अध्याय दो (Chapter -2)
भगवद गीता अध्याय 2.5 ~ के शलोक 54 से शलोक 72 तक स्थिरबुद्धि प्राणी के लक्षण का वर्णन किया गया है !
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; स्थित-प्रज्ञस्य – कृष्णभावनामृत में स्थिर हुए व्यक्ति की ; का – क्या ; भाषा – भाषा ; समाधि-स्थस्य – समाधि में स्थित पुरुष का ; केशव – हे कृष्ण ; स्थित-धी: – कृष्णभावना में स्थिर व्यक्ति ; किम – क्या ; प्रभाषेत – बोलता है ; किम – कैसे ; आसीत – रहता है ; व्रजेत – चलता है ; किम् – कैसे ।
अर्जुन ने कहा हे कृष्ण ! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति ( स्थितप्रज्ञ ) के क्या लक्षण हैं ? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है ? वह किस तरह बैठता और चलता है ?
तात्पर्य : जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के उसकी विशिष्ट स्थिति के अनुसार कुछ लक्षण होत हैं । उसी प्रकार कृष्णभावनाभावित पुरुष का भी विशिष्ट स्वभाव होता हे यथा उसका बोलना , चलना , सोचना आदि ।
जिस प्रकार धनी पुरुष के कुछ लक्षण होते है , जिनसे वह धनवान जाना जाता है , जिस तरह रोगी अपने रोग के लक्षणों से रुग्ण जाना जाता है या कि विद्वान अपने गुणों से विद्वान् जाना जाता है , उसी तरह कृष्ण की दिव्य चेतना से युक्त व्यक्ति अपने विशिष्ट लक्षणों से जाना जाता है ।
इन लक्षणों को भगवद्गीता से जाना जा सकता है । किन्तु सवसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति किस तरह वोलता है , क्योंकि वाणी ही किसी मनष्य का सवसे महत्त्वपूर्ण गुण है । कहा जाता है कि मूर्ख का पता तव तक नहीं लगता जव तक वह बोलता नहीं ।
एक बने – ठने मुर्ख को तब तक नहीं पहचाना जा सकता जय तक वह वोले नहीं , किन्तु वोलते ही उसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का सर्वप्रमुख लक्षण यह है कि वह केवल कृष्ण तथा उन्हीं से सम्बद्ध विषयों के बारे में बोलता है । फिर तो अन्य लक्षण स्वतः प्रकट हो जाते हैं , जिनका उल्लेख आगे किया गया है ।
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा ; प्रजहाति – त्यागता है ; यदा – जव ; कामान् – इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएँ ; सर्वान – सभी प्रकार की ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; मनः गतान् – मनोरथ का ; आत्मनि – आत्मा की शुद्ध अवस्था में ; एव – निश्चय ही ; आत्मना – विशुद्ध मन से ; तुष्टः – सन्तुष्ट , प्रसन्न ; स्थित प्रज्ञः – अध्यात्म में स्थित ; तदा – उस समय , तव ; उच्यते – कहा जाता है ।
श्रीभगवान् ने कहा – हे पार्थ ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त ( स्थितप्रज्ञ ) कहा जाता है ।
तात्पर्य : श्रीमद्भागवत में पुष्टि हुई है कि जो मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित या भगवद्भक्त होता है उसमें महर्षियों के समस्त सद्गुण पाये जाते हैं , किन्तु जो व्यक्ति अध्यात्म में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने मनोधर्म पर ही आश्रित रहता है ।
फलतः यहाँ यह ठीक ही कहा गया है कि व्यक्ति को मनोधर्म द्वारा कल्पित सारी विषय – वासनाओं को त्यागना होता है | कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं । किन्तु यदि कोई कष्णभावनामत में लगा हो तो सारी विषय – वासनाएं । स्वतः विना किसी प्रयास के दव जाती हैं ।
अतः मनुष्य को विना किसी झिझक के कृष्णभावनामृत में लगना होगा क्योंकि यह भक्ति उसे दिव्य चेतना प्राप्त करने में सहायक होगी । अत्यधिक उन्नत जीवात्मा ( महात्मा ) अपने आपको परमेश्वर का शाश्वत दास मानकर आत्मतुष्ट रहता है । ऐसे आध्यात्मिक पुरुष के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय – वासना फटक नहीं पाती । वह अपने को निरन्तर भगवान का सेवक मानते हुए सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है ।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
दुःखेषु – तीनों तापों में ; अनुद्विग्न-मनाः – मन में विचलित हुए विना ; सुखेषु – सुख में ; विगत स्पृहः – रुचिरहित होने ; वीत – मुक्त ; राग – आसक्ति ; भय – भय ; क्रोधः – तथा क्रोध से ; स्थित धी: – स्थिर मन वाला ; मुनिः – मुनि ; उच्यते – कहलाता है ।
जो त्रय तापों के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति , भय तथा क्रोध से मुक्त है , वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है ।
तात्पर्य : मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिन्तन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे , किन्तु किसी तथ्य पर न पहुँच सके । कहा जाता है कि प्रत्येक मुनि का अपना – अपना दृष्टिकोण होता है और जब तक एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तव तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता ।
न चासावषिर्यस्य मतं न भित्रम् ( महाभारत , वनपर्व ३१३ . ११७ ) किन्तु जिस स्थितधी : मुनि का भगवान ने यहाँ उल्लेख किया है वह सामान्य मुनि से भिन्न है । स्थितधीः मुनि सदैव कृष्णभावनाभावित रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिन्तन पूरा कर चुका होता है ।
