अध्याय तीन (Chapter -3)
भगवद गीता अध्याय 3.4 ~ अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण में शलोक 25 से शलोक 35 तक ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों का वर्णन !
भगवद गीता अध्याय 3.4
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥ २५ ॥
सक्ताः – आसक्त ; कर्मणि – नियत कर्मों में ; अविद्वांसः – अज्ञानी ; यथा – जिस तरह ; कुर्वन्ति – करते हैं ; भारत – हे भरतवंशी ; कुर्यात् – करना चाहिए ; विद्वान् – विद्वान ; तथा – उसी तरह ; असक्तः – अनासक्त ; चिकीर्षुः – चाहते हुए भी , इच्छुक ; लोक – संग्रहम् – सामान्य जन ।
जिस प्रकार अज्ञानी – जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं , उसी तरह विद्वान् जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें ।
तात्पर्य :- एक कृष्णभावनाभावित मनुष्य तथा एक कृष्णभावनाहीन व्यक्ति में केवल इच्छाओं का भेद होता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी ऐसा कोई कार्य नहीं करता जो कृष्णभावनामृत के विकास में सहायक न हो । यहाँ तक कि वह उस अज्ञानी पुरुष की तरह कर्म कर सकता है जो भौतिक कार्यों में अत्यधिक आसक्त रहता है ।
किन्तु इनमें से एक ऐसे कार्य अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है , जबकि दूसरा कृष्ण की तुष्टि के लिए । अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि वह लोगों को यह प्रदर्शित करे कि किस तरह कार्य किया जाता है और किस तरह कर्मफलों को कृष्णभावनामृत कार्य में नियोजित किया जाता है ।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥ २६ ॥
न – नहीं ; बुद्धिभेदम् – बुद्धि का विचलन ; जनयेत् – उत्पन्न करे ; अज्ञानाम् – मुखों को ; कर्म संगिनाम् – सकाम कर्मों में आसक्त ; जोषयेत् – नियोजित करे ; सर्व – सारे ; कर्माणि – कर्म ; विद्वान् – विद्वान व्यक्ति ; युक्तः – लगा हुआ , तत्पर ; समाचरन् – अभ्यास करता हुआ ।
विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उनके मन विचलित न हों । अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाये ( जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो ।
तात्पर्य :- वेदेव सर्वैरहमेव वंद्य :– यह सिद्धान्त सम्पूर्ण वैदिक अनुष्ठानों की पराकाष्ठा है । सारे अनुष्ठान , सारे यज्ञ – कृत्य तथा वेदों में भौतिक कार्यों के लिए जो भी निर्देश हैं उन सवों समेत सारी वस्तुएँ कृष्ण को जानने के निमित्त हैं जो हमारे जीवन के चरमलक्ष्य हैं । लेकिन चूँकि बदजीव इन्दियतृप्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते , अतः वे वेदों का अध्ययन इसी दृष्टि से करते हैं ।
किन्तु सकाम कर्मों तथा वैदिक अनुष्ठानों के द्वारा नियमित इन्द्रियतृप्ति के माध्यम से मनुष्य धीरे – धीरे कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है , अतः कृष्णभावनामृत में स्वरूपसिद्ध जीव को चाहिए कि अन्यों को अपना कार्य करने या समझने में बाधा न पहुँचाये , अपितु उन्हें यह प्रदर्शित करे कि किस प्रकार सारे कर्मफल को कृष्ण की सेवा में समर्पित किया जा सकता है ।
कृष्णभावनाभावित विद्वान व्यक्ति इस तरह कार्य कर सकता है कि इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करने वाले अज्ञानी पुरुष यह सीख लें कि किस तरह कार्य करना चाहिए और आचरण करना चाहिए । यद्यपि अज्ञानी पुरुष को उसके कार्यों में छेड़ना ठीक नहीं होता , परन्तु यदि यह रंथभर भी कृष्णभावनाभावित है तो वह वैदिक विधियों की परवाह न करते हुए सीधे भगवान् की सेवा में लग सकता है ।
ऐसे भाग्यशाली व्यक्ति को वैदिक अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं रहती , क्योंकि प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत के द्वारा उसे वे सारे फल प्राप्त हो जाते हैं , जो उसे अपने कर्तव्यों के पालन करने से प्राप्त होते है ।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणेः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७ ॥
प्रकृतेः – प्रकृति का ; क्रियमाणानि – किये जाकर ; गुणे: – गुणों के द्वारा ; कर्माणि – कर्म ; सर्वश: – सभी प्रकार के ; अहङ्कार-विमूढ – अहंकार से मोहित ; आत्मा – आत्मा ; कर्ता – करने वाला ; अहम् – में हूँ ; इति – इस प्रकार ; मन्यते – सोचता है ।
