अध्याय चार (Chapter -4)
भगवद गीता अध्याय 4.5 ~ में शलोक 34 से शलोक 42 तक ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा का वर्णन !
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥
तत् – विभिन्न यज्ञों के उस ज्ञान को ; विद्धि – जानने का प्रयास करो ; प्रणिपातेन – गुरु के पास जाकर के ; परिप्रश्नेन – विनीत जिज्ञासा से ; सेवया – सेवा के द्वारा ; उपदेश्यन्ति – दीक्षित करेंगे ; ते – तुमको ; ज्ञानम् – ज्ञान में ; ज्ञानिनः – स्वरूपसिद्ध ; तत्त्व – तत्वके ; दर्शिनः – दर्शी ।
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो । उनसे विनीत होकर सकते हैं , क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है । जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो । स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर । ,
तात्पर्य :– निस्सन्देह आत्म – साक्षात्कार का मार्ग कठिन है अतः भगवान् का उपदेश है कि उन्हीं से प्रारम्भ होने वाली परम्परा से प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण की जाए । इस परम्परा के सिद्धान्त का पालन किये बिना कोई प्रामाणिक गुरु नहीं बन सकता । भगवान् आदि गुरु हैं , अतः गुरु – परम्परा का ही व्यक्ति अपने शिष्य को भगवान् का सन्देश प्रदान कर सकता है ।
कोई अपनी निजी विधि का निर्माण करके स्वरूपसिद्ध नहीं बन सकता जैसा कि आजकल के मूर्ख पाखंडी करने लगे हैं । भागवत का ( ६.३.१ ९ ) कथन है धर्मं तु साक्षात्भगवत्प्रणीतम– धर्मपथ का निर्माण स्वयं भगवान् ने किया है ।अतएव मनोधर्म या शुष्क तर्क से सही पद प्राप्त नहीं हो सकता । न ही ज्ञानग्रंथों के स्वतन्त्र अध्ययन से ही कोई आध्यात्मिक जीवन में उन्नति कर सकता है ।
ज्ञान प्राप्ति के लिए उसे प्रामाणिक गुरु की शरण में जाना ही होगा । ऐसे गुरु को पूर्ण समर्पण करके ही स्वीकार करना चाहिए और अहंकाररहित होकर दास की भाँति गुरु की सेवा करनी चाहिए । स्वरूपसिद्ध गुरु की प्रसन्नता ही आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का रहस्य है ।
जिज्ञासा और विनीत भाव के मेल से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है । विना विनीत भाव तथा सेवा के विद्वान् गुरु से की गई जिज्ञासाएँ प्रभावपूर्ण नहीं होंगी । शिष्य को गुरु – परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और जब गुरु शिष्य में वास्तविक इच्छा देखता है तो स्वतः ही शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान का आशीर्वाद देता है ।
इस श्लोक में तथा निरर्थक जिज्ञासा- इन दोनों की भर्त्सना की गई है । शिष्य न केवल गुरु से विनीत डाकर सुने , अपितु विनीत भाव तथा सेवा और जिज्ञासा द्वारा गुरु से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करें । प्रामाणिक गुरु स्वभाव से शिष्य के प्रति दयालु होता है , अतः यदि शिष्य विनीत हो और सेवा में तत्पर रहे तो ज्ञान और जिज्ञासा का विनिमय पूर्ण हो जाता है ।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥
यत् – जिसे ; ज्ञात्वा – जानकर ; न – कभी नहीं ; पुनः – फिर ; मोहम् – मोह को ; एवम् – इस प्रकार ; यास्यसि – प्राप्त होगे ; पाण्डव – हे पाण्डवपुत्र ; येन – जिससे ; भूतानि – जीवों को ; अशेषेण – समस्त ; द्रक्ष्यसि – देखोगे ; आत्मनि – परमात्मा में ; अथ उ – अथवा अन्य शब्दों में ; मयि – मुझमें।
स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुनः कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं , अर्थात् वे सब मेरे हैं ।
