अध्याय तीन (Chapter -3)
भगवद गीता अध्याय 3.1 ~ ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार नियत कर्म करने की आवश्यकता में शलोक 01 से शलोक 08 तक ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने का वर्णन !
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किंकर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥ १ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; ज्यायसी – श्रेष्ठ ; चेत् – यदि ; कर्मणः – सकाम कर्म की अपेक्षा ; ते – तुम्हारे द्वारा ; मता – मानी जाती है ; बुद्धिः – बुद्धि ; जनार्दन – हे कृष्ण ; तत् – अत ; किम् – क्यों फिर ; कर्मणि – कर्म में ; घोरे – भयंकर , हिंसात्मक ; माम् – मुझको ; नियोजयसि – नियुक्त करते हो ; केशव – हे कृष्ण ।
अर्जुन ने कहा – हे जनार्दन , हे केशव ! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं ?
तात्पर्य : – श्रीभगवान् कृष्ण ने पिछले अध्याय में अपने घनिष्ठ मित्र अर्जुन को संसार के शोक – सागर से उबारने के उद्देश्य से आत्मा स्वरूप का विशद् वर्णन किया है और आत्म-साक्षात्कार के जिस मार्ग की संस्तुति की है वह है- बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत ।
कभी – कभी कृष्णभावनामृत को भूल से जड़ता समझ लिया जाता है और ऐसी भ्रान्त धारण वाला मनुष्य भगवान कृष्ण के नाम – जप द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने के लिए प्रायः एकान्त स्थान में चला जाता है । किन्तु कृष्णभावनामृत – दर्शन में प्रशिक्षित हुए विना एकान्त स्थान में कृष्ण नाम जप करना ठीक नहीं । इससे अबोध जनता मे केवल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी
अर्जुन को भी कृष्णभावनामृत या बुद्धियोग ऐसा लगा मानो वह सक्रिय जीवन से संन्यास लेकर एकान्त स्थान में तपस्या का अभ्यास हो । दूसरे शब्दों में , वह कृष्णभावनामृत को वहाना बनाकर चातुरीपूर्वक युद्ध से जो छुड़ाना चाहता था । किन्तु एकनिष्ठ शिष्य होने के नाते उसने यह बात अपने गुरु के समक्ष रखी और कृष्ण से सर्वोत्तम कार्य – विधि के विषय में प्रश्न किया । उत्तर में भगवान ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग अर्थात् कृष्णभावनाभावित कर्म की विस्तृत व्याख्या की ।
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ २ ॥
व्यामिश्रेण – अनेकार्धक ; इव – मानो ; वाक्येन – शब्दों से ; बुद्धिम् – बुद्धि ; मोहयसि – मोह रहे हो ; इव – मानो ; मे – मेरी ; तत् – अतः ; एकम् – एकमात्र ; वद – कहिये ; निश्चित्य – निश्चय करके ; येन – जिससे ; श्रेयः – वास्तविक लाभ ; अहम् – मैं ; आप्नुयाम्पा – पा सकूँ ।
आपके व्यामिश्रित ( अनेकार्थक ) उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है । अतः कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बतायें कि इनमें से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा ?