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है , जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं ।
तात्पर्य :- दो व्यक्ति जिनमें से एक कृष्णभावनाभावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है , समान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं , किन्तु उनके पदों में आकाश – पाताल का अन्तर रहता है । भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कारण आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है । वह यह नहीं जानता कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है , जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है ।
भौतिकतावादी व्यक्ति यह नहीं जानता कि अन्ततोगत्वा वह कृष्ण के अधीन है । अहंकारवश ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतन्त्र रूप से करने का श्रेय लेना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण उसे यह ज्ञात नहीं कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान् की अध्यक्षता में की गई है , अतः उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिए ।
अज्ञानी व्यक्ति यह भूल जाता है कि भगवान् हृषीकेश कहलाते हैं अर्थात् वे शरीर की इन्द्रियों के स्वामी हैं । इन्द्रियतृप्ति के लिए इन्द्रियों का निरन्तर उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण वस्तुतः मोहग्रस्त रहता है , जिससे वह कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है ।
तत्त्ववित्त महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ २८ ॥
तत्ववित् – परम सत्य को जानने वाला ; तु – लेकिन ; महाबाहो – हे विशाल भुजाओं वाले ; गुण कर्म – भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत कर्म के ; विभागयो: – भेद के ; गुणा: – इन्द्रियाँ ; गुणेषु – इन्द्रियतृप्ति में ; वर्तन्ते – तत्पर रहती हैं ; इति – इस प्रकार ; मत्वा – मानकर ; न – कभी नहीं ; सज्जते – आसक्त होता है ।
हे महाबाहो ! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभाँति जानते हुए जो परमसत्य को जानने वाला है , वह कभी भी अपने आपको इन्द्रि में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता ।
तात्पर्य :- परमसत्य को जानने वाला भौतिक संगति में अपनी विषम स्थिति को जानता है । वह जानता है कि वह भगवान् कृष्ण का अंश है और उसका स्थान इस भौतिक सृष्टि में नहीं होना चाहिए । वह अपने वास्तविक स्वरूप को भगवान् के अंश के रूप में जानता है जो सत् चित् आनंद हैं और उसे यह अनुभूति होती रहती है कि ” मैं किसी कारण से देहात्मबुद्धि में फस चुका हूँ ।
” अपने अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में उसे सारे कार्य भगवान् कृष्ण की सेवा में नियोजित करने चाहिए । फलतः वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगाता है और भौतिक इन्द्रियों के कार्यों के प्रति स्वभावतः अनासक्त हो जाता है क्योंकि ये परिस्थितिजन्य तथा अस्थायी हैं ।
वह जानता है कि उसके जीवन की भौतिक दशा भगवान् के नियन्त्रण में है , फलतः वह सभी प्रकार के भौतिक बन्धनों से विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन्हें भगवत्कृपा मानता है । श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यक्ति परमसत्य को ब्रह्म परमात्मा तथा श्रीभगवान् इन तीन विभिन्न रूपों में जानता है वह तत्त्ववित् कहलाता है , क्योंकि वह परमेश्वर के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध को भी जानता है ।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्त्रविदो मन्दान्कृत्स्त्रविन्न विचालयेत् ॥ २ ९ ॥
प्रकृतेः – प्रकृति के ; गुण – गुणों से ; सम्मूढाः – भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए ; सज्जन्ते – लग जाते हैं ; गुण-कर्मसु – भौतिक कर्मों में ; तान् – उन ; अकृत्स्त्रविदः – अल्पज्ञानी पुरुष ; मन्दान् – आत्म साक्षात्कार समझने में आलसियों को ; कृत्स्न-वित् – ज्ञानी ; न – नहीं ; विचालयेत् – विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं । यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञानाभाव के कारण अधम होते हैं , किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे ।
