अध्याय 2 (Chapter -2)
भगवद गीता अध्याय 2.2 ~ के शलोक 11 से शलोक 30 तक गीता शास्त्र का उपदेश का वर्णन किया गया है !
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतातूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान ने कहा ; अशोच्यान् – जो शोक के योग्य नहीं हैं ; अन्वशोचः – शोक करते हो ; त्वम् – तुम ; प्रज्ञावादान – पाण्डित्यपूर्ण बातें ; च – भी ; भाषसे – कहते हो ; गत – चले गये ; असून – प्राण ; अगत – नहीं गये ; असून – प्राण ; च – भी ; न – कभी नहीं ; अनुशोचन्ति – शोक करते हैं ; पण्डिताः – विद्वान् लोग ।
श्री भगवान् ने कहा तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहेहो जो शोक करने योग्य नहीं हैं । जो विद्वान् होते हैं , वे न तो जीवित के लिए , न ही मृत के लिए शोक करते हैं ।
तात्पर्य : भगवान् ने तत्काल गुरु का पद सँभाला और अपने शिष्य को अप्रत्यक्षतः मुर्ख कह कर डाँटा । उन्होंने कहा , ” तुम विद्वान् की तरह बातें करते हो , किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान् होता है अर्थात् जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या हैं वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए , चाहे वह जीवित हो या मृत – शोक नहीं करता । “
अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं इन दोनों के नियामक को जानना है । अर्जुन का तर्क था कि राजनीति या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्त्व मिलना चाहिए , किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ , आत्मा तथा परमेश्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है ।और चूंकि उसमें इस ज्ञान का अभाव था , अतः उसे विद्वान् नहीं बनना चाहिए था ।
और चूंकि वह अत्यधिक विद्वान् नहीं था इसलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था । यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है . अतः शरीर उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है । जो इस तथ्य को जानता है वही असली विद्वान् है और उसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता ।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ॥
न – नहीं ; तु – लेकिन ; एव – निश्चय ही ; अहम् – मैं ; जातु – किसी काल में ; न – नहीं ; आसम् – था ; न – नहीं ; त्वम् – तुम ; न – नहीं ; इमे – ये सव ; जन – अधिपा राजागण ; न – कभी नहीं ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; न – नहीं ; भविष्यामः – रहेंगे ; सर्वे वयम् – हम सब ; अतः परम् – इससे आगे ।
ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों ; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे ।
तात्पर्य : वेदों में , कठोपनिषद में तथा श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी कहा गया है कि जो श्रीभगवान् असंख्य जीवों के कर्म तथा कर्मफल के अनुसार उनकी अपनी – अपनी परिस्थितयों में पालक , वही भगवान अंश रूप में हर जीव के हृदय में वास कर रहे हैं । केवल साधु पुरुष , जो एक ही ईश्वर को भीतर – बाहर देख सकते हैं , पूर्ण एवं शाश्वत शान्ति प्राप्त कर पाते हैं ।
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥
जो वैदिक ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया गया वही विश्व के उन समस्त पुरुषों को प्रदान किया जाता है जो विद्वान होने का दावा तो करते हैं किन्तु जिनकी ज्ञानराशि न्यून है । भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं कि वे स्वयं , अर्जुन तथा युद्धभूमि में एकत्र सारे राजा शाश्वत प्राणी हैं और इन जीवों की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाओं में भगवान् ही एकमात्र उनके पालक हैं । भगवान परम परुष हैं तथा भगवान का चिर संगी अर्जन एवं वहा पर एकत्र सारे राजागण शाश्वत पुरुष हैं ।
ऐसा नहीं है कि ये भूतकाल में प्राणियों के रूप में अलग – अलग उपस्थित नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि ये शाश्वत पुरुष बने नहीं रहेंगे । उनका अस्तित्व भूतकाल में था और भविष्य में भी निर्वाध रूप से वना रहेगा । अतः किसी के लिए शोक करने की कोई बात नहीं है । यह मायावादी सिद्धान्त कि मुक्ति के बाद आत्मा माया के आवरण से पृथक होकर निराकार ब्रह्म में लीन हो जायेगा और अपना अस्तित्व खो देगा यहाँ पर परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता ।
न ही इस सिद्धान्त का समर्थन हो पाता है कि बद्ध अवस्था में ही हम अस्तित्व का चिन्तन करते हैं । यहाँ पर कृष्ण स्पष्टतः कहते हैं कि भगवान् तथा अन्यों का अस्तित्व भविष्य में भी अक्षुण्ण रहेगा जिसकी पुष्टि उपनिषदों द्वारा भी होती है । कृष्ण का यह कथन प्रामाणिक है क्योंकि कृष्ण मायावश्य नहीं हैं । यदि अस्तित्व तथ्य न होता तो फिर कृष्ण इतना बल क्यों देते और वह भी भविष्य के लिए मायावादी यह तर्क कर सकते हैं कि कृष्ण द्वारा कथित अस्तित्व आध्यात्मिक न होकर भौतिक है ।
यदि हम इस तर्क को , कि अस्तित्व भौतिक होता है , स्वीकार कर भी लें तो फिर कोई कृष्ण के अस्तित्व को किस प्रकार पहचानेगा ? कृष्ण भूतकाल में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं और भविष्य में भी अपने अस्तित्व की पुष्टि करते हैं । उन्होंने अपने अस्तित्व की पुष्टि कई प्रकार से की है और निराकार ब्रह्म उनके अधीन घोषित किया जा चुका है ।
कृष्ण सदा सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये रहे हैं । यदि उन्हें सामान्य चेतना वाले सामान्य व्यक्ति के रूप में माना जाता है तो प्रामाणिक शास्त्र के रूप में उनकी भगवद्गीता की कोई महत्ता नहीं होगी । एक सामान्य व्यक्ति मनुष्यों के चार अवगुणों के कारण श्रवण करने योग्य शिक्षा देने में असमर्थ रहता है । गीता ऐसे साहित्य से ऊपर है । कोई भी संसारी ग्रंथ गीता की तुलना नहीं कर सकता | श्रीकृष्ण को सामान्य व्यक्ति मान लेने पर गीता की सारी महत्ता जाती रहती है।
मायावादियों का तर्क है कि इस श्लोक में वर्णित द्वैत लौकिक है और शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है । किन्तु इसके पहले वाले श्लोक में ऐसी देहात्मवुद्धि की निन्दा की गई है । एक बार जीवों की देहात्मवुद्धि की निन्दा करने के बाद यह कैसे सम्भव है कि कृष्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को दुहराते ?अतः यह अस्तित्व आध्यात्मिक आधार पर स्थापित है और इसकी पुष्टि रामानुजाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने भी की है ।
गीता में कई स्थलों पर इसका उल्लेख है कि यह आध्यात्मिक अस्तित्व केवल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है । जो लोग भगवान् कृष्ण का विरोध करते हैं उनकी इस महान साहित्य तक पहुँच नहीं हो पाती । अभक्तों द्वारा गीता के उपदेशों को समझने का प्रयास मधुमक्खी द्वारा मधुपात्र चाटने के सदृश है ।
पात्र को खोले बिना मधु को नहीं चखा जा सकता । इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाद को केवल भक्त ही समझ सकते हैं , अन्य कोई नहीं , जैसा कि इसके चतुर्थ अध्याय में कहा गया है । न ही गीता का स्पर्श ऐसे लोग कर पाते हे जो भगवान के अस्तित्व का ही विरोध करते हैं । अतः मायावादियों द्वारा गीता की व्याख्या मानो समग्र सत्य का सरासर भ्रामक निरूपण है ।
