अध्याय छह (Chapter -6)
भगवद गीता अध्याय 6.4 में शलोक 16 से शलोक 32 तक विस्तार से ध्यान योग के विषय का वर्णन !
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥
न – कभी नहीं ; अति – अधिक ; अश्नतः – खाने वाले का ; तु – लेकिन ; योग: – भगवान् से जुड़ना ; अस्ति – है ; न – न तो ; च – भी ; एकान्तम् – विल्कुल , नितान्त ; अनश्नतः – भोजन न करने वाले का ; न – न तो ; च – भी ; अति – अत्यधिक ; स्वप्न -शीलस्य – सोने वाले का ; जाग्रतः – अथवा रात भर जागते रहने वाले का ; न – नहीं ; एव – ही ; च – तथा ; अर्जुन – हे अर्जुन ।
हे अर्जुन ! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है , जो अधिक सोता है अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की कोई सम्भावना नहीं है ।
तात्पर्य : – यहाँ पर योगियों के लिए भोजन तथा नींद के नियमन की संस्तुति की गई है । अधिक भोजन का अर्थ है शरीर तथा आत्मा को बनाये रखने के लिए आवश्यकता से अधिक भोजन करना । मनुष्यों को मांसाहार करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रचुर मात्रा में अन्न , शाक , फल तथा दुग्ध उपलब्ध हैं । ऐसे सादे भोज्यपदार्थ भगवद्गीता के अनुसार सतोगुणी माने जाते हैं ।
मांसाहार तो तमोगुणियों के लिए है । अतः जो लोग मांसाहार करते हैं , मद्यपान करते हैं , धूम्रपान करते हैं और कृष्ण को भोग लगाये बिना भोजन करते हैं वे पापकर्मों का भोग करेंगे क्योंकि वे केवल दूषित वस्तुएँ खाते हैं । भुजते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् । जो व्यक्ति इन्द्रियसुख के लिए खाता है या अपने लिए भोजन बनाता है , किन्तु कृष्ण को भोजन अर्पित नहीं करता वह केवल पाप खाता है ।
जो पाप खाता है और नियत मात्रा से अधिक भोजन करता है वह पूर्णयोग का पालन नहीं कर सकता । सबसे उत्तम यही है कि कृष्ण को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट भाग को ही खाया जाय । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी ऐसा भोजन नहीं करता , जो इससे पूर्व कृष्ण को अर्पित न किया गया हो । अतः केवल कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही योगाभ्यास में पूर्णता प्राप्त कर सकता है ।
न ही ऐसा व्यक्ति कभी योग का अभ्यास कर सकता है जो कृत्रिम उपवास की अपनी विधियाँ निकाल कर भोजन नहीं करता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शास्त्रों द्वारा अनुमोदित उपवास करता है । न तो वह आवश्यकता से अधिक उपवास रखता है , न ही अधिक खाता है । इस प्रकार वह योगाभ्यास करने के लिए पूर्णतया योग्य है ।
जो आवश्यकता से अधिक खाता है वह सोते समय अनेक सपने देखेगा , अतः आवश्यकता से अधिक सोएगा । मनुष्य को प्रतिदिन छः घंटे से अधिक नहीं सोना चाहिए । जो व्यक्ति चौबीस घंटों में से छः घंटों से अधिक सोता है , वह अवश्य ही तमोगुणी है । तमोगुणी व्यक्ति आलसी होता है और अधिक सोता है । ऐसा व्यक्ति योग नहीं साध सकता ।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥
युक्त – नियमित ; आहार – भोजन ; विहारस्य – आमोद-प्रमोद का ; युक्त – नियमित ; चेष्टस्य – जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने वाले का ; कर्मसु – कर्म करने में ; युक्त – नियमित ; स्वप्न-अवबोधस्य – नींद तथा जागरण का ; योगः – योगाभ्यास ; भवति – होता है ; दुःख-हा – कष्टों को नष्ट करने वाला ।
जो खाने , सोने , आमोद – प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है , वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है ।
तात्पर्य :- खाने , सोने , रक्षा करने तथा मैथुन करने में जो शरीर की आवश्यकताएँ हैं अति करने से योगाभ्यास की प्रगति रुक जाती है । जहाँ तक खाने का प्रश्न है , इसे तो प्रसादम् या पवित्रीकृत भोजन के रूप में नियमित बनाया जा सकता है । भगवद्गीता ( ९ .२६ ) के अनुसार भगवान् कृष्ण को शाक , फूल , फल , अन्न , दुग्ध आदि भेंट किये जाते हैं ।
इस प्रकार एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को ऐसा भोजन न करने का स्वतः प्रशिक्षण प्राप्त रहता है , जो मनुष्य के खाने योग्य नहीं होता या कि सतोगुणी नहीं होता । जहाँ तक सोने का प्रश्न है , कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करने में निरन्तर सतर्क रहता है , अतः निद्रा में वह व्यर्थ समय नहीं गँवाता । अव्यर्थ – कालत्वम् कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपना एक मिनट का समय भी भगवान् की सेवा के विना नहीं बिताना चाहता ।