तात्पर्य : – स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त होने का परिणाम यह होता है कि यह पता चल जाता है कि सारे जीव भगवान् श्रीकृष्ण के भिन्न अंश हैं । कृष्ण से पृथक अस्तित्व का भाव माया ( मा – नहीं , या यह ) कहलाती है । कुछ लोग सोचते हैं कि हमें कृष्ण से क्या लेना देना है वे तो केवल महान ऐतिहासिक पुरुष हैं और परब्रह्म तो निराकार है ।
वस्तुतः जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है यह निराकार ब्रह्म कृष्ण का व्यक्तिगत तेज है । कृष्ण भगवान् के रूप में प्रत्येक वस्तु के कारण है । ब्रह्मसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं और सभी कारणों के कारण हैं । यहाँ तक कि लाखों अवतार उनके विभिन्न विस्तार ही हैं । इसी प्रकार सारे जीव भी कृष्ण के अंश हैं ।
मायावादियों की यह मिथ्या धारणा है कि कृष्ण अपने अनेक अंशों में अपने निजी पृथक् अस्तित्व को मिटा देते हैं । यह विचार सर्वथा भौतिक है । भौतिक जगत् में हमारा अनुभव है कि यदि किसी वस्तु का विखण्डन किया जाय तो उसका मूलस्वरूप नष्ट हो जाता है । किन्तु मायावादी यह नहीं समझ पाते कि परम का अर्थ है कि एक और एक मिलकर एक ही होता है और एक में से एक घटाने पर भी एक बचता है ।
परब्रह्म का यही स्वरूप है । ब्रह्मविद्या का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण हम माया से आवृत इसीलिए हम अपने को कृष्ण से पृथक् सोचते हैं । यद्यपि हम कृष्ण के भिन्न अंश हैं , किन्तु तो भी हम उनसे भिन्न नहीं हैं । जीवों का शारीरिक अन्तर माया है अथवा वास्तविक सत्य नहीं है । हम सभी कृष्ण को प्रसन्न करने के निमित्त हैं । केवल माया के कारण ही अर्जुन ने सोचा कि उसके स्वजनों से उसका क्षणिक शारीरिक सम्बन्ध कृष्ण के शाश्वत आध्यात्मिक सम्बन्धों से अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
गीता का सम्पूर्ण उपदेश इसी ओर लक्षित है कि कृष्ण का नित्य दास होने के कारण जीव उनसे पृथक् नहीं हो सकता , कृष्ण से अपने को विलग मानना ही माया कहलाती है । परब्रह्म के भिन्न अंश के रूप में जीवों को एक विशिष्ट उद्देश्य पूरा करना होता है । उस उद्देश्य को भुलाने के कारण ही वे अनादिकाल से मानव , पशु , देवता आदि देहों में स्थित हैं । ऐसे शारीरिक अन्तर भगवान् की दिव्य सेवा के विस्मरण से जनित हैं ।
किन्तु जब कोई कृष्णभावनामृत के माध्यम से दिव्य सेवा में लग जाता है तो वह इस माया से तुरन्त मुक्त हो जाता है । ऐसा ज्ञान केवल प्रामाणिक गुरु से ही प्राप्त हो सकता है और इस तरह वह इस भ्रम को दूर कर सकता है कि जीव कृष्ण के तुल्य है । पूर्णज्ञान तो यह है कि परमात्मा कृष्ण समस्त जीवों के परम आश्रय हैं और इस आश्रय को त्याग देने पर जीव माया द्वारा मोहित होते हैं , क्योंकि वे अपना अस्तित्व पृथक् समझते हैं ।
इस तरह विभिन्न भौतिक पहिचानों के मानदण्डों के अन्तर्गत वे कृष्ण को भूल जाते हैं । किन्तु जब ऐसे मोहग्रस्त जीव कृष्णभावनामृत में स्थित होते हैं तो यह समझा जाता है कि वे मुक्ति – पथ पर हैं जिसकी पुष्टि भागवत में ( २.१०.६ ) की गई है – मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः । मुक्ति का अर्थ है -कृष्ण के नित्य दास रूप में ( कृष्णभावनामृत में ) अपनी स्वाभाविक स्थिति पर होना ।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ३६ ॥
अपि – भी ; चेत् – यदि ; असि –तुम हो ; पापेभ्य: – पापियों से ; सर्वेभ्यः – समस्त ; पाप-कृत्-तमः – सर्वाधिक पापी ; सर्वम् – ऐसे समस्त पापकर्म ; ज्ञान-प्लवेन – दिव्यज्ञान की नाव द्वारा ; एव – निश्चय ही ; वृजिनम् – दुख के सागर को ; सन्तरिष्यसि – पूर्णतया पार कर जाओगे ।
यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख – सागर को पार करने में समर्थ होगे ।
