भगवद गीता अध्याय 3.2 || यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा महिमा || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय तीन (Chapter -3)

भगवद गीता अध्याय 3.2 ~ में शलोक 09  से   शलोक  16  तक  यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन !

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र   लोकोऽयं   कर्मबन्धनः ।

      तदर्थं   कर्म     कौन्तेय   मुक्तसङ्गः    समाचर ॥ ९ ॥

यज्ञ-अर्थात्  –  एकमात्र यज्ञ या विष्णु के लिए किया गया ;  कर्मणः – कर्म की अपेक्षा ;   अन्यत्र – अन्यथा ;   लोक: – संसार ;   अयम् – यह  ;    कर्म-बन्धनः  – कर्म के कारण बन्धन   ;   तत् – उस  ;   अर्थम् –  के लिए  ;   कर्म – कर्म  ;   कौन्तेय –  हे कुन्तीपुत्र  ;  मुक्त-सङ्गः  – सङ्गग(फलाकांक्षा ) से मुक्त ;    समाचर – भलीभाँति आचरण करो

श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए , अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है । अतः हे कुन्तीपुत्र ! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो । इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे ।

     तात्पर्य : – चूँकि मनुष्य को शरीर के निर्वाह के लिए भी कर्म करना होता है , अतः विशिष्ट सामाजिक स्थिति तथा गुण को ध्यान में रखकर नियत कर्म इस तरह बनाये गये हैं कि उस उद्देश्य की पूर्ति हो सके ।  यज्ञ का अर्थ भगवान् विष्णु है । सारे यज्ञ भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए हैं ।

वेदों का आदेश है – यज्ञो वे विष्णुः । दूसरे शब्दों में , चाहे निर्दिष्ट यज्ञ सम्पन्न करे या प्रत्यक्ष रूप से भगवान् विष्णु की सेवा करे , दोनों से एक ही प्रयोजन सिद्ध होता है , अतः जैसा कि इस श्लोक में संस्तुत किया गया है , कृष्णभावनामृत यज्ञ ही है । वर्णाश्रम – धर्म का भी उद्देश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है । वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान् । विष्णुराराध्यते ( विष्णु पुराण ३.८.८ )

अतः भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए कर्म करना चाहिए । इस जगत् में किया जाने वाला अन्य कोई कर्म बन्धन का कारण होगा , क्योंकि अच्छे तथा बुरे कर्मों के फल होते हैं और कोई भी फल कर्म करने वाले को बाँध लेता है ।

अतः कृष्ण ( विष्णु ) को प्रसन्न करने के लिए कृष्णभावनाभावित होना होगा और जब कोई ऐसा कर्म करता है तो वह मुक्त दशा को प्राप्त रहता है । यही महान कर्म कौशल है और प्रारम्भ में इस विधि में अत्यन्त कुशल मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ।  अतः भगवद्भक्त के निर्देशन में या साक्षात् भगवान् कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत ( जिनके अधीन ) अर्जुन को कर्म करने का अवसर मिला था ) मनुष्य को परिश्रमपूर्वक कर्म करना चाहिए ।

इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए , अपितु हर कार्य कृष्ण की प्रसन्नता ( तुष्टि ) के लिए होना चाहिए । इस विधि से न केवल कर्म के बन्धन से बचा जा सकता है , अपितु इससे मनुष्य को क्रमशः भगवान् की वह प्रेमाभक्ति प्राप्त हो सकेगी , जो भगवद्धाम को ले जाने वाली है ।

सहयज्ञाः  प्रजाः  सृष्ट्ववा  पुरोवाच  प्रजापतिः ।

अनेन    प्रसविष्यध्वमेष  वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥

प्रजाः –  सन्ततियों  ;    सृष्ट्ववा –  रच कर  ;   पुरा  –  प्राचीन काल में  ;   अनेन – इससे  ;    प्रसविष्यध्वम् –  अधिकाधिक समृद्ध  ;   अस्तु – होए ;    इष्ट –  समस्त वांछित वस्तुओं का  ;  काम-धुक्  –  प्रदाता। 

