अध्याय छह (Chapter -6)
भगवद गीता अध्याय 6.3 में शलोक 11 से शलोक 15 तक आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार का वर्णन !
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चेलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥
शुचौ – पवित्र ; देशे – भूमि में ; आत्मनः – स्वयं का ; न – नहीं ; नीचम् – निम्न , नीचा ; उत्तरम् – आवरण ; तत्र – उस पर ; प्रतिष्ठाप्य – स्थापित करके ; स्थिरम् – दृढ ; आसनम् – आसन ; अति – अत्यधिक ; उच्छ्रितम् – ऊँचा ; न – न तो ; अति – अधिक ; चेल-अजिन – मुलायम वस्त्र तथा मृगछाला ; कुश – तथा कुशा का ; एक-अग्रम् – एकाग्र ; मनः – मन ; कृत्वा – करके ; यत-चित्त – मन को वश में करते हुए ; इन्द्रिय – इन्द्रियाँ ; क्रियः – तथा क्रियाएं ; उपविश्य – वैठकर ; आसने – आसन पर ; युयात् – अभ्यास करे ; योगम् – योग ; आत्म – हृदय की ; विशुद्धये – शुद्धि के लिए ।
योगाभ्यास के लिए योगी एकान्त स्थान में जाकर भूमि पर कुशा विछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे । आसन न तो बहुत ऊँचा हो , न बहुत नीचा । यह पवित्र स्थान में स्थित हो ।
योगी को चाहिए कि इस पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाय और मन , इन्द्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिन्दु पर स्थिर करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करे ।
तात्पर्य : पवित्र स्थान ‘ तीर्थस्थान का सूचक है । भारत में योगी तथा भक्त अपना घर कर प्रयाग , मथुरा , वृन्दावन , हृषीकेश तथा हरिद्वार जैसे पवित्र स्थानों में वास करते हैं और एकान्तस्थान में योगाभ्यास करते हैं , जहाँ यमुना तथा गंगा जैसी नदियाँ प्रवाहित होती हैं ।
किन्तु प्रायः ऐसा करना सबों के लिए , विशेषतया पाश्चात्यों के लिए , सम्भव नहीं है । बड़े – बड़े शहरों की तथाकथित योग समितियाँ भले ही धन कमा लें , किन्तु वे योग के वास्तविक अभ्यास के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होती हैं । जिसका मन विचलित है और जो आत्मसंयमी नहीं है , वह ध्यान का अभ्यास नहीं कर सकता ।
अतः बृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है कि कलियुग ( वर्तमान युग ) में , जबकि लोग अल्पजीवी , आत्म साक्षात्कार में मन्द तथा चिन्ताओं से व्यग्र रहते हैं , भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन है
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
“ कलह और दम्भ के इस युग में मोक्ष का एकमात्र साधन भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करना है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है । ”
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥
प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥
समम् – सीधा ; काय – शरीर ; शिर: – सिर ; ग्रीवम् – तथा गर्दन को ; धारयन् – रखते हुए ; अचलम् – अचल ; स्थिर: – शान्त ; सम्प्रेक्ष्य – देखकर ; नासिका – नाक के ; अग्रम् – अग्रभाग को ; स्वम् – अपनी ; दिश: – सभी दिशाओं में ; च – भी ; अनवलोकयन् – न देखते हुए ; प्रशान्त – अविचलित ; आत्मा – मन ; विगत-भीः – भय से रहित ; ब्रह्मचारि-व्रते – ब्रह्मचर्य व्रत में ; स्थितः – स्थित ; मनः – मन को ; संयम्य – पूर्णतया दमित करके ; मत् – मूझ ( कृष्ण ) में ; चित्तः – मन को केन्द्रित करते हुए ; युक्त: – वास्तविक योगी ; आसीत – बैठे ; मत् – मुझमें ; पर: – चरम लक्ष्य ।
योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर , गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए । इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से , भयरहित , विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिन्तन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बनाए ।
तात्पर्य : जीवन का उद्देश्य कृष्ण को जानना है जो प्रत्येक जीव के हृदय में चतुर्भुज परमात्मा रूप में स्थित हैं । योगाभ्यास का प्रयोजन विष्णु के इसी अन्तर्यामी रूप की खोज करने तथा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
अन्तर्यामी विष्णुमूर्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करने वाले कृष्ण का स्वांश रूप है । जो इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति करने के अतिरिक्त किसी अन्य कपटयोग में लगा रहता है , वह निस्सन्देह अपने समय का अपव्यय करता है । कृष्ण ही जीवन के परम लक्ष्य हैं और प्रत्येक हृदय में स्थित विष्णुमूर्ति ही योगाभ्यास का लक्ष्य है ।
हृदय के भीतर इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्यव्रत अनिवार्य है , अतः मनुष्य को चाहिए कि घर छोड़ दे और किसी एकान्त स्थान में बताई गई विधि से आसीन होकर रहे ।
नित्यप्रति घर में या अन्यत्र मैथुन भोग करते हुए और तथाकथित योग की कक्षा में जाने मात्र से कोई योगी नहीं हो जाता । उसे मन को संयमित करने का अभ्यास करना होता है और सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति से , जिसमें मैथुन – जीवन मुख्य है , बचना होता है । महान ऋषि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मचर्य के नियमों में बताया है
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ॥
” सभी कालों में , सभी अवस्थाओं में तथा सभी स्थानों में मनसा वाचा कर्मणा मैथुन भोग से पूर्णतया दूर रहने में सहायता करना ही ब्रह्मचर्यव्रत का लक्ष्य है । ” मैथुन में प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास नहीं किया जा सकता । इसीलिए वचपन से जब मैथुन का कोई ज्ञान भी नहीं होता ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है ।
पाँच वर्ष की आयु में बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता है , जहाँ गुरु उन्हें ब्रह्मचारी बनने के दृढ नियमों की शिक्षा देता है । ऐसे अभ्यास के बिना किसी भी योग में उन्नति नहीं की जा सकती , चाहे वह ध्यान हो , या कि ज्ञान या भक्ति । किन्तु जो व्यक्ति विवाहित जीवन के विधि – विधानों का पालन करता है और अपनी ही पत्नी से मैथुन सम्वन्ध रखता है वह भी ब्रह्मचारी कहलाता है ।
ऐसे संयमशील गृहस्थ – ब्रह्मचारी को भक्ति सम्प्रदाय में स्वीकार किया जा सकता है , किन्तु ज्ञान तथा ध्यान सम्प्रदाय वाले ऐसे गृहस्थ – ब्रह्मचारी को भी प्रवेश नहीं देते । उनके लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य अनिवार्य है । भक्ति सम्प्रदाय में गृहस्थ – ब्रह्मचारी को संयमित मैथुन की अनुमति रहती है , क्योंकि भक्ति सम्प्रदाय इतना शक्तिशाली है कि भगवान् की सेवा में
लगे रहने से वह स्वतः ही मैथुन का आकर्षण त्याग देता है । भगवद्गीता में ( २.५ ९ ) कहा गया है –
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
जहाँ अन्यों को विषयभोग से दूर रहने के लिए वाध्य किया जाता है वहीं भगवद्भक्त भगवद्रसास्वादन के कारण इन्द्रियतृप्ति से स्वतः विरक्त हो जाता है । भक्त को छोड़कर अन्य किसी को इस अनुपम रस का ज्ञान नहीं होता ।
विगत – भी : पूर्ण कृष्णभावनाभावित हुए विना मनुष्य निर्भय नहीं हो सकता । बद्धजीव अपनी विकृत स्मृति अथवा कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध की विस्मृति के कारण भयभीत रहता है । भागवत का ( ११.२.३७ ) कथन है –