तात्पर्य :- श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही – सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान – सागर में चलने वाले जीवन संघर्ष से मनुष्य तुरन्त ही ऊपर उठ सकता है । यह भौतिक जगत् कभी – कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है तो कभी जलता हुआ जंगल सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो , जीवन संघर्ष अत्यन्त कठिन है ।
यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो यह सबसे रक्षक है । भगवान से प्राप्त पूर्णज्ञान मुक्ति का पथ है । कृष्णभावनामृत की नाव अत्यन्त सुगम है , किन्तु उसी के साथ – साथ अत्यन्त उदात्त भी ।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ३७ ॥
यथा – जिस प्रकार से ; कुरुते – कर देती है ; एधांसि – ईंधन को समिद्ध: – जलती हुई ; अग्निः – अग्नि ; भस्म-सात् – राख ; अर्जुन – हे अर्जुन ; ज्ञान-अग्निः – ज्ञान रूपी अग्नि ; सर्व-कर्माणि – भौतिक कर्मों के समस्त फल को ; भस्मसात् – भस्म , राख ; तथा – उसी प्रकार से।
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है , उसी तरह हे अर्जुन ! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है ।
तात्पर्य :- आत्मा तथा परमात्मा सम्बन्धी पूर्णज्ञान तथा उनके सम्बन्ध की तुलना यहाँ अग्नि से की गई है । यह अग्नि न केवल समस्त पापकर्मों के फलों को जला देती है , अपितु पुण्यकर्मों के फलों को भी भस्मसात् करने वाली है । कर्मफल की कई अवस्थाएँ हैं – शुभारम्भ , बीज , संचित आदि ।
किन्तु जीव को स्वरूप का ज्ञान होने पर सब कुछ भस्म हो जाता है चाहे वह पूर्ववर्ती हो या परवर्ती । वेदों में ( बृहदारण्यक उपनिषद् ४.४.२२ ) कहा गया है – उभे उहंवैष एते तरत्यमृतः साध्वसाधूनी – ” मनुष्य पाप तथा पुण्य दोनों ही प्रकार के कर्मफलों को जीत लेता है । “
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥
न – कुछ भी नहीं ; हि – निश्चय ही ; ज्ञानेन – ज्ञान से ; सदृशम् – तुलना में ; पवित्रम् – पवित्र ; इह – इस संसार में ; विद्यते – है ; तत् – उस ; स्वयम् – अपने आप ; योग – भक्ति में ; संसिद्धः – परिपक्व होने पर ; कालेन – यथासमय ; आत्मनि – अपने आप में, अन्तर में ; विन्दति – आस्वादन करता है ।
इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है । ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है । जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है , वह यथासमय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है ।
तात्पर्य :- जब हम दिव्यज्ञान की बात करते हैं तो हमारा प्रयोजन आध्यात्मिक ज्ञान से होता है । निस्सन्देह दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है । अज्ञान ही हमारे बन्धन का कारण है और ज्ञान हमारी मुक्ति का । यह ज्ञान भक्ति का परिपक्व फल है ।
जब कोई दिव्यज्ञान की अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे अन्यत्र शान्ति खोजने की आवश्यकता नहीं रहती , क्योंकि वह मन ही मन शान्ति का आनन्द लेता रहता है । दूसरे शब्दों में , ज्ञान तथा शान्ति का पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है । भगवद्गीता के सन्देश की यही चरम परिणति है ।
श्रद्धावल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३ ९ ॥
श्रद्धा-वान् – श्रद्धालु व्यक्ति ; लभते – प्राप्त करता है ; ज्ञानम् – ज्ञान ; तत्-परः – उसमें अत्यधिक अनुरक्त ; संयत – संयमित ; इन्द्रियः – इन्द्रियाँ ; ज्ञानम् – ; लब्ध्वा – प्राप्त करके ; पराम् – दिव्य ; शान्तिम् – शान्ति ; अधिरेण – शीघ्र ही ; अधिगच्छति – प्राप्त करता है ।
जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है , यह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- श्रीकृष्ण में दृढविश्वास रखने वाला व्यक्ति ही इस तरह का कृष्णभावनाभावित ज्ञान प्राप्त कर सकता है । वही पुरुष श्रद्धावान कहलाता है जो यह सोचता है कि कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करने से वह परमसिद्धि प्राप्त कर सकता है ।
यह श्रद्धा भक्ति के द्वारा तथा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – मन्त्र के जाप द्वारा प्राप्त की जाती है क्योंकि इससे हृदय की सारी भौतिक मलिनता दूर हो जाती है । इसके अतिरिक्त मनुष्य को चाहिए कि अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे ।
जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति श्रद्धावान् है और जो इन्द्रियों को संयमित रखता है , वह शीघ्र ही कृष्णभावनामृत के ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करता है
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥
अज्ञः – मुर्ख , जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है ; च – तथा ; अश्रधान: – शास्त्रों में श्रद्धा से विहीन ; संशय – शंकाग्रस्त ; आत्मा – व्यक्ति ; विनश्यति – गिर जाता है ; न – न ; अयम् – इस ; लोक: – जगत में ; आत्मनः – व्यक्ति के लिए ।
किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं , वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते , अपितु नीचे गिर जाते हैं । संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में , न ही परलोक में कोई सुख है ।
तात्पर्य : – भगवद्गीता सभी प्रामाणिक एवं मान्य शास्त्रों में सर्वोत्तम है । जो लोग पशुतुल्य हैं उनमें न तो प्रामाणिक शास्त्रों के प्रति कोई श्रद्धा है और न उनका ज्ञान होता है और कुछ लोगों को यद्यपि उनका ज्ञान होता है और उनमें से वे उद्धरण देते रहते हैं , किन्तु उनमें वास्तविक विश्वास नहीं करते । यहाँ तक कि कुछ लोग जिनमें भगवद्गीता जैसे शास्त्रों में श्रद्धा होती भी है फिर भी वे न तो भगवान् कृष्ण में विश्वास करते हैं , न उनकी पूजा करते हैं ।
ऐसे लोगों को कृष्णभावनामृत का कोई ज्ञान नहीं होता । वे नीचे गिरते हैं । उपर्युक्त सभी कोटि के व्यक्तियों में जो श्रद्धालु नहीं हैं और सदेव संशयग्रस्त रहते हैं , वे तनिक भी उन्नति नहीं कर पाते । जो लोग ईश्वर तथा उनके चचनों में श्रद्धा नहीं रखते उन्हें न तो इस संसार में और न भावी लोक में कुछ हाथ लगता है । उनके लिए किसी भी प्रकार का सुख नहीं है ।
अतः मनुष्य को चाहिए कि श्रद्धाभाव से शास्त्रों के सिद्धान्तों का पालन करे और ज्ञान प्राप्त करे । इसी ज्ञान से मनुष्य आध्यात्मिक अनुभूति के दिव्य पद तक पहुँच सकता है । दूसरे शब्दों में , आध्यात्मिक उत्थान में संशयग्रस्त मनुष्यों को कोई स्थान नहीं मिलता । अतः मनुष्य को चाहिए कि परम्परा से चले आ रहे महान आचार्यों के पदचिन्हों का अनुसरण करे और सफलता प्राप्त करे ।
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छित्रसंशयम् ।
आत्मवन्त न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥ ४१ ॥
योग – कर्मयोग में भक्ति से ; संन्यस्त – जिसने त्याग दिये हैं ; कर्माणम् – कर्मफलों को ; ज्ञान – ज्ञान से ; सच्छिन्न – काट दिये हैं ; संशयम् – सन्देह को ; आत्म-वन्तम् – आत्मपरायण को ; न – कभी नहीं ; कर्माणि – कर्म ; निबध्नन्ति – दाँधते हैं ; धनञ्जय – हे सम्पत्ति के विजेता ।
जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है । हे धनञ्जय ! वह कमों के बन्धन से नहीं बँधता ।
