगी श्यामसुन्दर कृष्ण पर अपना ध्यान एकाग्र करता है , जो बादल के समान सुन्दर रंग वाले हैं , जिनका कमल सदृश मुख सूर्य के समान तेजवान है , जिनका वस्त्र रत्नों से प्रभापूर्ण है और जिनका शरीर फूलों की माला से सुशोभित है । उनके अंगों को प्रदीप्त करने वाली उनकी ज्योति ब्रह्मज्योति कहलाती है । वे राम , नृसिंह , वराह तथा श्रीभगवान् कृष्ण जैसे विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं ।

वे सामान्य व्यक्ति की भाँति , माता यशोदा के पुत्र रूप में जन्म ग्रहण करते हैं । और कृष्ण , गोविन्द तथा वासुदेव के नाम से जाने जाते हैं । वे पूर्ण बालक , पूर्ण पति , पूर्ण सखा तथा पूर्ण स्वामी हैं , और वे समस्त ऐश्वर्यो तथा दिव्य गुणों से ओतप्रोत हैं । जो श्रीभगवान् के इन गुणों से पूर्णतया अभिज्ञ रहता है वह सर्वोच्च योगी कहलाता है । योग की यह सर्वोच्च दशा केवल भक्तियोग से ही प्राप्त की जा सकती है जिसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.२३ ) 

यस्य   देवे   पराभक्तिर्यथा  देवे    तथा   गुरौ ।

तस्यैते  कथिता  हार्थाः  प्रकाशन्ते  महात्मनः ॥

 ” जिन महात्माओं के हृदय में श्रीभगवान् तथा गुरु में परम श्रद्धा होती है उनमें वैदिक ज्ञान का सम्पूर्ण तात्पर्य स्वतः प्रकाशित हो जाता है । ” भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैरास्येनामुष्मिन् मनःकल्पनमेतदेव नैष्कर्म्यम् – भक्ति का अर्थ है , भगवान् की सेवा जो इस जीवन में या अगले जीवन में भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होती है ।

ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर मनुष्य को अपना मन परमेश्वर में लीन करना चाहिये । नैष्कर्म्य का यही प्रयोजन है ( गोपाल – तापनी उपनिषद् १.५ ) । ये सभी कुछ ऐसे साधन हैं जिनसे योग की परम संसिद्धिमयी अवस्था भक्ति या कृष्णभावनामृत को सम्पन्न किया जा सकता है । 

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय ” ध्यानयोग ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।

भगवद गीता अध्याय 6.6~योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा  का  वर्णन Bhagwad Geeta Chapter 6
भगवद गीता अध्याय 6.6

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