तात्पर्य :- अज्ञानी मनुष्य स्थूल भौतिक चेतना से और भौतिक उपाधियों से पूर्ण रहते हैं । यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात् आलसी कहा जाता है । अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं , वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बन्धुत्व मानते हैं , जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानों की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं ।
ऐसे भौतिकताग्रस्त उपाधिधारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा , राष्ट्रीयता तथा परोपकार हैं । ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदेव भौतिक क्षेत्र व्यस्त रहते हैं , उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है , अतः वे इसमें रुचि नहीं लेते । किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरुक हैं , उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें ।
अच्छा तो यही होगा कि वे शान्तभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें । ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धान्तों तथा इसी प्रकार के कार्यों में लगे हो सकते हैं । जो लोग अज्ञानी हैं वे कृष्णभावनामृत के कार्यों को समझ नहीं पाते , अतः भगवान् कृष्ण हमें उपदेश देते हैं कि ऐसे लोगों को विचलित न किया जाय और व्यर्थ ही मूल्यवान समय नष्ट न किया जाय ।
किन्तु भगवद्भक्त भगवान् से भी अधिक दयालु होते हैं , क्योंकि वे भगवान् के अभिन्नाय को समझते हैं । फलतः वे सभी प्रकार के संकट झेलते हैं , यहाँ तक कि वे इन अज्ञानी पुरुषों के पास जा – जा कर उन्हें कृष्णभावनामृत के कार्या में प्रवृत्त करने का प्रयास करते हैं , जो मानव के लिए परमावश्यक है ।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ ३० ॥
मयि – मुझमें ; सर्वाणि – सद तरह के ; कर्माणि – कर्मों को ; संन्यस्य – पूर्णतया त्याग करके ; अध्यात्म – पूर्ण आत्मज्ञान से युक्त ; चेतसा – चेतना से ; निराशी: – लाभ की आशा से रहित , निष्काम ; बिगत – ज्वर: – आलस्यरहित ; निर्ममः – स्वामित्व की भावना से रहित , ममतात्यागी ; भूत्वा – होकर ; युध्यस्व – युद्ध करो ।
अतः हे अर्जुन ! अपने सारे कार्यों को मुझमें समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर , लाभ की आकांक्षा से रहित , स्वामित्व के किसी दावे के बिना तथा आलस्य से रहित होकर युद्ध करो ।
तात्पर्य :- यह श्लोक भगवद्गीता के प्रयोजन को स्पष्टतया इंगित करने वाला है । भगवान् की शिक्षा है कि स्वधर्म पालन के लिए सैन्य अनुशासन के सदृश पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होना आवश्यक है । ऐसे आदेश से कुछ कठिनाई उपस्थित हो सकती है , फिर भी कृष्ण के आश्रित होकर स्वधर्म का पालन करना ही चाहिए , क्योंकि यह जीव की स्वाभाविक स्थिति है ।
जीव भगवान् के सहयोग के बिना सुखी नहीं हो सकता क्योंकि जीव की नित्य स्वाभाविक स्थिति ऐसी है कि भगवान् की इच्छाओं के अधीन रहा जाय । अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का इस तरह आदेश दिया मानो भगवान् उसके सेनानायक हों । परमेश्वर की इच्छा के लिए मनुष्य को सर्वस्व की बलि करनी होती है और साथ ही स्वामित्व जताये बिना स्वधर्म का पालन करना होता है ।
अर्जुन को भगवान् के आदेश का मात्र पालन करना था । परमेश्वर समस्त आत्माओं के आत्मा है , अतः जो पूर्णतया परमेश्वर पर आश्रित रहता है या दूसरे शब्दों में , जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है वह अध्यात्मचेतस कहलाता है । निराशीः का अर्थ है स्वामी के आदेशानुसार कार्य करना , किन्तु फल की आशा न करना । कोषाध्यक्ष अपने स्वामी के लिए लाखों रुपये गिन सकता है , किन्तु इसमें से वह अपने लिए एक पैसा भी नहीं चाहता ।
इसी प्रकार मनुष्य को यह समझना चाहिए कि इस संसार में किसी व्यक्ति का कुछ भी नहीं है , सारी वस्तुएँ परमेश्वर की हैं । मयि अर्थात् मुझमें का वास्तविक तात्पर्य यही है । और जब मनुष्य इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में कार्य करता है तो वह किसी वस्तु पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं करता । यह भावनामृत निर्मम अर्थात् ” मेरा कुछ नहीं है ” कहलाता है ।