वह प्रशान्त निःशेष मनोरथान्तर ( स्तोत्र रत्न ४३ ) कहलाता है या जिसने शुष्कचिन्तन की अवस्था पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि भगवान् श्रीकृष्ण या वासुदेव ही सव कुछ हैं ( वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ) वह स्थिरचित्त मुनि कहलाता है ।
ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तीनों तापों के संघात से तनिक भी विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन कष्टों ( तापों ) को भगवत्कृपा के रूप में लेता है और पूर्व पापों के कारण अपने को अधिक कष्ट के लिए योग्य मानता है और वह देखता है कि उसके सारे दुख भगवत्कृपा से रंचमात्र रह जाते हैं ।
इसी प्रकार जब वह सुखी होता है तो अपने को सुख के लिए अयोग्य मानकर इसका भी श्रेय भगवान् को देता है । वह सोचता है कि भगवत्कृपा से ही वह ऐसी सुखद स्थिति में है और भगवान् की सेवा और अच्छी तरह से कर सकता है ।
और भगवान की सेवा के लिए तो वह सदैव साहस करने के लिए सन्नन्द्र रहता है । वह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता । राग का अर्थ होता है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है ऐसी ऐंद्रिय आसक्ति का अभाव ।
किन्तु कृष्णभावनामृत में स्थिर व्यक्ति में न राग होता है न विराग क्योंकि उसका पूरा जीवन ही भगवत्सेवा में अर्पित रहता है । फलतः सारे प्रयास असफल रहने पर भी वह क्रुद्ध नहीं होता । चाहे विजय हो या न हो , कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने संकल्प का पक्का होता है ।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
यः – जो ; सर्वत्र – सभी जगह ; अनभिस्नेहः – स्नेहशून्य ; तत् – उस ; प्राप्य – प्राप्त करके ; शुभ – अच्छा ; अशुभम् – दुरा ; न – कभी नहीं ; अभिनन्दति – प्रशंसा करता है ; न – कभी नहीं ; दष्टि – द्वेष करता है ; तस्य – उसका ; प्रज्ञा – पूर्ण ज्ञान ; प्रतिष्ठिता – अचल |
इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और नअशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है , वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है ।
तात्पर्य : भौतिक जगत् में सदा ही कुछ न कुछ उथल – पुथल होती रहती है उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा । जो ऐसी उथल – पुथल से विचलित नहीं होता जो अभी ( शुभ ) या बुरे ( अशुभ ) से अप्रभावित रहता है उसे कृष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए । जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत ( द्वंद्वों ) से पूर्ण है ।
किन्तु जो कृष्णभावनामृत में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार कृष्ण से रहता है जो सर्वमंगलमय हैं । ऐसे कृष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थिति प्राप्त कर लेता है , जिसे समाधि कहते हैं ।
यदा संहरते चायं कर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
यदा – जव ; संहरते – समेट लेता है ; च – भी ; अयम् – यह ; कूर्मः – कछुवा ; अगानि – अंग ; इव – सदृश ; सर्वशः – एकसाथ ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ ; इन्द्रिय-अर्थेभ्यः – इन्द्रियविषयों से ; तस्य – उसकी ; प्रज्ञा – चेतना ; प्रतिष्ठिता – स्थिर ।
जिस प्रकार कछुवा अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है , उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है , वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है ।
तात्पर्य : किसी योगी , भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वश में कर सके , किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के दास बने रहते हैं और इन्द्रियों के ही कहने पर चलते हैं |
यह है उत्तर इस प्रश्न का कि योगी किस प्रकार स्थित होता है । इन्द्रियों की तुलना विषेले सौ से की गई है । वे अत्यन्त स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी नियन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं । योगी या भक्त को इन सर्पो को वश में करने के लिए , एक सपेरे की भाँति अत्यन्त प्रबल होना चाहिए ।
वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता । शास्त्रों में अनेक आदेश है , उनमे सकछ ‘ करो ‘ तथा कछ ‘ न करो से सम्बद्ध हैं । जब तक कोई इन ‘ करो या न करो ‘ का पालन नहीं कर पाता और इन्द्रियभोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असम्भव है ।
यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ उदाहरण कछुवे का है । वह किसी भी समय अपने अंग समेट सकता है और पुनः विशिष्ट उद्देश्यों से उन्हें प्रकट कर सकता है । इसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रियाँ भी केवल भगवान् की विशिष्ट सेवाओं के लिए काम आती हैं अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है ।
अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इन्द्रियों को आत्मतुष्टि में । न करके भगवान् की सेवा में लगाये । अपनी इन्द्रियों को सदैव भगवान की सेवा में । लगाये रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टान्त के अनुरूप है , जो अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है ।
