भगवद गीता अध्याय 4.1 || योग परंपरा,भगवान जन्म दिव्यता || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय चार (Chapter -4)


भगवद गीता अध्याय 4.1 ~  के  शलोक 01 से  शलोक 15  तक जन्म  कर्म  की  दिव्यता , भक्त  लक्षण भगवत्स्वरूप  का  वर्णन !

दिव्यज्ञान

श्रीभगवानुवाच

इमं    विवस्वते    योगं   प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

  विवस्वान्मनवे    प्राह   मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ १ ॥

श्री-भगवान् उवाच   –  श्रीभगवान् ने कहा   ;   इमम्   –  इस  ;   विवस्वते  –   सूर्यदेव को   ;   योगम्   –    परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध की विद्या को   ;   प्रोक्तवान्   –  उपदेश दिया   ;  अहम्   –  मैंने   ;  अव्ययम्  – अमर  ;  विवस्वान्   –  विवस्वानू ( सूर्यदेव का नाम ) ने   ;   मनवे  –    मनुष्यों के पिता ( वैवस्वत ) से   ;  ग्राह  –  कहा   ;  मनुः  – मनुष्यों के पिता ने  ;  इक्ष्वाकवे  –   राजा इक्ष्वाकु से   ;   अब्रवीत्   –  कहा ।

 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया । 

           तात्पर्य :-  यहाँ पर हमें भगवद्गीता का इतिहास प्राप्त होता है । यह अत्यन्त प्राचीन बताया गया है , जब इसे सूर्यलोक इत्यादि सम्पूर्ण लोकों के राजा को प्रदान किया गया था । समस्त लोकों के राजा विशेष रूप से निवासियों की रक्षा के निमित्त होते हैं ,

अतः राजन्यवर्ग को भगवद्गीता की विद्या को समझना चाहिए जिससे वे नागरिकों ( प्रजा ) पर शासन कर सकें और उन्हें काम – रूपी भवबन्धन से बचा सकें । मानव जीवन का उद्देश्य भगवान् के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध के आध्यात्मिक ज्ञान का विकास है और सारे राज्यों तथा समस्त लोकों के शासनाध्यक्षों को चाहिए कि शिक्षा , संस्कृति तथा भक्ति द्वारा नागरिकों को यह पाठ पढ़ाएँ ।

दूसरे शब्दों में , सारे राज्य के शासनाध्यक्ष कृष्णभावनामृत विद्या का प्रचार करने के लिए होते हैं , जिससे जनता इस महाविद्या का लाभ उठा सके और मनुष्य जीवन के अवसर का लाभ उठाते हुए सफल मार्ग का अनुसरण कर सके ।

इस मन्वन्तर में सूर्यदेव विवस्वान् कहलाता है यानी सूर्य का राजा जो सौरमंडल के अन्तर्गत समस्त ग्रहों ( लोकों ) का उद्गम है । ब्रह्मसंहिता में ( ५.५२ ) कहा गया है-

                                   यच्चक्षुरेष  सविता  सकलग्रहाणां  राजा  समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।                                  

यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ 

ब्रह्माजी ने कहा , “ मैं उन श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो आदि पुरुष हैं । और जिनके आदेश से समस्त लोकों का राजा सूर्य प्रभूत शक्ति तथा ऊष्मा धारण करता है । यह सूर्य भगवान् के नेत्र तुल्य है और यह उनकी आज्ञानुसार अपनी कक्षा को तय करता है । “

सूर्य सभी लोकों का राजा है तथा सूर्यदेव ( विवस्वान् ) सूर्य ग्रह पर शासन करता है , जो ऊष्मा तथा प्रकाश प्रदान करके अन्य समस्त लोकों को अपने नियन्त्रण में रखता है । सूर्य कृष्ण के आदेश पर घूमता है और भगवान् कृष्ण ने विवस्वान् को भगवद्गीता की विद्या समझाने के लिए अपना पहला शिष्य चुना । अतः गीता किसी मामूली सांसारिक विद्यार्थी के लिए कोई काल्पनिक भाष्य नहीं , अपितु ज्ञान का मानक ग्रंथ है , जो अनन्त काल से चला आ रहा है ।

 महाभारत में ( शान्ति पर्व ३४८.५१-५२ ) हमें गीता का इतिहास इस रूप में प्राप्त होता है –

                              त्रेतायुगादौ  च  ततो  विवस्वान्मनवे   ददौ ।

                              मनुश्च    लोकभृत्यर्थं  सुतायेक्ष्वाकवे  ददौ ।

                              इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः ॥

“ त्रेतायुग के आदि में विवस्वान् ने परमेश्वर सम्बन्धी इस विज्ञान का उपदेश मनु को दिया और मनुष्यों के जनक मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया । इक्ष्वाकु इस पृथ्वी के शासक थे और उस रघुकुल के पूर्वज थे , जिसमें भगवान् श्रीराम ने अवतार लिया ।

 ” इससे प्रमाणित होता है कि मानव समाज में महाराज इक्ष्वाकु के काल से ही भगवद्गीता विद्यमान थी ।

इस समय कलियुग के केवल ५,००० वर्ष व्यतीत हुए हैं जबकि इसकी पूर्णायु ४,३२,००० वर्ष है । इसके पूर्व द्वापरयुग ( ८,००,००० वर्ष ) था और इसके भी पूर्व त्रेतायुग ( १२,००,००० वर्ष ) था । इस प्रकार लगभग २०,०५,००० वर्ष पूर्व मनु ने अपने शिष्य तथा पुत्र इक्ष्वाकु से जो इस पृथ्वी के राजा थे , श्रीमद्भगवद्गीता  कही । वर्तमान मनु की आयु लगभग ३०,५३,००,००० वर्ष अनुमानित की जाती है जिसमें से  १२,०४,००,००० वर्ष बीत चुके हैं ।

 यह मानते हुए कि मनु के जन्म के पूर्व भगवान् ने अपने शिष्य सूर्यदेव विवस्वान् को गीता सुनाई , मोटा अनुमान यह है कि गीता कम से कम १२,०४,००,००० वर्ष पहले कही गई और मानव समाज में यह २० लाख व से विद्यमान रही । इसे भगवान् ने लगभग ५,००० वर्ष पूर्व अर्जुन से पुनः कहा ।

गीता के अनुसार ही तथा इसके वक्ता भगवान् कृष्ण के कथन के अनुसार यह गीता के इतिहास का मोटा अनुमान है । सूर्यदेव विवस्वान् को इसीलिए गीता सुनाई गई क्योंकि वह क्षत्रिय था और उन समस्त क्षत्रियों का जनक है जो सूर्यवंशी हैं ।

चूँकि भगवद्गीता वेदों के ही समान है क्योंकि इसे श्रीभगवान् ने कहा था , अतः यह ज्ञान अपौरुषेय है । चूँकि वैदिक आदेशों को यथारूप में बिना किसी मानवीय विवेचना के स्वीकार किया जाता है फलतः गीता को भी किसी सांसारिक विवेचना के बिना स्वीकार किया जाना चाहिए ।

संसारी तार्किकजन अपनी – अपनी विधि से गीता के विषय में चिन्तन कर सकते हैं , किन्तु यह यथारूप भगवद्गीता नहीं है । अतः भगवद्गीता को गुरु परम्परा से यथारूप करना चाहिए । यहाँ पर यह वर्णन हुआ है कि भगवान् ने इसे सूर्यदेव से कहा , सूर्यदेव ने अपने पुत्र मनु से और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा ।

एवं  स   परम्पराप्राप्तमिमं  राजर्षयो  विदुः ।

       कालेनेह     महता     योगो   नष्टः     परंतपं ॥ २ ॥

एवम्   –  इस प्रकार  ;  परम्परा  – गुरु-परम्परा से   ;   प्राप्तम्  –   प्राप्त   ;   इमम्  –   इस विज्ञान को    ;   राज ऋषय:   –   साधु राजाओं ने   ;      विदुः   –   जाना   ;   सः  –  वहज्ञान   ; कालेन   –   कालक्रम में    ;    इह  –   इस संसार में    ;     महता   –   महान   ;    योगः  –   परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान , योगविद्या    ;    नष्टः   –  छिन्न – भिन्न हो गया     ;   परन्तप   –   हे शत्रुओं को दमन करने वाले , अर्जुन । 

इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा । किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अतः यह विज्ञान यथारूप लुप्त हो गया लगता है । 

तात्पर्य :-  यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि गीता विशेष रूप से राजर्षियों के लिए थी क्योंकि वे इसका उपयोग प्रजा के ऊपर शासन करने में करते थे । निश्चय ही भगवद्गीता कभी भी आसुरी पुरुषों के लिए नहीं थी जिनसे किसी को भी इसका लाभ न मिलता और अपनी – अपनी सनक के अनुसार विभिन्न प्रकार की विवेचना करते ।

