अध्याय पाँच (Chapter -5)
भगवद गीता अध्याय 5.4 ~ में शलोक 27 से शलोक 29 तक भक्ति सहित ध्यानयोग तथा भय, क्रोध, यज्ञ आदि का वर्णन का वर्णन !
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे ध्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
स्पर्शान् – इन्द्रियविषयों यथा ध्वनि को ; कृत्वा – करके ; बहिः – बाहरी ; बाह्यान् – अनावश्यक ; चक्षुः – आँखें ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; अन्तरे – मध्य में ; भ्रुवोः – भौहों के ; प्राण-अपानी – ऊर्ध्व तथा अधोगामी वायु ; समौ – रुद्ध ; कृत्वा – करके ; नास- अभ्यन्तर – नथुनों के भीतर ; चारिणी – चलने वाले ; यत – संयमित ; इन्द्रिय – इन्द्रियाँ ; मनः – मन ; बुद्धिः – बुद्धि ; मुनि: – योगी ; मोक्ष – मोक्ष के लिए ; परायणः – तत्पर ; विगत – परित्याग करके ; इच्छा – इच्छाएँ ; भय – डर ; क्रोधः – क्रोध ; यः – जो ; सदा – सदैव ; मुक्त: – मुक्त ; एव – निश्चय ही ; सः – वह ।
समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके , दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके , प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन , इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा , भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है । जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है , वह अवश्य ही मुक्त है ।
तात्पर्य : – कृष्णभावनामृत में रत होने पर मनुष्य तुरन्त ही अपने आध्यात्मिक स्वरूप को जान लेता है जिसके पश्चात् भक्ति के द्वारा वह परमेश्वर को समझता है । जब मनुष्य भक्ति करता है तो वह दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है और अपने कर्म क्षेत्र में भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करने योग्य हो जाता है ।
यह विशेष स्थिति मुक्ति कहलाती मुक्ति विषयक उपर्युक्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके श्रीभगवान् अर्जुन को यह शिक्षा देते हैं कि मनुष्य किस प्रकार अष्टांगयोग का अभ्यास करके इस स्थिति को प्राप्त होता है । यह अष्टांगयोग आठ विधियों यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान तथा समाधि में विभाजित है ।
छठे अध्याय में योग के विषय में विस्तृत व्याख्या की गई है , पाँचवें अध्याय के अन्त में तो इसका प्रारम्भिक विवेचन ही दिया गया है । योग में प्रत्याहार विधि से शब्द , स्पर्श , रूप , स्वाद तथा गंध का निराकरण करना होता है और तब दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच लाकर अधखुली पलकों से उसे नासाग्र पर केन्द्रित करना पड़ता है ।
आँखों को पूरी तरह बन्द करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि तब सो जाने की सम्भावना रहती है । न ही आँखों को पूरा खुला रखने से कोई लाभ है क्योंकि तब तो इन्द्रियविषयों द्वारा आकृष्ट होने का भय बना रहता है । नथुनों के भीतर श्वास की गति को रोकने के लिए प्राण तथा अपान वायुओं को सम किया जाता है ।
ऐसे योगाभ्यास से मनुष्य अपनी इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण प्राप्त करता है , बाह्य इन्द्रियविषयों से दूर रहता है और अपनी मुक्ति की तैयारी करता है । इस योग विधि से मनुष्य समस्त प्रकार के भय तथा क्रोध से रहित हो जाता । और परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करता है ।
दूसरे शब्दों में , कृष्णभावनामृत योग के सिद्धान्तों को सम्पन्न करने की सरलतम विधि है । अगले अध्याय में इसकी विस्तार से व्याख्या होगी । किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदैव भक्ति में लीन रहता है जिससे उसकी इन्द्रियों के अन्यत्र प्रवृत्त होने का भय नहीं रह जाता । अष्टांगयोग की अपेक्षा इन्द्रियों को वश में करने की यह अधिक उत्तम विधि है ।
भोक्तारं यज्ञतपसा सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥
भोक्तारम् – भोगने वाला , भोक्ता ; यज्ञ – यज्ञ ; तपसाम् – तपस्या का ; सर्वलोक – सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का ; महा-ईश्वरम् – परमेश्वर ; सुहृदम् – उपकारी ; सर्व – समस्त ; भूतानाम् – जीवों का ; ज्ञात्वा – इस प्रकार जानकर ; माम् – मुझ ( कृष्ण ) को ; शान्तिम् – भौतिक यातना से मुक्ति ; ऋच्छति – प्राप्त करता है।