विषया विनिवर्तन्तेनिराहारस्यदेहिनः ।
रसवर्जरसोऽप्यस्यपरं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
विषया: – इन्द्रियभोग की वस्तुएँ ; विनिवर्तन्ते – दूर रहने के लिए अभ्यास की जाती हैं ; निराहारस्य – निषेधात्मक प्रतिवन्धों से ; देहिनः – देहवान जीव के लिए ; रस-वर्जम – स्वाद का त्याग करता है ; रसः – भोगेच्छा ; अपि – यद्यपि है ; अस्य – उसका ; परम – अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुएं ; दृष्ट्वा – अनुभव होने पर ; निवर्तते – वह समाप्त हो जाता है ।
देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है । लेकिन उत्तम रस के अनभव होने से ऐसे कार्यो को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है ।
तात्पर्य : जब तक कोई अध्यात्म को प्राप्त न हो तब तक इन्द्रियभोग से विरत होना असम्भव है । विधि – विधानों द्वारा इन्द्रियभोग को संयमित करने की विधि वैसी ही है जैसे किसी रोगी के किसी भोज्य पदार्थ खाने पर प्रतिवन्ध लगाना ।
किन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रति रुचि समाप्त होती है और न वह ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहता है । इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्तियों के लिए इन्द्रियसंयमन के लिए अष्टांग – योग जैसी विधि की संस्तुति की जाती है जिसमें यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान आदि सम्मिलित हैं ।
किन्तु जिसने कृष्णभावनामृत के पथ पर प्रगति के क्रम में परमेश्वर कृष्ण के सौन्दर्य का रसास्वादन कर लिया है , उसे जड़ भौतिक वस्तुओं में कोई रुचि नहीं रह जाती । अतः आध्यात्मिक जीवन में ये सारे प्रतिवन्ध अल्पज्ञानी नवदीक्षितों के लिए हैं । ऐसे प्रतिबन्ध तभी तक ठीक हैं जब तक कृष्णभावनामृत में रुचि जागृत नहीं हो जाती । और जब वास्तव में रुचि जग जाती है , तो मनुष्य में स्वतः ऐसी वस्तुओं के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है ।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥
यततः – प्रबल करते हुए ; हि – निश्चय ही ; अपि – के बावजूद ; कोन्तेय – हे कुन्तीपत्र ; परुषस्य – मनुष्य की ; विपश्चितः – विवेक से युक्तः ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ ; प्रमाथीनि – उत्तेजितः ; हरन्ति – फेंकती हैं ; प्रसभम् – बल से ; मनः – मन को ।
हे अर्जन ! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं , जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है ।
तात्पर्य : अनेक विद्वान् , ऋषि , दार्शनिक तथा अध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयल करते है , किन्तु उनमें से बड़े से बड़ा भी कभी – कभी विचलित मन के कारण इन्द्रियभोग का लक्ष्य बन जाता है । यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि तथा पूर्ण योगी को भी मेनका के साथ विषयभोग में प्रवृत्त होना पहा , यद्यपि वे इन्द्रियनिग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे ।
विश्व इतिहास में इसी तरह के अनेक दृष्टान्त हैं ।अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हुए बिना मन तथा इन्द्रियों को वश में कर सकना अत्यन्त कठिन है । मन को कृष्ण में लगाये विना मनुष्य ऐसे भौतिक कार्यों को बन्द नहीं कर सकता ।परम साधु तथा भक्त यामुनाचार्य ने एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं ।
यदवधि मम चेतः कृष्णपदारविन्द
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तुमासीत् ।
तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सुष्टु निष्ठीवनं च ।
” जव से मेरा मन भगवान् कृष्ण के चरणारविन्दों की सेवा में लग गया है और जब से में नित्य नव दिव्यरस का अनुभव करता रहा हूँ , तव से स्त्री – प्रसंग का विचार आते ही मेरा मन उधर से फिर जाता है और में ऐसे विचार पर थू – थू करता हूँ । ”
कृष्णभावनामृत इतनी दिव्य सुन्दर वस्तु है कि इसके प्रभाव से भौतिक भोग स्वतः नीरस हो जाता है । यह वैसा ही है जैसे कोई भूखा मुनष्य प्रचुर मात्रा में पुष्टिदायक भोजन करके अपनी भूख मिटा ले । महाराज अम्बरीष भी परम योगी दुर्वासा मुनि पर इसीलिए विजय पा सके क्योंकि उनका मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता था ( स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः वांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ) ।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
तानि – उन इन्द्रियों को ; सर्वाणि – समस्त ; संयम्य – वश में करके ; युक्तः – लगा हुआ ; आसीत – स्थित होना चाहिए ;मत – परः – मुझमें ; वशे – पूर्णतया वश में ; हि – निश्चय ही ; यस्य – जिसकी ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ तस्य – उसकी ; प्रज्ञा – चेतना ; प्रतिष्ठिता – स्थिर ।
जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय -संयमन करता है औरअपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है , वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है ।