      तात्पर्य : – प्राणियों के स्वामी ( विष्णु ) द्वारा भौतिक सृष्टि की रचना बद्धजीवों के लिए भगवद्धाम वापस जाने का सुअवसर है । इस सृष्टि के सारे जीव प्रकृति द्वारा वद्ध हैं । क्योंकि उन्होंने श्रीभगवान् विष्णु या कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को भुला दिया है । इस शाश्वत सम्बन्ध को समझने में वैदिक नियम हमारी सहायता के लिए हैं , जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है – वेदैव सर्वैरहमेव वेद्यः

भगवान् का कथन है कि वेदों का उद्देश्य मुझे समझना है । वैदिक स्तुतियों में कहा गया है – पतिं विश्वस्यात्मेश्वरम्। अतः जीवों के स्वामी ( प्रजापति ) श्रीभगवान् विष्णु हैं । श्रीमद्भागवत में भी ( २.४.२० ) श्रील शुकदेव गोस्वामी ने भगवान् को अनेक रूपों में पति कहा है –

श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिर्धियां पतिलोकपतिर्धरापतिः ।

पतितकणसात्वतां   प्रसीदतां  में  भगवान्  सतां  पतिः ॥ 

प्रजापति तो भगवान विष्णु हैं और वे समस्त प्राणियों के, समस्त लोकों के और सुन्दरता के स्वामी ( पति ) हैं और हर एक के त्राता है । भगवान् को इसलिए रचा कि बदजीव यह सीख सकें कि ये विष्णु को प्रसन्न करने के लिए किए प्रकार यज्ञ करें जिससे वे इस जगत् में चिन्तारहित होकर सुखपूर्वक रह सके तथा इस भौतिक देह का अन्त होने पर भगवद्धाम की जा सके । बद्धजीव के लिए ही यह सम्पूर्ण कार्यक्रम है । यज्ञ करने से बदजीव क्रमशः कृष्णभावनाभावित होते हैं और सभी प्रकार से देवतुल्य बनते हैं ।

कलियुग में वैदिक शास्त्रों ने संकीर्तन-यज्ञ ( भगवान् के नामों कीर्तन ) का विधान किया है और इस दिव्य विधि का प्रवर्तन चैतन्य महाप्रभु द्वारा इस युग के समस्त लोगों के उद्धार के लिए किया गया । संकीर्तन – यज्ञ तथा कृष्णभावनामृत में अच्छा तालमेल है । श्रीमद्भागवत ( ११.५.३२ ) में संकीर्तन – यज्ञ के विशेष प्रसंग में भगवान् कृष्ण का अपने भक्तरूप ( चेतन्य महाप्रभु रूप ) में निम्न प्रकार से उल्लेख हुआ है –

कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदम् ।

यज्ञः  संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति  हि  सुमेधसः ॥

“ इस कलियुग में जो लोग पर्याप्त बुद्धिमान हैं वे भगवान् की उनके पार्षदों सहित संकीर्तन – यज्ञ द्वारा पूजा करेंगे । ” वेदों में वर्णित अन्य यज्ञों को इस कलिकाल में कर पाना सहज नहीं , किन्तु संकीर्तन – यज्ञ सुगम है और सभी दृष्टि से अलौकिक है,जैसा कि भगवद्गीता में भी (९ .१४) संस्तुति की गई है।

देवान्भावयतानेन  ते   देवा  भावयन्तु   वः ।

         परस्परम्   भावयन्तः   श्रेयः  परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥

देवान्  –   देवताओं को ;   भावयता  –   प्रसन्न करके  ;   अनेन  –  इस यज्ञ से  ;  ते –  वे  ;  देवा : –  देवता  ;   भावयन्तु  –  प्रसन्न करेंगे  ;    वः – तुमको  ;    परस्परम् –  आपस में  ;   भावयन्तः – एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए  ;    श्रेय वर , मंगल  ;   परम्  –  परम  ;  अवाप्स्यथ  –  तुम प्राप्त करोगे । 

यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी ।

    तात्पर्य : – देवतागण सांसारिक कार्यों के लिए अधिकारप्राप्त प्रशासक हैं । प्रत्येक जीव द्वारा शरीर धारण करने के लिए आवश्यक वायु , प्रकाश , जल तथा अन्य सारे वर उन देवताओं के अधिकार में हैं , जो भगवान् के शरीर के विभिन्न भागों में असंख्य सहायकों के रूप में स्थित हैं ।

उनकी प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता मनुष्यों द्वारा यज्ञ की सम्पन्नता पर निर्भर है । कुछ यज्ञ किन्हीं विशेष देवताओं को प्रसन्न करने के लिए होते हैं , किन्तु तो भी सारे यज्ञों में भगवान विष्णु को प्रमुख भोक्ता की भाँति पूजा जाता है । भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् कृष्ण स्वयं सभी प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं – भोक्तारं यज्ञतपसाम् ।

अतः समस्त यज्ञों का मुख्य प्रयोजन यज्ञपति को प्रसन्न करना है  जब ये यज्ञ सुचारू रूप से सम्पन्न किये जाते हैं , तो विभिन्न विभागों के अधिकारी देवता प्रसन्न होते हैं और प्राकृतिक पदार्थों का अभाव नहीं रहता ।  यज्ञों को सम्पन्न करने से अन्य लाभ भी होते हैं , जिनसे अन्ततः भववन्धन से मुक्ति मिल जाती है । यज्ञ से सारे कर्म पवित्र हो जाते हैं , जैसा कि वेदवचन हे –

आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धो धुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः । 

यज्ञ से मनुष्य के खाद्यपदार्थ शुद्ध होते हैं और शुद्ध भोजन करने से मनुष्य जीवन शुद्ध हो जाता है , जीवन शुद्ध होने से स्मृति के सूक्ष्म – तन्तु शुद्ध होते हैं और स्मृति तन्तुओं के शुद्ध होने पर मनुष्य मुक्तिमार्ग का चिन्तन कर सकता है और ये सब मिलकर कृष्णभावनामृत तक पहुँचाते हैं , जो आज के समाज के लिए सर्वाधिक आवश्यक है । 

इष्टान्भोगान्हि  वो  देवा  दास्यन्ते  यज्ञभाविताः ।

         तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो   यो  भुङ्क्ते  स्तेन  एव  सः ॥ १२ ॥

इष्टान् – वांछित  ;   भोगान् –  जीवन की आवश्यकताएँ  ;   हि – निश्चय ही  ;   वः – तुम्हें  ;   देवाः  – देवतागण  ;   दास्यन्ते  –  प्रदान करेंगे  ;   यज्ञ-भाविताः  – यज्ञ सम्पन्न करने से प्रसन्न होकर  ;   तेः  – उनके द्वारा  ;   दत्तान् – प्रदत्त वस्तुएँ  ;    अप्रदाय  – विना भेंट किये  ;   एभ्य :  – इन देवताओं को  ;   यः – जो ;   भुङ्क्ते –  भोग करता है  ;    स्तेनः – चोर  ;    एव  –  निश्चय ही  ;   सः – वह  । 

जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे । किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है , वह निश्चित रूप से चोर है I

   तात्पर्य : – देवतागण भगवान् विष्णु द्वारा भोग – सामग्री प्रदान करने के लिए अधिकृत किये गये हैं । अतः नियत यज्ञों द्वारा उन्हें अवश्य संतुष्ट करना चाहिए । वेदों में विभिन्न देवताओं के लिए भिन्न – भिन्न प्रकार के यज्ञों की संस्तुति है , किन्तु वे सब अन्ततः भगवान् को ही अर्पित किये जाते हैं । किन्तु जो यह नहीं समझ सकता कि भगवान् क्या हैं , उसके लिए देवयज्ञ का विधान है ।