भगवान् चैतन्य ने मायावादियों द्वारा की गई गीता की व्याख्याओं को पढ़ने का निषेध किया है और चेतावनी दी है कि जो कोई ऐसे मायावादी दर्शन को ग्रहण करता है वह गीता के वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ रहता है । यदि अस्तित्व का अभिप्राय अनुभवगम्य ब्राण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं थी । आत्मा तथा परमात्मा का द्वैत शाश्वत तथ्य है और इसकी पुष्टि वेदों द्वारा होती है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है ।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
देहिनः – शरीरधारी की ; अस्मिन् – इसमें ; यथा – जिस प्रकार ; देहे – शरीर में ; यौवनम् – यौवन , तारुण्य ; जरा – वृद्धावस्था तथा उसी प्रकार ; देह – अन्तर – शरीर के स्थानान्तरण की प्राप्तिः – उपलब्धि ; धीरः – धीर व्यक्ति ; तत्र – उस विषय में ; न – कभी नहीं , मुह्यति – मोह को प्राप्त होता है ।
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस ( वर्तमान ) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है , उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्य : प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है । वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है – कभी बालक के रूप में , कभी युवा तथा कभी वृद्ध पुरुष के रूप में । तो भी आत्मा वही रहता है , उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता । यह व्यष्टि आत्मा मत्य होने पर अन्ततोगत्वा एक शरीर वदल कर दूसरे शरीर में देहान्तरण कर जाता है और चूंकि अगले जन्म में इसको शरीर मिलना अवश्यम्भावी है चाहे वह शरीर आध्यात्मिक हो या भौतिक – अतः अर्जन के लिए न तो भीष्म , न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था ।
अपितु उसे प्रसन्न होना चाहिए था कि वे अपने पुराने शरीरों को बदल कर नये शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे । ऐसे शरीर – परिवर्तन से जीवन में किये कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है । चूंकि भीष्म व द्रोण साधु पुरुष थे इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे ; नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के अनुरूप शरीर तो प्राप्त होंगे ही , अतः दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था ।
मनुष्य को व्यष्टि आत्मा , परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रकृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है । ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर – परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता । आत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा । के इस प्रकार विखण्डन से परमेश्वर विखंडनीय या परिवर्तनशील हो जायेगा जो परमात्मा के अपरिवर्तनीय होने के सिद्धान्त के विरुद्ध होगा ।
गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खण्डों का शाश्वत ( सनातन ) अस्तित्व है जिन्हें क्षर कहा जाता है अर्थात् उनमें भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृत्ति होती है । ये भिन्न अंश ( खण्ड ) नित्य भिन्न रहते हैं , यहाँ तक कि मुक्ति के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसे का तैसा – भिन्न अंश – बना रहता है । किन्तु एक बार मुक्त होने पर वह श्रीभगवान के साथ सच्चिदानन्द रूप में रहता है ।
परमात्मा पर प्रतिबिम्ववाद का सिद्धान्त व्यवहत किया जा सकता है , जो प्रत्येक शरीर में विद्यमान रहता है । वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है । आकाश का प्रतिविम्ब जल में पड़ता है तो प्रतिविम्व में सूर्य , चन्द्र तथा तारे सभी कुछ रहते हैं । तारों की तुलना जीवों से तथा सूर्य या चन्द्र की परमेश्वर से की जा सकती है । व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्रीभगवान् के रूप में प्रदर्शित किया जाता है ।
जैसा कि चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्ट है , वे एक ही स्तर पर नहीं होते।यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हों तो उनमें उपदेशक तथा उपदिष्ट का सम्बन्ध अर्थहीन होगा ।
यदि ये दोनों माया द्वारा मोहित होते हैं तो एक को उपदेशक तथा दूसरे को उपदिष्ट होने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसा उपदेश व्यर्थ होगा क्योंकि माया के चंगुल में रहकर कोई भी प्रामाणिक उपदेशक नहीं बन सकता । ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है कि भगवान कृष्ण परमेश्वर हैं जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रूपी जीव से श्रेष्ठ हैं ।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
मात्रा – स्पर्शाः-इन्द्रियविषय ; तु – केवल ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; शीत – जाड़ा ; उष्ण – ग्रीष्म , सुख – सुख ; दुःख – तथा दुख ; दाः – देने वाले ; आगम – आना ; अपायिनः – जाना ; अनित्याः – क्षणिक ; तान् – उनको ; तितिक्षस्व – सहन करने का प्रयत्न करो ; भारत – हे भरतवंशी ।
हे कुन्तीपुत्र ! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है । हे भरतवंशी ! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे ।
तात्पर्य : कर्तव्य निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख तथा दुख के क्षणिक आने – जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए । वैदिक आदेशानुसार मनुष्य को माघ ( जनवरी फरवरी ) के मास में भी प्रातःकाल स्नान करना चाहिए । उस समय अत्यधिक ठंड पड़ती । है , किन्तु जो धार्मिक नियमों का पालन करने वाला है , वह स्नान करने में तनिक भी झिझकता नहीं।
इसी प्रकार एक गृहिणी भीषण से भीषण गर्मी की ऋतु में ( मई – जून के महीनों में ) भोजन पकाने में हिचकती नहीं । जलवायु सम्बन्धी असुविधाएँ होते हुए भी । मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना होता है । इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है । अतः उसे अपने किसी मित्र या परिजन से भी युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए ।
मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि – विधान पालन करने होते हैं क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने आपको माया के बंधन से छुड़ा सकता है । अर्जुन को जिन दो नामों से सम्बोधित किया गया है , वे भी महत्त्वपूर्ण हैं । कौन्तेय कहकर सम्बोधित करने से यह प्रकट होता है कि वह अपनी माता की ओर ( मातृकल से सम्बंधित है और भारत कहने से उसके पिता की ओर ( पितृकुल ) से सम्बन्ध प्रकट होता है ।
दोनों ओर से उसको महान विरासत प्राप्त है । महान विरासत प्राप्त होने के फलस्वरूप कर्तव्यनिर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है , अतः अर्जुन युद्ध से विमुख नहीं हो सकता ।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
यम – जिसः ; हि – निश्चित रूप से ; न – कभी नहीं ; व्यथयन्ति – विचलित नहीं करते ; एते – ये सब ; पुरुषम् – मनुष्य को ; पुरुष – ऋषभ – हे पुरुष श्रेष्ठ ; सम – अपरिवर्तनीय ; दुःख – दुख में ; सुखम् – सुखमें ; धीरम – धीर पुरुषः ; सः – वह ; अमृतत्वाय – मुक्ति के लिए ; कल्पते – योग्य है ।