तात्पर्य : – पिछले अध्याय में , भगवद्गीता के उपक्रम के रूप में सांख्ययोग , बुद्धियोग , बुद्धि द्वारा इन्द्रियनिग्रह , निष्काम कर्मयोग तथा नवदीक्षित की स्थिति जैसे विभिन्न मार्गों का वर्णन किया गया है ।किन्तु उसमें तारतम्य नहीं था । कर्म करने तथा समझने के लिए मार्ग की अधिक व्यवस्थित रूपरेखा की आवश्यकता होगी ।
अतः अर्जुन इन भ्रामक विषयों को स्पष्ट कर लेना चाहता था , जिससे सामान्य मनुष्य बिना किसी भ्रम के उन्हें स्वीकार कर सके । यद्यपि श्रीकृष्ण वाक्चातुरी से अर्जुन को चकराना नहीं चाहते थे , किन्तु अर्जुन यह नहीं समझ सका कि कृष्णभावनामृत क्या है-जड़ता है या कि सक्रिय सेवा । दूसरे शब्दों में , अपने प्रश्नों से वह उन समस्त शिष्यों के लिए जो भगवद्गीता के रहस्य को समझना चाहते हैं , कृष्णभावनामृत का मार्ग प्रशस्त कर रहा है ।
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान ने कहा ; लोके – संसार में ; अस्मिन् – इस ; द्वि–विधा – दो प्रकार की ; निष्ठा – श्रद्धा ; पुरा – पहले ; प्रोक्ता – कही गई ; मया – मेरे द्वारा ; ज्ञान-योगेन – ज्ञानयोग के द्वारा ; सांख्यानाम् – ज्ञानियों का ; योगिनाम् – भक्तों का ; अनघ – हे निष्पाप ; कर्म–योगेन – भक्तियोग के द्वारा ।
श्रीभगवान् ने कहा हे निष्पाप अर्जुन ! पहले ही बता चुका हूँ कि आत्मसाक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं कुछ इसे ज्ञानयोग समझने का प्रयत्न करते हैं , तो कुछ भक्तिमय सेवा के द्वारा ।
तात्पर्य :- द्वितीय अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में भगवान ने दो प्रकार की पद्धतियों का उल्लेख किया है सांख्ययोग तथा कर्मयोग या बुद्धियोग । इस श्लोक में इनकी ओर अधिक स्पष्ट विवेचना की गई है । सांख्ययोग अथवा आत्मा तथा पदार्थ की प्रकृति का वैश्लेषिक अध्ययन उन लोगों के लिए है जो व्यावहारिक ज्ञान तथा दर्शन द्वारा वस्तुओं का चिन्तन एवं मनन करना चाहते हैं ।
दूसरे प्रकार के लोग कृष्णभावनामृत में कार्य करते हैं जैसा कि द्वितीय अध्याय के इकसठवें श्लोक में बताया गया है । उन्तालीसवें श्लोक में भी भगवान् ने बताया है कि बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों पर चलते हुए मनुष्य कर्म के बन्धनों से छूट सकता है तथा इस पद्धति में कोई दोष नहीं है ।
इकसठवें श्लोक में इसी सिद्धान्त को और अधिक स्पष्ट किया गया है कि बुद्धियोग पूर्णतया परब्रह्म ( विशेषतया कृष्ण ) पर आश्रितहै और इस प्रकार से समस्त इन्द्रियों को सरलता से वश में किया जा सकता है। अतः दोनों प्रकार के योग धर्म तथा दर्शन के रूप में अन्योन्याश्रित हैं । दर्शनविहीन धर्म मात्र भावुकता या कभी – कभी धर्मान्धता है । और धर्मविहीन दर्शन मानसिक ऊहापोह है ।
अन्तिम लक्ष्य तो श्रीकृष्ण हैं क्योंकि जो दार्शनिकजन परम सत्य की खोज करते रहते हैं , वे अन्ततः कृष्णभावनामृत को प्राप्त होते हैं । इसका भी उल्लेख भगवद्गीता में मिलता है । सम्पूर्ण पद्धति का उद्देश्य परमात्मा के सम्बन्ध में अपनी वास्तविक स्थिति को समझ लेना है । इसकी अप्रत्यक्ष पद्धति दार्शनिक चिन्तन है , जिसके द्वारा क्रम से कृष्णभावनामृत तक पहुँचा जा सकता है ।
प्रत्यक्ष पद्धति में कृष्णभावनामृत में ही प्रत्येक वस्तु से अपना सम्बन्ध जोड़ना होता है । इन दोनों में से कृष्णभावनामृत का मार्ग श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें दार्शनिक पद्धति द्वारा इन्द्रियों को विमल नहीं करना होता । कृष्णभावनामृत स्वयं ही शुद्ध करने वाली प्रक्रिया है और भक्ति की प्रत्यक्ष विधि सरल तथा दिव्य होती है ।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न चसंन्यसनादेव सिद्धिंसमधिगच्छति ॥ ४ ॥