यदि ऐसे कठोर आदेश को , जो शारीरिक सम्बन्ध में तथाकथित वन्धुत्व भावना से रहित है , पूरा करने में कुछ झिझक हो तो उसे दूर कर देना चाहिए । इस प्रकार मनुष्य विगतज्वर अर्थात् ज्वर या आलस्य से रहित हो सकता है । अपने गुण तथा स्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को विशेष प्रकार का कार्य करना होता है और ऐसे कर्तव्यों का पालन कृष्णभावनाभावित होकर किया जा सकता है । इससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा ।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३१ ॥
ये – जो ; मे – मेरे ; मतम् – आदेशों को ; इदम् – इन ; नित्यम् – नित्वकार्य के रूप में ; अनुतिष्ठन्ति – नियमित रूप से पालन करते हैं ; मानवा: – मानव प्राणी ; श्रद्धा -वन्तः – श्रद्धा तथा भक्ति समेत ; अनसूयन्तः – विना ईर्ष्या के ; मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते है ; ते – वे ; अपि – भी ; कर्मभिः – सकामकर्मों के नियमरूपी बन्धन से ।
जो व्यक्ति मेरे आदेशों के अनुसार अपना कर्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्यारहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं , वे सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
तात्पर्य :- श्रीभगवान् कृष्ण का उपदेश समस्त वैदिक ज्ञान का सार है , अतः किसी अपवाद के बिना यह शाश्वत सत्य है । जिस प्रकार वेद शाधत हैं उसी प्रकार कृष्णभावनामृत का यह सत्य भी शाश्वत है । मनुष्य को चाहिए कि भगवान् से ईष्या किये बिना इस आदेश में दृढ विश्वास रखे ।
ऐसे अनेक दार्शनिक हैं , जो भगवद्गीता पर टीका रचते हैं , किन्तु कृष्ण में कोई श्रद्धा नहीं रखते । वे कभी भी सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते । किन्तु एक सामान्य पुरुष भगवान् के इन आदेशों में दृढविश्वास करके कर्म – नियम के वन्धन से मुक्त हो जाता है , भले ही वह इन आदेशों का ठीक से पालन न कर पाए ।
कृष्णभावनामृत के प्रारम्भ में भले ही कृष्ण के आदेशों का पूर्णतया पालन न पाए , किन्तु चूँकि मनुष्य इस नियम से रुष्ट नहीं होता और पराजय तथा निराशा का विचार किये विना निष्ठापूर्वक कार्य करता है , अतः वह विशुद्ध कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है ।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२ ॥
ये – जो ; तु – किन्तु ; एतत् – इस ; अभ्यसूयन्तः – ईर्ष्यावश ; न – नहीं ; अनुतिष्ठन्ति – नियमित रूप से सम्पन्न करते हैं ; मे – मेरा ; मतम् – आदेश ; सर्व-ज्ञान – सभी प्रकार के ज्ञान में ; विमूढान् – पूर्णतया दिग्भ्रमित ; तान् – उन्हें ; विद्धि – ठीक से जानो ; नष्टान् – नष्ट हुए ; अचेतसः – कृष्णभावनामृत रहित ।
किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की उपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते । उन्हें समस्त ज्ञान से रहित , दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट – भ्रष्ट समझना चाहिए ।
तात्पर्य :- यहाँ पर कृष्णभावनाभावित न होने के दोष का स्पष्ट कथन है । जिस प्रकार परम अधिशासी की आज्ञा के उल्लंघन के लिए दण्ड होता है , उसी प्रकार भगवान् के आदेश के प्रति अवज्ञा के लिए भी दण्ड है ।
अवज्ञाकारी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो वह शून्यहृदय होने से आत्मा के प्रति तथा परब्रह्म परमात्मा एवं श्रीभगवान् के प्रति अनभिज्ञ रहता है । अतः ऐसे व्यक्ति से जीवन की सार्थकता की आशा नहीं की जा सकती ।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥
सदृशम् – अनुसार ; चेष्टते – चेष्टा करता है ; स्वस्याः – अपने ; प्रकृतेः – गुणों से ; ज्ञान-वान् – विद्वान् ; अपि – यद्यपि ; प्रकृतिम् – प्रकृति को ; यान्ति – प्राप्त होते हैं ; भूतानि – सारे प्राणी ; निग्रहः – दमन ; किम् – क्या ; करिष्यति – कर सकता है ।
ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है , क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं । भला दमन से क्या हो सकता है ?