हे पुरुषश्रेष्ठ ( अर्जुन ) ! जो पुरुष सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है , वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है ।
तात्पर्य : जो व्यक्ति आत्म – साक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए दढप्रतिज्ञ है और सख तथा दख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चय ही मुक्ति के योग्य है । वर्णाश्रम – धर्म में चौथी अवस्था अर्थात् संन्यास आश्रम कष्टसाध्य अवस्था है । किन्तु जो अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हए भी संन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है ।
ये कठिनाइयाँ पारिवारिक सम्बन्ध विच्छेद करने तथा पत्नी और सन्तान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती है । किन्तु यदि कोई इन कठिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्म – साक्षात्कार का पथ निष्कंटक हो जाता है । अतः अर्जुन को क्षत्रियधर्म निर्वाह में दृढ़ रहने के लिए कहा जा रहा है , भले ही स्वजनों या अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना ही दष्कर क्यों न हो ।
भगवान चैतन्य ने चौवीस वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था यद्यपि उन पर आश्रित उनकी तरुण पत्नी तथा वृद्धा माँ की देखभाल करने वाला अन्य कोई न था । तो भी उच्चादर्श के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपने कर्तव्यपालन में स्थिर बने रहे । भवबन्धन से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है ।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
न – नहीं ; असतः – असत् का विद्यते है ; भावः – चिरस्थायित्वः ; न – कभी नहीं ; अभावः – परिवर्तनशील गुण ; विद्यते – है ; सतः – शाचत का ; क उभयोः – दोनों काः ; अपि – ही ; दृष्टः – देखा गया ; अन्तः – निष्कर्ष ; तु – निस्सन्देहः ; अनयोः – इनकाः तत्त्व – सत्य का ; दर्शिभिः – भविष्यद्रष्टा द्वारा ।
तत्त्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असल ( भौतिक शरीर ) का तो कोईचिरस्थायित्व नहीं है , किन्तु सत् ( आत्मा ) अपरिवर्तित रहता है । उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है ।
तात्पर्य : परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायित्व नहीं है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी यह स्वीकार किया है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया – प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है । इस तरह शरीर में वृद्धि तथा वृद्धावस्था आती रहती है । किन्तु शरीर तथा मन में निरन्तर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थायी रहता है ।
यही पदार्थ तथा आत्मा का अन्तर है । स्वभावतः शरीर नित्य परिवर्तनशील है और आत्मा शाश्वत है । तत्त्वदर्शियों ने , चाहे वे निर्विशेषवादी हों या सगुणवादी , इस निष्कर्ष की स्थापना की है । विष्णु – पुराण में ( २ . १२ . ३८ ) कहा गया है कि विष्णु तथा उनके धाम स्वयंप्रकाश से प्रकाशित हैं – ( ज्योतींषि विष्णुर्भुवनानि विष्णुः ) । सत् तथा असत् शब्द आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के ही द्योतक हैं ।
सभी तत्त्वदर्शियों की यह स्थापना है । यहीं से भगवान द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवों को उपदेश देने का शुभारम्भ होता है ।अज्ञान को हटाने के लिए आराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्वत सम्बन्ध स्थापित करना होता है और फिर अंश – रूप जीवों तथा श्रीभगवान् के अन्तर को समझना होता है ।
कोई भी व्यक्ति आत्मा के अध्ययन द्वारा परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकता है – आत्मा तथा परमात्मा का अन्तर अंश तथा पूर्ण के अन्तर के रूप में है । वेदान्त सूत्र तथा श्रीमद्भागवत में परमेश्वर को समस्त उद्भवों ( प्रकाश ) का मूल माना गया है ।
ऐसे उद्भवों का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक – क्रमों द्वारा किया जाता है । जीव का सम्बन्ध परा प्रकृति से है , जैसा कि सातवें अध्याय से स्पष्ट होगा । यद्यपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अन्तर नहीं है , किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण । अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है
अज्ञानावस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असम्भव है । अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवों को प्रवुद्ध करने हेतु भगवान् भगवद्गीता का उपदेश देते हैं ।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
अविनाशि – नाशरहित ; तु – लेकिन ; तत – उसे ; विद्धि – जानो ; येन – जिससे ; सर्वम – सम्पूर्ण शरीर ; इदम् – यह ; ततम् – परिव्याप्त ; विनाशम् – नाश ; अव्ययस्य – अविनाशी का ; अस्य – इस ; न कश्चित् – कोई भी नहीं ; कर्तुम् – करने के लिए ; अर्हति -समर्थ है ।
जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझोउस अव्यय आत्मा कोनष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है ।
तात्पर्य : इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है । सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है । प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पूरे भाग में सुख दुख का अनुभव होता है ।
किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी के शरीर तक ही सीमित रहती है । एक शरीर के सुख तथा दुख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता । फलतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण ध्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है ।
इस आत्मा को वाल के आभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( ५ . ९ ) इसकी पुष्टि हुई है
वालायशतभागस्य शतधा कल्पितस्य था ।
भागो जीतः स विशेयः स चानन्याय कल्पते । ।
” यदि वाल के अगभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय और फिर इनमें से प्रत्येक भाग को एक सो भागों में विभाजित किया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है । इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है —
केशायशतभागस्य शतांश साहशात्मकः ।
जीवः सूक्ष्मस्वरूपोऽयं संख्यातीतो हि चित्कणः । ।
” आत्मा के परमाणुओं के अनन्त कण हैं जो माप में वाल के अगले भाग (नोक) के दस हजारवें भाग के वरावर हें । ”
इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कण हैं । यह अत्यन्त लघु आत्म – स्फुलिंग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म – स्फूलिंग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है । आत्मा की यह धारा ( विद्युतधारा ) सारे शरीर में चेतना के रूप में अनुभव की जाती है और यही आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है ।
सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह भोतिक शरीर चेतनारहित होने पर मृतक हो जाता है और शरीर में इस चेतना को किसी भी भौतिक उपचार से वापस नहीं लाया जा सकता । अत : यह चेतना भौतिक संयोग के फलस्वरूप नहीं है , अपित आत्मा के कारण है । मुण्डक उपनिषद् में ( ३ . १ . ९ ) सूक्ष्म ( परमाणविक ) आत्मा की ओर अधिक विवेचना हुई है
एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश ।
प्राणशित्तं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्ध विभवत्येष आत्मा । ।
” आत्मा आकार में अणु तुल्य है जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है । यह अणु – आत्मा पाँच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है ( प्राण , अपान , व्यान , समान तथा उदाना ) यह हृदय के भीतर स्थित है और देहधारी जीव के पूरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है । जब आत्मा को पाँच वायुओं के कल्मष से शुद्ध कर लिया जाता है तो इसका आध्यात्मिक प्रभाव प्रकट होता है ।
” हठ – योग का प्रयोजन विविध आसनों द्वारा उन पाँच प्रकार के प्राणों को नियन्त्रित करना है जो आत्मा को घेरे हुए हैं । यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं, अपितु भौतिक आकाश के बन्धन से अणु – आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है । इस प्रकार अणु – आत्मा को सारे वैदिक साहित्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है ।
केवल मूर्ख व्यक्ति ही इस अणु – आत्मा को सर्वव्यापी विष्णु – तत्व के रूप में सोच सकता है । अणु – आत्मा का प्रभाव पूरे शरीर में व्याप्त हो सकता है । मण्डक उपनिषद के अनुसार यह अणु – आत्मा प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है ओर चूंकि भौतिक विज्ञानी इस अणु – आत्मा को माप सकने में असमर्थ हैं , अतः उनमें से कुछ यह अनुभव करते हैं कि आत्मा है ही नहीं ।
व्यष्टि आत्मा तो निस्सन्देह परमात्मा के साथ – साथ हृदय में है और इसीलिए शारीरिक गतियों की सारी शक्ति शरीर के इसी भाग से उदभूत है । जो लाल रक्तकण फेफड़ों से आक्सीजन ले जाते हैं वे आत्मा से ही शक्ति प्राप्त करते हैं । अतः जब आत्मा इस स्थान से निकल जाता है तो रक्तोत्पादक संलयन ( fusion ) बन्द हो जाता है ।
औषधि विज्ञान लाल रक्तकणों की महत्ता को तो स्वीकार करता है , किन्तु वह यह निश्चित नहीं कर पाता कि शक्ति का स्रोत आत्मा है । जो भी हो , औषधि विज्ञान यह स्वीकार करता है कि शरीर की सारी शक्ति का उद्गमस्थल हृदय है । पूर्ण आत्मा के ऐसे अणुकणों की तुलना सूर्य – प्रकाश के कणों से की जाती है ।
इस सूर्य – प्रकाश में असंख्य तेजोमय अणु होते हैं । इसी प्रकार परमेश्वर के अंश उनकी किरणों के परमाणु स्फुलिंग हैं और प्रभा या परा शक्ति कहलाते हैं । अतः चाहे कोई वैदिक ज्ञान का अनुगामी हो या आधुनिक विज्ञान का , वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता । भगवान् ने स्वयं भगवद्गीता में आत्मा के इस विज्ञान का विशद वर्णन किया है ।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माधुध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
अन्तवन्त – नाशवान ; इमे – ये सव ; देहाः – भौतिक शरीर ; नित्यस्य – नित्य स्वरूप ; उक्ताः – कहे जाते हैं ; शरीरिणः – देहधारी जीव का ; अनाशिनः – कभी नाश न होने वाला ; अप्रमेयस्य – न मापा जा सकने योग्य ; तस्मात् – अतः ; युध्यस्व – युद्ध करो ; भारत – हे भरतवंशी ।
अविनाशी , अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवश्यम्भावी है । अतः हे भरतवंशी ! युद्ध करो ।
तात्पर्य : भौतिक शरीर स्वभाव से नाशवान है । यह तत्क्षण नष्ट हो सकता है और सौ वर्ष बाद भी यह केवल समय की वात है । इसे अनन्त काल तक बनाये रखने की कोई सम्भावना नहीं है । किन्तु आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे शत्रु देख भी नहीं सकता , मारना तो दर रहा ।
जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया है , यह इतना सूक्ष्म है कि कोई इसके मापने की बात सोच भी नहीं सकता । अतः दोनों ही दृष्टि से शोक का कोई कारण नहीं है क्योंकि जीव जिस रूप में है , न तो उसे मारा जा सकता है , न ही शरीर को कुछ समय तक या स्थायी रूप से बचाया जा सकता है।
पूर्ण आत्मा के सुक्ष्म कण अपने कर्म के अनुसार ही यह शरीर धारण करते हैं , अतः धार्मिक नियमों का पालन करना चाहिए । वेदान्त – सूत्र में जीव को प्रकाश वताया गया है क्योंकि वह परम प्रकाश का अंश है ।
जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश सारे ब्रह्माण्ड का पोषण करता है उसी प्रकार आत्मा के प्रकाश से इस भौतिक देह का पोषण होता है । जैसे ही आत्मा इस भौतिक शरीर से वाहर निकल जाता है , शरीर सड़ने लगता है , अतः आत्मा ही शरीर का पोषक है । शरीर अपने आप में महत्त्वहीन है । इसीलिए अर्जुन को उपदेश दिया गया कि वह युद्ध करे और भौतिक शारीरिक कारणों से धर्म की बलि न होने दे ।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥
यः – जोः ; एनम – इसकोः ; वेत्ति – जानता है ; हन्तारम् – मारने वाला ; यः – जा ; च – भी ; एनम – इसे ; मन्यते – मानता है ; हतम् – मरा हुआ ; उभौ – दोनों ; तौ – वे ; न कभी नहीं ; विजानीतः – जानते हैं ; न – कभी नहीं ; अयम् – यह ; हन्ति – मारता है ; न – नहीं ; हन्यते – मारा जाता है ।
जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है , वे दोनों ही अज्ञानी हैं , क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है।
तात्पर्य : जब देहधारी जीव को किसी घातक हथियार से आघात पहुँचाया जाता है तो यह समझ लेना चाहिए कि शरीर के भीतर का जीवात्मा मरा नहीं । आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे किसी तरह के भौतिक हथियार से मार पाना असम्भव है , जैसा कि अगले श्लोकों से स्पष्ट हो जायेगा । न ही जीवात्मा अपने आध्यात्मिक स्वरूप के कारण वध्य है । जिसे मारा जाता है या जिसे मरा हुआ समझा जाता है वह केवल शरीर होता है । किन्तु इसका तात्पर्य शरीर के वध को प्रोत्साहित करना नहीं है ।
वैदिक आदेश है – मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि – किसी भी जीव की हिंसा न करो । न ही ‘ जीवात्मा अवघ्य है ‘ का अर्थ यह है कि पशु – हिंसा को प्रोत्साहन दिया जाय ।किसी भी जीव के शरीर की अनधिकार हत्या करना निंद्य है और राज्य तथा भगवदविधान के द्वारा दण्डनीय है । किन्तु अर्जुन को तो धर्म के नियमानुसार मारने के लिए नियुक्त किया जा रहा था , किसी पागलपनवश नहीं ।
न जायते म्रियते वा कदाचिन
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
न – कभी नहीं ; जायते – जन्मता है ; म्रियते – मरता है ; वा – या ; कदाचित – कभी भी ( भूत , वर्तमान या भविष्य ) ; न – कभी नहीं ; अयम् – यह ; भूत्वा – होकर ; भविता – होने वाला ; वा – अथवा ; न – नहीं ; भूयः – अथवा , पुनः होने वाला है ; अजः – अजन्मा ; नित्यः – नित्य ; शाश्वतः – स्थायी ; अयम् – यह ; पुराण – सबसे प्राचीन ; न – नहीं ; हन्यते – मारा जाता है ; हन्यमाने – मारा जाकर ; शरीरे – शरीर में
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु वह न तो कभी जन्मा है , न जन्म लेता है और न जन्म लेगा । वह अजन्मा , नित्य , शाश्वत तथा पुरातन है । शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता ।
तात्पर्य : गुणात्मक दृष्टि से , परमात्मा का अणु – अंश परम से अभिन्न है । वह शरीर की । भाँति विकारी नहीं है । कभी – कभी आत्मा को स्थायी या कूटस्थ कहा जाता है । शरीर में छह प्रकार के रूपान्तर होते हैं । वह माता के गर्भ से जन्म लेता है , कुछ काल तक रहता है , वढ़ता है , कुछ परिणाम उत्पन्न करता है , धीरे – धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त हो जाता है ।