अतः वह कम से कम सोता है । इसके आदर्श श्रील रूप गोस्वामी हैं , जो कृष्ण की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे और दिनभर में दो घंटे से अधिक नहीं सोते थे , और कभी – कभी तो उतना भी नहीं सोते थे । ठाकुर हरिदास तो अपनी माला में तीन लाख नामों का जप किये विना न तो प्रसाद ग्रहण करते थे और न सोते ही थे । जहाँ तक कार्य का प्रश्न है , कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो ।
इस प्रकार उसका कार्य सदैव नियमित रहता है और इन्द्रियतृप्ति से अदूषित । चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता , अतः उसे तनिक भी भौतिक अवकाश नहीं मिलता । चूँकि वह अपने कार्य , वचन , निद्रा , जागृति तथा अन्य सारे शारीरिक कार्यों में नियमित रहता है , अतः उसे कोई भौतिक दुख नहीं सताता ।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥
यदा – जव ; विनियतम् – विशेष रूप से अनुशासित ; चित्तम् – मन तथा उसके कार्य ; आत्मनि – अध्यात्म में ; एव – निश्चय ही ; अवतिष्ठते – स्थित हो जाता है ; निस्पृहः – आकांक्षारहित ; सर्व – सभी प्रकार की ; कामेभ्यः – भौतिक इन्द्रियतृप्ति से ; युक्तः – योग में स्थित ; इति – इस प्रकार ; उच्यते – कहलाता है ; तदा – उस समय ।
जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अध्यात्म में स्थित हो जाता है अर्थात् समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है , तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है ।
तात्पर्य :- साधारण मनुष्य की तुलना में योगी के कार्यों में यह विशेषता होती है कि वह समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त रहता है जिनमें मैथुन प्रमुख है । एक पूर्णयोगी अपने मानसिक कार्यों में इतना अनुशासित होता है कि उसे कोई भी भौतिक इच्छा विचलित नहीं कर सकती । यह सिद्ध अवस्था कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों द्वारा स्वतः प्राप्त हो जाती है , जैसा कि श्रीमद्भागवत में ( ९.४.१८-२० ) कहा गया है
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
करो हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥
मुकुन्दलिंगालयदर्शने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽ गसंगमम् ।
घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥
पादौ क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवंदने ।
कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥
“ राजा अम्बरीष ने सर्वप्रथम अपने मन को भगवान् के चरणकमलों पर स्थिर कर दिया ; फिर , क्रमशः अपनी वाणी को कृष्ण के गुणानुवाद में लगाया , हाथों को भगवान् के मन्दिर को स्वच्छ करने , कानों को भगवान् के कार्यकलापों को सुनने , आँखों को भगवान् के दिव्यरूप का दर्शन करने , शरीर को अन्य भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने , घ्राणेन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाये गये कमलपुष्प की सुगन्ध सुँघने , जीभ को भगवान् के चरणकमलों पर चढ़ाये गये तुलसी पत्रों का स्वाद लेने , पाँवों को तीर्थयात्रा करने तथा भगवान् के मन्दिर तक जाने , सिर को भगवान् को प्रणाम करने तथा अपनी इच्छाओं को भगवान् की इच्छा पूरी करने में लगा दिया ।
ये सारे दिव्यकार्य शुद्ध भक्त के सर्वथा अनुरूप हैं । ” निर्विशेषवादियों के लिए यह दिव्य व्यवस्था अनिर्वचनीय हो सकती है , किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए यह अत्यन्त सुगम एवं व्यावहारिक है , जैसा कि महाराज अम्बरीष की उपरिवर्णित जीवनचर्या से स्पष्ट हो जाता है । जब तक निरन्तर स्मरण द्वारा भगवान् के चरणकमलों में मन को स्थिर नहीं कर लिया जाता , तब तक ऐसे दिव्यकार्य व्यावहारिक नहीं बन पाते ।
अतः भगवान् की भक्ति में इन विहित कार्यों को अर्चन् कहते हैं जिसका अर्थ है – समस्त इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना । इन्द्रियों तथा मन को कुछ न कुछ कार्य चाहिए । कोरा निग्रह व्यावहारिक नहीं है । अतः सामान्य लोगों के लिए विशेषकर जो लोग संन्यास आश्रम में नहीं हैं – ऊपर वर्णित इन्द्रियों तथा मन का दिव्यकार्य ही दिव्य सफलता की सही विधि है , जिसे भगवद्गीता में युक्त कहा गया है ।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १९ ॥
यथा – जिस तरह ; दीप: – दीपक ; निवात-स्थ: – वायुरहित स्थान में ; न – नहीं ; इङ्गते – हिलता डुलता ; सा – यह ; उपमा – तुलना ; स्मृता – मानी जाती है ; योगिनः – योगी की ; यत-चित्तस्य – जिसका मन वश में है ; युञ्जतः – निरन्तर संलग्न ; योगम् – ध्यान में ; आत्मनः – अध्यात्म में ।