तात्पर्य :- कृष्णभावनामृत के दिव्य पद पर स्थित हुए बिना प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ जा सकता , जैसा कि स्वयं भगवान् ने सातवें अध्याय में ( ७.१४ ) कहा है । अतः सांसारिक धरातल पर बड़े से बड़े शिक्षित व्यक्ति के लिए केवल सैद्धान्तिक ज्ञान से आत्मा को शरीर से पृथक करके माया के वन्धन से निकल पाना असम्भव है ।
ऐसे अनेक तथाकथित अध्यात्मवादी हैं , जो अपने को विज्ञान में बढ़ा चढ़ा मानते हैं , किन्तु भीतर – भीतर वे पूर्णतया प्रकृति के गुणों के अधीन रहते हैं , जिन्हें जीत पाना कठिन है । ज्ञान की दृष्टि से कोई कितना ही विद्वान् क्यों न हो , किन्तु भौतिक प्रकृति की दीर्घकालीन संगति के कारण वह बन्धन में रहता है ।
कृष्णभावनामृत उसे भांतिक बन्धन से छूटने में सहायक होता है , भले ही कोई अपने नियतकर्मों के करने में संलग्न क्यों न रहे । अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हुए बिना नियतकर्मों का परित्याग नहीं करना चाहिए । किसी को भी सहसा अपने नियतकर्म त्यागकर तथाकथित योगी या कृत्रिम अध्यात्मवादी नहीं वन जाना चाहिए ।
अच्छा तो यह होगा कि यथास्थिति में रहकर श्रेष्ठ प्रशिक्षण के अन्तर्गत कृष्णभावनामृत प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय । इस प्रकार कृष्ण की माया के बन्धन से मुक्त हुआ जा सकता है ।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषो व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छे हास्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥
इन्द्रियस्य – इन्द्रिय का ; इन्द्रियस्य-अर्थ – इन्द्रियविषयों में ; राग – आसक्ति ; द्वेषो – तथा , विरक्ति ; व्यवस्थितौ – नियमों के अधीन स्थित ; तयोः – उनके ; न – कभी नहीं ; वशम् – नियन्त्रण में ; आगच्छेत् – आना चाहिए ; तौ – वे दोनों ; हि – निश्चय ही ; अस्य – उसका ; परिपन्थिनौ – अवरोधक ।
प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं । मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म – साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं ।
तात्पर्य :- जो लोग कृष्णभावनाभावित हैं , वे स्वभाव से भौतिक इन्द्रियतृप्ति में रत होने में झिझकते हैं । किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यम – नियमों का पालन करना चाहिए । अनियन्त्रित इन्द्रिय – भोग ही भौतिक बन्धन का कारण है , किन्तु जो शास्त्रों के यम – नियमों का पालन करता है , वह इन्द्रिय – विषयों में नहीं फँसता ।
उदाहरणार्थ , योन – सुख वज्रजीव के लिए आवश्यक है और विवाह सम्बन्ध के अन्तर्गत यौन – सुख की छूट दी जाती है । शास्त्रीय आदेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ यौन सम्बन्ध वर्जित है , अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता मानना चाहिए ।
किन्तु इन आदेशों के होते हुए भी मनुष्य अन्य स्त्रियों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है । इन प्रवृत्तियों को दमित करना होगा अन्यथा वे आत्म साक्षात्कार के मार्ग में वाधक होंगी । जब तक यह भौतिक शरीर रहता है तव तक शरीर की आवश्यकताओं को यम – नियमों के अन्तर्गत पूर्ण करने की छूट दी जाती है । किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियन्त्रण पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।
मनुष्य को अनासक्त रहकर इन यम – नियमों का पालन करना होता है , क्योंकि नियमों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अभ्यास भी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है , जिस प्रकार कि राजमार्ग तक में दुर्घटना की सम्भावना बनी रहती है । भले ही इन भागों की कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाय , किन्तु इसकी कोई गारन्टी नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर भी कोई खतरा नहीं होगा ।