किन्तु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते । आत्मा अजन्मा है , किन्तु चूँकि वह भौतिक शरीर धारण करता है , अतः शरीर जन्म लेता है । आत्मा न तो जन्म लेता है , न मरता है । जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है । और चूंकि आत्मा जन्म नहीं लेता , अतः उसका न तो भूत है , न वर्तमान या भविष्य । वह नित्य , शाश्वत तथा सनातन है अर्थात उसके जन्म लेने का कोई इतिहास नहीं है ।
हम शरीर के प्रभाव में आकर आत्मा के जन्म , मरण आदि का इतिहास खोजते हैं । आत्मा शरीर की तरह कभी भी वृद्ध नहीं होता , अतः तथाकथित वृद्ध पुरुष भी अपने में बाल्यकाल या युवावस्था जैसी अनुभूति पाता है । शरीर के परिवर्तनों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । आत्मा वृक्ष या किसी अन्य भौतिक वस्तु की तरह क्षीण नहीं होता । आत्मा की कोई उपसृष्टि नहीं होती । शरीर की उपसष्टि संतानें हैं और वे भी व्यष्टि आत्माएँ हैं और शरीर के कारण वे किसी न किसी की सन्तान प्रतीत होते हैं । शरीर की वृद्धि आत्मा की उपस्थिति के कारण होती है ,
किन्तु आत्मा के न तो कोई उपवृद्धि है न ही उसमें कोई परिवर्तन होता है । अतः आत्मा शरीर के छः प्रकार के परिवर्तन से मुक्त है । कठोपनिषद् में ( १ . २ . १८ ) इसी तरह का एक श्लोक आया है —
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे । ।
इस श्लोक का अर्थ तथा तात्पर्य भगवद्गीता के श्लोक जैसा ही है , किन्तु इस श्लोक में एक विशिष्ट शब्द विपश्चित का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है विद्वान या ज्ञानमय । आत्मा ज्ञान से या चेतना से सदैव पूर्ण रहता है । अतः चेतना ही आत्मा का लक्षण है । यदि कोई हृदयस्थ आत्मा को नहीं खोज पाता तब भी वह आत्मा की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है ।
कभी – कभी हम वादलों या अन्य कारणों से आकाश में सूर्य को नहीं देख पाते , किन्तु सूर्य का प्रकाश सदैव विद्यमान रहता है , अतः हमें विश्वास हो जाता है कि यह दिन का समय है ।प्रातःकाल ज्योंही आकाश में थोड़ा सा सूर्यप्रकाश दिखता है तो हम समझ जाते हैं कि सूर्य आकाश में है । इसी प्रकार चूंकि शरीरों में , चाहे पशु के हों या पुरुषों के , कुछ न कुछ चेतना रहती है , अतः हम आत्मा की उपस्थिति को जान लेते हैं ।
किन्तु जीव की यह चेतना परमेश्वर की चेतना से भिन्न है क्योंकि परम चेतना तो सर्वज्ञ है – भूत , वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञान से पूर्ण । व्यष्टि जीव की चेतना विस्मरणशील है । जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है , तो उसे कृष्ण के उपदेशों से शिक्षा तथा प्रकाश और बोध प्राप्त होता है । किन्तु कृष्ण विस्मरणशील जीव नहीं हैं । यदि वे ऐसे होते तो उनके द्वारा दिये गये भगवद्गीता के उपदेश व्यर्थ होते ।
आत्मा के दो प्रकार हैं – एक तो अणु – आत्मा और दूसरा विभु – आत्मा । कठोपनिषद् । में ( १ . २ . २० ) इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है—
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः । ।
” परमात्मा तथा अणु – आत्मा दोनों शरीर रूपी उसी वृक्ष में जीव के हृदय में विद्यमान हैं और इनमें से जो समस्त इच्छाओं तथा शोकों से मुक्त हो चुका है वही भगवतकपा से आत्मा की महिमा को समझ सकता है । ” कृष्ण परमात्मा के भी उद्गम है जैसा कि अगले अध्यायों में बताया जायेगा और अर्जुन अणु – आत्मा के समान है जो अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है । अतः उसे कृष्ण द्वारा या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु द्वारा प्रवुद्ध किये जाने की आवश्यकता है ।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
वेद – जानता है ; अविनाशिनम् – अविनाशी को ; नित्यम् – शाश्वत ; यः – जो ; एनम् – इस ( आत्मा ) ; अजम् – अजन्मा ; अव्ययम् – निर्विकार ; कथम् – कैसे ; सः – वह ; पुरुषः – पुरुष ; पार्थ – हे पार्थ ( अर्जुन ) ; कम् – किसको ; घातयति – मरवाता है ; हन्ति – मारता है ; कम – किसको ।
हे पार्थ ! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी , अजन्मा , शाश्वत तथा अव्यय है , वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है ?
तात्पर्य : प्रत्येक वस्तु की समुचित उपयोगिता होती है और जो ज्ञानी होता है वह जानता है कि किसी वस्तु का कहाँ और कैसे प्रयोग किया जाय । इसी प्रकार हिंसा की भी अपनी उपयोगिता है और इसका उपयोग इसे जानने वाले पर निर्भर करता है ।
यद्यपि हत्या करने वाले व्यक्ति को न्यायसंहिता के अनुसार प्राणदण्ड दिया जाता है ,किन्तु न्यायाधीश को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है , क्योंकि वह न्यायसंहिता के अनुसार ही दूसरे व्यक्ति पर हिंसा किये जाने का आदेश देता है ।
मनुष्यों के विधि – ग्रंथ मनुसंहिता में इसका समर्थन किया गया है कि हत्यारे को प्राणदण्ड देना चाहिए जिससे उसे अगले जीवन में अपना पापकर्म भोगना न पड़े । अतः राजा द्वारा हत्यारे को फाँसी का दण्ड एक प्रकार से लाभप्रद है ।
इसी प्रकार जब कृष्ण युद्ध करने का आदेश देते हैं तो यह समझना चाहिए कि यह हिंसा परम न्याय के लिए है और इस तरह अर्जुन को इस आदेश का पालन यह समझकर करना चाहिए कि कृष्ण के लिए किया गया युद्ध हिंसा नहीं है क्योंकि मनुष्य या दूसरे शब्दों में आत्मा को मारा नहीं जा सकता ।
अतः न्याय के हेतु तथाकथित हिंसा की अनुमति है । शल्यक्रिया का प्रयोजन रोगी को मारना नहीं अपितु उसको स्वस्थ बनाना है । अतः कृष्ण के आदेश पर अर्जुन द्वारा किया जाने वाला युद्ध पूरे ज्ञान के साथ हो रहा है , उससे पापफल की सम्भावना नहीं है ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ॥
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य
न्यानि संयाति नवानिदेही ॥ २२ ॥
वासांसि – वस्त्रों को ; जीर्णानि – पुराने तथा फटे ; यथा – जिस प्रकार ; विहाय – त्याग कर ; नवानि – नए वस्त्र ; गृहणाति – ग्रहण करता है ; नरः – मनुष्यः ; अपराणि – अन्य ; तथा – उसी प्रकार ; शरीराणि – शरीरों को ; विहाय – त्याग कर ; जीर्णानि – वृद्ध तथा व्यर्थ ; अन्यानि – भिन्न ; संयाति – स्वीकार करता है ; नवानि – नये ; देही – देहधारी आत्मा ।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है , उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है ।
तात्पर्य : अणु – आत्मा द्वारा शरीर का परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है । आधुनिक विज्ञानीजन तक , जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते , पर साथ ही हृदय से शक्ति – साधन की व्याख्या भी नहीं कर पाते , उन परिवर्तनों को स्वीकार करने को बाध्य हैं . जो वाल्यकाले से कौमारावस्था और फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं । वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है | इसकी व्याख्या एक पिछले श्लोक में ( २ . १३ ) की जा चुकी है ।