जिस प्रकर वायुरहित स्थान में दीपक हिलता – डुलता नहीं , उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है , वह आत्मतत्त्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने आराध्य देव के चिन्तन में उसी प्रकार अविचलित रहता है जिस प्रकार वायुरहित स्थान में एक दीपक रहता है ।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यंत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१ ॥
यं लब्या चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२ ॥
तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ॥ २३ ॥
यत्र – जिस अवस्था में ; उपरमते – दिव्यसुख की अनुभूति के कारण बन्द हो जाती है ; चित्तम् – मानसिक गतिविधि ; निरुद्धम् – पदार्थ से निवृत्त ; योग-सेवया – योग के अभ्यास द्वारा ; यत्र – जिसमें ; च – भी ; आत्मना – विशुद्ध मन मे ; आत्मानम् – आत्मा की ; पश्यन् – स्थिति का अनुभव करते हुए ; आत्मनि – अपने में ; तृष्यति – तुष्ट हो जाता है ; सुखम् – सुख ; आत्यन्तिकम् – परम ; यत् – जो ।
बुद्धि – वृद्धि से ; ग्राह्यम् – ग्रहणीय ; अतीन्द्रियम् – दिव्य ; वेत्ति – जानता है ; यत्र – जिसमें ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; अयम् – यह ; स्थितः – स्थित ; चलति – हटता है ; च – तथा ; अपरम् – अन्य कोई ; लाभम् – लाभ ; न – कभी नहीं ; अधिकम् – अधिक ; ततः – उससे ; यस्मिन् – जिसमें ; स्थितः – स्थित ; न – कभी नहीं ; दुःखेन – दुखों से ; गुरुणा अपि – अत्यन्त कठिन होने पर भी ; नमू – उसको ; विद्यात् – जानो ; दुःख-संयोग – भौतिक संसर्ग से उत्पन्न दुख ।
सिद्धि की अवस्था में , जिसे समाधि कहते हैं , मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है । इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपमें आनन्द उठा सकता है ।
उस आनन्दमयी स्थिति में वह दिव्य इन्द्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है । इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता ।
ऐसी स्थिति को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता । यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुखों से वास्तविक मुक्ति है ।
तात्पर्य :- योगाभ्यास से मनुष्य भौतिक धारणाओं से क्रमशः विरक्त होता जाता है । यह योग का प्रमुख लक्षण है । इसके बाद वह समाधि में स्थित हो जाता है जिसका अर्थ यह होता है कि दिव्य मन तथा बुद्धि के द्वारा योगी अपने आपको परमात्मा समझने का भ्रम न करके परमात्मा की अनुभूति करता है । योगाभ्यास बहुत कुछ पतञ्जलि की पद्धति पर आधारित है ।
कुछ अप्रामाणिक भाष्यकार जीवात्मा तथा परमात्मा में अभेद स्थापित करने का प्रयास करते हैं और अद्वैतवादी इसे ही मुक्ति मानते हैं , किन्तु वे पतञ्जलि की योगपद्धति के वास्तविक प्रयोजन को नहीं जानते । पतञ्जलि पद्धति में दिव्य आनन्द को स्वीकार किया गया है , किन्तु अद्वैतवादी इस दिव्य आनन्द को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उन्हें भ्रम है कि इससे कहीं उनके अद्वैतवाद में बाधा न उपस्थित हो जाय ।
अद्वैतवादी ज्ञान तथा ज्ञाता के द्वैत को नहीं मानते , किन्तु इस श्लोक में दिव्य इन्द्रियों द्वारा अनुभूत दिव्य आनन्द को स्वीकार किया गया है । इसकी पुष्टि योगपद्धति विख्यात व्याख्याता पतञ्जलि मुनि ने भी की है । योगसूत्र में ( ३.३४ ) महर्षि कहते हैं पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । यह चितिशक्ति या अन्तरंगा शक्ति दिव्य है ।
पुरुषार्थ का तात्पर्य धर्म , अर्थ , काम तथा अन्त में परब्रह्म से तादात्म्य या मोक्ष है । अद्वैतवादी परब्रह्म से इस तादात्म्य को कैवल्यम् कहते हैं । किन्तु पतञ्जलि के अनुसार कैवल्यम् वह अन्तरंगा या दिव्य शक्ति है जिससे जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति से अवगत होता है । भगवान् चैतन्य के शब्दों में यह अवस्था चेतोदर्पणमार्जनम् अर्थात् मन रूपी मलिन दर्पण का मार्जन ( शुद्धि ) है । यह मार्जन वास्तव में मुक्ति या भवमहादावाग्निनिर्वापणम् है ।
प्रारम्भिक निर्वाण सिद्धान्त भी इस नियम के समान है । भागवत में ( २.१०.६ ) इसे स्वरूपेण व्यवस्थितिः कहा गया है । भगवद्गीता के इस श्लोक में भी इसी की पुष्टि हुई है । निर्वाण के बाद आध्यात्मिक कार्यकलापों की या भगवद्भक्ति की अभिव्यक्ति होती है जिसे कृष्णभावनामृत कहते हैं । भागवत के शब्दों में – स्वरूपेण व्यवस्थिति : – जीवात्मा का वास्तविक जीवन यही है ।