भौतिक संगति के कारण अत्यन्त दीर्घ काल से इन्द्रिय – सुख की भावना कार्य करती रही है । अतः नियमित इन्द्रिय – भोग के बावजूद भी च्युत होने की हर सम्भावना बनी रहती है , अतः सभी प्रकार से नियमित इन्द्रिय – भोग के लिए किसी भी आसक्ति से बचना चाहिए ।
लेकिन कृष्णभावनामृत ऐसा है कि इसके प्रति आसक्ति से या सदेव कृष्ण की प्रेमाभक्ति में कार्य करते रहने से सभी प्रकार के ऐन्द्रिय कार्यों से विरक्ति हो जाती है । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत से विरक्त होने की चेष्टा न करे । समस्त प्रकार की इन्द्रिय आसक्ति से विरक्ति का उद्देश्य अन्ततः कृष्णभावनामृत के पद पर आसीन होना है ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५ ॥
श्रेवान् – अधिक श्रेयस्कर ; स्वधर्म – अपने नियतकर्म ; विगुण – दोषयुक्त भी ; पर-धर्मात् – अन्यों के लिए उल्लिखित कार्यों की अपेक्षा ; सु-अनुष्ठितात् – भलीभाँति सम्पन्न ; स्व-धर्म – अपने नियतकमों में ; निधनम् – विनाश , मृत्यु ; श्रेयः – श्रेष्ठतर ; पर-धर्मः – अन्यों के लिए नियतकर्म ; भय-आवह: – खतरनाक , डरावना ।
अपने नियतकर्मों दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है । स्वीय कमों को करते हुए मरना पराये कमों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है , क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है ।
तात्पर्य :- अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकमों की अपेक्षा अपने नियतकमों को कृष्णभावनामृत में करे भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा के अनुसार भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म हैं । आध्यात्मिक कर्म गुरु द्वारा कृष्ण की दिव्यसेवा के लिए आदेशित होते हैं । किन्तु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म , मनुष्य को मृत्युपर्यन्त अपने नियतकमों में दृढ रहना चाहिए ।
अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए । आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न – भिन्न हो सकते हैं , किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रामाणिक निर्देशन के पालन का सिद्धान्त उत्तम होगा । जब मनुष्य प्रकृति के गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए , उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए ।
उदाहरणार्थ , सतोगुणी ब्राह्मण कभी हिंसक नहीं होता , किन्तु रजोगुणी क्षत्रिय को हिंसक होने की अनुमति है । इस तरह क्षत्रिय के लिए हिंसा के नियमों का पालन करते हुए विनष्ट होना जितना श्रेयस्कर है उतना अहिंसा के नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण का अनुकरण नहीं । हर व्यक्ति को एकाएक नहीं , अपितु क्रमशः अपने हृदय को स्वच्छ बनाना चाहिए ।
किन्तु जब मनुष्य प्रकृति के गुणों को लाँघकर कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाता है , तो वह प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में सब कुछ कर सकता है । कृष्णभावनामृत की पूर्ण स्थिति में एक क्षत्रिय ब्राह्मण की तरह और एक ब्राह्मण क्षत्रिय की तरह कर्म कर सकता है । दिव्य अवस्था में भौतिक जगत् का भेदभाव नहीं रह जाता ।
उदाहरणार्थ , विश्वामित्र मूलतः क्षत्रिय थे , किन्तु बाद में वे ब्राह्मण हो गये । इसी प्रकार परशुराम पहले ब्राह्मण थे , किन्तु बाद में वे क्षत्रिय बन गये । ब्रह्म में स्थित होने के कारण ही वे ऐसा कर सकें , किन्तु जब तक कोई भौतिक स्तर पर रहता है , उसे प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने कर्म करने चाहिए । साथ ही उसे कृष्णभावनामृत का पूरा बोध होना चाहिए ।
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