 अतः जैसे ही असाधु भाष्यकारों के निहित स्वार्थों से गीता का मूल उद्देश्य उच्छिन्न हुआ वैसे ही पुनः गुरु – परम्परा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई । पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान् ने स्वयं देखा कि गुरु – परम्परा टूट चुकी है , अतः उन्होंने घोषित किया कि गीता का उद्देश्य नष्ट हो चुका है ।

इसी प्रकार इस सम+य गीता के इतने संस्करण उपलब्ध हैं ( विशेषतया अंग्रेजी में ) कि उनमें से प्रायः सभी प्रामाणिक गुरु – परम्परा के अनुसार नहीं हैं । विभिन्न संसारी विद्वानों ने गीता की असंख्य टीकाएँ की हैं , किन्तु वे प्रायः सभी श्रीकृष्ण को स्वीकार नहीं करते , यद्यपि वे कृष्ण के नाम पर अच्छा व्यापार चलाते हैं ।

यह आ प्रवृत्ति है , क्योंकि असुरगण ईश्वर में विश्वास नहीं करते , वे केवल परमेश्वर के गुणों का लाभ उठाते हैं । अतएव अंग्रेजी में गीता के एक संस्करण की नितान्त आवश्यकता थी । जो परम्परा ( गुरु परम्परा से प्राप्त हो ।

प्रस्तुत प्रयास इसी आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया है । भगवद्गीता यथारूप मानवता के लिए महान वरदान है , किन्तु यदि इसे मानसिक चिन्तन समझा जाय तो यह समय का अपव्यय होगा ।

स  एवायं  मया  तेऽद्य  योगः  प्रोक्तः  पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे  सखा  चेति  रहस्यं  ह्येतदुत्तमम् ॥ ३ ॥ 

सः –  वही   ;  एव  –  निश्चय ही  ;  अयम्  –  यह   ;  मया  –  मेरे द्वारा   ;  ते  –  तुमसे  ;   अद्य  –  आज   ;  योग:  –   योगविद्या   ;  प्रोक्तः   –  कही गयी   ;   पुरातनः    –  अत्यन्त प्राचीन   ;  भक्तः   –   भक्त  ;   असि  –  हो  ;  मे  –  मेरे   ;   सखा  –   मित्र  ; इति  –  अतः   ;   रहस्यम्  – रहस्य  ;  हि   –  निश्चय ही   ;  एतत्  – यह   ;  उत्तमम्  –  दिव्य ।

 आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान , तुमसे कहा जा रहा है , क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो , अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो । 

तात्पर्य :-  मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं – भक्त तथा असुर । भगवान् ने अर्जुन को इस विद्या का पात्र इसलिए चुना क्योंकि वह उनका भक्त था । किन्तु असुर के लिए इस परम गुह्यविद्या को समझ पाना सम्भव नहीं है । इस परम ज्ञानग्रंथ के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं ।

 इनमें से कुछ भक्तों की टीकाएँ हैं और कुछ असुरों की जो टीकाएँ भक्तों द्वारा की गई हैं वे वास्तविक हैं , किन्तु जो असुरों द्वारा की गई हैं वे व्यर्थ हैं । अर्जुन श्रीकृष्ण को भगवान् के रूप में मानता है , अतः जो गीता भाष्य अर्जुन के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए किया गया है वह इस परमविद्या के पक्ष में वास्तविक सेवा है ।

 किन्तु असुर भगवान् कृष्ण को उस रूप में नहीं मानते । वे कृष्ण के विषय में तरह – तरह की मनगढंत बातें करते हैं और वे कृष्ण के उपदेश – मार्ग से सामान्य जनता को गुमराह करते रहते हैं । ऐसे कुमार्गों से बचने के लिए यह एक चेतावनी है। मनुष्य को चाहिए कि अर्जुन की परम्परा का अनुसरण करे और श्रीमद्भगवद्गीता के इस परमविज्ञान से लाभान्वित हो ।

अर्जुन उवाच 

अपरं  भवतो    जन्म   परं  जन्म  विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां  त्वमादौ   प्रोक्तवानिति ॥ ४ ॥

अर्जुनः  उवाच  –  अर्जुन ने कहा  ;  अपरम्  –  अर्वाचीन, कनिष्ठ  ;  भवतः  – आपका  ;  जन्म  – जन्म  ;  परम्  –   श्रेष्ठ ( ज्येष्ठ )  ;  जन्म  –   जन्म  ;   विवस्वतः   –  सूर्यदेव का   ;   कथम्   – कैसे  ;   एतत्   –  यह   ;   विजानीयाम्  –   मैं समझें  ;   त्वम् –   तुमने  ;   आदो  –   प्रारम्भ में  ;  प्रोक्तवान्   –   उपदेश दिया    इति  –   इस प्रकार । 

अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके ( ज्येष्ठ ) हैं , तो फिर मैं कैसे समझें कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था ।

          तात्पर्य :  जब अर्जुन भगवान् का माना हुआ भक्त है तो फिर उसे कृष्ण के वचनों पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा था ? तथ्य यह है कि अर्जुन यह जिज्ञासा अपने लिए नहीं कर रहा है , अपितु यह जिज्ञासा उन सबों के लिए है , जो भगवान् में विश्वास नहीं करते , अथवा उन असुरों के लिए है , जिन्हें यह विचार पसन्द नहीं है कि कृष्ण को भगवान् माना जाय ।

 उन्हीं के लिए अर्जुन यह बात इस तरह पूछ रहा है , मानो वह स्वयं भगवान् या कृष्ण से अवगत न हो । जैसा कि दसवें अध्याय में स्पष्ट हो जाएगा , अर्जुन भलीभाँति जानता था कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं और वे प्रत्येक वस्तु के मूलस्रोत हैं तथा ब्रह्म की चरम सीमा हैं ।

निस्सन्देह , कृष्ण इस पृथ्वी पर देवकी के पुत्र रूप में भी अवतीर्ण हुए । सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि कृष्ण किस प्रकार उसी शाश्वत आदिपुरुष श्रीभगवान् के रूप में बने रहे । अतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही अर्जुन ने कृष्ण से यह प्रश्न पूछा , जिससे वे ही प्रामाणिक रूप में बताएँ ।

कृष्ण परम प्रमाण हैं , यह तथ्य आज ही नहीं अनन्तकाल से सारे विश्व द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है । केवल असुर ही इसे अस्वीकार करते रहे हैं । जो भी हो , चूँकि कृष्ण सर्वस्वीकृत परम प्रमाण हैं , अतः अर्जुन उन्हीं से प्रश्न करता है , जिससे कृष्ण स्वयं बताएँ और असुर तथा उनके अनुयायी जिस भाँति अपने लिए तोड़ – मरोड़ करके उन्हें प्रस्तुत करते रहे हैं , उससे बचा जा सके ।

यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि अपने कल्याण के लिए वह कृष्णविद्या को जाने । अतः जब कृष्ण स्वयं अपने विषय में बोल रहे हों तो यह सारे विश्व के लिए शुभ है । कृष्ण द्वारा की गई ऐसी व्याख्याएँ ।

असुरों को भले ही विचित्र लगें , क्योंकि वे अपने ही दृष्टिकोण से कृष्ण का अध्ययन करते हैं , किन्तु जो भक्त हैं वे साक्षात् कृष्ण द्वारा उच्चरित वचनों का हृदय से स्वागत करते हैं । भक्तगण कृष्ण के प्रामाणिक वचनों की सदा पूजा करेंगे , क्योंकि वे लोग उनके विषय में अधिकाधिक जानने के लिए उत्सुक रहते हैं ।

 इस तरह नास्तिकगण जो कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानते हैं वे भी कृष्ण को अतिमानव  , सच्चिदानन्द विग्रह , दिव्य , त्रिगुणातीत तथा दिक्काल के प्रभाव से परे समझ सकेंगे । अर्जुन की कोटि के श्रीकृष्ण भक्त को कभी भी श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप के विषय में कोई भ्रम नहीं हो सकता ।

अर्जुन द्वारा भगवान् के समक्ष ऐसा प्रश्न उपस्थित करने का उद्देश्य उन व्यक्तियों की नास्तिकतावादी प्रवृत्ति को चुनौती देना था , जो कृष्ण को भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन एक सामान्य व्यक्ति मानते हैं ।

श्रीभगवानुवाच 

बहूनि  मे  व्यतीतानि  जन्मानि  तव  चार्जुन ।

        तान्यहं   वेद  सर्वाणि  न  त्वं  वेत्थ   परन्तप ॥ ५ ॥

श्री भगवान् उवाच   –  श्रीभगवान् ने कहा   ;  जन्मानि  –   जन्म  ;   बहूनि   –  अनेक  ;  मे  – मेरे  ;  व्यतीतानि   –   वीत चुके  ;   च  –   भी   ;   अर्जुन   –   हे अर्जुन  ;   तानि  –  उन   ;   अहम्  – मैं  वेद   –  जानता हूँ  ;   त्वम्  –  तुम  ;   वेत्थ  –  जानते हो  ;   परन्तप   –   हे शत्रुओं का दमन करने वाले । 

