अध्याय तीन (Chapter -3)
भगवद गीता अध्याय 3.3 ~ में शलोक 17 से शलोक 24 तक ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों का वर्णन !
यस्त्वात्मरतिरेव स्वादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ १७ ॥
यः – जो ; तु – लेकिन ; आत्म-रतिः – आत्मा में ही आनन्द लेते हुए ; एवं – निश्चय ही ; स्वात् – रहता है ; आत्म-तृप्तः – स्वयंप्रकाशितः ; च – तथा ; मानवः – मनुष्य ; आत्मनि – अपने में ; च – तथा ; सन्तुष्ट – पूर्णतया सन्तुष्ट ; तस्य – उसका ; कार्यम् – कर्तव्य ; न – नहीं ; विद्यते – रहता है ।
किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेता है तथा जिसका जीवन आत्म – साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय ( कर्तव्य ) नहीं होता ।
तात्पर्य :- जो व्यक्ति पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है और अपने कृष्णभावनामृत के कार्यों से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसे कुछ भी नियंत कर्म नहीं करना होता । कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसके हृदय का सारा मैल तुरन्त धुल जाता है , जो हजारों – हजारों यज्ञों को सम्पन्न करने पर ही सम्भव हो पाता है ।
इस प्रकार चेतना के शुद्ध होने से मनुष्य परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति पूर्णतया आश्वस्त हो जाता है । भगवत्कृपा से उसका कार्य स्वयंप्रकाशित हो जाता है । अतएव वैदिक आदेशों के प्रति उसका कर्तव्य निःशेष हो जाता है । ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी भौतिक कार्यों में रुचि नहीं लेता और न ही उसे सुरा सुन्दरी तथा अन्य प्रलोभनों में कोई आनन्द मिलता है ।
नैव तस्य कृतेनाथ नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥
न – कभी नहीं ; एव – निश्चय ही ; तस्य – उसका ; कृतेन – कार्यसम्पादन से ; अर्थ: – प्रयोजन ; न – न तो ; अकृतेन – कार्य न करने से ; इह – इस संसार में ; कचन – जो कुछ भी ; न – कभी नहीं ; च – तथा ; अस्य – उसका ; सर्वभूतेषु – समस्त जीवों में कश्चित् – कांई ; अर्थ – प्रयोजन ; व्यपाश्रयः – शरणागत।
स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है , न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है । उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती ।
तात्पर्य :- स्वरूपसिद्ध व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित कर्म के अतिरिक्त कुछ भी करना नहीं होता । किन्तु यह कृष्णभावनामृत निष्क्रियता भी नहीं है , जैसा कि अगले श्लोकों में बताया जाएगा । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति किसी की शरण ग्रहण नहीं करता चाहे वह मनुष्य हो या देवता कृष्णभावनामृत में वह जो भी करता है वही उसके कर्तव्य सम्पादन के लिए पर्याप्त है ।
तस्मादसक्तः सतत कार्य कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ १ ९ ॥
तस्मात् – अतः ; असक्तः – आसक्तिरहितः ; सततम् – निरन्तर ; कार्यम् – कर्तव्य रूप में ; कर्म – कार्य ; समाचर – करो ; असक्तः – अनासक्तः ; हि – निश्चय ही ; आचरन् – करते हुए ; कर्म – कार्य ; परम् – परब्रह्म को ; आप्नोति – प्राप्त करता है ; पूरुषः – पुरुष , मनुष्य ।
अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे परब्रह्म ( परम ) की प्राप्ति होती है ।
तात्पर्य : – भक्तों के लिए श्रीभगवान् परम हैं और निर्विशेषवादियों के लिए मुक्ति परम है । अतः जो व्यक्ति समुचित पथप्रर्दशन पाकर और कर्मफल से अनासक्त होकर कृष्ण के लिए या कृष्णभावनामृत में कार्य करता है , वह निश्चित रूप से जीवन लक्ष्य की ओर प्रगति करता है ।
अर्जुन से कहा जा रहा है कि वह कृष्ण के लिए कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़े क्योंकि कृष्ण की इच्छा है कि वह ऐसा करे । उत्तम व्यक्ति होना या अहिंसक होना व्यक्तिगत आसक्ति है , किन्तु फल की आसक्ति से रहित होकर कार्य करना परमात्मा लिए कार्य करना है ।
यह उच्चतम कोटि का पूर्ण कर्म है , जिसकी संस्तुति भगवान् कृष्ण ने की है । नियत यज्ञ , जैसे वैदिक अनुष्ठान , उन पापकमों की शुद्धि के लिए किये जाते हैं । जो इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से किये गए हों ।