अनुष्ठानकर्ता के भौतिक गुणों के अनुसार वेदों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान है । विभिन्न देवताओं की पूजा भी उसी आधार पर अर्थात् गुणों के अनुसार की जाती है । उदाहरणार्थ , मांसाहारियों को देवी काली की पूजा करने के लिए कहा जाता है , जो भौतिक प्रकृति की घोर रूपा हैं और देवी के समक्ष पशुवलि का आदेश है । किन्तु जो सतोगुणी हैं उनके लिए विष्णु की दिव्य पूजा बताई जाती है ।

अन्ततः समस्त यज्ञों का ध्येय उत्तरोत्तर दिव्य – पद प्राप्त करना है । सामान्य व्यक्तियों के लिए कम से कम पाँच यज्ञ आवश्यक हैं , जिन्हें पञ्चमहायज्ञ कहते हैं । किन्तु मनुष्य को यह जानना चाहिए कि जीवन की सारी आवश्यकताएँ भगवान् के देवता प्रतिनिधियों द्वारा ही पूरी की जाती हैं । कोई कुछ वना नहीं सकता ।

उदाहरणार्थ , मानव समाज के भोज्य पदार्थों को लें । इन भोज्य पदार्थों में शाकाहारियों के लिए अन्न , फल , शाक , दूध , चीनी आदि हैं तथा मांसाहारियों के लिए मांसादि जिनमें से कोई भी पदार्थ मनुष्य नहीं बना सकता । एक और उदाहरण लें यथा ऊष्मा , प्रकाश , जल , वायु आदि जो जीवन के लिए आवश्यक हैं , इनमें से किसी को बनाया नहीं जा सकता ।

परमेश्वर के बिना न तो प्रचुर प्रकाश मिल सकता है , न चाँदनी , वर्षा या प्रातःकालीन समीर ही , जिनके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । स्पष्ट है कि हमारा जीवन भगवान् द्वारा प्रदत्त वस्तुओं पर आश्रित है ।

यहाँ तक कि हमें अपने उत्पादन उद्यमों के लिए अनेक कच्चे मालों की आवश्यकता होती है यथा धातु , गंधक , पारद , मँगनीज तथा अन्य अनेक आवश्यक वस्तुएँ जिनकी पूर्ति भगवान् के प्रतिनिधि इस उद्देश्य से करते हैं कि हम इनका समुचित उपयोग करके आत्म – साक्षात्कार के लिए अपने आपको स्वस्थ एवं पुष्ट बनायें जिससे जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात् भौतिक जीवन संघर्ष से मुक्ति प्राप्त हो सके ।

यज्ञ सम्पन्न करने से मानव जीवन का यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है । यदि हम जीवन उद्देश्य को भूल कर भगवान् के प्रतिनिधियों से अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुएँ लेते रहेंगे और इस संसार में अधिकाधिक फँसते जायेंगे , जो कि सृष्टि का उद्देश्य नहीं है तो निश्चय ही हम चोर हैं और इस तरह हम प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डित होंगे । चोरों का समाज कभी सुखी नहीं रह सकता क्योंकि उनका कोई जीवन लक्ष्य नहीं होता ।

भौतिकतावादी चोरों का कभी कोई जीवन – लक्ष्य नहीं होता । उन्हें तो केवल इन्द्रियतृप्ति की चिन्ता रहती है , वे नहीं जानते कि यज्ञ किस तरह किये जाते हैं । किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने यज्ञ सम्पन्न करने की सरलतम विधि का प्रवर्तन किया । यह है संकीर्तन – यज्ञ जो संसार के किसी भी व्यक्ति द्वारा , जो कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को अंगीकार करता है , सम्पन्न किया जा सकता है ।