श्रीभगवान् ने कहा- तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं । मुझे तो उन सबका स्मरण है , किन्तु हे परंतप ! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है ।

       तात्पर्य : ब्रह्मसंहिता में ( ५.३३ ) हमें भगवान् के अनेकानेक अवतारों की सूचना प्राप्त होती है । उसमें कहा गया है –

 अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपमाद्यं   पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।

    वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

” मैं उन आदि पुरुष श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अद्वैत , अच्युत अनादि हैं । यद्यपि अनन्त रूपों में उनका विस्तार है , किन्तु तो भी वे आद्य , पुरातन तथा नित्य नवयौवन युक्त रहते हैं । श्रीभगवान् के ऐसे सच्चिदानन्द रूप को प्रायः श्रेष्ठ वैदिक विद्वान जानते हैं , किन्तु विशुद्ध अनन्य भक्तों को तो उनके दर्शन नित्य ही होते रहते हैं । “

 ब्रह्मसंहिता में ( ५.३ ९ ) यह भी कहा गया है –

रामादिमूर्तिषु   कलानियमेन तिष्ठन्  नानावतारमकरोद्  भुवनेषु किन्तु 

कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।

“ मैं उन श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो राम , नृसिंह आदि अवतारों तथा अंशावतारों में नित्य स्थित रहते हुए भी कृष्ण नाम से विख्यात आदि – पुरुष हैं और जो स्वयं भी अवतरित होते हैं ।

“वेदों में भी कहा गया है कि अद्वैत होते हुए भी भगवान् असंख्य रूपों में प्रकट होते हैं । वे उस वैदूर्यमणि के समान हैं जो अपना रंग परिवर्तित करते हुए भी एक ही रहता है । इन सारे रूपों को विशुद्ध निष्काम भक्त ही समझ पाते हैं ; केवल वेदों के अध्ययन से उनको नहीं समझा जा सकता ( वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ ) ।

अर्जुन जैसे भक्त कृष्ण के नित्य सखा हैं और जब भी भगवान् अवतरित होते हैं तो उनके पार्षद भक्त भी विभिन्न रूपों में उनकी सेवा करने के लिए उनके साथ – साथ अवतार लेते हैं । अर्जुन ऐसा ही भक्त है और इस श्लोक से पता चलता है कि लाखों वर्ष पूर्व जब भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता का प्रवचन सूर्यदेव विवस्थान से किया था तो उस समय अर्जुन भी किसी भिन्न रूप में उपस्थित था ।

किन्तु भगवान् तथा अर्जुन में यह अन्तर है कि भगवान् ने यह घटना याद रखी , किन्तु अर्जुन इसे याद नहीं रख सका । अंशरूप जीवात्मा तथा परमेश्वर में यही अन्तर है । यद्यपि अर्जुन को यहाँ परम शक्तिशाली वीर के रूप में सम्बोधित किया गया है , जो शत्रुओं का दमन कर सकता है , किन्तु विगत जन्मों में जो घटनाएँ घटी हैं , उन्हें स्मरण रखने में वह अक्षम है ।

अतः भौतिक दृष्टि से जीव चाहे कितना ही वड़ा क्यों न हो , वह कभी परमेश्वर की समता नहीं कर सकता । भगवान् का नित्य संगी निश्चित रूप से मुक्त पुरुष होता है , किन्तु वह भगवान् के तुल्य नहीं होता । ब्रह्मसंहिता में भगवान् को अच्युत कहा गया जिसका अर्थ होता है कि वे भौतिक सम्पर्क में रहते हुए भी अपने को नहीं भूलते ।

अतः भगवान् तथा जीव कभी भी सभी तरह से एकसमान नहीं हो सकते , भले ही जीव अर्जुन के समान मुक्त पुरुष क्यों न हो । यद्यपि अर्जुन भगवान् का भक्त है , किन्तु कभी – कभी वह भी भगवान् की प्रकृति को भूल जाता है ।

किन्तु देवी कृपा से भक्त तुरन्त भगवान् की अच्युत स्थिति को समझ जाता है जबकि अभक्त या असुर इस दिव्य प्रकृति को नहीं समझ पाता । फलस्वरूप गीता के विवरण आसुरी मस्तिष्कों में नहीं चढ़ पाते ।

कृष्ण को लाखों वर्ष पूर्व सम्पन्न कार्यों की स्मृति बनी हुई है , किन्तु अर्जुन को स्मरण नहीं है यद्यपि अर्जुन तथा कृष्ण दोनों ही शाश्वत स्वभाव के हैं । यहाँ पर हमें यह भी देखने को मिलता है कि शरीर – परिवर्तन के साथ साथ जीवात्मा सव कुछ भूल जाता है , किन्तु कृष्ण सव स्मरण रखते हैं , क्योंकि वे अपने सच्चिदानन्द शरीर को बदलते नहीं ।

वे अद्वैत हैं जिसका अर्थ है कि उनके शरीर तथा उनकी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है । उनसे सम्बंधित हर वस्तु आत्मा है जबकि बद्धजीव अपने शरीर से भिन्न होता है । चूँकि भगवान् के शरीर तथा आत्मा अभिन्न हैं , अतः उनकी स्थिति तब भी सामान्य जीव से भिन्न बनी रहती है , जब वे भौतिक स्तर पर अवतार लेते हैं ।

असुरगण भगवान् की इस दिव्य प्रकृति से तालमेल नहीं वेठा पाते , जिसकी व्याख्या अगले श्लोक में भगवान् स्वयं करते हैं ।

अजोऽपि   सन्नव्ययात्मा   भूतानामीश्वरोऽपि  सन् ।

       प्रकृतिं      स्वामधिष्ठाय       सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥

अजः  –  अजन्मा   ;   अपि   –   तथापि  ;   सन्   –   होते हुए  ;   अव्यय  – अविनाशी    ;   आत्मा –  शरीर   ; भूतानाम्  –    जन्म लेने वालों के   ;   ईश्वरः   –  परमेश्वर   ;   अपि  –   यद्यपि  ;   सन्  –   होने पर   ;  प्रकृतिम्   –   दिव्य रूप में   ;   स्वाम्   –   अपने   ;   अधिष्ठाय   –  इस तरह स्थित  ;   सम्भवामि  –   मैं अवतार लेता हूँ  ;    आत्म-मायया   –   अपनी अन्तरंगा शक्ति से ।

 यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ , तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ । 

     तात्पर्य :-  भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता वतलाई है । यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं , किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “ जन्मों ” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है , जबकि सामान्य मनुष्य को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती ।

यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे , तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा । उसे इसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था । फिर भ लोग प्रायः अपने को ईश्वर या कृष्ण घोषित करते रहते हैं ।

मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए । अब भगवान् दुबारा अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं । प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है । भगवान् कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं । वे सामान्य जीव की भाँति शरीर – परिवर्तन नहीं करते ।

इस जन्म में बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है , किन्तु अगले जन्म शरीर रहता है । भौतिक दूसरा में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है , अपितु जगत् वह एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण करता रहता है ।

किन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते । जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं । दूसरे शब्दों में , श्रीकृष्ण इस जगत् में अपने आदि शाश्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बाँसुरी धारण किये अवतरित होते हैं ।

वे इस भौतिक जगत् से निष्कलुषित रह कर अपने शाश्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं । यद्यपि वे अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वे सामान्य जीव की भाँति प्रकट हो रहे हैं । यद्यपि उनका शरीर भौतिक शरीर की भाँति क्षीण नहीं होता फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कृष्ण बालपन से कुमारावस्था तथा कुमारावस्था से तरुणावस्था प्राप्त करते हैं ।

 किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे कभी युवावस्था से आगे नहीं बढ़ते । कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उनके अनेक पौत्र थे या दूसरे शब्दों में , वे भौतिक गणना के अनुसार काफी वृद्ध थे । फिर भी वे बीस – पच्चीस वर्ष के युवक जैसे लगते थे ।

हमें कृष्ण की वृद्धावस्था का कोई चित्र नहीं दिखता , क्योंकि वे कभी भी हमारे समान वृद्ध नहीं होते यद्यपि वे तीनों काल में भूत , वर्तमान तथा भविष्यकाल में सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं । न तो उनका शरीर और न ही बुद्धि कभी क्षीण होती या बदलती है ।

अतः यह स्पष्ट है कि इस जगत् में रहते हुए भी वे उसी अजन्मा सच्चिदानन्द रूप वाले हैं , जिनके दिव्य शरीर तथा बुद्धि में कोई परिवर्तन नहीं होता । वस्तुतः उनका आविर्भाव और तिरोभाव सूर्य के उदय तथा अस्त के समान है जो हमारे सामने से घूमता हुआ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है ।

जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल रहता है तो हम सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब वह हमारे समक्ष होता है तो हम सोचते हैं कि वह क्षितिज में है । वस्तुतः सूर्य स्थिर है , किन्तु अपनी अपूर्ण एवं त्रुटिपूर्ण इन्द्रियों के कारण हम सूर्य को उदय और अस्त होते परिकल्पित करते हैं ,और चूँकि भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं ।

अतः स्पष्ट है कि वे शाश्वत हैं ,अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते । वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं । वैदिक साहित्यों से भी पुष्टि होती है कि यद्यपि भगवान् जन्म लेते प्रतीत होते हैं , किन्तु तो भी वे शरीर – परिवर्तन नहीं करते ।

 श्रीमद्भागवत  में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं । उनका आद्य शाश्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहेतुकी कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में ।

 विश्वकोश के अनुसार माया या आत्म माया शब्द भगवान् की अहेतुकी कृपा का सूचक है । भगवान् अपने समस्त पूर्व आविर्भाव – तिरोभावों से अवगत रहते हैं , किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नवीन प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है ।

 वे समस्त जीवों के स्वामी हैं , क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्यजनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं । अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता ।

अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान् क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं ? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है ।

यदा  यदा  हि  धर्मस्य  ग्लानिर्भवति  भारत ।

        अभ्युत्थानमधर्मस्य  तदात्मानं   सृजाम्यहम् ॥ ७ ॥

यदा यदा   –    जब भी और जहाँ भी   ;   हि  –  निश्चय ही   ;   धर्मस्य   –  धर्म की   ;   ग्लानिः –  हानि , पतन  ;  भवति   –  होती है   ;   भारत   –  हे भरतवंशी   ;   अभ्युत्थानम्   –   प्रधानता   ;  अधर्मस्य   –   अधर्म की ; तदा  –  उस समय    ;   आत्मानम्  –   अपने को   ;  सृजामि  –   प्रकट करता हूँ   ;    अहम्  –   मैं 

 हे भरतवंशी ! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है , तब तब मैं अवतार लेता हूँ ।

        तात्पर्य :-   यहाँ पर सृजामि शब्द महत्त्वपूर्ण है । सृजामि सृष्टि के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हो सकता , क्योंकि पिछले श्लोक के अनुसार भगवान् के स्वरूप या शरीर की सृष्टि नहीं होती , क्योंकि उनके सारे स्वरूप शाश्वत रूप से विद्यमान रहने वाले हैं ।

अतः सृजामि का अर्थ है कि भगवान् स्वयं यथारूप में प्रकट होते हैं । यद्यपि भगवान् कार्यक्रमानुसार अर्थात् ब्रह्मा के एक दिन में सातवें मनु के २८ वें युग में द्वापर के अन्त में प्रकट होते हैं , किन्तु वे इस नियम का पालन करने के लिए वाध्य नहीं हैं , क्योंकि वे स्वेच्छा से कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हैं ।

अतः जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है , तो वे स्वेच्छा से प्रकट होते हैं । धर्म के नियम वेदों में दिये हुए हैं और यदि इन नियमों के पालन में कोई त्रुटि आती है तो मनुष्य अधार्मिक हो जाता है ।

श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि ऐसे नियम भगवान् के नियम हैं । केवल भगवान् ही किसी धर्म की व्यवस्था कर सकते हैं । वेद भी मूलतः ब्रह्मा के हृदय में से भगवान् द्वारा उच्चरित माने जाते हैं । अतः धर्म के नियम भगवान् के प्रत्यक्ष आदेश हैं ( धर्म तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतम् ) | भगवद्गीता में आद्योपान्त इन्हीं नियमों का संकेत है ।

 वेदों का उद्देश्य परमेश्वर के आदेशानुसार ऐसे नियमों की स्थापना करना है और गीता के अन्त में भगवान् स्वयं आदेश देते हैं कि सर्वोच्च धर्म उनकी ही शरण ग्रहण करना है । वैदिक नियम जीव को पूर्ण शरणागति की ओर अग्रसर कराने वाले हैं और जब भी असुरों द्वारा इन नियमों में व्यवधान आता है तभी भगवान् प्रकट होते हैं ।

श्रीमद्भागवत पुराण से हम जानते हैं कि बुद्ध कृष्ण के अवतार हैं , जिनका प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब भौतिकतावाद का बोलबाला था और भौतिकतावादी लोग वेदों को प्रमाण बनाकर उसकी आड़ ले रहे थे ।

यद्यपि वेदों में विशिष्ट कार्यों के लिए पशु बलि के विषय में कुछ सीमित विधान थे , किन्तु आसुरी वृत्तिवाले लोग वैदिक नियमों का सन्दर्भ दिये विना पशु बलि को अपनाये हुए थे । भगवान् बुद्ध इस अनाचार को रोकने तथा अहिंसा के वैदिक नियमों की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए ।

अतः भगवान् के प्रत्येक अवतार का विशेष उद्देश्य होता है और इन सबका वर्णन शास्त्रों में हुआ है । यह तथ्य नहीं है कि केवल भारत की धरती में भगवान् अवतरित होते हैं । वे कहीं भी और किसी भी काल में इच्छा होने पर प्रकट हो सकते हैं ।

 वे प्रत्येक अवतार लेने पर धर्म के विषय में उतना ही कहते हैं , जितना कि उस परिस्थिति में जन समुदाय विशेष समझ सकता है । लेकिन उद्देश्य एक ही रहता है – लोगों को ईशभावनाभावित करना तथा धार्मिक नियमों के प्रति आज्ञाकारी बनाना ।

 कभी वे स्वयं प्रकट होते हैं तो कभी अपने प्रामाणिक प्रतिनिधि को अपने पुत्र या दास के रूप में भेजते हैं , या वेश बदल कर स्वयं ही प्रकट होते हैं । भगवद्गीता के सिद्धान्त अर्जुन से कहे गये थे , अतः वे किसी भी महापुरुष के प्रति हो सकते थे , क्योंकि अर्जुन संसार के अन्य भागों के सामान्य पुरुषों की अपेक्षा अधिक जागरुक था ।

 दो और दो मिलकर चार होते हैं , यह गणितीय नियम प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी के लिए उतना ही सत्य है , जितना कि उच्च कक्षा के विद्यार्थी के लिए । तो भी गणित उच्चस्तर तथा निम्नस्तर का होता है । अतः भगवान् प्रत्येक अवतार में एक जैसे सिद्धान्तों की शिक्षा देते हैं , जो परिस्थितियों के अनुसार उच्च या निम्न प्रतीत होते हैं ।

जैसा कि आगे बताया जाएगा धर्म के उच्चतर सिद्धान्त चारों वर्णाश्रमों को स्वीकार करने से प्रारम्भ होते हैं । अवतारों का एकमात्र उद्देश्य सर्वत्र कृष्णभावनामृत को उद्बोधित करना है । परिस्थिति के अनुसार यह भावनामृत प्रकट तथा अप्रकट होता है ।

परित्राणाय  साधूनां  विनाशाय  च   दुष्कृताम् ।

       धर्मसंस्थापनार्थाय      सम्भवामि    युगे    युगे ॥ ८ ॥

 परित्राणाय   –   उद्धार के लिए   ;   साधूनाम्   –   भक्तों के  ;   विनाशाय   –  संहार के लिए  ;   च –   तथा ;    दुष्कृताम्   –  दुष्टों के   ;   धर्म  –  धर्म के   ;  संस्थापन-अर्थाय  –  पुनः स्थापित करने के लिए   ;   सम्भवामि  – प्रकट होता हूँ   ;   युगे  –  युग  ;    युगे  –  युग में ।

भक्तों का उद्धार करने , दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ । 

तात्पर्य :-   भगवद्गीता के अनुसार साधु ( पवित्र पुरुष ) कृष्णभावनाभावित व्यक्ति है । अधार्मिक लगने वाले व्यक्ति में भी यदि पूर्ण कृष्णचेतना हो , तो उसे साधु समझना चाहिए । दुष्कृताम् उन व्यक्तियों के लिए आया है जो कृष्णभावनामृत की परवाह नहीं करते ।

 ऐसे दुष्कृताम् या उपद्रवी , मूर्ख तथा अधम व्यक्ति कहलाते हैं , भले ही वे सांसारिक शिक्षा से विभूषित क्यों न हों । इसके विपरीत यदि कोई शत – प्रतिशत कृष्णभावनामृत में लगा रहता है तो वह विद्वान् या सुसंस्कृत न भी हो फिर भी वह साधु माना जाता है ।