भौतिक दूषण से आध्यात्मिक जीवन के कल्मष युक्त होने की अवस्था माया है । इस भौतिक दूषण से मुक्ति का अभिप्राय जीवात्मा की मूल दिव्य स्थिति का विनाश नहीं है । पतञ्जलि भी इसकी पुष्टि इन शब्दों से करते हैं- कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति – यह चितिशक्ति या दिव्य आनन्द ही वास्तविक जीवन है । इसका अनुमोदन वेदान्तसूत्र में ( १.१.१२ ) इस प्रकार हुआ है- आनन्दमयोऽभ्यासात् ।
यह चितिशक्ति ही योग का परमलक्ष्य है और भक्तियोग द्वारा इसे सरलता से प्राप्त किया जाता है । भक्तियोग का विस्तृत विवरण सातवें अध्याय में किया जायेगा । इस अध्याय में वर्णित योगपद्धति के अनुसार समाधियाँ दो प्रकार की होती हैं सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात समाधियां । जब मनुष्य विभिन्न दार्शनिक शोधों के द्वारा दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है तो यह कहा जाता है कि उसे सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त हुई है ।
असम्प्रज्ञात समाधि में संसारी आनन्द से कोई सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि इसमें मनुष्य इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के सुखों से परे हो जाता है । एक बार इस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर लेने पर योगी कभी उससे डिगता नहीं । जब तक योगी इस स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेता , तब तक वह असफल रहता है । आजकल के तथाकथित योगाभ्यास में विभिन्न इन्द्रियसुख सम्मिलित हैं , जो योग के सर्वथा विपरीत है ।
योगी होकर यदि कोई मैथुन तथा मादकद्रव्य सेवन में अनुरक्त होता है तो यह उपहासजनक है । यहाँ तक कि जो योगी योग की सिद्धियों के प्रति आकृष्ट रहते हैं वे भी योग में आरूढ नहीं कहे जा सकते । यदि योगीजन योग की आनुषंगिक वस्तुओं के प्रति आकृष्ट हैं तो उन्हें सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुआ नहीं कहा जा सकता , जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है ।
अतः जो व्यक्ति आसनों के प्रदर्शन या सिद्धियों के चक्कर में रहते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि इस प्रकार से योग का मुख्य उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है । इस युग में योग की सर्वोत्तम पद्धति कृष्णभावनामृत है जो निराशा उत्पन्न करने वाली नहीं है । एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने धर्म में इतना सुखी रहता है कि उसे किसी अन्य सुख की आकांक्षा नहीं रह जाती ।
इस दम्भ – प्रधान युग में हठयोग , ध्यानयोग तथा ज्ञानयोग का अभ्यास करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं , किन्तु कर्मयोग या भक्तियोग के पालन में ऐसी समस्या सामने नहीं आती । जब तक यह शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओं – आहार , निद्रा , भय तथा मैथुन को पूरा करना होता है । किन्तु जो व्यक्ति शुद्ध भक्तियोग में अथवा कृष्णभावनामृत में स्थित होता है वह शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय इन्द्रियों को उत्तेजित नहीं करता ।
प्रत्युत वह घाटे के सौदे का सर्वोत्तम उपयोग करके , जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को स्वीकार करता है और कृष्णभावनामृत में दिव्यसुख भोगता है । वह दुर्घटनाओं , रोगों , अभावों और यहाँ तक कि अपने प्रियजनों की मृत्यु जैसी आपात्कालीन घटनाओं के प्रति भी निरपेक्ष रहता है , किन्तु कृष्णभावनामृत या भक्तियोग सम्बन्धी अपने कर्मों को पूरा करने में वह सदैव सचेष्ट रहता है ।
दुर्घटनाएँ उसे कर्तव्य पथ से विचलित नहीं कर पातीं । जैसा कि भगवद्गीता में ( २.१४ ) कहा गया है – आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत । वह इन प्रासंगिक घटनाओं को सहता है क्योंकि वह यह भलीभाँति जानता है कि ये घटनाएँ ऐसे ही आती जाती रहती हैं और इनसे उसके कर्तव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इस प्रकार वह योगाभ्यास में परम सिद्धि प्राप्त करता है ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥
सः – उस ; निश्चयेन – दृढ विश्वास के साथ ; योक्तव्यः – अवश्य अभ्यास करे ; योगः – योगपद्धति ; प्रभवान् – उत्पन्न ; अनिर्विण्ण-चेतसा – विचलित हुए बिना ; सङ्कल्प – मनोधर्म से ; कामान् – भौतिक इच्छाओं को ; त्यक्त्वा – त्यागकर ; सर्वान् – समस्त ; अशेषतः – पूर्णतया ; मनसा – मन से ; एव – निश्चय ही ; इन्द्रिय-ग्रामम् – इन्द्रियों के समूह को ; विनियम्य – वश में करके – समन्ततः – सभी ओर से ।
