अध्याय तीन (Chapter -3)
भगवद गीता अध्याय 3.5 ~ में शलोक 36 से शलोक 43 तक पाप के कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का वर्णन !
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥ ३६ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; अथ – तब ; केन – किस के द्वारा ; प्रयुक्तः – प्रेरितः ; अयम् – यह ; पापम् – पाप ; चरति – करता है ; पुरुषः – व्यक्ति ; अनिच्छन्न – न चाहते हुए ; अपि – यद्यपि ; वार्ष्णेय – हे वृष्णिवंशी ; बलात् – बलपूर्वक ; इव – मानो ; नियोजितः – लगाया गया ।
अर्जुन ने कहा हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो ।
तात्पर्य :- जीवात्मा परमेश्वर का अंश होने के कारण मूलतः आध्यात्मिक , शुब्द एवं समस्त भौतिक कल्मषों से मुक्त रहता है । फलतः स्वभाव से वह भौतिक जगत् के पापों में प्रवृत्त नहीं होता । किन्तु जब वह माया के संसर्ग में आता है , तो वह बिना झिझक के और कभी – कभी इच्छा के विरुद्ध भी अनेक प्रकार से पापकर्म करता है ।
अतः कृष्ण से अर्जुन का प्रश्न अत्यन्त प्रत्याशापूर्ण है कि जीवों की प्रकृति विकृत क्यों हो जाती है । यद्यपि कभी – कभी जीव कोई पाप नहीं करना चाहता , किन्तु उसे ऐसा करने के लिए वाध्य होना पड़ता है । किन्तु ये पापकर्म अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा प्रेरित नहीं होते अपितु अन्य कारण से होते हैं , जैसा कि भगवान् अगले श्लोक में बताते हैं ।
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विजयेनमिह वैरिणम् ॥ ३७ ॥
श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान ने कहा ; काम – विषयवासना ; एष: – यह ; क्रोधः – क्रोध ; रजो-गुण – रजोगुण से ; समुद्भवः – उत्पन्न ; महा-अशनः – सर्वभक्षी ; महा-पाप्मा – महा पापी ; विद्धि – जानो ; एनम् – इसे ; इह – इस संसार में ; बेरिणम् – महान शत्रु।
श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन ! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है , जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है ।
तात्पर्य :- जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में आता है तो उसका शाश्वत कृष्ण प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणत हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में , ईश्वर प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि नहीं होती तो यह क्रोध में परिणत हो जाता है , को मोह में और मोह इस संसार में निरन्तर बना रहता है ।
अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है और यह काम ही है जो विशुद्ध जीवात्मा को इस संसार में फंसे रहने के लिए प्रेरित करता है । क्रोध तमोगुण का प्राकट्य है । ये गुण अपने आपको क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं । अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में न गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाय तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है ।
अपने नित्य वर्धमान चिदानन्द के लिए भगवान ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित कर लिया और जीवात्माएँ उनके इस चिदानन्द के ही अंश है । उनको भी आंशिक स्वतन्त्रता प्राप्त है , किन्तु अपनी इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके जब सेवा को इन्द्रियसुख में बदल देती है तो वे काम की चपेट में आ जाती है ।
भगवान् ने इस सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की ओर जब जीवात्माएँ दीर्घकाल तक काम – कमों में कैसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती है , तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं । यही जिज्ञासा वेदान्त – सूत्र का प्रारम्भ है जिसमें यह कहा गया है अथातो ब्रह्मजिज्ञासा- मनुष्य को परम तत्त्व की जिज्ञासा करनी चाहिए ।
