अध्याय चार (Chapter -4)
भगवद गीता अध्याय 4.3 ~ में शलोक 19 से शलोक 23 तक कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या का वर्णन किया गया है !
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ १९ ॥
यस्य – जिसके ; सर्वे – सभी प्रकार के ; समारम्भाः – प्रयत्न , उद्यम ; काम – इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा पर आधारित ; संकल्प – निश्चय ; वर्जिताः – से रहित हैं ; ज्ञान – पूर्ण ज्ञान की अग्नि ; अग्नि – अग्नि द्वारा ; दग्धः – भस्म हुए ; कर्माणम् – जिसका कर्म ; तम् – उसको ; आहुः – कहते हैं ; पण्डितम् – वुद्धिमान् ; बुधाः – ज्ञानी ।
जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास ( उद्यम ) इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है , उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है । उसे ही साधु पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं , जिस पूर्णज्ञान की अग्नि से कर्मफलों को भस्मसात् कर दिया है ।
तात्पर्य :- केवल पूर्णज्ञानी ही कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यकलापों को समझ सक है । ऐसे व्यक्ति में इन्द्रियतृप्ति की प्रवृत्ति का अभाव रहता है , इससे यह समझा जाता है कि भगवान् के नित्य दास के रूप में उसे अपने स्वाभाविक स्वरूप का पूर्णज्ञान है जिसके द्वारा उसने अपने कर्मफलों को भस्म कर दिया है ।
जिसने ऐसा पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया है वह सचमुच विद्वान् है । भगवान् की नित्य दासता के इस ज्ञान के विकास की तुलना अग्नि से की गई है । ऐसी अग्नि एक बार प्रज्ज्वलित हो जाने पर कर्म के सारे फलों को भस्म कर सकती है ।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥ २० ॥
त्यक्त्वा – त्याग कर ; कर्म-फल-आसङ्गम् – कर्मफल की आसक्ति ; नित्य – सदा ; तृप्तः – तृप्त ; निराश्रयः – आश्रयरहित ; कर्मणि – कर्म में ; अभिप्रवृत्तः – पूर्ण तत्पर रह कर ; अपि – भी ; न – नहीं ; एव – निश्चय ही ; किञ्चित् – कुछ भी ; करोति – करता है ; सः – वह ।
अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता ।
तात्पर्य :- कर्मों के बन्धन से इस प्रकार की मुक्ति तभी सम्भव है , जब मनुष्य कृष्णभावनाभावित होकर हर कार्य कृष्ण के लिए करे । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् के शुद्ध प्रेमवश ही कर्म करता है , फलस्वरूप उसे कर्मफलों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहता ।
यहाँ तक कि उसे अपने शरीर निर्वाह के प्रति भी कोई आकर्षण नहीं रहता , क्योंकि वह पूर्णतया कृष्ण पर आश्रित रहता है । वह न तो किसी वस्तु को प्राप्त करना चाहता है और न अपनी वस्तुओं की रक्षा करना चाहता है । वह अपनी पूर्ण सामर्थ्य से अपना कर्तव्य करता है और कृष्ण पर सव कुछ छोड़ देता है । ऐसा अनासक्त व्यक्ति शुभ – अशुभ कर्मफलों से मुक्त रहता है , मानो वह कुछ भी नहीं कर रहा हो ।
यह अकर्म अर्थात् निष्काम कर्म का लक्षण है । अतः कृष्णभावनामृत से रहित कोई भी कार्य कर्ता पर वन्धनस्वरूप होता है और विकर्म का यही असली रूप है , जैसा कि पहले बताया जा चुका है ।
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वत्राप्नोति किल्बिषम् ॥ २१ ॥
निराशी: – फल की आकांक्षा से रहित , निष्काम ; यत – संयमित ; चित्त-आत्मा – मन तथा बुद्धि ; त्यक्त – छोड़ा ; सर्व – समस्त ; परिग्रहः – स्वामित्व ; शारीरम् – प्राण रक्षा ; केवलम् – मात्र ; कर्म – कर्म ; कुर्वन् – करते हुए ; न – कभी नहीं ; आप्नोति – प्राप्त करता है ; किल्बिषम् – पापपूर्ण फल ।
ऐसा ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से संयमित मन तथा बुद्धि से कार्य करता है , अपनी सम्पत्ति के सारे स्वामित्व को त्याग देता है और केवल शरीर – निर्वाह के लिए कर्म करता है । इस तरह कार्य करता हुआ वह पाप रूपी फलों से प्रभावित नहीं होता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कर्म करते समय कभी भी शुभ या अशुभ फल की आशा नहीं रखता । उसके मन तथा बुद्धि पूर्णतया वश में होते हैं । वह जानता है कि वह परमेश्वर का भिन्न अंश है , अतः अंश रूप में उसके द्वारा सम्पन्न काई भी कर्म उसका न होकर उसके माध्यम से परमेश्वर द्वारा सम्पन्न हुआ होता है ।
