अध्याय चार (Chapter -4)
भगवद गीता अध्याय 4.2 ~ कर्म-विकर्म एवं अकर्म की व्याख्या में शलोक 16 से शलोक 18 तक कर्म-विकर्म एवं अकर्म का वर्णन किया गया है !
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥
किम् – क्या है ; कर्म – कर्म ; किम् – क्या है ; अकर्म – अकर्म , निष्क्रियता ; इति – इस प्रकार ; कवयः – बुद्धिमान् ; अपि – भी ; अत्र – इस विषय में ; मोहिताः – मोहग्रस्त रहते हैं ; तत् – वह ; ते – तुमको ; कर्म – कर्म ; प्रवक्ष्यामि – कहूँगा ; यत् – जिसे ; ज्ञात्वा – जानकर ; मोक्ष्यसे – तुम्हारा उदार होगा ; अशुभात् – अकल्याण से , अशुभ से ।
कर्म क्या है और अकर्म क्या है , इसे निश्चित करने में बुद्धिमान् व्यक्ति भी मोह हो जाते हैं । अतएव मैं तुमको बताऊँगा कि कर्म क्या है , जिसे जानकर तुम सारे अशुभ से मुक्त हो सकोगे ।
तात्पर्य : कृष्णभावनामृत में जो कर्म किया जाय वह पूर्ववर्ती प्रामाणिक भक्तों के आदर्श के अनुसार होना चाहिए । इसका निर्देश १५ वें श्लोक में किया गया है । ऐसा कर्म स्वतन्त्र क्यों नहीं होना चाहिए , इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गई है । कृष्णभावनामृत में कर्म करने के लिए मनुष्य को उन प्रामाणिक पुरुषों के नेतृत्व का अनुगमन करना होता है , जो गुरु परम्परा में हों , जैसा कि इस अध्याय के प्रारम्भ में कहा जा चुका है ।
कृष्णभावनामृत पद्धति का उपदेश सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया गया , जिन्होंने इसे अपने पुत्र मनु से कहा , मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा और यह पद्धति तबसे इस पृथ्वी पर चली आ रही है । अतः परम्परा के पूर्ववर्ती अधिकारियों के पदचिन्हों का अनुसरण करना आवश्यक है । अन्यथा बुद्धिमान् से बुद्धिमान् मनुष्य भी कृष्णभावनामृत के आदर्श कर्म के विषय में मोहग्रस्त हो जाते हैं । इसीलिए भगवान् ने स्वयं ही अर्जुन को कृष्णभावनामृत का उपदेश देने का निश्चय किया ।
अर्जुन को साक्षात् भगवान् ने शिक्षा दी , अतः जो भी अर्जुन के पदचिन्हों पर चलेगा वह कभी मोहग्रस्त नहीं होगा । कहा जाता है कि अपूर्ण प्रायोगिक ज्ञान के द्वारा धर्म – पथ का निर्णय नहीं किया जा सकता । वस्तुतः धर्म को केवल भगवान् ही निश्चित कर सकते हैं । धर्मं तु साक्षात्भगवत्प्रणीतम् ( भागवत् ६.३.१ ९ ) । अपूर्ण चिन्तन द्वारा कोई किसी धार्मिक सिद्धान्त का निर्माण नहीं कर सकता ।
मनुष्य को चाहिए कि ब्रह्मा , शिव , नारद , मनु , चारों कुमार , कपिल , प्रहलाद , भीष्म , शुकदेव गोस्वामी , यमराज , जनक तथा बलि महाराज जैसे महान अधिकारियों के पदचिन्हों का अनुसरण करे । केवल मानसिक चिन्तन द्वारा यह निर्धारित करना कठिन है कि धर्म या आत्म – साक्षात्कार क्या है । अतः भगवान् अपने भक्तों पर अहेतुकी कृपावश स्वयं ही अर्जुन को बता रहे हैं कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है । केवल कृष्णभावनामृत में किया गया कर्म ही मनुष्य को भवबन्धन से उबार सकता है ।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥
कर्मणः – कर्म का ; हि – निश्चय ही ; अपि – भी ; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए ; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए ; च – भी ; विकर्मणः – वर्जित कर्म का ; अकर्मणः – अकर्म का ; च – भी ; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए ; गहना – अत्यन्त कठिन , दुर्गम ; कर्मणः – कर्म की ; गतिः – प्रवेश , गति ।
कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है , विकर्म क्या है और अकर्म क्या है ।
तात्पर्य :- यदि कोई सचमुच ही भव – बन्धन से मुक्ति चाहता है तो उसे कर्म , अकर्म तथा विकर्म के अन्तर को समझना होगा । कर्म , अकर्म तथा विकर्म के विश्लेषण की आवश्यकता है , क्योंकि यह अत्यन्त गहन विषय है । कृष्णभावनामृत को तथा गुणों के अनुसार कर्म को समझने के लिए परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को जानना होगा ।
दूसरे शब्दों में , जिसने यह भलीभाँति समझ लिया है , वह जानता है कि जीवात्मा भगवान् का नित्य दास है और फलस्वरूप उसे कृष्णभावनामृत में कार्य करना है । सम्पूर्ण भगवद्गीता का यही लक्ष्य है । इस भावनामृत के विरुद्ध सारे निष्कर्ष एवं परिणाम विकर्म या निषिद्ध कर्म हैं ।
इसे समझने के लिए मनुष्य को कृष्णभावनामृत के अधिकारियों की संगति करनी होती है और उनसे रहस्य को समझना होता है । यह साक्षात् भगवान् से समझने के समान है । अन्यथा बुद्धिमान् से बुद्धिमान् मनुष्य भी मोहग्रस्त हो जाएगा ।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्त्रकर्मकृत् ॥ १८ ॥
कर्मणि – कर्म में ; अकर्म – अकर्म ; यः – जो ; पश्येत् – देखता है ; अकर्मणि – अकर्म में ; च – भी ; कर्म – सकाम कर्म ; यः – जो ; सः – वह ; बुद्धिमान् – बुद्धिमान् है ; मनुष्येषु – मानव समाज में ; सः – वह ; युक्तः – दिव्य स्थिति को प्राप्त ; कृत्स्त्र-कर्म-कृत् – सारे कर्मों में लगा रहकर भी ।
जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है , वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान् है और सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनामृत में कार्य करने वाला व्यक्ति स्वभावतः कर्म – वन्धन से मुक्त होता है । उसके सारे कर्म कृष्ण के लिए होते हैं , अतः कर्म के फल से उसे कोई लाभ या हानि नहीं होती । फलस्वरूप वह मानव समाज में बुद्धिमान होता है , यद्यपि वह कृष्ण के लिए सभी तरह के कर्मों में लगा रहता है ।
अकर्म का अर्थ है – कर्म के फल के बिना । निर्विशेषवादी इस भय से सारे कर्म करना बन्द कर देता है , कि कर्मफल उसके आत्म साक्षात्कार के मार्ग में वाधक न हो , किन्तु सगुणवादी अपनी इस स्थिति से भलीभाँति परिचित रहता है कि वह भगवान् का नित्य दास है ।
अतः वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में तत्पर रखता है । चूँकि सारे कर्म कृष्ण के लिए किये जाते हैं , अतः इस सेवा के करने में उसे दिव्य सुख प्राप्त होता है ।
अकर्म का अर्थ है – कर्म के फल के बिना जो इस विधि में लगे रहते हैं वे व्यक्तिगत इन्द्रियतृप्ति इच्छा से रहित होते हैं । कृष्ण के प्रति उसका नित्य दास्यभाव उसे सभी प्रकार के कर्मफल से मुक्त करता है ।
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