अध्याय दो (Chapter -2)
भगवद गीता अध्याय 2.3 ~ क्षत्रिय धर्म के शलोक 31 से शलोक 38 तक क्षत्रिय धर्म और क्षत्रिय धर्म के नियम का वर्णन किया गया है !
स्वधर्ममपि चावेश्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धाद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
स्व – धर्मम् – अपने धर्म का ; अपि – भी ; च – निस्सन्देह , अवश्य विचार करके ; न – कभी नहीं ; विकम्पितुम् – संकोच करने के लिए ; अहसि – तुम योग्य हो ; धाति – धर्म के लिए ; हि – निस्सन्देहा ; युद्धात् – युद्ध करने की अपेक्षा ; श्रेया – श्रेष्ठ साधन ; अन्यत् – कोई दूसरा ; क्षत्रियस्य – क्षत्रिय का ; न – नहीं ; विद्यते – है ।
क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है । अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
तात्पर्य : सामाजिक व्यवस्था के चार वर्णों में द्वितीय वर्ण उत्तम शासन के लिए है और क्षत्रिय कहलाता है । क्षत् का अर्थ है चोट खाया हुआ । जो क्षति से रक्षा करे बह क्षत्रिय कहलाता है ( त्रायते- रक्षा प्रदान करना ) । क्षत्रियों को बन में आखेट करने का प्रशिक्षण दिया जाता है ।
क्षत्रिय जंगल में जाकर शेर को ललकारता और उससे आमने – सामने अपनी तलवार से लड़ता था । शेर की मृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अन्त्येष्टि की जाती थी । आज भी जयपुर रियासत के क्षत्रिय राजा इस प्रथा का पालन करते हैं । क्षत्रियों को विशेष रूप से ललकारने तथा मारने की शिक्षा दी जाती है क्योंकि कभी कभी धार्मिक हिंसा अनिवार्य होती है ।
इसलिए क्षत्रियों को सीधे संन्यासाश्रम ग्रहण करने विधान नहीं है । राजनीति में अहिंसा कूटनीतिक चाल हो सकती है , किन्तु यह कभा की कारण या सिद्धान्त नहीं रही । क्षत्रिय धर्म श्लोक संहिताओं में उल्लेख मिलता है
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः ।
युद्धमानाः परं शक्या स्वर्ग यान्त्यपराङमखाः । ।
यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन् हन्यन्ते सततं द्विजः ।
संस्कताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नवन । ।
” युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक प्राप्त होते हैं जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गये पशुओं को होती है । ” अतः धर्म के लिए युद्धभूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें निहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है और यज्ञ में बलि दिये गये पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकास प्रक्रिया के ही तुरन्त मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है ।
इसी तरह युद्धभूमि में मारे गये क्षत्रिय यज्ञ सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं । स्वधर्म दो प्रकार का होता है । जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता तब तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म के अनुसार शरीर विशेष के कर्तव्य करने होते हैं । जब वह मुक्त हो जाता है तो उसका विशेष कर्तव्य या स्वधर्म आध्यात्मिक हो जाता है और देहात्मबुद्धि में नहीं रहता । जब तक देहात्मवुद्धि है तब तक ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए स्वधर्म पालन अनिवार्य होता है ।
स्वधर्म का विधान भगवान द्वारा होता है , जिसका स्पष्टीकरण चतुर्थ अध्याय में किया जायेगा । शारीरिक स्तर पर स्वधर्म को वर्णाश्रम धर्म अथवा आध्यात्मिक बोध का प्रथम सोपान कहते हैं । वर्णाश्रमधर्म अर्थात् प्राप्त शरीर के विशिष्ट गुणों पर आधारित स्वधर्म की अवस्था से मानवीय सभ्यता का शुभारम्भ होता है । वर्णाश्रम धर्म के अनुसार किसी कार्य – क्षेत्र में स्वधर्म का निर्वाह करने से जीवन के उच्चतर पद को प्राप्त किया जा सकता है ।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
यदृच्छया – अपने आप ; च – भी ; उपपन्नम् – प्राप्त हुए ;स्वर्ग – स्वर्गलोक का ; द्वारम् – दरवाजा ; अपावृतम् – खुला हुआ ; सुखिन : – अत्यन्त सुखा ; क्षात्रया – राजप सखिनः अत्यन्त सखी : क्षत्रियाः – राजपरिवार के सदस्य ; पार्थ – हे पृथापुत्रः मन्त – प्राप्त करते हैं ; युद्धम् – युद्ध को ; ईदृशम् – इस तरह ।
हेपार्थ ! वे क्षत्रिय सखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं । जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं ।
तात्पर्य : विश्व के परम गुरु भगवान कृष्ण अर्जुन की इस प्रवृत्ति की भर्त्सना करते हैं जब वह कहता है कि उसे इस युद्ध में कुछ भी तो लाभ नहीं दिख रहा है । इससे नरक में शाश्वत वास करना होगा । अर्जुन द्वारा ऐसे वक्तव्य केवल अज्ञानजन्य थे । वह अपने स्वधर्म के आचरण में अहिंसक बनना चाह रहा था , किन्तु एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में स्थित होकर इस प्रकार अहिंसक बनना मुखाँ का दर्शन है । पराशर – स्मृति में व्यासदेव के पिता पराशर ने कहा है