 जहाँ तक अनीश्वरवादियों का प्रश्न है , भगवान् के लिए आवश्यक नहीं कि वे इनके विनाश के लिए उस रूप में अवतरित हों जिस रूप में वे रावण तथा कंस का वध करने के लिए हुए थे । भगवान् के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने में सक्षम हैं ।

 किन्तु भगवान् तो अपने उन निष्काम भक्तों को तुष्ट करने के लिए विशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असुरों द्वारा निरन्तर तंग किये जाते हैं । असुर भक्त को तंग करता है , भले ही वह उसका सगा – सम्बन्धी क्यों न हो । यद्यपि प्रह्लाद महाराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे , किन्तु तो भी वे अपने पिता द्वारा उत्पीड़ित थे ।

इसी प्रकार कृष्ण की माता देवकी यद्यपि कंस की बहन थीं , किन्तु उन्हें तथा उनके पति वसुदेव को इसलिए दण्डित किया गया था क्योंकि उनसे कृष्ण को जन्म लेना था । अतः भगवान् कृष्ण मुख्यतः देवकी के उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे , कंस को मारने के लिए नहीं । किन्तु ये दोनों कार्य एकसाथ सम्पन्न हो गये । अतः यह कहा जाता है कि भगवान भक्त का उद्धार करने तथा दुष्ट असुरों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं ।

कृष्णदास कविराज कृत चैतन्य चरितामृत के निम्नलिखित श्लोकों ( मध्य २०.२६३ २६४ ) से अवतार के सिद्धान्तों का सारांश प्रकट होता है –

               सृष्टिहेतु  ए  मूर्ति  प्रपञ्चे  अवतरे ।

                  सेइ ईश्वरमूर्ति  ‘ अवतार ‘ नाम धरे ॥

                      मायातीत  परव्योमे सबार अवस्थान ।

                      विश्वे अवतरि ‘ धरे ‘ अवतार ‘ नाम ॥

  “ अवतार अथवा ईश्वर का अवतार भगवद्धाम से भौतिक प्राकट्य हेतु होता है । ईश्वर का वह विशिष्ट रूप जो इस प्रकार अवतरित होता है अवतार कहलाता है । ऐसे अवतार भगवद्धाम में स्थित रहते हैं । जब वे भौतिक सृष्टि में उतरते हैं , तो उन्हें अवतार कहा जाता है । “

 अवतार कई तरह के होते हैं यथा पुरुषावतार , गुणावतार , लीलावतार , शक्त्यावेश अवतार , मन्वन्तर अवतार तथा युगावतार इन सबका इस ब्रह्माण्ड में क्रमानुसार अवतरण होता है । किन्तु भगवान् कृष्ण आदि भगवान् हैं और समस्त अवतारों के उद्गम हैं ।

भगवान् श्रीकृष्ण शुद्ध भक्तों की चिन्ताओं को दूर करने के विशिष्ट प्रयोजन से अवतार लेते हैं , जो उन्हें उनकी मूल वृन्दावन लीलाओं के रूप में देखने के उत्सुक रहते हैं । अतः कृष्ण अवतार का मूल उद्देश्य अपने निष्काम भक्तों को प्रसन्न करना है ।

 भगवान् का वचन है कि वे प्रत्येक युग में अवतरित होते रहते हैं । इससे सूचित होता है कि वे कलियुग में भी अवतार लेते हैं । जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है . कि कलियुग के अवतार भगवान् चैतन्य महाप्रभु हैं जिन्होंने संकीर्तन आन्दोलन के द्वारा कृष्णपूजा का प्रसार किया और पूरे भारत में कृष्णभावनामृत का विस्तार किया ।

उन्होंने यह भविष्यवाणी की कि संकीर्तन की यह संस्कृति सारे विश्व के नगर – नगर तथा ग्राम ग्राम में फैलेगी । भगवान् चैतन्य को गुप्त रूप में , किन्तु प्रकट रूप में नहीं , उपनिषदों , महाभारत तथा भागवत जैसे शास्त्रों के गुह्य अंशों में वर्णित किया गया है ।

भगवान् कृष्ण के भक्तगण भगवान् चैतन्य के संकीर्तन आन्दोलन द्वारा अत्यधिक आकर्षित रह हैं । भगवान् का यह अवतार दुष्टों का विनाश नहीं करता , अपितु अपनी अहेतुकी कृपा से उनका उद्धार करता है ।

जन्म   कर्म  च  मे  दिव्यमेवं  यो  वेत्ति  तत्त्वतः ।

        त्यक्त्वा  देहं  पुनर्जन्म  नैति  मामेति  सोऽर्जुन ॥ ९ ॥

जन्म  –  जन्म  ;   कर्म – कर्म  ;   च – भी  ;   मे  –  मेरे  ;   दिव्यम्  –  दिव्य  ;  एवम्  – इस प्रकार ;  यः  –  जोकोई  ;  वेत्ति  – जानता है  ;   तत्त्वतः  –  वास्तविकता में   ;   त्यक्त्वा  –  छोड़कर  ;  देहम् –   इस शरीर को  ;   पुनः  –  फिर  ;  जन्म  – जन्म  ;  न  –  कभी नहीं  ;   एति   –  प्राप्त करता है  ; माम्   –  मुझको   ;  सः  – वह  ;  अर्जुन  –  हे अर्जुन । 

 हे अर्जुन ! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है , वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता , अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है । 

         तात्पर्य : –  छठे श्लोक में भगवान् के दिव्यधाम से उनके अवतरण की व्याख्या हो चुकी है । जो मनुष्य भगवान् के आविर्भाव के सत्य को समझ लेता है वह इस भवबन्धन से  मुक्त हो जाता है और इस शरीर को छोड़ते ही वह तुरन्त भगवान् के धाम को लौट जाता है ।

भवबन्धन से जीव की ऐसी मुक्ति सरल नहीं है । निर्विशेषवादी तथा योगीजन पर्याप्त कष्ट तथा अनेकानेक जन्मों के बाद ही मुक्ति प्राप्त कर पाते हैं । इतने पर भी उन्हें जो मुक्ति भगवान् की निराकार ब्रह्मज्योति में तादात्म्य प्राप्त करने के रूप में मिलती है , वह आंशिक होती है और इस भौतिक संसार में लौट आने का भय बना रहता है ।

किन्तु भगवान् के शरीर की दिव्य प्रकृति तथा उनके कार्यकलापों को समझने मात्र से भक्त इस शरीर का अन्त होने पर भगवद्धाम को प्राप्त करता है और उसे इस संसार में लौट आने का भय नहीं रह जाता ।

 ब्रह्मसंहिता में ( ५.३३ ) यह बताया गया है कि भगवान् के अनेक रूप तथा अवतार हैं- अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् । यद्यपि भगवान् के अनेक दिव्य रूप हैं , किन्तु फिर भी वे अद्वय भगवान् हैं । इस तथ्य को विश्वासपूर्वक समझना चाहिए , यद्यपि यह संसारी विद्वानों तथा ज्ञानयोगियों के लिए अगम्य है । जैसा कि वेदों ( पुरुष बोधिनी उपनिषद् ) में कहा गया है –

 एको देवो नित्यलीलानुरक्तो भक्तव्यापी हृद्यन्तरात्मा ॥

 “ एक भगवान् अपने निष्काम भक्तों के साथ अनेकानेक दिव्य रूपों में सदैव सम्बन्धित हैं । ” इस वेदवचन की स्वयं भगवान् ने गीता के इस श्लोक में पुष्टि की है । जो इस सत्य को वेद तथा भगवान् के प्रमाण के आधार पर स्वीकार करता है और शुष्क चिन्तन में समय नहीं गँवाता वह मुक्ति की चरम सिद्धि प्राप्त करता है ।

इस सत्य को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करने से मनुष्य निश्चित रूप से मुक्ति – लाभ कर सकता है । इस प्रसंग में वैदिकवाक्य तत्त्वमसि लागू होता है । जो कोई भगवान् कृष्ण को परब्रह्म करके जानता है या उनसे यह कहता है कि “ आप वही परब्रह्म श्रीभगवान् हैं ” वह निश्चित रूप से अविलम्व मुक्त हो जाता है , फलस्वरूप उसे भगवान् की दिव्यसंगति की प्राप्ति निश्चित हो जाती है ।

दूसरे शब्दों में , ऐसा श्रद्धालु भगवद्भक्त सिद्धि प्राप्त करता है । इसकी पुष्टि निम्नलिखित वेदवचन से होती है –

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।

 “ श्रीभगवान् को जान लेने से ही मनुष्य जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर सकता है । इस सिद्धि को प्राप्त करने का कोई अन्य विकल्प नहीं है । ” ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८ ) इसका कोई विकल्प नहीं है का अर्थ यही है कि जो श्रीकृष्ण को श्रीभगवान् के रूप में नहीं मानता वह अवश्य ही तमोगुणी हे और मधुपात्र को केवल बाहर से चाटकर या भगवद्गीता की विद्वत्तापूर्ण संसारी विवेचना करके मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ।