किन्तु कृष्णभावनामृत में जो कर्म किया जाता है वह अच्छे या बुरे कर्म के फलों से परे है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में फल के प्रति लेशमात्र आसक्ति नहीं रहती , वह तो केवल कृष्ण के लिए कार्य करता है । वह समस्त प्रकार के कर्मों में रत रह कर भी पूर्णतया अनासक्त रहा आता है ।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ २० ॥
कर्मणा – कर्म से ; एव – ही ; हि – निश्चय ही ; संसिद्धिम् – पूर्णता में ; आस्थिताः – स्थित ; जनक-आदय: – जनक तथा अन्य राजा ; लोक-सङ्ग्रहम् – सामान्य लोग ; एव अपि – भी ; सम्पश्यन् – विचार करते हुए ; कर्तुम् – करने के लिए ; अहंसि – योग्य हो ।
जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त की । अतः से सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए ।
तात्पर्य :- जनक जैसे राजा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति थे , अतः वे वेदानुमोदित कर्म करने के लिए वाध्य न थे । तो भी वे लोग सामान्यजनों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के उद्देश्य से सारे नियत कर्म करते रहे । जनक सीताजी के पिता तथा भगवान् श्रीराम के श्वसुर थे ।
भगवान् के महान भक्त होने के कारण उनकी स्थिति दिव्य थी , किन्तु चूँकि वे मिथिला ( जो भारत के बिहार प्रान्त में एक परगना है ) के राजा थे , अतः उन्हें अपनी प्रजा को यह शिक्षा देनी थी कि कर्तव्य – पालन किस प्रकार किया जाता है ।
भगवान् कृष्ण तथा उनके शाचत सखा अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी , किन्तु उन्होंने जनता को यह सिखाने के लिए युद्ध किया कि जब सत्परामर्श असफल हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में हिंसा आवश्यक हो जाती है । कुरुक्षेत्र युद्ध के पूर्व युद्ध निवारण के लिए भगवान् तक ने सारे प्रयास किये , किन्तु दूसरा पक्ष लड़ने पर तुला था । अतः ऐसे सद्धर्म के लिए युद्ध करना आवश्यक था ।
यद्यपि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को संसार में कोई रुचि नहीं हो सकती तो भी वह जनता को यह सिखाने के लिए कि किस तरह रहना और कार्य करना चाहिए , कर्म करता रहता है । कृष्णभावनामृत में अनुभवी व्यक्ति इस तरह कार्य करते हैं कि अन्य लोग उनका अनुसरण कर सकें और इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गई है ।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ २१ ॥
यत् यत् – जो जो ; आचरति – करता है ; श्रेष्ठ: – आदरणीय नेता ; तत् – वही ; तत् – तथा केवल वही ; एव – निश्चय ही ; इतर: – सामान्यः ; जनः – व्यक्ति ; सः – वह ; यत् – जो कुछ ; प्रमाणम् – उदाहरण ; आदर्श ; कुरुते – करता है ; लोक: – सारा संसार ; तत् – उसके ; अनुवर्तते – पदचिन्हों का अनुसरण करता है ।
महापुरुष जो जो आचरण करता है , सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं । वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आर्दश प्रस्तुत करता है , सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है ।
तात्पर्य :- सामान्य लोगों को सदैव एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है , जो व्यावहारिक आचरण द्वारा जनता को शिक्षा दे सके । यदि नेता स्वयं धूम्रपान करता है तो वह जनता को धूम्रपान बन्द करने की शिक्षा नहीं दे सकता । चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि शिक्षा देने के पूर्व शिक्षक को ठीक – ठीक आचरण करना चाहिए । जो इस प्रकार शिक्षा देता है । वह आचार्य या आदर्श शिक्षक कहलाता है ।
अतः शिक्षक को चाहिए कि सामान्यजन को शिक्षा देने के लिए स्वयं शास्त्रीय सिद्धान्तों का पालन करे । कोई भी शिक्षक प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों के नियमों के विपरीत कोई नियम नहीं बना सकता । मनु – संहिता जैसे प्रामाणिक ग्रंथ मानव समाज के लिए अनुसरणीय आदर्श ग्रंथ हैं , अतः नेता का उपदेश ऐसे आदर्श शास्त्रों के नियमों पर आधारित होना चाहिए । जो व्यक्ति अपनी उन्नति चाहता है उसे महान शिक्षकों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले आदर्श नियमों का पालन करना चाहिए ।