क्षत्रियो हि प्रजारक्षन शस्त्रपाणिः प्रदण्डयन ।
निर्जित्य परसैन्यादि क्षितिं धर्मण पालयेत ॥
” क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे | इसीलिए उसे शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है । अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए । ” यदि सभी पक्षों पर विचार करें तो अर्जुन को युद्ध से विमुख होने का कोई कारण नहीं था । यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जायेगा जिसके द्वार उसके लिए खुले हुए हैं । युद्ध करने से उसे दोनों ही तरह लाभ होगा ।
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
अथ – अतः ; चेत् – यदि ; त्वम् – तुम ; इमम् – इस ; धर्म्यम् – धर्म रूपी ; संग्रामम् – युद्ध को ; न – नहीं ; करिष्यसि – करोगे ; ततः – तब ; स्व – धर्मम् – अपने धर्म को ; कीर्तिम् – यश को ; च – भी ; हित्वा – खोकर ; पापम् – पापपूर्ण फल को ; अवाप्यसि – प्राप्त करोगे ।
किन्तु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को सम्पन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे ।
तात्पर्य : अर्जुन विख्यात योद्धा था जिसने शिव आदि अनेक देवताओं से युद्ध करके यश अर्जित किया था । शिकारी के वेश में शिवजी से युद्ध करके तथा उन्हें हरा कर अर्जुन ने उन्हें प्रसन्न किया था और वर के रूप में पाशपतास्त्र प्राप्त किया था ।
सभी लोग जानते थे कि वह एक महान योद्धा है । स्वयं द्रोणाचार्य ने उसे आशीष दिया था और एक विशेष अस्त्र प्रदान किया था , जिससे वह अपने गुरु का भी वध कर सकता था ।
इस प्रकार वह अपने धर्मपिता एवं स्वर्ग के राजा इन्द्र समेत अनेक अधिकारियों से अनेक यों के प्रमाणपत्र प्राप्त कर चुका था , किन्तु यदि वह इस समय युद्ध का परित्याग करता है , तो वह न केवल क्षत्रिय धर्म की उपेक्षा का दोषी होगा , अपितु उसके यश की भी हानि होगी और वह नरक जाने के लिए अपना मार्ग तैयार कर लेगा । दूसरे शब्दों में , वह युद्ध करने से नहीं , अपितु युद्ध से पलायन करने के कारण नरक का भागी होगा ।
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिमरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥
अकीर्तिम् – अपयश ; च – भी ; अपि – इसके अतिरिक्त ; भूतानि – सभी लोग ; कथयिष्यन्ति – कहेंगे ; ते – तुम्हारे ; अव्ययाम – सदा के लिए ; सम्भावितस्य – सम्मानित व्यक्ति के लिए ; च – भी ; अकीर्तिः – अपयश , अपकीर्ति ; मरणात् – मृत्य से भी ; अतिरिच्यते – अधिक होती है ।
लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है ।
तात्पर्य : अब अर्जुन के मित्र तथा गुरु के रूप में भगवान् कृष्ण अर्जुन को युद्ध से विमुख न होने का अन्तिम निर्णय देते हैं । वे कहते हैं , ” अर्जुन ! यदि तुम युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व ही यूद्धभूमि छोड़ देते हो तो लोग तुम्हें कायर कहेंगे ।
और यदि तुम सोचते हो कि लोग गाली देते रहें , किन्तु तुम युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचा लोगे तो मेरी सलाह है कि तुम्हें युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा ।
तुम जैसे सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बुरी है । अतः तुम्हें प्राणभय से भागना नहीं चाहिए , युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा । इससे तुम मेरी मित्रता का दुरुपयोग करने तथा समाज में अपनी प्रतिष्ठा खोने के अपयश से बच जाओगे । ” | अतः अर्जुन के लिए भगवान् का अन्तिम निर्णय था कि वह संग्राम से पलायन न करे अपितु युद्ध में मरे ।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
भयात् – भय से ; रणात् – युद्धभूमि से ; उपरतम् – विमुख ; मंस्यन्ते – मानेंगे ; त्वाम् – तुमको ; महारथाः – बड़े – बड़े योद्धा ; येषाम् – जिनके लिए ; च – भी ; त्वम् – तुम ; बहु-मतः – अत्यन्त सम्मानित ; भूत्वा – हो कर ; यास्यसि – जाओगे ; लाघवम् – तुच्छता को ।
जिन – जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे ।
तात्पर्य : भगवान् कृष्ण अर्जुन को अपना निर्णय सुना रहे हैं , ” तुम यह मत सोचो कि दुर्योधन , कर्ण तथा अन्य समकालीन महारथी यह सोचेंगे कि तुमने अपने भाइयों तथा पितामह पर दया करके युद्धभूमि छोड़ी है । वे तो यही सोचेंगे कि तुमने अपने प्राणों के भय से युद्धभूमि छोड़ी है । इस प्रकार उनकी दृष्टि में तुम्हारे प्रति जो सम्मान है वह धुल में मिल जायेगा । ”
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
अवाच्य – कटुः ;वादान – मिथ्या शब्द ; च – भी ;बहून् – अनेक ; वदिष्यन्ति – कहेंगे ; तव – तुम्हारे ; अहिताः – शत्रु ;निन्तन्तः – निन्दा करते हुए ; तब – तुम्हारी ; सामर्थ्यम् – सामर्थ को ; ततः – उसकी अपेक्षा ; दुःख – तरम् – अधिक दुखदायी ;नु – निस्सन्देह , किम् – क्या है ।
तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे । तुम्हारे लिए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है?