 ऐसे शुष्क दार्शनिक भौतिक जगत् में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हो सकते हैं , किन्तु वे मुक्ति के अधिकारी नहीं होते । ऐसे अभिमानी संसारी विद्वानों को भगवद्भक्त की अहेतुकी कृपा की प्रतीक्षा करनी पड़ती है । अतः मनुष्य को चाहिए कि श्रद्धा तथा ज्ञान के साथ कृष्णभावनामृत का अनुशीलन करे और सिद्धि प्राप्त करने का यही उपाय है ।

वीतरागभयक्रोधा   मन्मया   मामुपाश्रिताः ।

         बहवो   ज्ञानतपसा   पूता    मद्भावमागताः ॥ १० ॥

 वीत   –   पुक्त  ;   राग  –  आसक्ति  ;  भव  –   भय   ;   क्रोधा:   –   तथा क्रोध से  ;   मत्-मया   – पूर्णतया मुझमें    ;    माम्  –  मुझमै  ;  उपाश्रिताः  –  पूर्णतया स्थित  ;   बहवः  –   अनेक  ;  ज्ञान – ज्ञान की   ;  तपसा  –   तपस्या से  ;  पूताः  –  पवित्र हुआ  ;   मत्-भावम्   –  मेरे प्रति दिव्य प्रेम को  ;     आगताः  –   प्राप्त । 

 आसक्ति , भय तथा क्रोध से मुक्त होकर , मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं । इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है । 

तात्पर्य :-  जैसा कि पहले कहा जा चुका है विषयों में आसक्त व्यक्ति के लिए परमसत्य के स्वरूप को समझ पाना अत्यन्त कठिन है । सामान्यतया जो लोग देहात्मवृद्धि में आसक्त होते हैं , वे भौतिकतावाद में इतने लीन रहते हैं कि उनके लिए यह समझ पाना असम्भव सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है ।

ऐसे भौतिकतावादी व्यक्ति इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी दिव्य शरीर है जो नित्य तथा सच्चिदानन्दमय है । भौतिकतावादी धारणा के अनुसार शरीर नाशवान् , अज्ञानमय तथा अत्यन्त दुखमय होता है ।

अतः जब लोगों को भगवान् के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही धारणा बनी रहती है । ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक जगत् का स्वरूप ही परमतत्त्व है । फलस्वरूप वे परमेश्वर को निराकार मानते हैं और भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद भी अपना स्वरूप बनाये रखने के विचार से डरते हैं ।

जब उन्हें यह बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुनः व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं , फलतः वे निराकार शून्य में तदाकार होना पसन्द करते हैं । सामान्यतया दे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं , जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं ।

पृथक् व्यक्तित्व से रहित आध्यात्मिक जीवन की यह चरम सिद्धि है । यह जीवन की भयावह अवस्था है , जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है । इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते ।

अनेक वादों तथा दार्शनिक चिन्तन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे ऊब उठते हैं । या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश यह निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है , अतः प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शून्य है ।

ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं । कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्वास करने लगते हैं ।

इस अन्तिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मति – विभ्रम को कभी कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है । मनुष्य को भौतिक जगत् के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है ये हैं आध्यात्मिक जीवन की उपेक्षा , आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना ।

जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान् की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि – विधानों का पालन करना आवश्यक है । भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य ईश्वरीय प्रेम कहलाती है ।

 भक्तिरसामृतसिन्धु ( १,४.१५-१६ ) के अनुसार भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है –

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया

ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः ।

अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति

साधकानामयं  प्रेम्णः  प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ॥

 ” प्रारम्भ में आत्म – साक्षात्कार की सामान्य इच्छा होनी चाहिए । इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं । अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है ।

इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है , उसके आत्म – साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान् कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रुधि विकसित करता है ।

इस रुचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है । ईश्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है । ” प्रेम अवस्था में भक्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लीन रहता है ।

अतः भक्ति की मन्द विधि से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति , व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है । तभी मनुष्य को अन्त में भगवान् के धाम की प्राप्ति हो सकती है ।

ये  यथा  मां  प्रपद्यन्ते  तांस्तथैव  भजाम्यहम् ।

        मम   वर्त्मानुवर्तन्ते   मनुष्याः   पार्थ   सर्वशः ॥ ११ ॥

ये   –  जो    ;   यथा  –  जिस तरह   ;   माम्  –  मेरी   ;   प्रपद्यन्ते  –   शरण में जाते हैं   ;   तान्  – उनको   ;   तथा   –  उसी तरह  ;   एव  –   निश्चय ही   ;    भजामि  –  फल देता हूँ   ;   अहम्  –  मैं  ; मम  –  मेरे   ;   वर्त्म   –  पथ का  ;   अनुवर्तन्ते  – अनुगमन करते हैं   ;   मनुष्या:   –  सारे मनुष्य  ;  पार्थ  –   हे पृथापुत्र    सर्वशः  –  सभी प्रकार से । 

 जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं , उसी के अनुरूप में उन्हें फल देता हूँ । हे पार्थ ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है । 

        तात्पर्य : –  प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण को उनके विभिन्न स्वरूपों में खोज रहा है । भगवान् श्रीकृष्ण का अंशतः उनके निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में तथा प्रत्येक वस्तु के कण – कण में रहने बाले सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में अनुभव किया जाता है , लेकिन कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार तो उनके शुद्ध भक्त ही कर पाते हैं ।

फलतः कृष्ण प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति के विषय हैं और इस तरह कोई भी और सभी अपनी – अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं । दिव्य जगत में भी कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों के साथ दिव्य भाव से विनिमय करते हैं जिस तरह कि भक्त उन्हें चाहता है ।

कोई एक भक्त कृष्ण को परम स्वामी के रूप में चाह सकता है , दूसरा अपने सखा के रूप में , तीसरा अपने पुत्र के रूप में और चौथा अपने प्रेमी के रूप में । कृष्ण सभी भक्तों को समान रूप से उनके प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुसार फल देते हैं ।

भौतिक जगत् में भी ऐसी ही विनिमय की अनुभूतियाँ होती हैं । और वे विभिन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान् द्वारा समभाव से विनिमय की जाती हैं । शुद्ध भक्त यहाँ पर और दिव्यधाम में भी कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और भगवान् की साकार सेवा कर सकते हैं ।

इस तरह वे उनकी प्रेमाभक्ति का दिव्य आनन्द प्राप्त करते हैं । किन्तु जो निर्विशेषवादी हैं और जो जीवात्मा के अस्तित्व को मिटाकर आध्यात्मिक आत्मघात करना चाहते हैं , कृष्ण उनको भी अपने तेज में लीन करके उनकी सहायता करते हैं ।

ऐसे निर्विशेषवादी सच्चिदानन्द भगवान् को स्वीकार नहीं करते , फलतः वे अपने व्यक्तित्व को मिटाकर भगवान् की दिव्य सगुण भक्ति के आनन्द को प्राप्त नहीं करते । उनमें से कुछ जो निर्विशेष सत्ता में दृढ़तापूर्वक स्थित नहीं हो पाते , वे अपनी कार्य करने की सुप्त इच्छाओं को प्रदर्शित करने के लिए इस भौतिक क्षेत्र में वापस आते हैं ।

उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने नहीं दिया जाता , किन्तु उन्हें भौतिक लोक में कार्य करने का अवसर प्रदान किया जाता है । जो सकामकर्मी हैं , भगवान उन्हें यज्ञेश्वर के रूप में उनके कर्मों का वांछित फल देते हैं । जो योगी हैं और योगशक्ति की खोज में रहते हैं , उन्हें योगशक्ति प्रदान करते हैं ।

दूसरे शब्दों में , प्रत्येक व्यक्ति की सफलता भगवान् की कृपा पर आश्रित रहती है और समस्त प्रकार की आध्यात्मिक विधियाँ एक ही पथ में सफलता की विभिन्न कोटियाँ हैं । अतः जब तक कोई कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि तक नहीं पहुँच जाता तब तक सारे प्रयास अपूर्ण रहते हैं ,

जैसा कि श्रीमद्भागवत में ( २.३.१० ) कहा गया है –

अकामः सर्वकामो वा  मोक्षकाम  उदारधीः ।

तीव्रेण  भक्तियोगेन   यजेत  पुरुषं परम् ॥

“ मनुष्य चाहे निष्काम हो या फल का इच्छुक हो या मुक्ति का इच्छुक ही क्यों न हो , उसे पूरे सामर्थ्य से भगवान् की सेवा करनी चाहिए जिससे उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सके , जिसका पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है । “