मनुष्य को चाहिए कि संकल्प तथा श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगे और पथ से विचलित न हो । उसे चाहिए कि मनोधर्म से उत्पन्न समस्त इच्छाओं को निरपवाद रूप से त्याग दे और इस प्रकार मन के द्वारा सभी ओर से इन्द्रियों को वश में करे ।
तात्पर्य :- योगाभ्यास करने वाले को दृढसंकल्प होना चाहिए और उसे चाहिए कि बिना विचलित हुए धैर्यपूर्वक अभ्यास करे । अन्त में उसकी सफलता निश्चित है उसे यह सोच कर बड़े ही धैर्य से इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए और यदि सफलता मिलने में विलम्ब हो रहा हो तो निरुत्साहित नहीं होना चाहिए । ऐसे दृढ अभ्यासी की सफलता सुनिश्चित है । भक्तियोग के सम्बन्ध में रूप गोस्वामी का कथन है
उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात् तत्तत्कर्म प्रवर्तनात् ।
संगत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिद्ध्यति ।।
” मनुष्य पूर्ण हार्दिक उत्साह , धैर्य तथा संकल्प के साथ भक्तियोग का पूर्णरूपेण पालन भक्त के साथ रहकर निर्धारित कर्मों के करने तथा सत्कार्यों में पूर्णतया लगे रहने से कर सकता है । ” ( उपदेशामृत – ३ )
जहाँ तक संकल्प की बात है , मनुष्य को चाहिए कि उस गौरैया का आदर्श ग्रहण करे जिसके सारे अंडे समुद्र की लहरों में मग्न हो गये थे । कहते हैं कि एक गोरेया ने समुद्र तट पर अंडे दिये , किन्तु विशाल समुद्र उन्हें अपनी लहरों में समेट ले गया । इस पर गौरैया अत्यन्त क्षुब्ध हुई और उसने समुद्र से अंडे लौटा देने के लिए कहा । किन्तु समुद्र ने उसकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया ।
अतः उसने समुद्र को सुखा डालने की ठान ली । वह अपनी नन्हीं सी चोंच से पानी उलीचने लगी । सभी उसके इस असम्भव संकल्प का उपहास करने लगे । उसके इस कार्य की सर्वत्र चर्चा चलने लगी तो अन्त में भगवान् विष्णु के विराट वाहन पक्षिराज गरुड़ यह बात सुनी । उन्हें अपनी इस नन्हीं पक्षी वहिन पर दया आई और वे गौरैया से मिलने आये ।
गरुड़ उस नन्हीं गौरैया के निश्चय से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसकी सहायता करने का वचन दिया । गरुड़ ने तुरन्त समुद्र से कहा कि वह उसके अंडे लौटा दे , नहीं तो उसे स्वयं आगे आना पड़ेगा । इससे समुद्र भयभीत हुआ और उसने अंडे लौटा दिये । वह गौरैया गरुड़ की कृपा से सुखी हो गई ।
इसी प्रकार योग , विशेषतया कृष्णभावनामृत में भक्तियोग , अत्यन्त दुष्कर प्रतीत हो सकता है , किन्तु जो कोई संकल्प के साथ नियमों का पालन करता है , भगवान् निश्चित रूप से उसकी सहायता करते हैं , क्योंकि जो अपनी सहायता आप करते हैं भगवान् उनकी सहायता करते हैं ।
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥
शनैः – धीरे-धीरे ; शनैः – एक एक करके , क्रम से ; उपरमेत् – निवृत्त रहे ; बुद्ध्या – बुद्धि से ; धृति-गृहीतया – विश्वासपूर्वक ; आत्म-संस्थम् – समाधि में स्थित ; मनः – मन ; कृत्वा – करके ; न – नहीं ; किञ्चित् – अन्य कुछ ; अपि – भी ; चिन्तयेत् – सोचे ।
धीरे – धीरे , क्रमशः पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए ।
तात्पर्य :- समुचित विश्वास तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य को धीरे – धीरे सारे इन्द्रियकर्म करने बन्द कर देना चाहिए । यह प्रत्याहार कहलाता है । मन को विश्वास , ध्यान तथा इन्द्रिय निवृत्ति द्वारा वश में करते हुए समाधि में स्थिर करना चाहिए । उस समय देहात्मवुद्धि में अनुरक्त होने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती ।
दूसरे शब्दों में , जब तक इस शरीर का अस्तित्व है तब तक मनुष्य पदार्थ में लगा रहता है , किन्तु उसे इन्द्रियतृप्ति के विषय में नहीं सोचना चाहिए । उसे परमात्मा के आनन्द के अतिरिक्त किसी अन्य आनन्द का चिन्तन नहीं करना चाहिए । कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से यह अवस्था सहज ही प्राप्त की जा सकती है ।
यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६ ॥
यतः यतः – जहाँ-जहाँ भी ; निश्चलति – विचलित होता है ; मनः – मन ; चञ्चलम् – चलायमान ; अस्थिरम् –अस्थिर ; ततः ततः – वहाँ वहाँ से ; नियम्य – वश में करके ; एतत् – इस ; आत्मनि – अपने ; एव – निश्चय ही ; वशम् – वश में ; नयेत् – ले आए ।
मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो . मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए ।