और इस परम तत्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दी गई है- जन्माग्रस्य यतोऽन्वयादित – सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है । अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ । अतः यदि काम को भगवत्प्रेम में या कृष्णभावना में परिणत कर दिया जाय , या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएँ हो तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक वन सकेंगे ।
भगवान् राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावण की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया , किन्तु ऐसा करने से वे भगवान के सबसे बड़े भक्त बन गये । यहाँ पर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान को प्रसन्न करने के लिए दिखाए । अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रह कर मित्र बन जाते हैं ।
धूमेनाव्रियते वहिनर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ ३८ ॥
धूमेन – धुएँ से ; व्रियते – ढक जाती है ; बहिनः – अग्नि ; यथा – जिस प्रकार ; आदर्श: –शीशा , दर्पण ; मलेन – धूल से ; च – भी ; यथा – जिस प्रकार ; उल्बेन – गर्भाशय द्वारा ; आवृतः – ढका रहता है ; गर्भ: – भ्रूण , गर्भ ; तथा – उसी प्रकार ; तेन – काम से ; इदम् – यह ; आवृतम् – ढका है ।
जिस प्रकार अग्नि धुएँ से , दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है , उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है ।
तात्पर्य :- जीवात्मा के आवरण की तीन कोटियाँ हैं जिनसे उसकी शुद्ध चेतना धूमिल होती है । यह आवरण काम ही है जो विभिन्न स्वरूपों में होता है यथा अग्नि में धुआँ , दर्पण पर धूल तथा भ्रूण पर गर्भाशय । जब काम की उपमा धूम्र से दी जाती है तो यह समझना चाहिए कि जीवित स्फुलिंग की अग्नि कुछ कुछ अनुभवगम्य है ।
दूसरे शब्दों में , जब जीवात्मा अपने कृष्णभावनामृत को कुछ – कुछ प्रकट करता है तो उसकी उपमा धुएँ से आवृत अग्नि से दी जा सकती है । यद्यपि जहाँ कहीं धुआँ होता है वहाँ अग्नि का होना अनिवार्य है , किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में अग्नि की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं होती ।
यह अवस्था कृष्णभावनामृत के शुभारम्भ जैसी है । दर्पण पर धूल का उदाहरण मन रूपी दर्पण को अनेकानेक आध्यात्मिक विधियों से स्वच्छ करने की प्रक्रिया के समान है । इसकी सर्वश्रेष्ठ विधि हे भगवान के पवित्र नाम का संकीर्तन गर्भाशय द्वारा आवृत भ्रूण का दृष्टान्त असहाय अवस्था से दिया गया है , क्योंकि गर्भ – स्थित शिशु इधर – उधर हिलने के लिए भी स्वतन्त्र नहीं रहता ।
जीवन की यह अवस्था वृक्षों के समान है । वृक्ष भी जीवात्माएँ हैं , किन्तु उनमें काम की प्रबलता को देखते हुए उन्हें ऐसी योनि मिली है कि वे प्रायः चेतनाशून्य होते । धूमिल दर्पण पशु – पक्षियों के समान है और धूम्र से आवृत अग्नि मनुष्य के समान है । मनुष्य के रूप में जीवात्मा में थोड़ा बहुत कृष्णभावनामृत का उदय होता है और यदि वह और प्रगति करता है तो आध्यात्मिक जीवन की अग्नि मनुष्य जीवन में प्रज्ज्वलित हो सकती है ।
यदि अग्नि के धुएँ को ठीक से नियन्त्रित किया जाय तो अग्नि जल सकती है , अतः यह मनुष्य जीवन जीवात्मा के लिए ऐसा सुअवसर है जिससे वह संसार के बन्धन से छूट सकता है । मनुष्य जीवन में काम रूपी शत्रु को योग्य निर्देशन में कृष्णभावनामृत के अनुशीलन द्वारा जीता जा सकता है ।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३ ९ ॥
आवृतम् – ढका हुआ ; ज्ञानम् – शुद्ध चेतना ; एतेन – इससे ; ज्ञानिन: – ज्ञाता का ; नित्य-वैरिणा – नित्य शत्रु द्वारा ; काम -रूपेण – काम के रूप में ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; दुष्पूरेण – कभी भी तुष्ट न होने वाली ; अनलेन – अग्नि द्वारा ।
इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है ।