श्रीमद्भागवत भी इसकी पुष्टि करता है कि मनुष्य को महान भक्तों के पदचिन्हों का अनुसरण करना चाहिए और आध्यात्मिक बोध के पथ में प्रगति का यही साधन है । चाहे राजा हो या राज्य का प्रशासनाधिकारी , चाहे पिता हो या शिक्षक- ये सच अबोध जनता के स्वाभाविक नेता माने जाते हैं । इन सबका अपने आश्रितों के प्रति महान उत्तरदायित्व रहता है , अतः इन्हें नैतिक तथा आध्यात्मिक संहिता सम्बन्धी आदर्श ग्रंथों से सुपरिचित होना चाहिए ।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव चकर्मणि ॥ २२ ॥
न – नहीं ; मे – मुझे ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; अस्ति – है ; कर्तव्यम् – नियत कार्य ; त्रिषु – तीनों ; लोकेषु – लोकों में ; किञ्चन – कोई ; न – कुछ नहीं ; अनवाप्तम् – इच्छित ; अवाप्तव्यम् – पाने के लिए ; वर्त – लगा रहता हूँ ; एव – निश्चय ही ; च – भी ; कर्मणि – नियत कमों में ।
हे पृथापुत्र ! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है , न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है । तो भी मैं नियतकर्म करने में तत्पर रहता हूँ ।
तात्पर्य :- वैदिक साहित्य में भगवान् का वर्णन इस प्रकार हुआ है –
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च देवतम् ।
पति पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवेनशमीयम् ॥
न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समचाभ्यधिकञ्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च ॥
“ परमेश्वर समस्त नियन्ताओं के नियन्ता हैं और विभिन्न लोकपालकों में सबसे महान हैं । सभी उनके अधीन हैं । सारे जीवों को परमेश्वर से ही विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती हैं , जीव स्वयं श्रेष्ठ नहीं है । वे सभी देवताओं द्वारा पूज्य हैं और समस्त संचालकों के भी संचालक है ।
अतः वे समस्त भौतिक नेताओं तथा नियन्ताओं से बढ़कर हैं और सर्वो द्वारा आराध्य हैं । उनसे बढ़कर कोई नहीं है और वे ही समस्त कारणों के कारण हैं । ” उनका शारीरिक स्वरूप सामान्य जीव जैसा नहीं होता । उनके शरीर तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं है ।
वे परम हैं , उनकी सारी इन्द्रियाँ दिव्य हैं । उनकी कोई भी इन्द्रिय अन्य किसी इन्द्रिय का कार्य सम्पन्न कर सकती है । अतः न तो कोई उनसे बढ़कर है , न ही उनके तुल्य है । उनकी शक्तियाँ बहुरूपिणी है , फलतः उनके सारे कार्य प्राकृतिक अनुक्रम के अनुसार सम्पन्न हो जाते हैं ।” ( चंताश्वतर उपनिषद् ६.७-८ ) ।
चूँकि भगवान् में प्रत्येक वस्तु ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहती है और पूर्ण सत्य से ओतप्रोत रहती है , अतः उनके लिए कोई कर्तव्य करने की आवश्यकता नहीं रहती । जिसे अपने कर्म का फल पाना है , उसके लिए कुछ न कुछ कर्म नियत रहता है , परन्तु जो तीनों लोकों में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता , उसके लिए निश्चय ही कोई कर्तव्य नहीं रहता ।
फिर भी क्षत्रियों के नायक के रूप में भगवान् कृष्ण कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कार्यरत हैं , क्योंकि क्षत्रियों का धर्म है कि दीन – दुखियों को आश्रय प्रदान करें । यद्यपि वे शास्त्रों के विधि – विधानों से सर्वथा ऊपर हैं , फिर भी वे ऐसा कुछ भी नहीं करते जो शास्त्रों के विरुद्ध हो ।
यदि ह्यहं न वर्तयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ २३ ॥
यदि – यदि ; हि – निश्चय ही ; अहम् – मैं ; न – नहीं ; बर्तयम् – इस प्रकार व्यस्त रहूँ ; जातु – कभी ; कर्मणि – नियत कमों के सम्पादन में ; अतन्द्रितः – सावधानी के साथ ; मम – मेरा ; वर्त्म – पथ ; अनुवर्तन्ते – अनुगमन करेंगे ; मनुष्या: – सारे मनुष्य ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; सर्वश: – सभी प्रकार से ।
क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ ! यह निश्चित हैं । कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे ।
तात्पर्य :- आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के लिए एवं सामाजिक शान्ति में संतुलन बनाये रखने के लिए कुछ परम्परागत कुलाचार हैं जो प्रत्येक सभ्य व्यक्ति के लिए होते हैं । ऐसे विधि – विधान केवल बद्धजीवों के लिए हैं , भगवान् कृष्ण के लिए नहीं , लेकिन क्योंकि वे धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुए थे , अतः उन्होंने निर्दिष्ट नियमों का पालन किया ।