यज्ञशिष्टाशिनः  सन्तो   मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।

        भुञ्जते  ते  त्वघं   पापा ये  पचन्त्यात्मकारणात् ॥ १३ ॥

यज्ञ-शिष्ट   –   यज्ञ सम्पन्न करने के बाद ग्रहण किये जाने वाले भोजन को   ;    अशिन:  – खाने वाले  ;     सन्तः – भक्तगण  ; मुच्यन्ते  – छुटकारा पाते हैं  ; सर्व – सभी तरह के ;    किल्बिषेः  – पापों से ;    भुञ्जते – भोगते हैं  ;    ते  –  वे   ;  तु – लेकिन ;   अघम् –  घोर पापः   ;    पापा:  –  पापीजन  ;    ये  –  जो  ;    पचन्ति  –  भोजन बनाते हैं   ;   आत्म-कारणात्  –   इन्द्रियसुख के लिए । 

भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं , क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन ( प्रसाद ) को ही खाते हैं । अन्य लोग , जो अपने इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं , वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं ।

तात्पर्य :– भगवद्भक्तों या कृष्णभावनाभावित पुरुषों को सन्त कहा जाता है । वे सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहते हैं , जैसा कि ब्रह्मसंहितामें ( ५.३८ ) कहा गया है  सन्तगण श्रीभगवान् गोविन्द ( समस्त आनन्द के दाता ) , या मुकुन्द ( मुक्ति के दाता ) , या कृष्ण ( सबों को आकृष्ट करने वाले पुरुष ) के प्रगाढ़ प्रेम में मग्न रहने के कारण कोई भी वस्तु परम पुरुष को अर्पित किये बिना ग्रहण नहीं करते ।

फलतः ऐसे भक्त पृथक् – पृथक् भक्ति साधनों के द्वारा , यथा श्रवण , कीर्तन , स्मरण , अर्चन आदि के द्वारा यज्ञ करते रहते हैं , जिससे वे संसार की सम्पूर्ण पापमयी संगति के कल्मष से दूर रहते हैं । अन्य लोग , जो  अपने लिए या इन्द्रियतृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं वे न केवल चोर हैं , अपितु सभी प्रकार के पापों को खाने वाले हैं ।

जो व्यक्ति चोर तथा पापी दोनों हो , भला यह किस तरह सुखी रह सकता है ? यह सम्भव नहीं । अतः सभी प्रकार से सुखी रहने के लिए मनुष्यों को पूर्ण कृष्णभावनामृत में संकीर्तन – यज्ञ करने की सरल विधि बताई जानी चाहिए , अन्यथा संसार में शान्ति या सुख नहीं हो सकता ।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

         यज्ञाद्भवति  यज्ञः  पर्जन्यो कर्मसमुद्भवः॥ १४ ॥

अन्नात् – अन्न से   ;  भवन्ति –   उत्पन्न होते हैं  ;   भूतानि – भौतिक शरीर  ;  पर्जन्यात् – वर्षा से  ;  अन्न  –  अन्न का  ;    सम्भवः  – उत्पादनः  ;  यज्ञात् –   यज्ञ सम्पन्न करने से ;  भवति – सम्भव होती है ;    पर्जन्य :  – वर्षा  ;    यज्ञः –  यज्ञ का सम्पन्न होना  ;    कर्म –  नियत कर्तव्य से  ;   समुद्भवः –   उत्पन्न होता है । 

सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं , जो वर्षा से उत्पन्न होता है । वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है ।

    तात्पर्य : – भगवद्गीता के महान टीकाकार श्रील बलदेव विद्याभूषण इस प्रकार लिखते हैं –

ये इन्द्राङ्गतयावस्थितं यज्ञं सर्वेश्वरं विष्णुमभ्यर्च्य तच्छेषमश्नन्ति तेन तद्देहयात्रां सम्पादयन्ति ते सन्तः सर्वेश्वरस्य यज्ञपुरुषस्य भक्ताः सर्वकिल्बिषैर् अनादिकालविवृद्धैर् आत्मानुभवप्रतिबन्धकैर्निखिलः पापैर्विमुच्यन्ते । 