तात्पर्य :- मन स्वभाव से चंचल और अस्थिर है । किन्तु स्वरूपसिद्ध योगी को मन को वश में लाना होता है , उस पर मन का अधिकार नहीं होना चाहिए । जो मन को ( तथा इन्द्रियों को भी ) वश में रखता है , वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है और जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात् इन्द्रियों का सेवक कहलाता है । गोस्वामी इन्द्रियसुख के मानक से भिज्ञ होता है ।
दिव्य इन्द्रियमुख वह है जिसमें इन्द्रियाँ हृषीकेश अर्थात् इन्द्रियों के स्वामी भगवान् कृष्ण की सेवा में लगी रहती हैं । शुद्ध इन्द्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्णचेतना या कृष्णभावनामृत कहलाती है । इन्द्रियों को पूर्णवेश में लाने की यही विधि है । इससे भी बढ़कर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है ।
प्रशान्तमनसं होनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ २७ ॥
प्रशान्त – कृष्ण के चरणकमलों में स्थित , शान्त ; मनसम् – जिसका मन ; हि – निश्चय ही ; एनम् – यह ; योगिनम् – योगी ; सुखम् – सुख ; उत्तमम् – सर्वोच्च ; उपैति – प्राप्त करता है ; शान्त-रजसम् – जिसकी कामेच्छा शान्त हो चुकी है ; ब्राप-भूतम् – परमात्मा के साथ अपनी पहचान द्वारा मुकि ; अकल्मषम् – समस्त पूर्व पापकमों से मुक्त ।
जिस योगी का मन मुझ में स्थिर रहता है , वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है । वह रजोगुण से परे हो जाता है , वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कमों के फल से निवृत्त हो जाता है ।
तात्पर्य :- ब्रह्मभूत वह अवस्था है जिसमें भौतिक कल्मष से मुक्त होकर भगवान की दिव्यसेवा में स्थित हुआ जाता है । सद्भक्ति लभते पराम् ( भगवद्गीता १८.५४ ) । जब तक मनुष्य का मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर नहीं हो जाता तब तक कोई ब्रह्मरूप में नहीं रह सकता । स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो । भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहना या कृष्णभावनामृत में रहना वस्तुतः रजोगुण तथा भौतिक कल्मष से मुक्त होना है ।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥
युञ्जन् – योगाभ्यास में प्रवृत्त होना ; एवम् – इस प्रकार ; सदा – सदैव ; आत्मानम् – स्व , आत्मा को ; योगी – योगी जो परमात्मा के सम्पर्क में रहता है ; बिगत – मुक्त ; कल्मषः – सारे भौतिक दूषण से ; सुखेन – दिव्यमुख से ; ब्रह्म-संस्पर्शम् – ब्रह्म के सान्निध्य में रहकर ; अत्यन्तम् – सर्वोच्च ; सुखम् – सुख को ; अश्नुते – प्राप्त करता है ।
इस प्रकार योगाभ्यास में निरन्तर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में परमसुख प्राप्त करता है ।
तात्पर्य :- आत्म – साक्षात्कार का अर्थ है भगवान के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानना । जीव ( आत्मा ) भगवान का अंश है और उसकी स्थिति भगवान् की दिव्यसेवा करते रहता है । ब्रह्म के साथ यह दिव्य सान्निध्य ही ब्रह्म – संस्पर्श कहलाता है ।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २ ९ ॥
सर्व-भूत-स्थम् – सभी जीवों में स्थित ; आत्मानम् – परमात्मा को ; सर्व – सभी ; भूतानि– जीवों को ; च – भी ; आत्मनि – आत्मा में ; ईक्षते – देखता है ; योग-युक्त-आत्मा – कृष्णचेतना में लगा व्यक्ति ; सर्वत्र – सभी जगह ; सम-दर्शन: – समभाव से देखने वाला ।
वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है । निस्सन्देह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर को सर्वत्र देखता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित योगी पूर्ण द्रष्टा होता है क्योंकि वह परब्रह्म कृष्ण को हर प्राणों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित देखता है । ईश्वर सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति । अपने परमात्मा रूप में भगवान् एक कुत्ते तथा एक ब्राह्मण दोनों के हृदय में स्थित होते . हैं । पूर्णयोगी जानता है कि भगवान् नित्यरूप में दिव्य हैं और कुत्ते या ब्राह्मण में स्थित होने से भी भौतिक रूप से प्रभावित नहीं होते ।
वही भगवान् की परम निरपेक्षता है । यद्यपि जीवात्मा भी एक – एक हृदय में विद्यमान है , किन्तु वह एकसाथ समस्त हृदयों में ( सर्वव्यापी ) नहीं है । आत्मा तथा परमात्मा का यही अन्तर है । जो वास्तविक रूप से योगाभ्यास करने वाला नहीं है , वह इसे स्पष्ट रूप में नहीं देखता । एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को आस्तिक तथा नास्तिक दोनों में देख सकता है ।