तात्पर्य : – मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय – भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती , जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती । भौतिक जगत् में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रविन्दु मैथुन ( कामसुख ) है , अत: इस जगत् को मैथून्य आगार या विषयी जीवन की हथकड़ियों कहा गया है ।
एक सामान्य वन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते हैं , वे मैथुन – जीवन द्वारा बन्दी बनाये जाते हैं । इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है , इस जगत् में जीवात्मा की बन्धन अवधि को बढ़ाना ।
अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार में रखा जाता है । इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो , किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ४० ॥
इन्दिवाणि – इन्द्रियाँ ; मनः – मन ; बुद्धिः – बुद्धि ; अस्य – इस काम का ; अधिष्ठानम् – निवासस्थान ; उच्यते – कहा जाता है ; एते: – इन सर्वो से ; विमोहयति – मोहग्रस्त करता है ; एष: – यह काम ; ज्ञानम् – ज्ञान को ; आवृत्य – ढक कर ; देहिनम् – शरीरधारी की ।
इन्द्रियाँ , मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं । इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है ।
तात्पर्य :- चूँकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है , अतः भगवान कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे है जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहाँ पर है । मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केन्द्रविन्दु है , अतः जब हम इन्द्रिय विषयों के सम्बन्ध में सुनते हैं तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है ।
इस तरह मन तथा इन्द्रियाँ काम को शरणस्थली बन जाते हैं । इसके बाद बुद्धि ऐसी कामपूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है । बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसन है । काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होता है जिससे उसमें अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्म्य कर लेता है । आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पड़ जाती है जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है ।
श्रीमद्भागवत में ( १०.८४.१३ ) आत्मा इस मिथ्या स्वरूप की अत्युत्तम विवेचना की गई है –
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिँचिज्जनेष्वभिशेषु स एव गोखरः ॥
” जो मनुष्य इस त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप जान बैठता है , जो देह के विकारों को स्वजन समझता है , जो जन्मभूमि को पूज्य मानता है और जो तीर्थस्थलों कीयात्रा दिव्यज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के लिए नहीं , अपितु स्नान करने के लिए करता है उसे गधा या बैल के समान समझना चाहिए। “
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥
तस्मात् – अतः ; त्वम् – तुम ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को ; आदो – प्रारम्भ में ; नियम्य – नियमित करके ; भरत-ऋषभ – हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ; पाप्मानम् – पाप के महान प्रतीक को ; प्रजहि – दमन करो ; नाशनम् – संहर्ता , विनाश करने वाला ; हि – निश्चय ही ; एनम् – इस ; ज्ञान – ज्ञान ; विज्ञान – तथा शुद्ध आत्मा के वैज्ञानिक ज्ञान का।
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक ( काम ) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म – साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो ।
तात्पर्य :- भगवान् ने अर्जुन को प्रारम्भ से ही इन्द्रिय संयम करने का उपदेश दिया जिससे वह सबसे पापी शत्रु काम का दमन कर सके जो आत्म – साक्षात्कार तथा आत्मज्ञान की उत्कंठा को विनष्ट करने वाला है ।
