अध्याय छह (Chapter -6)
भगवद गीता अध्याय 6.1 में शलोक 01 से शलोक 04 तक कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग के महत्व का वर्णन !
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ १ ॥
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा ; अनाश्रितः – शरण ग्रहण किये बिना ; कर्म-फलम् –कर्मफल की ; कार्यम् – कर्तव्य ; कर्म – कर्म ; करोति – करता है ; यः – जो ; सः – वह ; संन्यासी – संन्यासी ; च – भी ; न – नहीं ; निः – रहित ; अग्नि: – अग्नि ; न – न तो ; च – भी ; योगी – योगी ; अक्रिय: – क्रियाहीन ।
श्रीभगवान् ने कहा जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है , वही संन्यासी और असली योगी है । वह नहीं , जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है ।
तात्पर्य : इस अध्याय में भगवान् बताते हैं कि अष्टांगयोग पद्धति मन तथा इन्द्रियों को वश में करने का साधन है । किन्तु इस कलियुग में सामान्य जनता के लिए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है । यद्यपि इस अध्याय में अष्टांगयोग पद्धति की संस्तुति की गई है , किन्तु भगवान् बल देते हैं कि कर्मयोग या कृष्णभावनामृत में कर्म करना इससे श्रेष्ठ है ।
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के पालनार्थ तथा अपनी सामग्री के रक्षार्थ कर्म करता है , किन्तु कोई भी मनुष्य बिना किसी स्वार्थ , किसी व्यक्तिगत तृप्ति के चाहे वह तृप्ति आत्मकेन्द्रित हो या व्यापक , कर्म नहीं करता पूर्णता की कसोटी है – कृष्णभावनामृत में कर्म करना , कर्म के फलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं ।
कृष्णभावनामृत में कर्म करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है , क्योंकि सभी लोग परमेश्वर के अंश है । शरीर के अंग पूरे शरीर के लिए कार्य करते हैं । शरीर के अंग अपनी ष्टि के लिए नहीं अपितु पूरे शरीर की तुष्टि के लिए कार्य करते हैं । इसी प्रकार जो जीव अपनी तुष्टि के लिए नहीं , अपितु परब्रह्म की तुष्टि के लिए कार्य करता है , वही पूर्ण संन्यासी या पूर्ण योगी है ।
कभी – कभी संन्यासी सोचते हैं कि उन्हें सारे कार्यों से मुक्ति मिल गई , अतः वे अग्निहोत्र यज्ञ करना बन्द कर देते हैं , लेकिन वस्तुतः वे स्वार्थी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना होता है । ऐसी इच्छा भौतिक इच्छा से तो श्रेष्ठ है , किन्तु यह स्वार्थ से रहित नहीं होती । इसी प्रकार जो योगी समस्त कर्म बन्द करके अर्धनिमीलित नेत्रों से योगाभ्यास करता है , यह भी आत्मतुष्टि की इच्छा से पूरित होता है ।
किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के पूर्णब्रह्म की तुष्टि के लिए । कर्म करता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को कभी भी आत्मतुष्टि की इच्छा नहीं रहती । उसका एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को प्रसन्न करना रहता है , अतः वह पूर्ण संन्यासी या पूर्णयोगी होता है । त्याग के सर्वोच्च प्रतीक भगवान् चैतन्य प्रार्थना करते हैं
न धनं न जन न सुन्दरी कविता वा जगदीश कामये ।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहेतुकी त्वयि ॥
” सर्वशक्तिमान् प्रभु ! मुझे न तो धन – संग्रह की कामना है , न में सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करने का अभिलाषी हूँ , न ही मुझे अनुयायियों की कामना है । मैं तो जन्म जन्मान्तर आपकी प्रेमाभक्ति की अहेतुकी कृपा का ही अभिलाषी हूँ । ”
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥
यम् – जिसे ; संन्यासम् – संन्यास ; इति – इस प्रकार ; प्राहुः – कहते हैं ; योगम् – परब्रह्म के साथ युक्त ; तम् – उसे ; विद्धि – जानो ; पाण्डव – हे पाण्डुपुत्र ; न – कभी नहीं ; हि – निश्चय ही ; असंन्यस्त – बिना त्यागे ; सङ्कल्प: – आत्मतृप्ति की इच्छा ; योगी – योगी ; भवति – होता है ।
हे पाण्डुपुत्र ! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात् परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता ।
तात्पर्य : वास्तविक संन्यास – योग या भक्ति का अर्थ है कि जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति को जाने और तदनुसार कर्म करे । जीवात्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता वह परमेश्वर की तटस्था शक्ति है जब वह माया के वशीभूत होता है तो वह बच हो जाता है , किन्तु जब वह कृष्णभावनाभावित रहता है अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति में सजग रहता है तो वह अपनी सहज स्थिति में होता है ।
इस प्रकार जब मनुष्य पूर्णज्ञान में होता है तो वह समस्त इन्द्रियतृप्ति को त्याग देता है अर्थात् समस्त इन्डियतृप्ति के कार्यकलापों का परित्याग कर देता है । इसका अभ्यास योगी करते हैं जो इन्द्रियों को भौतिक आसक्ति से रोकते हैं । किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को तो ऐसी किसी भी वस्तु में अपनी इन्द्रिय लगाने का अवसर ही नहीं मिलता जो कृष्ण के निमित न हो ।
फलतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति संन्यासी तथा योगी साथ – साथ होता है । ज्ञान तथा इन्द्रियनिग्रह योग के ये दोनों प्रयोजन कृष्णभावनामृत द्वारा स्वतः पूरे हो जाते हैं । यदि मनुष्य स्वार्थ का त्याग नहीं कर पाता तो ज्ञान तथा योग व्यर्थ रहते हैं । जीवात्मा का मुख्य ध्येय तो समस्त प्रकार की आत्मतृप्ति को त्यागकर परमेश्वर की तुष्टि करने के लिए तैयार रहना है ।
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में किसी प्रकार की आत्मतृप्ति की इच्छा नहीं रहती । वह सदेव परमेश्वर की प्रसन्नता में लगा रहता है , अतः जिसे परमेश्वर के विषय में कुछ भी पता नहीं होता वही स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है क्योंकि कोई कभी निष्क्रिय नहीं रह सकता । कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से सारे कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो जाते हैं ।
आरुरुक्षोर्मुनेयोग कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥
आरुरुक्षो: – जिसने अभी योग प्रारम्भ किया है ; मुनेः – मुनि की ; योगम् – अष्टांगयोग पद्धति ; कर्म – कर्म ; कारणम् – साधन ; उच्यते – कहलाता है ; योग – अष्टांगयोग ; आरूढस्य – प्राप्त होने वाले का ; तस्य – उसका ; एव – निश्चय ही ; शमः – सम्पूर्ण भौतिक कार्यकलापों का त्याग ; कारणम् – कारण ; उच्यते – कहा जाता है ।
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है ।
तात्पर्य : परमेश्वर से युक्त होने की विधि योग कहलाती है । इसकी तुलना उस सीढ़ी से की जा सकती है जिससे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की जाती है । यह सीढ़ी जीव की अधम अवस्था से प्रारम्भ होकर आध्यात्मिक जीवन के पूर्ण आत्म – साक्षात्कार तक जाती है । विभिन्न चढ़ावों के अनुसार इस सीढ़ी के विभिन्न भाग भिन्न – भिन्न नामों से जाने जाते हैं ।
किन्तु कुल मिलाकर यह पूरी सीढ़ी योग कहलाती है और इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है – ज्ञानयोग , ध्यानयोग तथा भक्तियोग । सीढ़ी के प्रारम्भिक भाग को योगारुरुक्षु अवस्था ओर अन्तिम भाग को योगारूढ कहा जाता है । जहाँ तक अष्टांगयोग का सम्बन्ध है , विभिन्न यम – नियमों तथा आसनों ( जो प्रायः शारीरिक मुद्राएँ ही हैं ) के द्वारा ध्यान में प्रविष्ट होने के लिए आरम्भिक प्रयासों को सकाम कर्म माना जाता है ।
ऐसे कर्मों से पूर्ण मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता है जिससे इन्द्रियाँ वश में होती हैं । जब मनुष्य पूर्ण ध्यान में सिद्धहस्त हो जाता है तो विचलित करने वाले समस्त मानसिक कार्य बन्द हुए माने जाते हैं । किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति प्रारम्भ से ही ध्यानावस्थित रहता है क्योंकि वह निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है । इस प्रकार कृष्ण की सेवा में सतत व्यस्त रहने के कारण उसके सारे भौतिक कार्यकलाप बन्द हुए माने जाते हैं ।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ ४ ॥
यदा – जव ; हि – निश्चय ही ; न – नहीं ; इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रियतृप्ति में ; न – कभी नहीं ; कर्मसु – सकाम कर्म में ; अनुषज्जते – निरत रहता है ; सर्व-सङ्कल्प – समस्त भौतिक इच्छाओं का ; संन्यासी – त्याग करने वाला ; योग-आरूढ – योग में स्थित ; तदा – समय ; उच्यते – कहलाता है ।
जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकमों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है ।
तात्पर्य : जब मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लगा रहता है तो वह अपने आप में प्रसन्न रहता है और इस तरह वह इन्द्रियतृप्ति या सकामकर्म में प्रवृत्त नहीं होता । अन्यथा इन्द्रियतृप्ति में लगना ही पड़ता है , क्योंकि कर्म किए बिना कोई रह नहीं सकता । बिना कृष्णभावनामृत के मनुष्य सदैव स्वार्थ में तत्पर रहता है ।
अर्थात कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही सब कुछ करता है , फलतः बह इन्द्रियतृप्ति से पूरी तरह विरक्त रहता है । जिसे ऐसी अनुभूति प्राप्त नहीं है उसे चाहिए कि भौतिक इच्छाओं से बचे रहने का वह यंत्रवत् प्रयास करे , तभी यह योग की सीढ़ी से ऊपर पहुँच सकता है ।
और भी पढ़े :
* Sanskrit Counting from 1 To 100 * Sanskrit Counting 100 to 999 * Sanskrit language Introduction
* श्री गणेश जी की आरती * विष्णु जी की आरती * शिव जी की आरती * हनुमान जी की आरती * लक्ष्मी जी की आरती * दुर्गा जी की आरती * आरती कुंजबिहारी की * सरस्वती आरती * गायत्री माता की आरती * सत्यनारायण आरती * श्री रामचंद्र आरती * साईं बाबा की आरती
* सम्पूर्ण भगवद गीता हिंदी में~ Powerful Shrimad Bhagavad Gita in Hindi 18 Chapter