परमेश्वर , जो यज्ञपुरुष अथवा समस्त यज्ञों के भोक्ता कहलाते हैं , सभी देवताओं के स्वामी हैं और जिस प्रकार शरीर के अंग पूरे शरीर की सेवा करते हैं , उसी तरह सारे देवता उनकी सेवा करते हैं । इन्द्र , चन्द्र तथा वरुण जैसे देवता भगवान् द्वारा नियुक्त अधिकारी हैं , जो सांसारिक कार्यों की देखरेख करते हैं । सारे वेद इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों का निर्देश करते हैं , जिससे वे अन्न उत्पादन के लिए प्रचुर वायु , प्रकाश तथा जल प्रदान करें ।

जब कृष्ण की पूजा की जाती है तो उनके अंगस्वरूप देवताओं की भी स्वतः पूजा हो जाती है , अतः देवताओं की अलग से पूजा करने की आवश्यकता नहीं होती ।इसी हेतु कृष्णभावनाभावित भगवद्भक्त सर्वप्रथम कृष्ण को भोजन अर्पित करते हैं और तब खाते हैं – यह ऐसी विधि है जिससे शरीर का आध्यात्मिक पोषण होता है । ऐसा करने से न केवल शरीर के विगत पापमय कर्मफल नष्ट होते हैं अपितु शरीर प्रकृति के समस्त कल्मषों से निरापद हो जाता है ।

जब कोई छूत का रोग फैलता है तो इसके आक्रमण से बचने के लिए रोगाणुरोधी टीका लगाया जाता है । इसी प्रकार भगवान् विष्णु को अर्पित करके ग्रहण किया जाने वाला भोजन हमें भौतिक संदूषण से निरापद बनाता है । और जो इस विधि का अभ्यस्त है वह भगवद्भक्त कहलाता है । अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति , जो केवल कृष्ण को अर्पित किया गया भोजन करता है , वह उन समस्त विगत भौतिक दूषणों के फलों का सामना करने में समर्थ होता है , जो आत्म – साक्षात्कार के मार्ग में बाधक बनते हैं ।

 इसके विपरीत जो ऐसा नहीं करता वह अपने पापपूर्ण कर्म को बढ़ाता रहता है जिससे उसे सारे पापफलों को भोगने के लिए अगला शरीर कूकरों सूकरों के समान मिलता है । यह भौतिक जगत् नाना कल्मषों से पूर्ण है और जो भी भगवान् के प्रसाद को ग्रहण करके उनसे निरापद हो लेता है वह उनके आक्रमण से बच जाता है , किन्तु जो ऐसा नहीं करता वह कल्मष का लक्ष्य बनता है ।

अन्न अथवा शाक वास्तव में खाद्य हैं । मनुष्य विभिन्न प्रकार के अन्न , शाक आदि खाते हैं , जबकि पशु इन पदार्थों के उच्छिष्ट को खाते हैं । जो मनुष्य मांस खाने के अभ्यस्त हैं उन्हें भी शाक के उत्पादन पर निर्भर रहना पड़ता है , क्योंकि पशु शाक ही खाते हैं । अतएव हमें अन्ततोगत्वा खेतों के उत्पादन पर ही आश्रित रहना है , बड़ी बड़ी फैक्टरियों के उत्पादन पर नहीं खेतों का यह उत्पादन आकाश से होने वाली प्रचुर वर्षा पर निर्भर करता है और ऐसी वर्षा इन्द्र , सूर्य , चन्द्र आदि देवताओं के द्वारा नियन्त्रित होती है ।