न – नहीं ; कर्मणाम् – नियत कर्मों के ; अनारम्भात् – न करने से ; नैष्कर्म्यम् – कर्मवन्धन से मुक्ति को ; पुरुष: – मनुष्य ; अश्नुते – प्राप्त करता है ; न – नहीं ; च – भी ; संन्यसनात् – त्याग से ; एव – केवल ; सिद्धिम् – सफलता ; समधिगच्छति – प्राप्त करता है।
न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्म फल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।
तात्पर्य : – भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को विमल करने के लिए जिन कमों का विधान किया गया है उनके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है । शुद्धि के विना अनायास संन्यास ग्रहण करने से सफलता नहीं मिल पाती ।
ज्ञानयोगियों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अथवा सकाम कर्म से विरत होने से ही मनुष्य नारायण के समान हो जाता है । किन्तु भगवान् कृष्ण इस मत का अनुमोदन नहीं करते । हृदय की शुद्धि के बिना संन्यास सामाजिक व्यवस्था में उत्पात उत्पन्न करता है ।
दूसरी ओर यदि कोई नियत कर्मों को न करके भी भगवान् की दिव्य सेवा करता है तो वह उस मार्ग में जो कुछ भी उन्नति करता है उसे भगवान् स्वीकार कर लेते हैं ( बुद्धियोग ) । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य जायते महतो भयात्। ऐसे सिद्धान्त की रंचमात्र सम्पन्नता भी महान कठिनाइयों को पार करने में सहायक होती है ।
न हि कश्चित्क्षणमपिजातुतिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥ ५ ॥
न – नहीं ; हि – निश्चय ही ; कश्चित् – कोई ; क्षणम् – क्षणमात्र ; अपि – भी ; जातु – किसी काल में ; तिष्ठति – रहता है ; अकर्म – कृत् – विना कुछ किये ; कार्यते – करने के लिए बाध्य होता है ; हि – निश्चय ही ; अवशः – विवश होकर ; कर्म – कर्म ; सर्वः – समस्त ; प्रकृति–जैः – प्रकृति के गुणों से उत्पन्न ; गुणै: – गुणों के द्वारा ।
प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है , अतः कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता ।
तात्पर्य :- यह देहधारी जीवन का प्रश्न नहीं है , अपितु आत्मा का यह स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है । आत्मा की अनुपस्थिति में भौतिक शरीर हिल भी नहीं सकता । यह शरीर मृत – वाहन के समान है जो आत्मा द्वारा चालित होता है क्योंकि आत्मा सदैव गतिशील ( सक्रिय ) रहता है और वह एक क्षण के लिए भी नहीं रुक सकता ।
अतः आत्मा को कृष्णभावनामृत के सत्कर्म में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा । माया के संसर्ग में आकर आत्मा भौतिक गुण प्राप्त कर लेता है और आत्मा को ऐसे आकर्षणों से शुद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि शास्त्रों द्वारा आदिष्ट कर्मों में इसे संलग्न रखा जाय ।
किन्तु यदि आत्मा कृष्णभावनामृत के अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है , तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है । श्रीमद्भागवत ( १.५.१७ ) द्वारा इसकी पुष्टि हुई है
त्यक्त्वा स्वधर्म चरणाम्बुजं हरेर्भजन्त्रपक्वोऽथ यत्र क्व पतेत्ततो यदि ।
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ।।
“ यदि कोई कृष्णभावनामृत अंगीकार कर लेता है तो भले ही वह शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी । किन्तु यदि वह शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और कृष्णभावनाभावित न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?