ज्ञान का अर्थ है आत्म तथा अनात्म के भेद का बोध अर्थात् यह ज्ञान कि आत्मा शरीर नहीं है । विज्ञान से आत्मा की स्वाभाविक स्थिति तथा परमात्मा के साथ उसके सम्बन्ध का विशिष्ट ज्ञान सूचित होता है । श्रीमद्भागवत में ( २.९ .३१ ) इसकी विवेचना इस प्रकार हुई है-
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदई च गृहाण गदितं मया ॥
” आत्मा तथा परमात्मा का ज्ञान अत्यन्त गुह्य एवं रहस्यमय है , किन्तु जब स्वयं भगवान् द्वारा इसके विविध पक्षों की विवेचना की जाती है तो ऐसा ज्ञान तथा विज्ञान समझा जा सकता है । ” भगवदुर्गाता हमें आत्मा का सामान्य तथा विशिष्ट ज्ञान ( ज्ञान ) तथा विज्ञान प्रदान करती है । जीव भगवान् के भिन्न अंश है , अतः वे भगवान् की सेवा के लिए हैं । यह चेतना कृष्णभावनामृत कहलाती है ।
अतः मनुष्य को जीवन के प्रारम्भ से इस कृष्णभावनामृत को सीखना होता जिससे वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होकर तदनुसार कर्म करे । काम ईश्वर प्रेम का विकृत प्रतिविम्व है और प्रत्येक जीव के लिए स्वाभाविक है । किन्तु यदि किसी को प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत की शिक्षा दी जाय तो प्राकृतिक ईश्वर-प्रेम काम के रूप में विकृत नहीं हो सकता । एक बार ईश्वर प्रेम के काम रूप में विकृत हो जाने पर इसके मौलिक स्वरूप को पुनः प्राप्त कर पाना दुःसाध्य हो जाता है ।
फिर भी , कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि विलम्ब से प्रारम्भ करने वाला भी भक्ति के विधि – विधानों का पालन करके ईश्वरप्रेमी बन सकता है । अतः जीवन की किसी भी अवस्था में , या जब भी इसकी अनिवार्यता समझी जाए, मनुष्य कृष्णभावनामृत या भगवद्भक्ति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करना प्रारम्भ कर सकता है और काम को भगवत्प्रेम में बदल सकता है , जो मानव जीवन की पूर्णता की चरम अवस्था है ।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धेः परतस्तु सः ॥ ४२ ॥
इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को ; पराणि – श्रेष्ठ ; आहुः – कहा जाता है ; इन्द्रियेभ्यः – इन्द्रियों से बढ़कर ; परम् – श्रेष्ठ ; मनः – मन ; मनसः – मन की अपेक्षा ; तु – भी ; परा – श्रेष्ठ ; बुद्धिः – बुद्धि ; यः – जो ; बुद्धः – बुद्धि से भी ; परतः – श्रेष्ठ ; तु – किन्तुः ; सः – वह।
कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं , मन इन्द्रियों से बढ़कर है , बुद्धि मन से भी उच्च है और वह ( आत्मा ) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
तात्पर्य :- इन्द्रियाँ काम के कार्यकलापों के विभिन्न द्वार हैं । काम का निवास शरीर में है , किन्तु उसे इन्द्रिय रूपी झरोखे प्राप्त हैं । अतः कुल मिलाकर इन्द्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ हैं । श्रेष्ठ चेतना या कृष्णभावनामृत होने पर ये द्वार काम में नहीं आते । कृष्णभावनामृत में आत्मा भगवान् के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है , अतः यहाँ पर वर्णित शारीरिक कार्यों की श्रेष्ठता परमात्मा में आकर समाप्त हो जाती है ।
शारीरिक कर्म का अर्थ है इन्द्रियों के कार्य और इन इन्द्रियों के अवरोध का अर्थ है सारे शारीरिक कर्मों का अवरोध । लेकिन चूँकि मन सक्रिय रहता है , अतः शरीर के मौन तथा स्थिर रहने पर भी मन कार्य करता रहता है- यथा स्वप्न के समय मन कार्यशील रहता है । किन्तु मन के ऊपर भी बुद्धि की संकल्पशक्ति होती है और बुद्धि के भी ऊपर स्वयं आत्मा है ।
अतः यदि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में परमात्मा में रत रहे तो अन्य सारे अधीनस्थ – यथा – बुद्धि , मन तथा इन्द्रियाँ – स्वतः रत हो जायेंगे । कठोपनिषद् में एक ऐसा ही अंश है जिसमें कहा गया है कि इन्द्रिय – विषय इन्द्रियों से श्रेष्ठ हैं और मन इन्द्रिय – विषयों से श्रेष्ठ है । अतः यदि मन भगवान् की सेवा में निरन्तर लगा रहता है तो इन इन्द्रियों के अन्यत्र रत होने की सम्भावना नहीं रह जाती ।