जब हाथ हिलता है तो यह स्वेच्छा से नहीं हिलता , अपितु सारे शरीर की चेष्टा से हिलता है । कृष्णभावनामावित व्यक्ति भगवदिच्छा का अनुगामी होता है क्योंकि उसकी निजी इन्द्रियतृप्ति की कोई कामना नहीं होती ।
वह यन्त्र के एक पुज की भाँति हिलता – डुलता है । जिस प्रकार रखरखाव के लिए पुजे को तेल और सफाई की आवश्यकता पड़ती है , उसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कर्म के द्वारा अपना निर्वाह करता रहता है , जिससे वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति करने के लिए ठीक बना रहे ।
अतः वह अपने प्रयासों के फलों के प्रति निश्चेष्ट रहता है । पशु के समान ही उसका अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं होता । कभी – कभी क्रूर स्वामी अपने अधीन पशु को मार भी डालता है , तो भी पशु विरोध नहीं करता , न ही उसे कोई स्वाधीनता होती है ।
आत्म – साक्षात्कार में पूर्णतया तत्पर कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के पास इतना समय नहीं रहता कि वह अपने पास कोई भौतिक वस्तु रख सके । अपने जीवन निर्वाह के लिए उसे अनुचित साधनों के द्वारा धनसंग्रह करने की आवश्यकता नहीं रहती । अतः वह ऐसे भौतिक पापों से कल्मषग्रस्त नहीं होता । वह अपने समस्त कर्मफलों से मुक्त रहता है ।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥
यदृच्छा – स्वतः ; लाभ – लाभ से ; सन्तुष्टः – सन्तुष्ट ; द्वन्द्व – द्वन्द्व से ; अतीतः – परे ; विमत्सरः – ईर्ष्यारहित ; सम: – स्थिरचित्त ; सिद्धो – सफलता में ; असिद्धौ – असफलता में ; च – भी ; कृत्वा – करके ; अपि – यद्यपि ; न – कभी नहीं ; निबध्यते – प्रभावित होता है , बँधता है ।
जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है , जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता , जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है , वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने शरीर – निर्वाह के लिए भी अधिक प्रयास नहीं करता । वह अपने आप होने वाले लाभों से संतुष्ट रहता है । वह न तो माँगता है , न उधार लेता है , किन्तु यथासामर्थ्य वह सच्चाई से कर्म करता है और अपने श्रम से जो प्राप्त हो पाता है , उसी से संतुष्ट रहता है ।
अतः वह अपनी जीविका के विषय में स्वतन्त्र रहता है । वह अन्य किसी की सेवा करके कृष्णभावनामृत सम्बन्धी अपनी सेवा में व्यवधान नहीं आने देता । किन्तु भगवान् की सेवा के लिए वह संसार की द्वैतता से विचलित हुए बिना कोई भी कर्म कर सकता है
संसार की यह द्वैतता गर्मी – सर्दी अथवा सुख – दुख के रूप में अनुभव की जाती है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति द्वैतता से परे रहता है , क्योंकि कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह कोई भी कर्म करने में झिझकता नहीं । अतः यह सफलता तथा असफलता दोनों में ही समभाव रहता है । जब कोई दिव्य ज्ञान में पूर्णतः स्थित हो ।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्र प्रविलीयते ॥ २३ ॥
गत-सङ्गस्य – प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त ; कर्म – कर्म ; आचरत: – करते हुए ; चेतसः – जिसका ज्ञान ; यज्ञाय – यज्ञ ( कृष्ण ) के लिए ; समग्रम् – सम्पूर्ण ; प्रविलीयते – पूर्णरूप से विलीन हो जाता है ।
जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ।
तात्पर्य : – पूर्णरूपेण कृष्णभावनाभावित होने पर मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है और इस तरह भौतिक गुणों के कल्मष से भी मुक्त हो जाता है । यह इसीलिए मुक्त हो जाता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध की स्वाभाविक स्थिति को जानता है , फलस्वरूप उसका चित्त कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होता । अतएव जो कुछ भी करता है , वह आदिविष्णु कृष्ण के लिए होता है ।
अतः भगवद गीता अध्याय 4.3 ~ उसका सारा कर्म यज्ञरूप होता है , क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य परम पुरुष विष्णु अर्थात् कृष्ण को प्रसन्न करना है । ऐसे यज्ञमय कर्म का फल निश्चय ही ब्रह्म में विलीन हो जाता है और मनुष्य को कोई भौतिक फल नहीं भोगना पड़ता है।
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