तात्पर्य :- जो मनुष्य भगवद्गीता की शिक्षा का उसी रूप में पालन करता है जिस रूप में भगवान् श्रीकृष्ण ने दी थी , तो वह दिव्यज्ञान की कृपा से समस्त संशयों से मुक्त हो जाता है । पूर्णतः कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसे श्रीभगवान् के अंश रूप में अपने स्वरूप का ज्ञान पहले ही हो जाता है । अतएव निस्सन्देह वह कर्मबन्धन से मुक्त है ।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वेनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ ४२ ॥
तस्मात् – अतः ; अज्ञान-सम्भूतम् – अज्ञान से उत्पन्न ; हस्थम् – हृदय में स्थित ; ज्ञान – ज्ञान रूपी ; असिना – शस्त्र से ; आत्मनः – स्व के ; छित्त्वा – काट कर ; एनम् – इस ; संशवम् – संशय का ; योगम् – योग में ; अतिष्ठ – स्थित होओ ; उत्तिष्ठ – युद्ध करने के लिए उठो ; भारत – हे भरतवंशी ।
अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो । हे भारत ! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्ध करो ।
तात्पर्य :- इस अध्याय में जिस योगपद्धति का उपदेश हुआ है वह सनातन योग कहलाती है । इस योग में दो तरह के यज्ञकर्म किये जाते हैं एक तो द्रव्य का यज्ञ और आत्मज्ञान यज्ञ जो विशुद्ध आध्यात्मिक कर्म है । यदि आत्म – साक्षात्कार के लिए द्रव्ययक्ष नहीं किया जाता तो ऐसा यज्ञ भौतिक बन जाता है । किन्तु जब कोई आध्यात्मिक उद्देश्य या भक्ति से ऐसा यज्ञ करता है तो वह पूर्णयज्ञ होता है ।
आध्यात्मिक क्रियाएँ भी दो प्रकार की होती है आत्मबोध ( या अपने स्वरूप को समझना ) तथा श्रीभगवान् विषयक सत्य जो भगवद्गीता के मार्ग का पालन करता है वह ज्ञान की इन दोनों श्रेणियों को समझ सकता है । उसके लिए भगवान् के अंश स्वरूप आत्मज्ञान को प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती है । ऐसा ज्ञान लाभप्रद है क्योंकि ऐसा व्यक्ति भगवान् के दिव्य कार्यकलापों को समझ सकता है ।
इस अध्याय के प्रारम्भ में स्वयं भगवान् ने अपने दिव्य कार्यकलापों का वर्णन किया है । जो व्यक्ति गीता के उपदेशों को नहीं समझता वह श्रद्धाविहीन है और जो भगवान द्वारा उपदेश देने पर भी भगवान् के सच्चिदानन्द स्वरूप को नहीं समझ पाता तो यह समझना चाहिए कि वह निपट मूर्ख है । कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को स्वीकार करके अज्ञान को क्रमशः दूर किया जा सकता है ।
यह कृष्णभावनामृत विविध देवयज्ञ , ब्रह्मयज्ञ , ब्रह्मचर्य यज्ञ , गृहस्थ यज्ञ , इन्द्रियसंयम यज्ञ , योग साधना यज्ञ , तपस्या यज्ञ , द्रव्ययज्ञ , स्वाध्याय यज्ञ तथा वर्णाश्रमधर्म में भाग लेकर जागृत किया जा सकता है । ये सव यज्ञ कहलाते हैं और ये सब नियमित कर्म पर आधारित हैं । किन्तु इन सब कार्यकलापों के भीतर सबसे महत्त्वपूर्ण कारक आत्म साक्षात्कार है जो इस उद्देश्य को खोज लेता है वही भगवद्गीता का वास्तविक पाठक है , किन्तु जो कृष्ण को प्रमाण नहीं मानता यह नीचे गिर जाता है ।
अतः मनुष्य को चाहिए कि वह सेवा तथा समर्पण समेत किसी प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवद्गीता या अन्य किसी शास्त्र का अध्ययन करे । प्रामाणिक गुरु अनन्तकाल से चली आने वाली परम्परा में होता है और वह परमेश्वर के उन उपदेशों से तनिक भी विपथ नहीं होता जिन्हें उन्होंने लाखों वर्ष पूर्व सूर्यदेव को दिया था और जिनसे भगवद्गीता के उपदेश इस धराधाम में आये ।
अतः गीता में ही व्यक्त भगवद्गीता के पथ का अनुसरण करना चाहिए और उन लोगों से सावधान रहना चाहिए जो आत्मश्लाघा वश अन्यों को वास्तविक पथ से विपथ करते रहते हैं । भगवान् निश्चित रूप से परमपुरुष हैं और उनके कार्यकलाप दिव्य हैं जो इसे समझता है वह भगवद्गीता का अध्ययन शुभारम्भ करते ही मुक्त होता है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय ” दिव्य ज्ञान ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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