अन्यथा , सामान्य व्यक्ति भी उन्हीं के पदचिन्हों का अनुसरण करते क्योंकि कृष्ण परम प्रमाण हैं । श्रीमद्भागवत से यह ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण अपने घर में तथा बाहर गृहस्थोचित धर्म का आचरण करते रहे ।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ २४ ॥
उत्सीदेयुः – नष्ट हो जायें ; इमे – ये सव ; लोका: – लोक ; न – नहीं ; कुर्याम् – करूँ ; कर्म – नियत कार्य ; चेत् – यदि ; अहम् – मैं ; संकरस्य – अवांछित संतति का ; च – तथा ; कर्ता – खष्टा ; स्याम् – होऊंगा ; उपहन्याम् – विनष्ट करूंगा ; इमाः – इन सव ; प्रजाः – जीवों को ।
यदि में नियतकर्म न करूँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायँ । तब मैं अवांछित जनसमुदाय ( वर्णसंकर ) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनूँगा ।
तात्पर्य :- वर्णसंकर अवांछित जनसमुदाय है जो सामान्य समाज की शान्ति को भंग करता है । इस सामाजिक अशान्ति को रोकने के लिए अनेक विधि – विधान हैं जिनके द्वारा स्वतः ही जनता आध्यात्मिक प्रगति के लिए शान्त तथा सुव्यवस्थित हो जाती है ।
जब भगवान् कृष्ण अवतरित होते हैं तो स्वाभाविक है कि वे ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्यों प्रतिष्ठा तथा अनिवार्यता बनाये रखने के लिए इन विधि – विधानों के अनुसार आचरण करते हैं । भगवान् समस्त जीवों के पिता है और यदि ये जीव पथभ्रष्ट हो जायँ तो अप्रत्यक्ष रूप में यह उत्तरदायित्व उन्हीं का है ।
अतः जब भी विधि – विधानों का अनादर होता है , तो भगवान् स्वयं समाज को सुधारने के लिए अवतरित होते हैं । किन्तु हमें ध्यान देना होगा कि यद्यपि हमें भगवान् के पदचिन्हों का अनुसरण करना है , तो भी हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते । अनुसरण और अनुकरण एक से नहीं होते ।
हम गोवर्धन पर्वत उठाकर भगवान् का अनुकरण नहीं कर सकते , जैसा कि भगवान् ने अपने बाल्यकाल में किया था । ऐसा कर पाना किसी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं । हमें उनके उपदेशों का पालन करना चाहिए , किन्तु किसी भी समय हमें उनका अनुकरण नहीं करना है । श्रीमद्भागवत में ( १०.३३.३०-३१ ) इसकी पुष्टि की गई है
नैतत्समाचरेञ्जातु मनसापि हानीश्वरः ।
विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्याथारुद्रोऽधिजं विषम् ॥
ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं वचित् ।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत् ॥
” मनुष्य को भगवान् तथा उनके द्वारा शक्तिप्रदत्त सेवकों के उपदेशों का मात्र पालन करना चाहिए । उनके उपदेश हमारे लिए अच्छे हैं और कोई भी बुद्धिमान पुरुष वताई गई विधि से उनको कार्यान्वित करेगा । फिर भी मनुष्य को सावधान रहना चाहिए कि वह उनके कार्यों का अनुकरण न करे । उसे शिवजी के अनुकरण में विष का समुद्र नहीं पी लेना चाहिए ।
” हमें सदेव ईश्वरों की या सूर्य तथा चन्द्रमा की गतियों को वास्तव में नियंत्रित कर सकने वालों की स्थिति को श्रेष्ठ मानना चाहिए । ऐसी शक्ति के बिना कोई भी सर्वशक्तिमान ईश्वरों का अनुकरण नहीं कर सकता । शिवजी ने सागर तक के विष का पान कर लिया , किन्तु यदि कोई सामान्य व्यक्ति विष की एक बूँद भी पीने का यत्न करेगा तो वह मर जाएगा ।
शिवजी के अनेक छद्मभक्त हैं जो गाँजा तथा ऐसी ही अन्य मादक वस्तुओं का सेवन करते रहते हैं । किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि इस प्रकार शिवजी का अनुकरण करके वे अपनी मृत्यु को निकट बुला रहे हैं । इसी प्रकार भगवान् कृष्ण के भी अनेक छद्मभक्त हैं जो भगवान् की रासलीला या प्रेमनृत्य का अनुकरण करना चाहते हैं , किन्तु यह भूल जाते हैं कि वे गोवर्धन पर्वत को धारण नहीं कर सकते ।
अतः सबसे अच्छा तो यही होगा कि लोग शक्तिमान का अनुकरण न करके केवल उनके उपदेशों का पालन करें । न ही विना योग्यता के किसी को उनका स्थान ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिए । ऐसे अनेक ईश्वर के ” अवतार ” हैं जिनमें भगवान् की शक्ति नहीं होती ।
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