काङ्क्षन्तः  कर्मणां  सिद्धिं   यजन्त  इह  देवताः ।

        क्षिप्रं  हि  मानुषे  लोके  सिद्धिर्भवति   कर्मजा ॥ १२ ॥

काङ्क्षन्तः   –   चाहते हुए   ;    कर्मणाम्  –  सकाम कर्मों की  ;    सिद्धिम्   –   सिद्धि  ;   यजन्ते  – यज्ञों द्वारा पूजाकरते हैं    ;   इह  –  इस भौतिक जगत् में   ;   देवताः  –   देवतागण   ;   क्षिप्रम्   – तुरन्त ही   ;   हि  – निश्चय ही   ;   मानुषे  –   मानव समाज में  ;    लोके  – इस संसार में   ;  सिद्धिः –  सिद्धि, सफलता  ;  भवति  –  होती है   ;   कर्म-जा  –  सकाम कर्म से ।

 इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं , फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं । निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है ।

तात्पर्य : –   इस जगत् के देवताओं के विषय में भ्रान्त धारणा है और विद्वत्ता का दम्भ वस्तुतः ये देवता ईश्वर के विभिन्न रूप नहीं होते , किन्तु करने वाले अल्पज्ञ मनुष्य इन देवताओं को परमेश्वर के विभिन्न रूप मान बैठते हैं । ईश्वर के विभिन्न अंश होते हैं । ईश्वर तो एक है , किन्तु अंश अनेक हैं ।

वेदों का कथन है — नित्यो नित्यानाम् । ईश्वर एक है । ईश्वरः परमः कृष्णः । कृष्ण ही एकमात्र परमेश्वर हैं और सभी देवताओं को इस भौतिक जगत् का प्रबन्ध करने के लिए शक्तियाँ प्राप्त हैं । ये देवता जीवात्माएँ हैं । ( नित्यानाम् ) जिन्हें विभिन्न मात्रा में भौतिक शक्ति प्राप्त है । वे कभी परमेश्वर – नारायण , विष्णु या कृष्ण के तुल्य नहीं हो सकते ।

जो व्यक्ति ईश्वर तथा देवताओं को एक स् पर सोचता है , वह नास्तिक या पाषंडी कहलाता है । यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े – बड़े देवता भी परमेश्वर की समता नहीं कर सकते । वास्तव में ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं द्वारा भगवान् की पूजा की जाती है ( शिवविरिञ्चिनुतम् ) । तो भी आश्चर्य की बात यह है कि अनेक मूर्ख लोग मनुष्यों के नेताओं की पूजा उन्हें अवतार मान कर करते हैं ।

इह देवताः पद इस संसार के शक्तिशाली मनुष्य या देवता के लिए आया है , लेकिन नारायण , विष्णु या कृष्ण जैसे भगवान् इस संसार के नहीं हैं । वे भौतिक सृष्टि से परे रहने वाले हैं । निर्विशेषवादियों के अग्रणी श्रीपाद शंकराचार्य तक मानते हैं कि नारायण या कृष्ण इस भौतिक सृष्टि से परे हैं फिर भी मूर्ख लोग ( हृतज्ञान ) देवताओं की पूजा करते हैं , क्योंकि वे तत्काल फल चाहते हैं ।

उन्हें फल मिलता भी है , किन्तु वे यह नहीं जानते कि ऐसे फल क्षणिक होते हैं और अल्पज्ञ मनुष्यों के लिए हैं । बुद्धिमान् व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित रहता है । उसे किसी तत्काल क्षणिक लाभ के लिए किसी तुच्छ देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

इस संसार के देवता तथा उनके पूजक , इस संसार के संहार के साथ ही विनष्ट हो जाएँगे । देवताओं के वरदान भी भौतिक तथा क्षणिक होते हैं । यह भौतिक संसार तथा इसके निवासी , जिनमें देवता तथा उनके पूजक भी सम्मिलित हैं , विराट सागर में बुलबुलों के समान हैं ।

किन्तु इस संसार में मानव समाज क्षणिक वस्तुओं यथा सम्पत्ति , परिवार तथा भोग की सामग्री के पीछे पागल रहता है । ऐसी क्षणिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए लोग देवताओं की या मानव समाज के शक्तिशाली व्यक्तियों की पूजा करते हैं ।

 यदि कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक नेता की पूजा करके सरकार में मन्त्रिपद प्राप्त कर लेता है , तो वह सोचता है कि उसने महान वरदान प्राप्त कर लिया है । इसलिए सभी व्यक्ति तथाकथित को साष्टांग प्रणाम करते हैं , जिससे वे क्षणिक वरदान प्राप्त कर सकें और सचमुच उन्हें ऐसी वस्तुएँ मिल भी जाती हैं ।

ऐसे मूर्ख व्यक्ति इस संसार के कष्टों के स्थायी निवारण के लिए कृष्णभावनामृत में अभिरुचि नहीं दिखाते । वे सभी इन्द्रियभोग के पीछे दीवाने रहते हैं और थोड़े से इन्द्रियसुख के लिए वे शक्तिप्रदत्त जीवों की पूजा करते हैं , जिन्हें देवता कहते हैं । यह श्लोक इंगित करता है कि विरले लोग ही कृष्णभावनामृत में रुचि लेते हैं । अधिकांश लोग भौतिक भीग में रुचि लेते हैं , फलस्वरूप वे किसी न किसी शक्तिशाली व्यक्ति की पूजा करते हैं ।

चातुर्वर्ण्यं      मया    सृष्टं   गुणकर्मविभागशः ।

         तस्य   कर्तारमपि  मां   विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥

चातुः -वर्ण्यम्   –   मानव समाज के चार विभाग   ;   मया   –   मेरे द्वारा  ;   सृष्टम्   –  उत्पन्न किये हुए  ;    गुण  –  गुण   ;   कर्म   –  तथा कर्म का   ;   विभागशः  –  विभाजन के अनुसार   ;   तस्य   – उसका  ;   कर्तारम्  –  जनक  ;   अपि   –  यद्यपि   ;  माम्  –  मुझको  ;   विद्धि  –  जानो  ;   अकर्तारम्   –  न करने वाले के रूप में    ;  अव्ययम्  –   अपरिवर्तनीय को । 

 प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये । यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ , किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ । 

         तात्पर्य : –  भगवान् प्रत्येक वस्तु के स्रष्टा हैं । प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है , उनके ही द्वारा पालित है और प्रलय के बाद प्रत्येक वस्तु उन्हीं में समा जाती है । अतः वे ही वर्णाश्रम व्यवस्था के स्रष्टा हैं जिसमें सर्वप्रथम बुद्धिमान् मनुष्यों का वर्ग आता है जो सतोगुणी होने के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं ।

द्वितीय वर्ग प्रशासक वर्ग का है जिन्हें रजोगुणी होने के कारण क्षत्रिय कहा जाता है । वणिक वर्ग या वैश्य कहलाने वाले लोग रजो तथा तमोगुण के मिश्रण से युक्त होते हैं और शूद्र या श्रमिकवर्ग के लोग तमोगुणी होते हैं ।

 मानव समाज के इन चार विभागों की सृष्टि करने पर भी भगवान कृष्ण इनमें से किसी विभाग ( वर्ण ) में नहीं आते , क्योंकि वे उन वद्धजीवों में से नहीं हैं जिनका एक अंश मानव समाज के रूप में है । मानव समाज भी किसी अन्य पशुसमाज के तुल्य है , किन्तु मनुष्यों को पशु – स्तर से ऊपर उठाने के लिए ही उपर्युक्त वर्णाश्रम की रचना की गई , जिससे क्रमिक रूप से कृष्णभावनामृत विकसित हो सके ।

किसी विशेष व्यक्ति की किसी कार्य के प्रति प्रवृत्ति का निर्धारण उसके द्वारा अर्जित प्रकृति के गुणों द्वारा किया जाता है । गुणों के अनुसार जीवन के लक्षणों का वर्णन इस ग्रंथ के अठारहवें अध्याय में हुआ है । किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है ।

यद्यपि गुण के अनुसार ब्राह्मण को ब्रह्म या परमसत्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए , किन्तु उनमें से अधिकांश भगवान् कृष्ण के निर्विशेष ब्रह्मस्वरूप को ही प्राप्त कर पाते हैं , किन्तु जो मनुष्य ब्राह्मण के सीमित ज्ञान को लाँघकर भगवान् श्रीकृष्ण के ज्ञान तक पहुँच जाता है , वही कृष्णभावनाभावित होता है अर्थात् वैष्णव होता है ।

कृष्णभावनामृत में कृष्ण के विभिन्न अंशों यथा राम , नृसिंह , वराह आदि का ज्ञान सम्मिलित रहता है । और जिस तरह कृष्ण मानव समाज की इस चातुर्वर्ण्य प्रणाली से परे हैं , उसी तरह कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भी इस चातुर्वर्ण्य प्रणाली से परे होता है , चाहे हम इसे जाति का विभाग कहें , चाहे राष्ट्र अथवा सम्प्रदाय का ।