स्मृति में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है- आततत्वाच्च मातृत्वाच्च आत्मा हि परमो हरिः । भगवान् सभी प्राणियों का स्रोत होने के कारण माता और पालनकर्ता के समान है । जिस प्रकार माता अपने समस्त पुत्रों के प्रति समभाव रखती है , उसी प्रकार परम पिता ( या माता ) भी रखता है । फलस्वरूप परमात्मा प्रत्येक जीव में निवास करता है ।
दाह्य रूप से भी प्रत्येक जीव भगवान् की शक्ति ( भगवद्शक्ति ) में स्थित है । जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जाएगा , भगवान् की दो मुख्य शक्तियाँ हैं – परा तथा अपरा । जीव पराशक्ति का अंश होते हुए भी अपराशक्ति से बद्ध है । जीव सदा ही भगवान् की शक्ति में स्थित है । प्रत्येक जीव किसी न किसी प्रकार भगवान् में ही स्थित रहता है ।
योगी समदर्शी है क्योंकि वह देखता है कि सारे जीव अपने – अपने कर्मफल के अनुसार विभिन्न स्थितियों में रहकर भगवान् के दास होते हैं । अपराशक्ति में जीव भौतिक इन्द्रियों का दास रहता है जबकि पराशक्ति में वह साक्षात् परमेश्वर का दास रहता है । इस प्रकार प्रत्येक अवस्था में जीव ईश्वर का दास है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में यह समदृष्टि पूर्ण होती है ।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥
यः – जो ; माम् – मुझको ; पश्यति – देखता है ; सर्वत्र – सभी जगह ; सर्वम् – प्रत्येक वस्तु को ; च – तथा ; मयि – मुझमे ; पश्यति – देखता है ; तस्य – उसके लिए ; अहम् – मैं ; न – नहीं ; प्रणश्यामि – अदृश्य होता हूँ ; सः – वह ; च – भी ; मे – मेरे लिए ; न – नहीं ; प्रणश्यति – अदृश्य होता है ।
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान कृष्ण को सर्वत्र देखता है और सारी वस्तुओं की कृष्ण में देखता है । ऐसा व्यक्ति भले ही प्रकृति की पृथक – पृथक अभिव्यक्तियों को देखता प्रतीत हो , किन्तु वह प्रत्येक दशा में इस कृष्णभावनामृत से अवगत रहता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है । कृष्णभावनामृत का मूल सिद्धान्त ही यह है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है और कृष्ण ही सर्वेश्वर हैं ।
कृष्णभावनामृत कृष्णप्रेम का विकास है – ऐसी स्थिति जो भौतिक मोक्ष से भी परे है । आत्मसाक्षात्कार के उपर कृष्णभावनामृत की इस अवस्था में भक्त कृष्ण से इस अर्थ में एकरूप हो जाता . है कि उसके लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते हैं और भक्त प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है । तब भगवान् तथा भक्त के बीच अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित हो जाता है ।
उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता और न भगवान् भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं । कृष्ण में तादात्म्य होना आध्यात्मिक लय ( आत्मविनाश ) है । भक्त कभी भी ऐसी विपदा नहीं उठाता । ब्रह्मसंहिता ( ५.३८ ) में कहा गया है
प्रेमाजनच्छुरित भक्तिविलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति ।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
” में आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ , जिनका दर्शन भक्तगण प्रेमरूपी अंजन लगे नेत्रों से करते हैं । वे भक्त के हृदय में स्थित श्यामसुन्दर रूप में देखे जाते हैं । ”
इस अवस्था में न तो भगवान् कृष्ण अपने भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं और न भक्त ही उनकी दृष्टि से ओझल हो पाते हैं । यही बात योगी के लिए भी सत्य है क्योंकि वह अपने हृदय के भीतर परमात्मा रूप में भगवान् का दर्शन करता रहता है । ऐसा योगी शुद्ध भक्त बन जाता है और अपने अन्दर भगवान् को देखे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता ।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३ ९ ॥
सर्व-भूत-स्थितम् – प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित ; यः – जो ; माम् – मुझको ; भजति – भक्तिपूर्वक सेवा करता है ; एकत्वम् – तादात्म्य में ; आस्थितः – स्थित ; सर्वथा – सभी प्रकार से ; वर्तमानः – उपस्थित होकर ; अपि – भी ; सः – वह ; योगी – योगी ; मयि – मुझमें ; वर्तते – रहता है ।
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है , वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है ।