ये देवता भगवान् के दास हैं । भगवान् को यज्ञों के द्वारा सन्तुष्ट रखा जा सकता है , अतः जो इन यज्ञों को सम्पन्न नहीं करता , उसे अभाव का सामना करना होगा यही प्रकृति का नियम है । अतः भोजन के अभाव से बचने के लिए यज्ञ , और विशेष रूप से इस युग के लिए संस्तुत संकीर्तन – यज्ञ सम्पन्न करना चाहिए ।

कर्म ब्रह्मोद्भवं     विद्धि    ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।

         तस्मात्सर्वगतं    ब्रह्म  नित्यं   यज्ञे   प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥

कर्म – कर्म  ;     ब्रह्म – वेदों से   ;    उद्भवम्  –  उत्पन्न   ;   विद्धि – जानो   ;    ब्रह्म  –  वेद  ;  अक्षर –    परब्रह्म से  ;   समुद्भवम्  –  साक्षात् प्रकट हुआ   ;   तस्मात् – अतः    ;    सर्व-गतम्   – सर्वव्यापी   ;   ब्रह्म – ब्रह्म  ;   नित्यम्   –  शाश्वत रूप से  ;  यज्ञे  –  यज्ञ में  ;  प्रतिष्ठितम् –   स्थित

वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये वेद साक्षात् श्रीभगवान् ( परब्रह्म ) से प्रकट हुए हैं । फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है ।

तात्पर्य :- इस श्लोक में यज्ञार्थ – कर्म अर्थात् कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए कर्म की आवश्यकता को भलीभाँति विवेचित किया गया है । यदि हमें यज्ञ – पुरुष विष्णु के परितोष के लिए कर्म करना है तो हमें ब्रह्म या दिव्य वेदों से कर्म की दिशा प्राप्त करनी होगी । अतः सारे वेद कर्मदेशों की संहिताएँ हैं । वेदों के निर्देश के बिना किया गया कोई भी कर्म विकर्म या अवैध अथवा पापपूर्ण कर्म कहलाता है ।

अतः कर्मफल से बचने के लिए . सदैव वेदों से निर्देश प्राप्त करना चाहिए । जिस प्रकार सामान्य जीवन में राज्य के निर्देश के अन्तर्गत कार्य करना होता है उसी प्रकार भगवान् के परम राज्य के निर्देशन में कार्य करना चाहिए । वेदों में ऐसे निर्देश भगवान् के श्वास से प्रत्यक्ष प्रकट होते हैं । कहा गया है – अस्य महतो भूतस्य निश्वसितम् एतद् यद्ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः “ चारों वेद – ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद तथा अथर्ववेद – भगवान् के श्वास से उद्भूत हैं । 

” ( बृहदारण्यक उपनिषद् ४.५.११ ) ब्रह्मसंहिता से प्रमाणित होता है कि सर्वशक्तिमान होने के कारण भगवान् अपने श्वास के द्वारा बोल सकते हैं , अपनी प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा अन्य समस्त इन्द्रियों के कार्य सम्पन्न कर सकते हैं , दूसरे शब्दों में , भगवान् अपनी निःश्वास के द्वारा बोल सकते हैं और वे अपने नेत्रों से गर्भाधान कर सकते हैं ।

वस्तुतः यह कहा जाता है कि उन्होंने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और समस्त जीवों को गर्भस्थ किया । इस तरह प्रकृति के गर्भ में बद्धजीवों को प्रविष्ट करने के पश्चात् उन्होंने उन्हें वैदिक ज्ञान के रूप में आदेश दिया , जिससे वे भगवद्धाम वापस जा सके । हम यह सर्दव स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृति में सारे बद्धजीब भौतिक भोग के लिए इच्छुक रहते हैं ।

किन्तु वैदिक आदेश इस प्रकार बनाये गये हैं कि मुनष्य अपनी विकृत इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है और तथाकथित सुखभोग पूरा करके भगवान् के पास लौट सकता है । बद्धजीवों के लिए मुक्ति प्राप्त करने का यह सुनहरा अवसर होता है , अतः उन्हें चाहिए कि कृष्णभावनाभावित होकर यज्ञ – विधि का पालन करें । यहाँ तक कि जो वैदिक आदेशों का पालन नहीं करते वे भी कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को ग्रहण कर सकते हैं जिससे वैदिक यज्ञों या कर्मों की पूर्ति हो जाएगी ।