न   मां  कर्माणि  लिम्पन्ति  न मे   कर्मफले स्पृहा ।

          इति  मां   योऽभिजानाति   कर्मभिर्न   स   बध्यते ॥ १४ ॥

 न   –   कभी नहीं   ;   माम्  – मुझको   ;    कर्माणि   –  सभी प्रकार के कर्म    ;    लिम्पन्ति   –  प्रभावित करते हैं   ;   न  –  नहीं   ;   मे  –   मेरी   ;   कर्म-फले    –   सकाम कर्म में   ;  स्पृहा  – महत्त्वाकांक्षा   ;   इति  –  इस प्रकार  ;   माम्  –  मुझको   ;   यः  –  जो   ;   अभिजानाति  –  जानता है   ;   कर्मभिः  –  ऐसे कर्म के फल से  ;   न  –  कभी नहीं  ;   सः  –  वह   ;  बध्यते  –  बँध पाता है ।

 मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता , न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ । जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है , वह भी कर्मों के फल के पाश में नहीं  बँधता । 

तात्पर्य : – जिस प्रकार इस भौतिक जगत् में संविधान के नियम हैं , जो यह बताते हैं कि राजा न तो दण्डनीय है , न ही किसी राजनियमों के अधीन रहता है उसी तरह यद्यपि भगवान् इस भौतिक जगत् के स्रष्टा हैं , किन्तु वे भौतिक जगत् के कार्यों से प्रभावित नहीं होते ।

सृष्टि करने पर भी वे इससे पृथक् रहते हैं , जबकि जीवात्माएँ भौतिक कार्यकलापों के सकाम कर्मफलों में बँधी रहती हैं , क्योंकि उनमें प्राकृतिक साधनों पर प्रभुत्व दिखाने की प्रवृत्ति रहती है । किसी संस्थान का स्वामी कर्मचारियों के अच्छे – बुरे कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं , कर्मचारी इसके लिए स्वयं उत्तरदायी होते हैं ।

जीवात्माएँ अपने – अपने इन्द्रियतृप्ति – कार्यों में लगी रहती हैं , किन्तु ये कार्य भगवान् द्वारा निर्दिष्ट नहीं होते । इन्द्रियतृप्ति की उत्तरोत्तर उन्नति के लिए जीवात्माएँ इस संसार के कर्म में प्रवृत्त हैं और मृत्यु के बाद स्वर्ग – सुख की कामना करती रहती हैं ।

 स्वयं में पूर्ण होने के कारण भगवान् को तथाकथित स्वर्ग – सुख का कोई आकर्षण नहीं रहता । स्वर्ग के देवता उनके द्वारा नियुक्त सेवक हैं । स्वामी कभी भी कर्मचारियों का सा निम्नस्तरीय सुख नहीं चाहता । वह भौतिक क्रिया – प्रतिक्रिया से पृथक् रहता है ।

उदाहरणार्थ , पृथ्वी पर उगने वाली विभिन्न वनस्पतियों के उगने के लिए वर्षा उत्तरदायी नहीं है , यद्यपि वर्षा के बिना वनस्पति नहीं उग सकती । वैदिक स्मृति से इस तथ्य की पुष्टि इस प्रकार होती है :  –

निमित्तमात्रमेवासी सृज्यानां सर्गकर्मणि /

 प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः ।।

 “ भौतिक सृष्टि के लिए भगवान् ही परम कारण हैं । प्रकृति तो केवल निमित्त कारण है , जिससे विराट जगत् दृष्टिगोचर होता है । ” प्राणियों की अनेक जातियाँ होती हैं यथा देवता , मनुष्य तथा निम्नपशु और ये सब पूर्व शुभाशुभ कर्मों के फल भोगने को वाध्य है ।

भगवान् उन्हें ऐसे कर्म करने के लिए केवल समुचित सुविधाएँ तथा प्रकृति के गुणों के नियम सुलभ कराते हैं , किन्तु वे उनके किसी भूत तथा वर्तमान कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते ।

वेदान्तसूत्र में ( २.१.३४ ) पुष्टि हुई है कि वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् भगवान् किसी भी जीव के प्रति पक्षपात नहीं करते । जीवात्मा अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है । भगवान् उसे प्रकृति अर्थात् बहिरंगा शक्ति के माध्यम से केवल सुविधा प्रदान करने वाले हैं ।

जो व्यक्ति इस कर्म – नियम की सारी बारीकियों से भलीभाँति अवगत होता है , वह अपने कर्मों के फल से प्रभावित नहीं होता । दूसरे शब्दों में , जो व्यक्ति भगवान् के इस दिव्य स्वभाव से परिचित होता है वह कृष्णभावनामृत में अनुभवी होता है ।

अतः उस पर कर्म के नियम लागू नहीं होते । जो व्यक्ति भगवान् के दिव्य स्वभाव को नहीं जानता और सोचता है कि भगवान् के कार्यकलाप सामान्य व्यक्तियों की तरह कर्मफल के लिए होते हैं , वे निश्चित रूप से कर्मफलों में बँध जाते हैं । किन्तु जो परम सत्य को जानता है , वह कृष्णभावनामृत में स्थिर मुक्त जीव है ।

एवं    ज्ञात्वा  कृतं   कर्म   पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।

         कुरु  कर्मैव   तस्मात्त्वं   पूर्वेः  पूर्वतरं  कृतम् ॥ १५ ॥

एवम्   –   इस प्रकार   ;   ज्ञात्वा  –  भलीभाँति जान कर   ;   कृतम्  –   किया गया   ;   कर्म  –  कर्म  ;    पूर्वेः   –  पूर्ववर्ती   ;  अपि   –  निस्सन्देह  ;    मुमुक्षुभिः  –  मोक्ष प्राप्त व्यक्तियों द्वाराः   ;  कुरु  – करो   ;   कर्म   –   स्वधर्म, नियतकार्य   ;    एव   –  निश्चय ही   ;   तस्मात्   –    अतएव   ;   त्वम्   – तुम   ;   पूर्वः  –  पूर्ववर्तियों द्वारा  ;   पूर्व -तरम्  –   प्राचीन काल में   ;   कृतम्   – सम्पन्न किया गया । 

 प्राचीन काल में समस्त मुक्तात्माओं ने मेरी दिव्य प्रकृति को जान करके ही कर्म किया,अतः तुम्हें चाहिए कि उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करो । 

     तात्पर्य : –  मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं । कुछ के मनों में दूषित विचार भरे रहते हैं और कुछ भौतिक दृष्टि से स्वतन्त्र होते हैं । कृष्णभावनामृत इन दोनों श्रेणियों के व्यक्तियों के लिए समान रूप से लाभप्रद है ।

जिनके मनों में दूषित विचार भरे हैं उन्हें चाहिए कि भक्ति अनुष्ठानों का पालन करते हुए क्रमिक शुद्धिकरण के लिए कृष्णभावनामृत को ग्रहण करें । और जिनके मन पहले ही ऐसी अशुद्धियों से स्वच्छ हो चुके हैं , वे उसी कृष्णभावनामृत में अग्रसर होते रहें , जिससे अन्य लोग उनके आदर्श कार्यों का अनुसरण कर सकें और लाभ उठा सकें ।

 मूर्ख व्यक्ति या कृष्णभावनामृत में नवदीक्षित प्रायः कृष्णभावनामृत का पूरा ज्ञान प्राप्त किये बिना कार्य से विरत होना चाहते हैं । किन्तु भगवान् ने युद्धक्षेत्र के कार्य से विमुख होने की अर्जुन की इच्छा का समर्थन नहीं किया ।

 आवश्यकता इस बात की है कि यह जाना जाय कि किस तरह कर्म किया जाय । कृष्णभावनामृत के कार्यों से विमुख होकर एकान्त में बैठकर कृष्णभावनामृत का प्रदर्शन करना कृष्ण के लिए कार्य में रत होने की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण है ।

 यहाँ पर अर्जुन को सलाह दी जा रही है कि वह भगवान् के अन्य पूर्व शिष्यों यथा सूर्यदेव विवस्वान् के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए कृष्णभावनामृत में कार्य करे । अतः वे उसे सूर्यदेव के कार्यों को सम्पन्न करने के लिए आदेश देते हैं जिसे सूर्यदेव ने उनसे लाखों वर्ष पूर्व सीखा था ।

यहाँ पर भगवान् कृष्ण के ऐसे सारे शिष्यों का उल्लेख पूर्ववर्ती मुक्त पुरुषों के रूप में हुआ है , जो कृष्ण द्वारा नियत कर्मों को सम्पन्न करने में लगे हुए थे ।

भगवद गीता अध्याय 4.1~ योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षण भगवत्स्वरूप/ Powerful Bhagavad Gita yogparmpra bhagban janam  Ch4.1
भगवद गीता अध्याय 4.1

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