तात्पर्य :- जो योगी परमात्मा का ध्यान करता है , वह अपने अन्तःकरण में चतुर्भुज विष्णु का दर्शन कृष्ण के पूर्णरूप में शंख , चक्र , गदा तथा कमलपुष्प धारण किये करता है । योगी को यह जानना चाहिए कि विष्णु कृष्ण से भिन्न नहीं हैं । परमात्मा रूप में कृष्ण जन – जन के हृदय में स्थित हैं । यही नहीं , असंख्य जीवों के हृदयों में स्थित असंख्य परमात्माओं में कोई अन्तर नहीं है ।
न ही कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर व्यस्त व्यक्ति तथा परमात्मा के ध्यान में निरत एक पूर्णयोगी के बीच कोई अन्तर है । कृष्णभावनामृत में योगी सदेव कृष्ण में ही स्थित रहता है भले ही भौतिक जगत में वह विभिन्न कार्यों में व्यस्त क्यों न हो । इसकी पुष्टि श्रील रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसामृत सिन्धु में ( १.२.१८७ ) हुई है- निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते ।
कृष्णभावनामृत में रत रहने वाला भगवद्भक्त स्वतः मुक्त हो जाता है । नारद पञ्चरात्र में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है
दिकालाधनवच्छिन्ने कृष्ण चेतों विधाय च ।
तन्मयो भवति क्षिप्रं जीवों ब्रह्मणि योजयेत् ॥
” देश – काल से अतीत तथा सर्वव्यापी श्रीकृष्ण के दिव्यरूप में ध्यान एकाग्र करने से मनुष्य कृष्ण के चिन्तन में तन्मय हो जाता है और तब उनके दिव्य सान्निध्य की सुखी अवस्था को प्राप्त होता है । “
योगाभ्यास में समाधि की सर्वोच्च अवस्था कृष्णभावनामृत है । केवल इस ज्ञान से कि कृष्ण प्रत्येक जन के हृदय में परमात्मा रूप में उपस्थित हैं योगी निर्दोष हो जाता है । वेदों से ( गोपालतापनी उपनिषद् १.२१ ) भगवान् की इस अचिन्त्य शक्ति की पुष्टि इस प्रकार होती है — एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति- ” यद्यपि भगवान् एक है , किन्तु वह जितने सारे हृदय हैं उनमें उपस्थित रहता है । ” इसी प्रकार स्मृति शास्त्र का कथन है
एक एव परो विष्णुः सर्वव्यापी न संशयः ।
ऐश्वर्याद् रूपमेक च सूर्यवत् बहुधेयते ॥
“ विष्णु एक हैं फिर भी वे सर्वव्यापी हैं । एक रूप होते हुए भी वे अपनी अचिन्त्य शक्ति से सर्वत्र उपस्थित रहते हैं , जिस प्रकार सूर्य एक ही समय अनेक स्थानों में दिखता है । ”
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥
आत्म – अपनी ; औपम्येन – तुलना से ; सर्वत्र – सभी जगह ; समम् – समान रूप से ; पश्यति – देखता है ; य: – जो ; अर्जुन – हे अर्जुन ; सुखम् – सुख ; वा – अथवा ; यदि – यदि ; वा – अथवा ; दुःखम् – दुख ; सः – वह ; योगी – योगी ; परमः – परम पूर्ण ; मतः – माना जाता है ।
हे अर्जुन ! वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों की उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण योगी होता है । वह अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्रत्येक प्राणी के सुख तथा दुख से अवगत होता है । जीव के दुख का कारण ईश्वर से अपने सम्बन्ध का विस्मरण होना है । सुख का कारण कृष्ण को मनुष्यों के समस्त कार्यों का परम भोक्ता , समस्त भूमि तथा लोकों का स्वामी एवं समस्त जीवों का परम हितेषी मित्र समझना है ।
पूर्ण योगी यह जानता है कि भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित वद्धजीव कृष्ण से अपने सम्बन्ध को भूल जाने के कारण तीन प्रकार के भौतिक तापों ( दुखों ) को भोगता है , और चूंकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सुखी होता है इसलिए वह कृष्णज्ञान को सर्वत्र वितरित कर देना चाहता है । चूँकि पूर्णयोगी कृष्णभावनाभावित बनते के महत्त्व को घोषित करता चलता है , अतः वह विश्व का सर्वश्रेष्ठ उपकारी एवं भगवान् का प्रियतम सेवक है ।
न च तस्मान् मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ( भगवद्गीता १८.६ ९ ) । दूसरे शब्दों में , भगवद्भक्त सदैव जीवों के कल्याण को देखता है और इस तरह वह प्रत्येक प्राणी का सखा होता है । वह सर्वश्रेष्ठ योगी है क्योंकि वह स्वान्तः सुखाय सिद्धि नहीं चाहता , अपितु अन्यों के लिए भी चाहता है । वह अपने मित्र जीवों से द्वेष नहीं करता ।
यही है वह अन्तर जो एक भगवद्भक्त तथा आत्मोन्नति में ही रुचि रखने वाले योगी में होता है । जो योगी पूर्णरूप से ध्यान धरने के लिए एकान्त स्थान में चला जाता है , वह उतना पूर्ण नहीं होता जितना कि वह भक्त जो प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित बनाने का प्रयास करता रहता है ।
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