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्याद् ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही योग का पूर्ण अभ्यास कर सकता है और चूँकि योगाभ्यास का चरम लक्ष्य अन्तःकरण में भगवान् का दर्शन पाना है , अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पहले ही समस्त योगियों में श्रेष्ठ होता है । यहाँ पर वर्णित योगविधि के नियम तथाकथित लोकप्रिय योग – समितियों से भिन्न है ।
युञ्जन्त्रेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥
युञ्जन् – अभ्यास करते हुए ; एवम् – इस प्रकार से ; सदा – निरन्तर ; आत्मानम् – शरीर , मन तथा आत्मा ; योगी – योग का साधक ; नियत-मानसः – संयमित मन से युक्त ; शान्तिम् – शान्ति को ; निर्वाण-परमाम् – भौतिक अस्तित्व का अन्त ; मत्- संस्थाम् – चिन्मयव्योम ( भगवद्धाम ) को ; अधिगच्छति – प्राप्त करता है ।
इस प्रकार शरीर , मन तथा कर्म में निरन्तर संयम का अभ्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है ।
तात्पर्य : अब योगाभ्यास के चरम लक्ष्य का स्पष्टीकरण किया जा रहा है । योगाभ्यास किसी भौतिक सुविधा की प्राप्ति के लिए नहीं किया जाता , इसका उद्देश्य तो भौतिक संसार से विरक्ति प्राप्त करना है । जो कोई इसके द्वारा स्वास्थ्य लाभ चाहता है या भौतिक के सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक होता है वह भगवद्गीता के अनुसार योगी नहीं है । न ही भौतिक अस्तित्व की समाप्ति का अर्थ शून्य में प्रवेश है क्योंकि यह कपोलकल्पना है ।
भगवान् की सृष्टि में कहीं भी शून्य नहीं है । उल्टे भौतिक अस्तित्व की समाप्ति से मनुष्य भगवद्धाम में प्रवेश करता है । भगवद्गीता में भगवद्धाम का भी स्पष्टीकरण किया गया है कि यह वह स्थान है जहाँ न सूर्य की आवश्यकता है , न चाँद या बिजली की । आध्यात्मिक राज्य के सारे लोक उसी प्रकार से स्वतः प्रकाशित हैं , जिस प्रकार सूर्य द्वारा यह भौतिक आकाश ।
वैसे तो भगवद्धाम सर्वत्र है , किन्तु चिन्मयव्योम तथा उसके लोकों को ही परमधाम कहा जाता है । एक पूर्णयोगी जिसे भगवान् कृष्ण का पूर्णज्ञान है जैसा कि यहाँ पर भगवान् ने स्वयं कहा है ( मच्चितः , मत्परः , मत्स्थानम् ) वास्तविक शान्ति प्राप्त कर सकता है और अन्ततोगत्वा कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है ।
ब्रह्मसंहिता में ( ५.३७ ) स्पष्ट उल्लेख है- गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूत – यद्यपि भगवान् सदेव अपने धाम में निवास करते हैं , जिसे गोलोक कहते हैं , तो भी वे अपनी परा आध्यात्मिक शक्तियों के कारण सर्वव्यापी ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा हैं । कोई भी कृष्ण तथा विष्णु रूप में उनके पूर्ण विस्तार को सही – सही जाने बिना बैकुण्ठ में या भगवान् के नित्यधाम ( गोलोक वृन्दावन ) में प्रवेश नहीं कर सकता ।
अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही पूर्णयोगी है क्योंकि उसका मन सदैव कृष्ण कार्यकलापों में तल्लीन रहता है ( सवे मनः कृष्णपदारविन्दयोः ) । वेदों में ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८ ) भी हम पाते हैं – तमेव विदित्वाति मृत्युमंति केवल भगवान् कृष्ण को जानने पर जन्म तथा मृत्यु के पथ को जीता जा सकता है । दूसरे शब्दों में , योग की पूर्णता संसार से मुक्ति प्राप्त करने में है , इन्द्रजाल अथवा व्यायाम के करतवों द्वारा अवोध जनता को मूर्ख बनाने में नहीं ।
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