तात्पर्य : प्रारम्भ में ही भगवान कृष्ण को अर्जुन के अयाचित दयाभाव पर आश्चर्य हुआ था और उन्होंने इस दयाभाव को अनायोचित बताया था । अब उन्होंने विस्तार से अर्जुन के तथाकथित दयाभाव के विरुद्ध कहे गये अपने बचनों को सिद्ध कर दिया है ।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
हतो – मारा जा कर ; वा – या तो ; प्रापयसि – प्राप्त करोगे ; स्वर्गम् – स्वर्गलाक को ; जित्वा – विजयी होकर ; बा – अथवा ; भोक्ष्यसे – भोगोंगे ; महीम् – पृथ्वी को ; तस्मात्-अतः-उत्तिष्ठ – उठो ; कोन्तेय – कुन्तीपुत्र ; युद्धाय – लड़ने के लिए ; कृत – दक ; निश्चयः – संकल्प से ।
हे कुन्तीपुत्र ! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि तुम जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे । अतः दृढ़ संकल्प करके खड़े होओ और युद्ध करो ।
तात्पर्य : वधपि अर्जुन के पक्ष में विजय निश्चित न थी फिर भी उसे युद्ध करना था , क्योंकि यदि वह युद्ध में मारा भी गया तो वह स्वर्गलोक को जायेगा ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभी जयाजयो ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
सुखदुःखे – सुख तथा दुख में ; समे – समभाव से ; कृत्वा – करके ; लाभ – अलाभो – लाभ तथा हानि दोनों ; जयजयों – विजय तथा पराजय दोनों ; ततः – तत्पश्चातः ; युद्धाय – युद्ध करने के लिए ; युज्यस्व – लगों ( लो ) ; न – कभी नहीं ; एवम् – इस तरह ; पापम् – पाप ; अवाप्पयसि – प्राप्त करोगे ।
तुम सुख या दुख , हानि या लाभ , विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो । ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा ।
तात्पर्य : अव भगवान कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि अर्जुन को युद्ध के लिए युद्ध करना चाहिए क्योंकि यह उनकी इच्छा है । कृष्णभावनामृत के कार्यो में सुख या दुख , हानि या लाभ , जय या पराजय को कोई महत्व नहीं दिया जाता । दिव्य चेतना तो यही होगा कि हर कार्य कृष्ण के निमित्त किया जाय , अतः भौतिक कार्यों का काई बन्धन ( फल ) नहीं होता ।
जो कोई सतोगण या रजोगुण के अधीन होकर अपनी इन्द्रियताप्त कालए कम करता है उसे अच्छे या बरे फल प्राप्त होते है किन्तु जो कृष्णभावनामृत के कार्यों में अपने आपको समर्पित कर देता है वह सामान्य कर्म करने वाले के समान किसी का कृतज्ञ या कृणी नहीं होता । भागवत में क्षत्रिय संस्कृत श्लोक ( ११ . ५ . ४१ ) कहा गया है
देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किरो नायमृणीच राजन् ।
सर्वात्मना शरण शरण्यं गतो मुकुन्द परिहत्य कर्तम् ।
” जिसने अन्य समस्त कार्यो को त्याग कर मुकुन्द श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो किसी का ऋणी है और न किसी का कृतज्ञ – चाहे वे देवता, साधु, सामान्यजन, अथवा परिजन, मानवजाति या उसके पितर ही क्यों न हो ।
भगवद गीता अध्याय 2.3 ~ क्षत्रिय धर्म श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को सुख या दुख , हानि या लाभ , विजय या पराजय का भौतिक कार्यों का काई बन्धन नहीं होता ,अप्रत्यक्ष रूप से इसी का संकेत किया है । इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में और भी स्पष्टता से की जायेगी।
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