अणु – आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानान्तरण परमात्मा की कृपा से सम्भव हो पाता है । परमात्मा अणु – आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं जिस प्रकार एक मित्र दसरे की इच्छापूर्ति करता है । मण्डक तथा श्वेताश्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गई है जो एक ही वृक्ष पर बैठे हैं । इनमें से एक पक्षी ( अण – आत्मा ) वक्ष के फल को खा रहा है और दसरा पक्षी ( कष्ण ) अपने मित्र को देख रहा है ।
यद्यपि दोनों पक्षी समान गुण वाले हैं , किन्तु इनमें से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है , किन्तु दूसरा अपने मित्र के कार्यकलापों का साक्षी मात्र है । कृष्ण साक्षी पक्षी हैं , और अर्जुन फल – भोक्ता पक्षी । यद्यपि दोनों मित्र ( सखा ) हैं , किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है । अणु – आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे में जाने का कारण है । जीव आत्मा प्राकृत शरीर रूपी वृक्ष पर अत्यधिक संघर्षशील है ,
किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है – जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है – त्योंही परतन्त्र पक्षी तुरन्त सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है । मुण्डक – उपनिषद् ( ३ . १ . २ ) तथा श्वेताश्वतर – उपनिषद् ( ४ . ७ ) समान रूप से इसकी पुष्टि करते हैं
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः । ।
” यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं , किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिन्ता तथा विषाद में निमग्न है । यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त समस्त चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है । ” अब अर्जुन ने अपना मुख अपने शाश्वत मित्र कृष्ण की ओर फेरा है और उनसे भगवद्गीता समझ रहा है ।
प्रकार वह कष्ण से श्रवण करके भगवान् की परम महिमा को समझ कर शोक से मुक्त हो सकता है । यहाँ भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गरु के देहान्तरण पर शोक प्रकट न करे अपितु उसे इस धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए , जिससे वे सव विभिन्न शारीरिक कर्म – फलों से तुरन्त मुक्त हो जायें । बलिवेदी पर या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरन्त शारीरिक यापों से मुक्त हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है | अतः अर्जुन का शोक करना युक्तिसंगत नहीं है ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
न – कभी नहीं ; एनम् – इस आत्मा को ; छिन्दन्ति – खण्ड – खण्ड कर सकते हैं ; शस्त्राणि – हथियार ; न – कभी नहीं ; एनम् – इस आत्मा को ; दहति – जला सकता है ; पावकः – अग्नि ; न – कभी नहीं ; च – भी ; एनम् – इस आत्मा को ; क्लेदयन्ति – भिगो सकता है ; आपः – जल ; न – कभी नहीं ; शोषयति – सुखा सकता है ; मारुतः – वायु ।
यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड – खण्ड किया जा सकता है , न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है , न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकताहैं ।
तात्पर्य : सारे हथियार – तलवार , आग्नेयास्त्र , वर्षा के अस्त्र , चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी , जल , वायु , आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे । यहाँ तक कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है , किन्तु पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्त्वों से बने हुए हथियार होते थे । आग्नेयास्त्रों का सामना जल के ( वरुण ) हथियारों से किया जाता था , जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात हैं । आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है ।
जो भी हो , आत्मा को न तो कभी खण्ड – खण्ड किया जा सकता है , न किन्हीं वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया जा सकता है , चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो । मायावादी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते कि जीव किस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् माया की शक्ति से आवृत हो गया ।न ही आदि परमात्मा से जीवों को विलग कर पाना सम्भव था . प्रत्युत सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश है ।
चूंकि वे सनातन अणु – आत्मा हैं , अतः माया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृत्ति स्वाभाविक है, और इस तरह वे भगवान् की संगति से पृथक् हो जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग अग्नि से विलग होते ही बुझ जाते हैं , यद्यपि इन दोनों के गुण समान होते हैं । वराह पुराण में जीवों को परमात्मा का भिन्न अंश कहा गया है । भगवद्गीता के अनुसार भी वे शाश्वत रूप से ऐसे ही हैं । अतः मोह से मक्त होकर भी । जीव पृथक् अस्तित्व रखता है , जैसा कि कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये उपदेशों से स्पष्ट है । अर्जुन कृष्ण के उपदेश के कारण मुक्त तो हो गया , किन्तु कभी भी कृष्ण से एकाकार नहीं हुआ ।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यःसर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
अच्छेद्यः – न टूटने वाला ; अयम् – यह आत्मा ; अदाह्यः – न जलाया जा सकने वाला ; अयम् – यह आत्मा ; अक्लेद्यः – अघुलनशील ; अशोष्यः – न सुखाया जा सकने वाला ; एव – निश्चय ही ; च – तथा ;नित्यः – शाश्वत ; सर्व – गतः – सर्वव्यापी ; स्थाणुः – अपरिवर्तनीय , अविकारी ; अचलः – जड़ ; अयम् – यह आत्मा ; सनातनः – सदैव एक सा ।
यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है । इसे न तो जलाया जा सकता है , न ही सुखाया जा सकता है । यह शाश्वत , सर्वव्यापी , अविकारी , स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है।
तात्पर्य : अणु – आत्मा के इतने सारे गुण यही सिद्ध करते हैं कि आत्मा पूर्ण आत्मा का अणु – अंश है और विना किसी परिवर्तन के निरन्तर उसी तरह बना रहता है । इस प्रसंग में अद्वैतवाद को व्यवहृत करना कठिन है क्योंकि अणु – आत्मा कभी भी परम – आत्मा के साथ मिलकर एक नहीं हो सकता ।
भौतिक कल्मष से मुक्त होकर अणु – आत्मा भगवान् के तेज की किरणों की आध्यात्मिक स्फुलिंग वनकर रहना चाह सकता है , किन्तु बुद्धिमान जीव तो भगवान् की संगति करने के लिए वैकुण्ठलोक में प्रवेश करता है । सर्वगत शब्द महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई संशय नहीं है कि जीव भगवान् की समग्र सृष्टि में फैले हुए हैं ।
वे जल , थल , वायु , पृथ्वी के भीतर तथा अग्नि के भीतर भी रहते हैं । जो यह मानते हैं कि वे अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि आत्मा को अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता ।अतः इसमें सन्देह नहीं कि सूर्यलोक में भी उपयुक्त प्राणी निवास करते हैं । यदि सूर्यलोक निर्जन हो तो सर्वगत शव्द निरर्थक हो जाता है ।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
अव्यक्तः – अदृश्य ;अयम् – यह आत्मा ; अचिन्त्यः – अकल्पनीय ;अयम् – यह आत्मा ;अविकार्यः – अपरिवर्तित ; अयम् – यह आत्मा ; उच्यते – कहलाता है ;तस्मात – अतः ; एवम् – इस प्रकार ;विदित्वा – अच्छी तरह जानकर ; एनम् – इस आत्मा के विषयमें ; न – नहीं ; अनुशोचितुम – शोक करने के लिए ; अर्हसि – योग्य हो ।