तात्पर्य : इस श्लोक में बताया गया है कि योगसिद्धि की चरम अनुभूति कृष्णभावनामृत ही है । जब तक कोई कृष्णभावनाभावित नहीं होता तब तक इन्द्रियों को वश में करना सम्भव नहीं है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है , दुर्वासा मुनि का झगड़ा महाराज अम्बरीष से हुआ , क्योंकि वे गर्ववश महाराज अम्बरीष पर ऋद्ध हो गये , जिससे अपनी इन्द्रियों को रोक नहीं पाये ।
दूसरी ओर यद्यपि राजा मुनि के समान योगी न था , किन्तु वह कृष्ण का भक्त था और उसने मुनि के सारे अन्याय सह लिये , जिससे वह विजयी हुआ । राजा अपनी इन्द्रियों को वश में कर सका क्योंकि उसमें निम्नलिखित गुण थे , जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवत में ( ९ . ४ . १८ – २० ) हुआ है
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
करौ हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये । ।
मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तभृत्यगात्रस्पर्श गसंगमम् ।
घ्राणं च तत्यादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते । ।
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हषीकेशपदाभिवन्दने ।
कामं च दास्ये न त कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः । ।
” राजा अम्बरीष ने अपना मन भगवान कृष्ण के चरणारविन्दों पर स्थिर कर दिया , अपनी वाणी भगवान के धाम की चर्चा करने में लगा दी . अपने कानों को भगवान् की लीलाओं के सुनने में , अपने हाथों को भगवान का मन्दिर साफ करने में , अपनी आँखा को भगवान का स्वरूप देखने में , अपने शरीर को भक्त के शरीर का स्पर्श करने में ,
अपनी नाक को भगवान के चरणारविन्दों पर भेंट किये गये फूलों की गंध सूंघन में , अपनी जीभ को उन्हें अर्पित तुलसी दलों का आस्वाद करने में , अपने पाँवों को जहाँ जहाँ भगवान् के मन्दिर हैं उन स्थानों की यात्रा करने में , अपने सिर को भगवान् को नमस्कार करने में तथा अपनी इच्छाओं को भगवान की इच्छाओं को पूरा करने में लगा दिया और इन गुणों के कारण वे भगवान के मत्पर भक्त बनने के योग्य हो गये । “
इस प्रसंग में मत्पर शब्द अत्यन्त सार्थक है । कोई मत्पर किस तरह हो सकता है इसका वर्णन महाराज अम्बरीष के जीवन में बताया गया है । मत्पर परम्परा के महान विद्वान् तथा आचार्य श्रील बलदेव विद्याभूषण का कहना है – मद्भक्ति प्रभावेनसर्वेन्द्रियविजयपूर्विका स्वात्मदृष्टिः सुलभेति भावः इन्द्रियों को केवल कृष्ण की भक्ति के वल से वश में किया जा सकता है ।
कभी – कभी अग्नि का भी उदाहरण दिया जाता है ” जिस प्रकार जलती हुई अग्नि कमरे के भीतर की सारी वस्तुएँ जला देती है उसी प्रकार योगी के हृदय में स्थित भगवान् विष्णु सारे मलों को जला देते हैं ।
” योग – सूत्र भी विष्णु का ध्यान आवश्यक बताता है , शून्य का नहीं । तथाकथित योगी जो विष्णुपद को छोड़ कर अन्य किसी वस्तु का ध्यान धरते हैं वे केवल मृगमरीचिकाओं की खोज में वृथा ही अपना समय गंवाते हैं । “ हमें कृष्णभावनाभावित होना चाहिए – भगवान के प्रति अनुरक्त होना चाहिए । असली योग का यही उद्देश्य है ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ ६२ ॥
ध्यायतः – चिन्तन करते हुए ; विषयान् – इन्द्रिय विषयों को ; न्पुंसः – मनुष्य की ; सङ्गः – आसक्तिः ; तेषु – उन इन्द्रिय विषयों में ; उपजायते – विकसित होती है ; सङ्गात् – आसक्ति से ; सजायते – विकसित होती है ; काम : – इच्छा ; कामात् – काम से ; क्रोधः – क्रोध ; अभिजायते – प्रकट होता है ।
इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है ।
तात्पर्य : जो मनुष्य कृष्णभावनाभावित नहीं है उसमें इन्द्रियविषयों के चिन्तन से भौतिक इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं । इन्द्रियों को किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए और यदि वे भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में नहीं लगी रहेगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना चाहेंगी ।
इस भौतिक जगत में हर एक प्राणी इन्द्रियविषयों के अधीन है , यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी भी । तो स्वर्ग के अन्य देवताओं के विषय में क्या कहा जा सकता है ? इस संसार के जंजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है – कृष्णभावनाभावित होना ।
शिव ध्यानमग्न थे ,किन्तु जव पार्वती ने विषयभोग के लिए उन्हें उत्तेजित किया तो वे सहमत हो गये जिसके फलस्वरूप कार्तिकेय का जन्म हुआ , इसी प्रकार तरुण भगवद्भक्त हरिदास ठाकुर को माया देवी के अवतार ने मोहित करने का प्रयास किया , किन्तु विशुद्ध कृष्ण भक्ति के कारण वे इस कसौटी में खरे उतरे ।
जैसा कि यामुनाचार्य के उपर्युक्त श्लोक में बताया जा चुका है , भगवान् का एकनिष्ठ भक्त भगवान् की संगति के आध्यात्मिक सख का आस्वादन करने के कारण समस्त भौतिक इन्द्रियसख को त्याग देता है । अतः जो कृष्णभावनाभावित नहीं है वह कृत्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो . अन्त में अवश्य असफल होगा . क्योंकि विषय सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा ।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥
विभ्रमः – मोह ; स्मृति – भ्रंशात् – स्मृति के मोह से ;बुद्धि – नाशः – बुद्धि का विनाश ;बुद्धि – नाशात् – तथा बुद्धिनाश से ; प्रणश्यति – अधःपतन होता है ।
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है । जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है , तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव – कूप में पुनः गिर जाता है ।
तात्पर्य : श्रील रूप गोस्वामी ने हमें यह आदेश दिया है –
प्रापचिकतया बद्ध्या हरिसम्बन्धिवस्तुनः ।
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते ।
(भक्तिरसामृत सिन्धु १ . २ . २५८ )
कृष्णभावनामृत के विकास से मनुष्य जान सकता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा के लिए किया जा सकता है । जो कृष्णभावनामृत के ज्ञान से रहित हैं वे कृत्रिम ढंग से भौतिक विषयों से बचने का प्रयास करते हैं , फलतः वे भववन्धन से मोक्ष की कामना करते हुए भी वैराग्य की चरम अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते । उनका तथाकथित वैराग्य फल्गु अर्थात् गौण कहलाता है ।
इसके विपरीत कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा में किस प्रकार किया जाय फलतः वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं होता ।
उदाहरणार्थ , निर्विशेषवादी के अनुसार भगवान् निराकार होने के कारण भोजन नहीं कर सकते , अतः वह अच्छे खाद्यों । से वचता रहता है , किन्तु भक्त जानता है कि कृष्ण परम भोक्ता हैं और भक्तिपूर्वक उन पर जो भी भेंट चढ़ायी जाती है , उसे वे खाते हैं ।
अतः भगवान् को अच्छा भोजन चढ़ाने के बाद भक्त प्रसाद ग्रहण करता है । इस प्रकार हर वस्तु प्राणवान हो जाती है और अधःपतन का कोई संकट नहीं रहता । भक्त कृष्णभावनामृत में रहकर प्रसाद ग्रहण करता है जवकि अभक्त इसे पदार्थ के रूप में तिरस्कार कर देता है ।
अतः निर्विशेषवादी अपने कृत्रिम त्याग के कारण जीवन को भोग नहीं पाता और यही कारण है कि मन के थोड़े से विचलन से वह भव – कूप में पुनः आ गिरता है । कहा जाता है कि मुक्ति के स्तर तक पहुँच जाने पर भी ऐसा जीव नीचे गिर जाता है , क्योंकि उसे भक्ति का कोई आश्रय नहीं मिलता ।
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥
राग – आसक्तिः ; वेष – तथा वैराग्य से ; विमुक्तः – मुक्त रहने वाले से ; तु – लेकिन ; विषयान् – इन्द्रियविषयों को इन्द्रियः – इन्द्रियों के द्वारा ; चरन – भोगता हुआ ; आत्म – वश्यैः – अपने यश में ; विधेय – आत्मा – नियमित स्वाधीनता पालक ; प्रसादम् – भगवत्कृपा को ; अधिगच्छति – प्राप्त करता है ।
किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है ।
तात्पर्य : यह पहले ही बताया जा चुका है कि कृत्रिम विधि से इन्द्रियों पर वाह्यरूप से नियन्त्रण किया जा सकता है , किन्तु जव तक इन्द्रियाँ भगवान की दिव्य सेवा में नहीं लगाई जाती तव तक नीचे गिरने की सम्भावना बनी रहती है ।
यद्यपि पूर्णतया कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऊपर से विषयी – स्तर पर क्यों न दिखे , किन्तु कृष्णभावनाभावित होने से वह विषय – कर्मों में आसक्त नहीं होता । उसका एकमात्र उद्देश्य तो कृष्ण को प्रसन्न करना रहता है , अन्य कुछ नहीं ।अतः वह समस्त आसक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है ।
कृष्ण की इच्छा होने पर भक्त सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है , किन्तु यदि कृष्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो । अतः कर्म करना या न करना उसके वश में रहता है क्योंकि वह केवल कृष्ण के निर्देश के अनुसार ही कार्य करता है । यही चेतना भगवान् की अहेतुकी कृपा है , जिसकी प्राप्ति भक्त को इन्द्रियों में आसक्त होते हुए भी हो सकती है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसत्रचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥
प्रसादे – भगवान् की अहेतुकी कृपा प्राप्त होने पर ;सर्व – सभी ; दुःखानाम् – भौतिक दुखों का ; हानिः – क्षय , नाश ; अस्य – उसके ; उपजायते – होता है ; प्रसन्न – चेतसः – प्रसन्नचित्त वाले की ; हि – निश्चय ही ; आशु – तुरन्त ; बुद्धि : – बुद्धि ; परि – पर्याप्त ; अवतिष्ठते – स्थिर हो जाती है ।
इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में तुष्ट व्यक्ति के लिए संसार के तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं और ऐसी तुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है ।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुत्तः सुखम् ॥ ६६ ॥
न अस्ति – नहीं हो सकती ; बुद्धिः – दिव्य बुद्धि ; अवृत्तास्य – कृष्णभावना से सम्बन्धित न रहने वाले में ; न – नहीं ;च – तथा ; अयुक्तस्य – कृष्णभावना से शून्य पुरुष का ; भावना – स्थिर चित्त ( सखमें) ; न – नहीं ; च – तथाः ; अभावयतः – जो स्थिर नहीं है उसके ; शान्तिः – शान्ति ; अशान्तस्य – अशान्त का ; कुतः – कहाँ है ; सुखम् – सुख
जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है । शान्ति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है ?