” अतः कृष्णभावनामृत के इस स्तर तक पहुँचने के लिए शुद्धिकरण की प्रक्रिया आवश्यक है । अतएव संन्यास या कोई भी शुद्धिकारी पद्धति कृष्णभावनामृत के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है ,क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है ।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६ ॥
कर्म इन्द्रियाणि – पाँचों कर्मेन्द्रियों को ; संयम्य – वश में करके ; यः – जो ; आस्ते – रहता है ; मनसा – मन से ; स्मरन् – सोचता हुआ ; इन्द्रिय–अर्थान् – इन्द्रियविषयों की ; विमूढ – मूर्ख ; आत्मा – जीव ; मिथ्याआचार: – दम्भी ; सः – वह ; उच्यते – कहलाता है ।
जो कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है , किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है , वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।
तात्पर्य :- ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं जो कृष्णभावनामृत में कार्य तो नहीं करते , किन्तु ध्यान का दिखावा करते हैं ,जबकि वास्तव में वे मन में इन्द्रियभोग का चिन्तन करते रहते हैं । ऐसे लोग अपने अबोध शिष्यों को बहकाने के लिए शुष्क दर्शन के विषय में भी व्याख्यान दे सकते हैं , किन्तु इस श्लोक के अनुसार वे सबसे बड़े धूर्त हैं ।
इन्द्रियसुख के लिए किसी भी आश्रम में रहकर कर्म किया जा सकता है , किन्तु यदि उस विशिष्ट पद का उपयोग विधिविधानों के पालन में किया जाय तो व्यक्ति की क्रमशः आत्मशुद्धि हो सकती है । किन्तु जो अपने को योगी बताते हुए इन्द्रियतृप्ति के विषयों की खोज में लगा रहता है , वह सबसे बड़ा धूर्त है , भले ही वह कभी – कभी दर्शन का उपदेश क्यों न दे ।
उसका ज्ञान व्यर्थ है क्योंकि ऐसे पापी पुरुष के ज्ञान के सारे फल भगवान् की माया द्वारा हर लिये जाते हैं । ऐसे धूर्त का चित्त सदेव अशुद्ध रहता है , अतएव उसके यौगिक ध्यान का कोई अर्थ नहीं होता ।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ७॥
यः – जो ; तु – लेकिन ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को ; मनसा – मन के द्वारा ; नियम्य – वश में करके ; आरभते – प्रारम्भ करता है ; अर्जुन – हे अर्जुन ; कर्म – इन्द्रियैः – कर्मेन्द्रियों से ; कर्म – योगम् – भक्ति ; असक्त: – अनासक्त ; सः – वह ; विशिष्यते – श्रेष्ठ है।
दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत ) प्रारम्भ करता है , तो वह अति उत्कृष्ट है।
तात्पर्य : – लम्पट जीवन और इन्द्रियसुख के लिए छद्म योगी का मिथ्या वेष धारण करने की अपेक्षा अपने कर्म में लगे रह कर जीवन – लक्ष्य को , जो भवबन्धन से मुक्त होकर भगवद्धाम को जाना है , प्राप्त करने के लिए कर्म करते रहना अधिक श्रेयस्कर है । प्रमुख स्वार्थ – गति तो विष्णु के पास जाना है ।
सम्पूर्ण वर्णाश्रम धर्म का उद्देश्य इसी जीवन – लक्ष्य की प्राप्ति है । एक गृहस्थ भी कृष्णभावनामृत में नियमित सेवा करके इस लक्ष्य तक पहुँच सकता है । आत्म – साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है । इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है ।
जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है वह उस पाखंडी ( धूर्त ) से कहीं श्रेष्ठ है जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है । जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षासड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है ।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ ८ ॥
नियतम् – नियत ; कुरु – करो ; कर्म – कर्तव्य ; त्वम् तुम ; कर्म – कर्म करना ; ज्याय : – श्रेष्ठ ; हि- निश्चय ही ; अकर्मणः – काम न करने की अपेक्षा ; शरीर – शरीर का ; यात्रा – पालन , निर्वाह ; अपि – भी ; च – भी ; ते – तुम्हारा ; न – कभी नहीं ; प्रसिद्धयेत् – सिद्ध होता ; अकर्मणः – विना काम के।
अपना नियत कर्म करो , क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । कर्म के बिना तो शरीर – निर्वाह भी न हीं हो सकता ।
तात्पर्य : – ऐसे अनेक छद्म ध्यानी हैं जो अपने आपको उच्चकुलीन बताते हैं तथा ऐसे बड़े – बड़े व्यवसायी व्यक्ति हैं जो झूठा दिखावा करते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है । श्रीकृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन मिथ्याचारी बने , अपितु वे चाहते थे कि अर्जुन क्षत्रियों के लिए निर्दिष्ट धर्म का पालन करे ।
अर्जुन गृहस्थ था और एक सेनानायक था , अतः उसके लिए श्रेयस्कर था कि वह उसी रूप में गृहस्थ क्षत्रिय लिए निर्दिष्ट धार्मिक कर्तव्यों का पालन करे । ऐसे कार्यों से संसारी मनुष्य का हृदय क्रमशः विमल हो जाता है और वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है । देह – निर्वाह के लिए किये गये तथाकथित त्याग ( संन्यास ) का अनुमोदन न तो भगवान् करते हैं और न कोई धर्मशास्त्र ही ।
आखिर देह – निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है । भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं । इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है । ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है ।
” अतः भगवद गीता अध्याय 3.1 में नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी ( योगी ) वनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे । “
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