यह आत्मा अव्यक्त , अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है । यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए ।
तात्पर्य : जैसा कि पहले कहा जा चुका है , आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे सर्वाधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं देखा जा सकता , अतः यह अदृश्य है ।जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का सम्बन्ध है , श्रुति के प्रमाण के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोग द्वारा इसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता ।
हमें इस सत्य को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि अनुभवगम्य सत्य होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व को समझने के लिए कोई अन्य साधन नहीं है । हमें अनेक वातें केवल उच्च प्रमाणों के आधार पर माननी पडती हैं ।
कोई भी अपनी माता के आधार पर अपने पिता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता । पिता के स्वरूप को जानने का साधन या एकमात्र प्रमाण माता है । इसी प्रकार वेदाध्ययन के अतिरिक्त आत्मा को समझने का अन्य उपाय नहीं है । दूसरे शब्दों में , आत्मा मानवीय व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अकल्पनीय है ।
आत्मा चेतना है और चेतन है – वेदों के इस कथन को हमें स्वीकार करना होगा । आत्मा में शरीर जैसे परिवर्तन नहीं होते । मूलतः अविकारी रहते हुए आत्मा अनन्त परमात्मा की तुलना में अणु – रूप है । परमात्मा अनन्त है और अणु – आत्मा अति सूक्ष्म है ।
अतः अति सूक्ष्म आत्मा अविकारी होने के कारण अनन्त आत्मा भगवान के तुल्य नहीं हो सकता । यही भाव वेदों में भिन्न भिन्न प्रकार से आत्मा के स्थायित्व की पुष्टि करने के लिए दुहराया गया है । किसी बात का दुहराना उस तथ्य को बिना किसी त्रुटि के समझने के लिए आवश्यक है ।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
अथ – यदि , फिर भी ; च – भी ; एनम – इस आत्मा को ; नित्य – जातम् – उत्पन्न होने वाला ; नित्यम् – सदैव के लिए ; वा – अधवा ; मन्यसे – तुम ऐसा सोचते हो ; मृतम् – मृत ; तथा अपि – फिर भी ; त्वम् – तुम ; महा-बाहो – हे शूरवीर ; न – कभी नहीं ; एनम् – आत्मा के विषय में ; शोचितुम् – शोक करने के लिए ; अर्हसि – योग्य हो ।
किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा ( अथवा जीवन का लक्षण ) सदा जन्म लेता है तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु ! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है ।
तात्पर्य : सदा से दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग चला आ रहा है जो बौद्धों के ही समान वह नहीं मानता कि शरीर के परे भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है । ऐसा प्रतीत होता है कि जब भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता का उपदेश दिया तो ऐसे दार्शनिक विद्यमान थे और लोकायतिक तथा वैभाषिक नाम से जाने जाते थे । ऐसे दार्शनिकों का मत है कि जीवन के लक्षण भौतिक संयोग की एक परिपक्वावस्था में ही घटित होते हैं । आधुनिक भौतिक विज्ञानी तथा भौतिकतावादी दार्शनिक भी ऐसा ही सोचते हैं ।
उनके अनुसार शरीर भातिक तत्त्वों का संयोग है और एक अवस्था ऐसी आती है जब भौतिक तथा रासायनिक तत्त्वों के संयोग से जीवन के लक्षण विकसित हो उठते हैं । नृतत्त्व विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है । सम्प्रति , अनेक छद्म धर्म – जिनका अमेरिका में प्रचार हो रहा है – इसी दर्शन का पालन करते हैं और साथ ही शन्यवादी अभक्त वौद्धों का अनुसरण करते हैं ।
यदि अर्जुन को आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं था , जैसा कि वैभाषिक दर्शन में होता है तो भी उसके शोक करने का कोई कारण न था । कोई भी मानव थोड़े से रसायनों की क्षति के लिए शोक नहीं करता तथा अपना कर्तव्यपालन नहीं त्याग देता है । दूसरी ओर , आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए न जाने कितने टन रसायन फूंक देते हैं । वैभाषिक दर्शन के अनुसार आत्मा पारीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है ।
अतः प्रत्येक दशा में चाहे अर्जन इस वैदिक मान्यता को स्वीकार करता कि अणु – आत्मा का अस्तित्व है , या कि वह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता , उसके लिए शोक करने का कोई कारण न था । इस सिद्धान्त के अनुसार चूंकि पदार्थ से प्रत्येक क्षण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं , अतः ऐसी घटनाओं के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
यदि आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता तो अर्जुन को अपने पितामह तथा गुरु के वध करने के पापफलों से डरने का कोई कारण न था । किन्तु साथ ही कृष्ण ने अर्जुन का व्यंगपूर्वक महाबाहु कह कर सम्बोधित किया क्योंकि उसे वैभाषिक सिद्धान्त स्वीकार नहीं था जो वैदिक ज्ञान के प्रतिकूल है । क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से था और वैदिक सिद्धान्तों का पालन करते रहना ही उसके लिए शोभनीय था ।
जातस्य हि ध्रुव: मृत्यु वं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
जातस्य – जन्म लेने वाले की ; हि – निश्चय ही ;ध्रुवः – तथ्य है ; मृत्युः – मृत्यु ; ध्रुवम् – यह भी तय्य है ; जन्म – जन्म ; मृतस्य – मृत प्राणी का ; च – भी ; तस्मात् – अतः ; अपरिहार्ये – जिससे बचा न जा सके ; अर्थ – के विषय में ; न – नहीं ; त्वम् – तुम ; शोचितुम् – शोक करने के लिए ; अर्हसि – योग्य हो ।
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है । अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ।
तात्पर्य : मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है , जिससे वह दूसरा जन्म ले सके । इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये विना ही जन्म – मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है । जन्म – मरण के इस चक्र से वृथा हत्या , वध तथा युद्ध का समर्थन नहीं होता ।
किन्तु मानव समाज में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा यद्ध अपरिहार्य हैं । कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने के कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है । अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु से भयभीत या शोकाकुल क्यों था ?
वह विधि ( कानून ) को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यन्त भयभीत था । अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह अनुचित कर्तव्य – पथ का चुनाव करे , तो उसे नीचे गिरना होगा ।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
अव्यक्त-आदीनि – प्रारम्भ में अप्रकट ; भूतानि – सारे प्राणी ; व्यक्त – प्रकट ; मध्यानि – मध्य में ; भारत – हे भरतवंशी ; अव्यक्त – अप्रकट ; निधनानि – विनाश होने पर ; एव – इस तरह से ; तत्र – अतः ; का – क्या ; परिदेवना – शोक ।
सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं , मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं । अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है ?