एवं    प्रवर्तितं    चक्रं    नानुवर्तयतीह     यः ।

         अघायुरिन्द्रियारामो   मोघं  पार्थ  स  जीवति ॥ १६ ॥

एवम् –  इस प्रकार  ;   प्रवर्तितम्   –  वेदों द्वारा स्थापित   ;   चक्रम् – चक्र   ;  न  –  नहीं  ; अनुवर्तयति  –  ग्रहण करता  ;  इह  –  इस जीवन में   ;   यः  –  जो  ;  अघ-आयुः   –   पापपूर्ण जीवन है जिसका  ;  इन्द्रिय-आरामः  – इन्द्रियासक्त  ;  मोघम् – वृथा  ;   पार्थ – हे पृथापुत्र ( अर्जुन ) ;   सः –  वह  ;  जीवति – जीवित रहता है

हे प्रिय अर्जुन ! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ – चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है । ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है । 

    तात्पर्य : – इस श्लोक में भगवान् ने ” कठोर परिश्रम करो और इन्द्रियतृप्ति का आनन्द लो ” इस सांसारिक विचारधारा का तिरस्कार किया है । अतः जो लोग इस संसार में भोग करना चाहते हैं उन्हें उपर्युक्त यज्ञ – चक्र का अनुसरण करना परमावश्यक है । जो ऐसे विधिविधानों का पालन नहीं करता , अधिकाधिक तिरस्कृत होने के कारण उसका जीवन अत्यन्त संकटपूर्ण रहता है ।

प्रकृति के नियमानुसार यह मानव शरीर विशेष रूप से आत्म – साक्षात्कार के लिए मिला है जिसे कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग में से किसी एक विधि से प्राप्त किया जा सकता है । इन योगियों के लिए यज्ञ सम्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि ये पाप – पुण्य से परे होते हैं , किन्तु जो लोग इन्द्रियतृप्ति में जुटे हुए हैं उन्हें पूर्वोक्त यज्ञ – चक्र के द्वारा शुद्धिकरण की आवश्यकता रहती है ।

कर्म के अनेक भेद होते हैं । जो लोग कृष्णभावनाभावित नहीं हैं वे निश्चय ही विषय – परायण होते हैं , अतः उन्हें पुण्य कर्म करने की आवश्यकता होती है । यज्ञ पद्धति इस प्रकार सुनियोजित है कि विषयोन्मुख लोग विषयों के फल में फँसे बिना अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं । संसार की सम्पन्नता हमारे प्रयासों पर नहीं , अपितु परमेश्वर की पृष्ठभूमि – योजना पर निर्भर है , जिसे देवता सम्पादित करते हैं ।

अतः वेदों में वर्णित देवताओं को लक्षित करके यज्ञ किये जाते हैं । अप्रत्यक्ष रूप यह कृष्णभावनामृत का ही अभ्यास रहता है क्योंकि जब कोई इन यज्ञों में दक्षता प्राप्त कर लेता है तो वह अवश्य ही कृष्णभावनाभावित हो जाता है । किन्तु यदि ऐसे यज्ञ करने से कोई कृष्णभावनाभावित नहीं हो पाता तो इसे कोरी आचार संहिता समझना चाहिए ।

अतः भगवद गीता अध्याय 3.2 में मनुष्यों को चाहिए कि वे आचार संहिता तक ही अपनी प्रगति को सीमित न करें , अपितु उसे पार करके कृष्णभावनामृत को प्राप्त हो ।

भगवद गीता अध्याय 3.2 ~ यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन  / Powerful Bhagavad Gita Yagya ki Mahima Ch3.2
भगवद गीता अध्याय 3.2

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