तात्पर्य : कृष्णभावनाभावित हुए बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं हो सकती । अतः पाँचवें अध्याय में ( ५ . २९ ) इसकी पुष्टि की गई है कि जब मनुष्य यह समझ लेता है कि कृष्ण ही यज्ञ तथा तपस्या के उत्तम फलों के एकमात्र भोक्ता हैं और समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं तथा वे समस्त जीवों के असली मित्र हैं तभी उसे वास्तविक शान्ति मिल सकती है ।
अतः यदि कोई कृष्णभावनाभावित नहीं है तो उसके मन का कोई अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकता । मन की चंचलता का एकमात्र कारण अन्तिम लक्ष्य का अभाव है । जब मनुष्य को यह पता चल जाता है कि कृष्ण ही भोक्ता , स्वामी तथा सबके मित्र हैं , तो स्थिर चित्त होकर शान्ति का अनुभव किया जा सकता है ।
अतएव जो कृष्ण से सम्बन्ध न रखकर कार्य में लगा रहता है , वह निश्चय ही सदा दुखी और अशान्त रहेगा , भले ही वह जीवन में शान्ति तथा आध्यात्मिक उन्नति का कितना ही दिखावा क्यों न करे । कृष्णभावनामृत स्वयं प्रकट होने वाली शान्तिमयी अवस्था है , जिसकी प्राप्ति कृष्ण के सम्बन्ध से ही हो सकती है ।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥
इन्द्रियाणाम – इन्द्रियों के ; हि – निश्चय ही ; चरताम् – विचरण करते हुए ; यत – जिसके साथ ; मनः – मन ; अनुविधीयते – निरन्तर लगा रहता है ; तत् – वह ; अस्य – इसकी ; हरति – हर लेती है ; प्रज्ञाम् – बुद्धि को ; वायुः – वायु ; नावम् – नाव को ; इव – जैसे ; अम्भसि – जल में ।
जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है , मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है ।
तात्पर्य : यदि समस्त इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में न लगी रहें और यदि इनमें से एक भी अपनी तृप्ति में लगी रहती है , तो वह भक्त को दिव्य प्रगति – पथ से विपथ कर सकती है ।
जैसा कि महाराज अम्बरीष के जीवन में बताया गया है , समस्त इन्द्रियों को कृष्णभावनामृत में लगा रहना चाहिए क्योंकि मन को वश में करने की यही सही एवं । सरल विधि है ।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ८ ॥
तस्मात् – अतः ; यस्य – जिसकी ; महा – बाहो – हे महाबाहुः ; निगृहीतानि – इस तरह वशीभूत ; सर्वशः – सब प्रकार से ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ ; इन्द्रिय – अर्थेभ्यः – इन्द्रियविषयों से ; तस्य – उसकी ; प्रज्ञा – बुद्धि ; प्रतिष्ठिता – स्थिर ।
अतः हे महाबाहु ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने – अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं , उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनामत के द्वारा या सारी इन्द्रियों को भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगाकर इन्द्रियतृप्ति की वलवती शक्तियों को दमित किया जा सकता है । जिस प्रकार शत्रुओं का दमन श्रेष्ठ सेना द्वारा किया जाता है उसी प्रकार इन्द्रियों का दमन किसी मानवीय प्रयास के द्वारा नहीं , अपितु उन्हें भगवान की सेवा में लगाये रखकर किया जा सकता है ।
जो व्यक्ति यह हृदयंगम कर लेता है कि कृष्णभावनामृत के द्वारा वुद्धि स्थिर होती है और इस कला का अभ्यास प्रामाणिक गुरु के पथ – प्रदर्शन में करता है , वह साधक अथवा मोक्ष का अधिकारी कहलाता है ।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥
या – जो ; निशा – रात्रि है ; सर्व – समस्त ; भूतानाम् – जीवों की ; तस्याम् – उसमें ; जागर्ति – जागता रहता है ; संयमी – आत्मसंयमी व्यक्तिः ; यस्याम – जिसमें ; जाग्रति – जागते हैं ; भूतानि – सभी प्राणी ; सा – वह ; निशा – रात्रि ; पश्यतः – आत्मनिरीक्षण करने वाले ; मुनेः – मुनि के लिए ।
जो सब जीवों के लिए रात्रि है , वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है ।
तात्पर्य :- बुद्धिमान् मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं । एक श्रेणी के मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक हैं , जो आत्म – साक्षात्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं । विचारवान पुरुषों या आत्मनिरीक्षक मनि के कार्य भौतिकता में लीन परुषों के लिए रात्रि के समान हैं ।
भौतिकतावादी व्यक्ति ऐसी रात्रि में अनभिज्ञता के कारण आत्म – साक्षात्कार के प्रति सोये रहते हैं । आत्मनिरीक्षक मुनि भौतिकतावादी पुरुषों की रात्रि में जागे रहते हैं ।
मुनि को आध्यात्मिक अनुशीलन की क्रमिक उन्नति में दिव्य आनन्द का अनुभव होता है , किन्तु भौतिकतावादी कार्यों में लगा व्यक्ति , आत्म – साक्षात्कार के प्रति सोया रहकर अनेक प्रकार के इन्द्रियसुखों का स्वप्न देखता है और उसी सुप्तावस्था में कभी सुख तो कभी दुख का अनुभव करता है ।