तात्पर्य : यह स्वीकार करते हुए कि दो प्रकार के दार्शनिक हैं – एक तो वे जो आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं , और दूसरे वे जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते , कहा जा सकता है कि किसी भी दशा में शोक करने का कोई कारण नहीं है | आत्मा के अस्तित्व को न मानने वालों को वेदान्तवादी नास्तिक कहते हैं ।
हम तर्क के लिए इस नास्तिकतावादी सिद्धान्त को मान भी लें तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है । आत्मा के पृथक् अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्त्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं । इस अदृश्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृश्य अवस्था आती है , जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है , वायु से अग्नि , अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है ।
पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं – यथा एक विशाल गगनचुम्बी महल पृथ्वी से ही प्रकट है । जब इसे ध्वस्त कर दिया जाता है , तो वह अदश्य हो जाता है , और अन्ततः परमाणु रूप में बना रहता है ।शक्ति – संरक्षण का नियम बना रहता है . किन्त कालक्रम से वस्तुएँ प्रकट तथा अप्रकट होती रहती हैं – अन्तर इतना ही है ।
अतः प्रकट होने ( व्यक्त ) या अप्रकट ( अव्यक्त ) होने पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । यहाँ तक कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुएँ समाप्त नहीं होतीं । प्रारम्भिक तथा अन्तिम दोनों अवस्थाओं में ही सारे तत्त्व अप्रकट रहते हैं , केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं और इस तरह इससे कोई वास्तविक अन्तर नहीं पड़ता ।
यदि हम भगवद्गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं कि ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं ( अन्तवन्त इमे देहाः ) किन्तु आत्मा शाश्वत है ( नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ) तो हमें यह सदा स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र ( परिधान ) के समान है , अतः वस्त्र परिवर्तन होने पर शोक क्यों ? शाश्वत आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर का कोई यथार्थ अस्तित्व नहीं होता |
यह स्वप्न के समान है । स्वप्न में हम आकाश में उड़ते या राजा की भाँति रथ पर आरूढ़ हो सकते हैं , किन्तु जागने पर देखते हैं कि न तो हम आकाश में हैं , न रथ पर । वैदिक ज्ञान आत्म – साक्षात्कार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है । अतः चाहे हम आत्मा के अस्तित्व को मानें या न माने , शरीर – नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है ।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवञ्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥
आश्चर्यवत् – आश्चर्य की ; अन्यः – दूसरा ; आश्चर्यवत – आपन ; शृणोति – सुनता है आश्चर्य की तरह ; पश्यति – देखता है ; कश्चित – कोई ; एनम – इस आत्मा को चर्य की तरह ; वदति – कहता है ; तथा – जिस प्रकार ; एव – निश्चय ही ; च – भी ; आश्चर्यवत – आश्चर्य से ; च – और ; एनम् – इस आत्मा को ; श्रत्वा – सुनकर ; अपि – भी ; एनम् – इस आत्मा को वेद – जानता है ; न – कभी ही ; च – तथा ; एव – निश्चय ही ; कश्चित – कोई ।
कोईआत्मा को आश्चर्य से देखता है , कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कुछ नहीं समझ पाते । कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है , किन्तु कोई – कोई इसके विषय में सुनकर भी ।
तात्पर्य : चँकि गीतोपनिषद् उपनिषदों के सिद्धान्त पर आधारित है , अतः कठोपनिषद में १२ . ७ ) इस श्लोक का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है
श्रवणयापि बहुभियों न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः ।
आश्चयों वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्योऽस्य ज्ञाता कुशलानुशिष्टः । ।
विशाल पशु , विशाल वटवृक्ष तथा एक इंच स्थान में लाखों करोड़ों की संख्या में उपस्थित सूक्ष्मकीटाणुओं के भीतर अणु – आत्मा की उपस्थिति निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है । अल्पज्ञ तथा दुराचारी व्यक्ति अणु – आत्मा के स्फुलिंग के चमत्कारों को नहीं समझ पाता , भले ही उसे बड़े से बड़ा ज्ञानी , जिसने विश्व के प्रथम प्राणी ब्रह्मा को भी शिक्षा दी हो , क्यों न समझाए ।
वस्तुओं के स्थूल भौतिक वोध के कारण इस युग के अधिकांश व्यक्ति इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि इतना सूक्ष्मकण किस प्रकार इतना विराट तथा इतना लघु बन सकता है । अतः लोग आत्मा को उसकी संरचना या उसके विवरण के आधार पर ही आश्चर्य से देखते हैं । इन्द्रियतृप्ति की वातों में फंस कर लोग भौतिक शक्ति ( माया ) से इस तरह मोहित होते हैं कि उनके पास आत्मज्ञान का समझने का अवसर ही नहीं रहता ,
यद्यपि यह तथ्य है कि आत्म – ज्ञान के विना सारे कार्यों का दुष्परिणाम जीवन – संघर्ष में पराजय के रूप में होता है । सम्भवतः उन्हें इसका कोई अनुमान नहीं होता कि मनुष्य को आत्मा के विषय में चिन्तन करना चाहिए और दुखों का हल खोज निकालना चाहिए । ऐसे थोड़े से लोग , जो आत्मा के विषय में सुनने के इच्छुक हैं , अच्छी संगति पाकर भाषण सुनते हैं , किन्तु कभी – कभी अज्ञानवश वे परमात्मा तथा अणु – आत्मा को एक समझ बैठते हैं ।
ऐसा व्यक्ति खोज पाना कठिन है जो परमात्मा , अणु – आत्मा , उनके पृथक – पृथक कार्यों तथा सम्बन्धों एवं अन्य विस्तारों को सही ढंग से समझ सके । इससे अधिक कठिन है ऐसा व्यक्ति खोज पाना जिसने आत्मा के ज्ञान से पूरा – पूरा लाभ उठाया हो और जो सभी पक्षों से आत्मा की स्थिति का सही – सही निर्धारण कर सके । किन्तु यदि कोई किसी तरह से आत्मा के इस विषय को समझ लेता है तो उसका जीवन सफल हो जाता है ।
इस आत्म – ज्ञान का समझने का सरलतम उपाय यह है कि अन्य मतों से विचलित एए विना परम प्रमाण भगवान् कृष्ण द्वारा कथित भगवदगीता के उपदेशों को ग्रहण कर लिया जाय । किन्तु इसके लिए भी इस जन्म में या पिछले जन्मों में प्रचुर तपस्या की आवश्यकता होती है , तभी कृामा को श्रीभगवान के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । पर कृष्ण को इस रूप में जानना शुच भक्तों की अहेतुकी कृपा सही होना क म किसी उपाय से नहीं ।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शांचितुमर्हसि ॥ ३०॥
देही – भौतिक शरीर का स्वामी ; नित्यम शाधत अवघ्या – मारा नहीं जा सकता ; आत्मा देहे – शरीर में सर्वस्य हर एक को ; भारत – भरतबंधी ; तस्मात अन सर्वामि साना भूतानि – जीवों ( जन्म लेने वालों ) को ; न – कभी नहीं ; अर्हसि – योग्य हो ।
हे भरतवंशी ! शरीर में रहने वाले ( देही ) का कभी भी बच नहीं किया जा सकता अतः तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है ।
तात्पर्य : अव भगवान् अविकारी आत्मा विषयक अपना उपदेश समाप्त कर रहा है । पर आत्मा का अनेक प्रकार से वर्णन करते हुए भगवान कृष्ण ने आत्मा को अमर तथा शरीर को नाशवान सिद्ध किया है । अतः क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का इस भय से कि युद्ध में उसके पितामह भीषण तथा गुरु द्रोण मर जायेंगे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए ।
कृष्ण को प्रमाण मानकर भौतिक देह से मित्र आत्मा का पृथक अस्तित्व स्वीकार करना ही होगा , यह नहीं कि आत्मा जैसी कोई बात नहीं है या कि जीवन के लक्षण रसायनों की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप एक विशेष अवस्था में प्रकट होते है ।
यद्यपि आत्मा अमर है , किन्तु इससे हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता । फिर भी सुच । के समय हिंसा का निषेध नहीं किया जाता क्योंकि तब इसकी आवश्यकता रहती है ।ऐसी आवश्यकता को भगवान् की आज्ञा के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है , स्वेच्छा से नहीं ।
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