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता , समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ – करता है ।
तात्पर्य : – भगवद गीता अध्याय 5.4 में माया के वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं । किन्तु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शान्ति के सूत्र को वे नहीं जानते । शान्ति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान् कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं ।
मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की दिव्यसेवा में अर्पित कर दें क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं । उनसे बड़ा कोई नहीं है । वे बड़े से बड़े देवता , शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं । वेदों में ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.७ ) भगवान् को तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् कहा गया है ।
माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं , लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सर्वत्र भगवान् की माया का प्रभुत्व है । भगवान् प्रकृति ( माया ) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत हैं । जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं लेता तब तक संसार में व्यष्टि या समष्टि रूप से शान्ति प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है । कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है ।
भगवान् कृष्ण परमश्वर है तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं । पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर ही पूर्ण शान्ति प्राप्त की जा सकती है । २०२ अध्याय ५ यह पाँचवा अध्याय कृष्णभावनामृत की , जिसे सामान्यतया कर्मयोग कहते हैं , व्यावहारिक व्याख्या है ।
यहाँ पर इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि कर्मयोग से मुक्ति किस तरह प्राप्त होती है । कृष्णभावनामृत में कार्य करने का अर्थ है परमेश्वर के रूप के पूर्णज्ञान के साथ कर्म करना । ऐसा कर्म दिव्यज्ञान से मित्र नहीं होता । में भगवान् का प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत भक्तियोग है और ज्ञानयोग वह पथ है जिससे भक्तियोग प्राप्त किया जाता है ।
कृष्णभावनामृत का अर्थ हे परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का पूर्णज्ञान प्राप्त करके कर्म करना और इस चेतना की पूर्णता का अर्थ है – कृष्ण या श्रीभगवान् का पूर्णज्ञान । शुद्ध जीव भगवान् के अंश रूप में ईश्वर का शाश्वत दास है । वह माया पर प्रभुत्व जताने की इच्छा से ही माया के सम्पर्क में आता है और यही उसके कष्टों मूल कारण है ।
जब तक वह पदार्थ के सम्पर्क में रहता है उसे भौतिक आवश्यकताओं के लिए कर्म करना पड़ता है । किन्तु कृष्णभावनामृत उसे पदार्थ की परिधि में स्थित होते . हुए भी आध्यात्मिक जीवन में ले आता है क्योंकि भौतिक जगत में भक्ति का करने पर जीव का दिव्य स्वरूप पुनः प्रकट होता है । जो मनुष्य जितना ही प्रगत है वह उतना ही पदार्थ के बन्धन से मुक्त रहता है ।
भगवान् किसी का पक्षपात नहीं करते । यह तो कृष्णभावनामृत के लिए व्यक्तिगत व्यावहारिक कर्तव्यपालन पर निर्भर करता है । जिससे मनुष्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त करके इच्छा तथा क्रोध के प्रभाव को जीत लेता है । और जो कोई उपर्युक्त कामेच्छाओं को वश में करके कृष्णभावनामृत में दृढ रहता है वह ब्रह्मनिर्वाण या दिव्य अवस्था को प्राप्त होता है ।
कृष्णभावनामृत में अष्टांगयोग पद्धति का स्वयमेव अभ्यास होता है क्योंकि इससे अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति होती है । यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान तथा समाधि के अभ्यास द्वारा धीरे – धीरे प्रगति हो सकती है । किन्तु भक्तियोग में तो ये प्रस्तावना के स्वरूप हैं क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को पूर्णशान्ति प्राप्त हो सकती है । यही जीवन की परम सिद्धि है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के पंचम अध्याय भगवद गीता अध्याय 5.4 ” में कर्मयोग- कृष्णभावनाभावित कर्म ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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