आत्मनिरीक्षक मनुष्य भौतिक सुख तथा दुख के प्रति अन्यमनस्क रहता है । वह भौतिक घातों से अविचलित रहकर आत्म – साक्षात्कार के कार्यों में लगा रहता है ।
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥
आपूर्यमाणम् – नित्य परिपूर्ण ; अचल – प्रतिष्ठम् – दृढ़तापूर्वक स्थित ; समुद्रम् – समुद्र में ; आपः – नदियाँ ; प्रविशन्ति – प्रवेश करती हैं ; यद्वत् – जिस प्रकार ; तद्वत – उसी प्रकार ; कामाः – इच्छाएँ ; यम् – जिसमें ; प्रविशन्ति – प्रवेश करती हैं ; सर्वे – सभीः ; सः – वह व्यक्तिः ; शान्तिम् – शान्ति ; आप्नोति – प्राप्त करता है ; न – नहीं ; काम – कामी – इच्छाओं को पूरा करने का इच्छुक ।
जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है , वही शान्ति प्राप्त कर सकता है , वह नहीं , जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो।
तात्पर्य :- यद्यपि विशाल सागर में सदैव जल रहता है , किन्तु , वर्षा ऋतु में विशेषतया बह अधिकाधिक जल से भरता जाता है तो भी सागर उतने पर ही स्थिर रहता है । न तो वह विक्षुब्ध होता है और न तट की सीमा का उल्लंघन करता है । यही स्थिति कृष्णभावनाभावित व्यक्ति की है ।
जब तक मनुष्य शरीर है , तब तक इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर की माँगें बनी रहेंगी । किन्तु भक्त अपनी पूर्णता के कारण ऐसी इच्छाओं से विचलित नहीं होता, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भगवान् उसकी सारी आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं ।
अतः वह सागर के तुल्य होता है अपने में सदैव पूर्ण | सागर में गिरने वाली नदियों के समान इच्छाएँ उसके पास आ सकती हैं , किन्तु वह अपने कार्य में स्थिर रहता है और इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रंचभर भी विचलित नहीं होता | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का यही प्रमाण है इच्छाओं के होते हुए भी वह कभी इन्द्रियतृप्ति के लिए उन्मुख नहीं होता |
चूँकि वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में तुष्ट रहता है , अतः वह समुद्र की भाँति स्थिर रहकर पूर्ण शान्ति का आनन्द उठा सकता है । किन्तु दूसरे लोग , जो मुक्ति की सीमा तक इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं , फिर भौतिक सफलताओं का क्या कहना – उन्हें कभी शान्ति नहीं मिल पाती ।
कर्मी , मुमुक्षु तथा वे योगी – सिद्धि के कामी हैं , ये सभी अपूर्ण इच्छाओं के कारण दुखी रहते हैं । किन्तु कृष्णभावनाभावित पुरुष भगवत्सेवा में सुखी रहता है और उसकी कोई इच्छा नहीं होती । वस्तुतः वह तो तथाकथित भवबन्धन से मोक्ष की भी कामना नहीं करता । कृष्ण के भक्तों की कोई भौतिक इच्छा नहीं रहती , इसलिए वे पूर्ण शान्त रहते हैं ।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥
विहाय – छोड़कर ; कामान् – इन्द्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाएँ ; यः – जोः ; सर्वान – समस्तः पुमान् – पुरुष ; चरति – रहता है ; नि : स्पृहः – इच्छारहित ; निर्ममः – ममतारहित ; निरहङ्कारः – अहंकारशून्य ; सः – वह ; शान्तिम् – पूर्ण शान्ति को ; अधिगच्छति – प्राप्त होता है ।
जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है , जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है , वही वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकता है ।
तात्पर्य :- निस्पृह होने का अर्थ है – इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना । दूसरे शब्दों में , कृष्णभावनाभावित होने की इच्छा वास्तव में इच्छाशुन्यता या निस्पृहता है | इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने विना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे विना श्रीकृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना कृष्णभावनामृत की सिद्ध अवस्था है ।
जो इस सिद्ध अवस्था में स्थित है वह जानता है कि श्रीकष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं , अतः प्रत्येक वस्त का उपयोग उनकी तष्टि के लिए किया जाना चाहिए ।अर्जुन आत्म – तुष्टि के लिए युद्ध नहीं करना चाहता था , किन्तु जब वह पूर्ण रूप से कृष्णभावनाभावित हो गया तो उसने युद्ध किया , क्योंकि कृष्ण चाहते थे कि वह युद्ध करे उसे अपने लिए युद्ध करने की कोई इच्छा न थी , किन्तु वही अर्जुन कृष्ण के लिए अपनी शक्ति भर लड़ा ।