इस मनोवृत्ति की विवेचना की जा चुकी है । परं दृष्ट्वा निवर्तते – यदि मन भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहे तो तुच्छ विषयों में उसके लग पाने की सम्भावना नहीं रह जाती । कठोपनिषद् में आत्मा को महान कहा गया है । अतः आत्मा इन्द्रिय – विषयों , इन्द्रियों , मन तथा वृद्धि – इन सबके ऊपर है । अतः सारी समस्या का हल यह है कि आत्मा के स्वरूप को प्रत्यक्ष समझा जाय ।
मनुष्य को चाहिए कि बुद्धि के द्वारा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को ढूँढे और फिर मन को निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगाये रखे । इससे सारी समस्या हल हो जाती है । सामान्यतः नवदीक्षित अध्यात्मवादी को इन्द्रिय – विषयों से दूर रहने की सलाह दी । जाती है ।
किन्तु इसके साथ – साथ मनुष्य को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को सशक्त बनाना होता है । यदि कोई बुद्धिपूर्वक अपने मन को भगवान के शरणागत होकर कृष्णभावनामृत में लगाता है , तो मन स्वत : सशक्त हो जाता है और यद्यपि इन्द्रियाँ सर्प के समान अत्यन्त बलिष्ठ होती हैं ,
किन्तु ऐसा करने पर वे दन्त – विहीन साँपों के समान अशक्त हो जाएँगी । यद्यपि आत्मा बुद्धि , मन तथा इन्द्रियों का भी स्वामी है तो भी जब तक इसे कृष्ण की संगति द्वारा कृष्णभावनामृत में सुदृढ नहीं कर लिया जाता तब तक चलायमान मन के कारण नीचे गिरने की पूरी पूरी सम्भावना बनी रहती है ।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ ४३ ॥
एवम् – इस प्रकार ; बुद्धेः – वृद्धि से ; परम – श्रेष्ठ ; बुद्ध्वा – जानकर ; संस्तभ्य – स्थिर करके ; काम-रूपम् – काम के रूप में ; दुरासदम् – दुर्जेय ; आत्मानम् – मन को ; आत्मना – सुविचारित वृद्धि द्वारा ; जहि – जीतो ; शत्रुम् – शत्रु को ; महा-बाहो – हे महाबाहु ।
इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन ! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों , मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि ( कृष्णभावनामृत ) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम – रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो ।
तात्पर्य :- भगवद्गीता का यह तृतीय अध्याय निष्कर्षतः मनुष्य को निर्देश देता है कि वह निर्विशेष शून्यवाद को चरम लक्ष्य न मान कर अपने आपको भगवान का शाधत सेवक समझते हुए कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त हो । भौतिक जीवन में मनुष्य काम तथा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने की इच्छा से प्रभावित होता है ।
प्रभुत्व तथा इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएँ बद्धजीव की परम शत्रु है , किन्तु कृष्णभावनामृत की शक्ति से मनुष्य इन्द्रियों , मन तथा बुद्धि पर नियन्त्रण रख सकता है । इसके लिए मनुष्य को सहसा अपने नियतकमों को बन्द करने की आवश्यकता नहीं है , अपितु धीरे – धीरे कृष्णभावनामृत विकसित करके भौतिक इन्द्रियों तथा मन से प्रभावित हुए बिना अपने शुद्ध स्वरूप के प्रति लक्षित स्थिर वृद्धि से दिव्य स्थिति को प्राप्त हुआ जा सकता है ।
यही इस अध्याय का सारांश है । सांसारिक जीवन की अपरिपक्व अवस्था में दार्शनिक चिन्तन तथा यौगिक आसनों के अभ्यास से इन्द्रियों को वश में करने के कृत्रिम प्रयासों से आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने में सहायता नहीं मिलती । उसे श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित होना चाहिए ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय “ कर्मयोग ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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