वास्तविक इच्छाशुन्यता कृष्ण तुष्टि के लिए इच्छा है , यह इच्छाओं को नष्ट करने का कोई कृत्रिम प्रयास नहीं है । जीव कभी भी इच्छाशून्य या इन्द्रियशून्य नहीं हो सकता , किन्तु उसे अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता बदलनी होती है । भौतिक दृष्टि से इच्छाशून्य व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है ( ईशावास्यमिदं सर्वम् ) , अतः वह किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व घोषित नहीं करता ।
यह दिव्य ज्ञान आत्म – साक्षात्कार पर आधारित है अर्थात इस ज्ञान पर कि प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश – स्वरूप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो कृष्ण के तल्य होती है न उनसे बढ़कर | इस प्रकार कृष्णभावनामृत का यह ज्ञान ही वास्तविक शान्ति का मूल सिद्धान्त है ।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥
एषा – यह ; ब्राह्मी – आध्यात्मिक ; स्थितिः – स्थिति ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; न – कभी नहीं ; एनाम् – इसको ; प्राप्य – प्राप्त करके ; विमुह्यति – मोहित होता है ; स्थित्वा – स्थित होकर ; अस्याम् – इसमें ; अन्त काले – जीवन के अन्तिम समय में ; अपि – भी ; ब्रह्म – निर्वाणम् – भगवद्धाम को ; ऋच्छति – प्राप्त होता है ।
यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है , जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता । यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस तरह स्थित हो , तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है ।
तात्पर्य :- मनुष्य कृष्णभावनामृत या दिव्य जीवन को एक क्षण में प्राप्त कर सकता है । और हो सकता है कि उसे लाखों जन्मों के बाद भी न प्राप्त हो । यह तो सत्य को समझने और स्वीकार करने की वात है । खट्वांग महाराज ने अपनी मृत्यु के कुछ मिनट पूर्व कृष्ण के शरणागत होकर ऐसी जीवन अवस्था प्राप्त कर ली । निर्वाण का अर्थ है भौतिकतावादी जीवन शैली का अन्त ।
बौद्र दर्शन के अनुसार इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर केवल शून्य शेष रहता है , किन्तु भगवद्गीता की शिक्षा इससे मित्र है । वास्तविक जीवन का शुभारम्भ इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर होता है । स्थूल भौतिकतावादी के लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि इस भौतिक जीवन का अन्त निश्चित है , किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्तियों के लिए इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारम्भ होता है ।
इस जीवन का अन्त होने के पूर्व यदि कोई कृष्णभावनाभावित हो जाय तो उसे तुरन्त ब्रह्म – निर्वाण अवस्था प्राप्त हो जाती है | भगवद्धाम तथा भगवद्भक्ति के वीच कोई अन्तर नहीं है । चूंकि दोनों चरम पद हैं , अतः भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में व्यस्त रहने का अर्थ है – भगवद्धाम को प्राप्त करना । भौतिक जगत् में इन्द्रियतृप्ति विषयक कार्य होते हैं और आध्यात्मिक जगत् में कृष्णभावनामृत विषयक ।
इसी जीवन में ही कृष्णभावनामृत की प्राप्ति तत्काल ब्रह्मप्राप्ति जैसी है और जो कृष्णभावनामृत में स्थित होता है , वह निश्चित रूप से पहले ही भगवद्धाम में प्रवेश कर चुका होता है । ब्रह्म और भौतिक पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा विपरीत है । अतः ब्राह्मी – स्थिति का अर्थ है , “ भौतिक कार्यों के पद पर न होना । ” भगवद्गीता में भगवद्भक्ति को मुक्त अवस्था माना गया है ( सगुणान्समतीत्यैतान ब्रह्मभूयाय कल्पते ) । अतः ब्राह्मी – स्थिति भौतिक बन्धन से मुक्ति है ।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने भगवद्गीता के इस द्वितीय अध्याय को सम्पूर्ण ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय के रूप में संक्षिप्त किया है । भगवद्गीता के प्रतिपाद्य है – कर्मयोग , ज्ञानयोग तथा भक्तियोग । इस द्वितीय अध्याय में कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की स्पष्ट व्याख्या हुई है एवं भक्तियोग की भी झाँकी दे दी गई है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय ” गीता का सार ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
और भी पढ़े :
* Sanskrit Counting from 1 To 100 * Sanskrit Counting 100 to 999 * Sanskrit language Introduction
* श्री गणेश जी की आरती * विष्णु जी की आरती * शिव जी की आरती * हनुमान जी की आरती * लक्ष्मी जी की आरती * दुर्गा जी की आरती * आरती कुंजबिहारी की * सरस्वती आरती * गायत्री माता की आरती * सत्यनारायण आरती * श्री रामचंद्र आरती * साईं बाबा की आरती
* सम्पूर्ण भगवद गीता हिंदी में~ Powerful Shrimad Bhagavad Gita in Hindi 18 Chapter