अध्याय अठारह (Chapter -18)
भगवद गीता अध्याय 18.5 में शलोक 49 से शलोक 55 वर्ण धर्म सहित ज्ञाननिष्ठा के विषय का वर्णन !
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ ४९ ॥
असक्त-बुद्धिः – आसक्ति रहित बुद्धि वाला ; सर्वत्र – सभी जगह ; जित-आत्मा – मन के ऊपर संयम रखने वाला ; विगत-स्पृहः – भौतिक इच्छाओं से रहित ; नेष्कर्म्य-सिद्धिम् – निष्कर्म की सिद्धि ; परभाम् – परम ; संन्यासेन – संन्यास के द्वारा ; अधिगच्छति – प्राप्त करता है ।
जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता , वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सकता है ।
तात्पर्य :- सच्चे संन्यास का अर्थ है कि मनुष्य सदा अपने को परमेश्वर का अंश मानकर यह सोचे कि उसे अपने कार्य के फल को भोगने का कोई अधिकार नहीं है । चूँकि वह परमेश्वर का अंश है , अतएव उसके कार्य का फल परमेश्वर द्वारा भोगा जाना चाहिए , यही वास्तव में कृष्णभावनामृत है ।
जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित होकर कर्म करता है , वही वास्तव में संन्यासी है । ऐसी मनोवृत्ति होने से मनुष्य सन्तुष्ट रहता है क्योंकि वह वास्तव में भगवान के लिए कार्य कर रहा होता है । इस प्रकार वह किसी भी भौतिक वस्तु के लिए आसक्त नहीं होता , वह भगवान की सेवा से प्राप्त दिव्य सुख से परे किसी भी वस्तु में आनन्द न लेने का आदी हो जाता है ।
संन्यासी को पूर्व कार्यकलापों के बन्धन से मुक्त माना जाता है , लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में होता है वह विना संन्यास ग्रहण किये ही यह सिद्धि प्राप्त कर लेता है । यह मनोदशा योगारूढ़ या योग की सिद्धावस्था कहलाती है । जैसा कि तृतीय अध्याय में पुष्टि हुई है – यस्त्वात्मरतिरेव स्यात् जो व्यक्ति अपने में संतुष्ट रहता है , उसे अपने कर्म से किसी प्रकार के बन्धन का भय नहीं रह जाता ।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ ५० ॥
सिद्धिम् – सिद्धि को ; प्राप्तः – प्राप्त किया हुआ ; यथा – जिस तरह ; ब्रह्म – परमेश्वर ; तथा – उसी प्रकार ; आप्नोति – प्राप्त करता है ; निबोध – समझने का यत्न करो ; मे – मुझसे ; समासेन – संक्षेप में ; एव – निश्चय ही ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; निष्ठा – अवस्था ; ज्ञानस्य – ज्ञान की ; या – जो ; परा – दिव्य ।
हे कुन्तीपुत्र ! जिस तरह इस सिद्धि को प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात् ब्रह्म को , जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है , प्राप्त करता है , उसका मैं संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा , उसे तुम जानो ।
तात्पर्य :- भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि किस तरह कोई व्यक्ति केवल अपने वृत्तिपरक कार्य में लग कर परम सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है , यदि यह कार्य भगवान् के लिए किया गया हो ।
यदि मनुष्य अपने कर्म के फल को परमेश्वर की तुष्टि के लिए ही त्याग देता है , तो उसे ब्रह्म की चरम अवस्था प्राप्त हो जाती है । यह आत्म – साक्षात्कार की विधि है । ज्ञान की वास्तविक सिद्धि शुद्ध कृष्णभावनामृत प्राप्त करने में है , इसका वर्णन अगले श्लोकों में किया गया है ।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्ता धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ ५१ ॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥ ५२ ॥
अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५३ ॥
बुद्धया – बुद्धि से ; विशुद्धया – नितान्त शुद्ध ; युक्त: – रत ; धृत्या – धैर्य से ; आत्मानम् – स्व को ; नियम्य – वश में करके ; च – भी ; शब्द आदीन् – शब्द आदि ; विषयान् – इन्द्रियविषयों को ; त्यक्त्वा – त्यागकर ; राग – आसक्ति ; द्वेषो – तथा घृणा को ; व्युदस्य – एक तरफ रख कर ; च – भी ।
विविक्त-सेवी – एकान्त स्थान में रहते हुए ; लघु-आशी – अल्प भोजन करने वाला ; यत – वश में करके ; बाक् – वाणी ; काय – शरीर ; मानसः – तथा मन को ; ध्यान- योगपर: – समाधि में लीन ; नित्यम् – चौबीसों घण्टे ; वैराग्यम् – वैराग्य का ; समुपाश्रितः – आश्रय लेकर ।
अहङ्कारम् – मिथ्या, अहंकार को ; बलम् – झूठे वल को ; दर्पम् – झूठे घमंड को ; कामम् – काम को ; क्रोधम् – क्रोध को ; परिग्रहम् – तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह को ; विमुच्य – त्याग कर ; निर्ममः – स्वामित्व की भावना सेरहित ; शान्तः – शान्त ; ब्रह्म-भूयाय – आत्म-साक्षात्कार के लिए ; कल्पते – योग्य हो जाता है ।
अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए , इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर , राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वास करता है , जो थोड़ा खाता है , जो अपने शरीर मन तथा वाणी को वश में रखता है ।
जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्णतया विरक्त , मिथ्या अहंकार , मिथ्या शक्ति , मिथ्या गर्व , काम , क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है , जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म – साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- जो मनुष्य बुद्धि द्वारा शुद्ध हो जाता है , वह अपने आपको सत्त्व गुण में अधिष्ठित कर लेता है । इस प्रकार वह मन को वश में करके सदैव समाधि में रहता है । वह इन्द्रियतृप्ति के विषयों के प्रति आसक्त नहीं रहता और अपने कार्यों में राग तथा द्वेष से मुक्त होता है ।
ऐसा विरक्त व्यक्ति स्वभावतः एकान्त स्थान में रहना पसन्द करता है , वह आवश्यकता से अधिक खाता नहीं और अपने शरीर तथा मन की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है । वह मिथ्या अहंकार से रहित होता है क्योंकि वह अपने को शरीर नहीं समझता । न ही वह अनेक भौतिक वस्तुएँ स्वीकार करके शरीर को स्थूल तथा वलवान बनाने की इच्छा करता है ।
चूँकि वह देहात्मबुद्धि से रहित होता है अतएव यह मिथ्या गर्व नहीं करता । भगवत्कृपा से उसे जितना कुछ प्राप्त हो जाता है , उसी से वह संतुष्ट रहता है और इन्द्रियतृप्ति न होने पर कभी कुछ नहीं होता । न ही वह इन्द्रियविषयों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है ।
इस प्रकार जब वह मिथ्या अहंकार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है , तो वह समस्त भौतिक वस्तुओं से विरक्त बन जाता है और यही ब्रह्म की आत्म – साक्षात्कार अवस्था है ।
यह ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है । जब मनुष्य देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाता है , तो वह शान्त हो जाता है और उसे उत्तेजित नहीं किया जा सकता इसका वर्णन भगवद्गीता में ( २.७० ) इस प्रकार हुआ
आपूर्वमाणमचलप्रतिष्ठ समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
” जो मनुष्य इच्छाओं के अनवरत प्रवाह से विचलित नहीं होता , जिस प्रकार नदियों के जल के निरन्तर प्रवेश करते रहने और सदा भरते रहने पर भी समुद्र शांत रहता है , उसी तरह केवल वही शान्ति प्राप्त कर सकता है , वह नहीं , जो ऐसी इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरन्तर उद्योग करता रहता है । ”
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ ५४ ॥
ब्रह्म-भूतः – ब्रह्म से तदाकार होकर ; प्रसन्न-आत्मा – पूर्णतया प्रमुदित ; न – कभी नहीं ; शोचति – खेद करता है ; न – कभी नहीं ; काङ्ङ्क्षति – इच्छा करता है ; समः – समान भाव से ; सर्वेषु – समस्त ; भूतेषु – जीवों पर ; मत्-भक्तिम् – मेरी भक्ति को ; लभते – प्राप्त करता है ; पराम् – दिव्य ।
इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है , वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है । वह न तो कभी शोक करता है , न किसी वस्तु की कामना करता है । वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है । उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है ।
तात्पर्य :- निर्विशेषवादी के लिए ब्रह्मभूत अवस्था प्राप्त करना अर्थात् ब्रह्म से तदाकार होना परम लक्ष्य होता है । लेकिन साकारवादी शुद्धभक्त को इससे भी आगे चलकर शुद्ध भक्ति में प्रवृत्त होना होता है । इसका अर्थ हुआ कि जो भगवद्भक्ति में रत है , वह पहले ही मुक्ति की अवस्था , जिसे ब्रह्मभूत या ब्रह्म से तादात्म्य कहते हैं , प्राप्त कर चुका होता है ।
परमेश्वर या परब्रह्म से तदाकार हुए बिना कोई उनकी सेवा नहीं कर सकता । परम ज्ञान होने पर सेव्य तथा सेवक में कोई अन्तर नहीं कर सकता , फिर भी उच्चतर आध्यात्मिक दृष्टि से अन्तर तो रहता ही है । देहात्मवृद्धि के अन्तर्गत , जब कोई इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है , तो दुख का भागी होता है , लेकिन परम जगत् में शुद्ध भक्ति में रत रहने पर कोई दुख नहीं रह जाता ।
कृष्णभावनाभावित भक्त को न तो किसी प्रकार का शोक होता है , न आकांक्षा होती है । चूँकि ईश्वर पूर्ण है , अतएव ईश्वर में सेवारत जीव भी कृष्णभावना में रहकर अपने में पूर्ण रहता है । वह ऐसी नदी के तुल्य है , जिसके जल की सारी गंदगी साफ कर दी गई है । चूँकि शुद्ध भक्त में कृष्ण के अतिरिक्त कोई विचार ही नहीं उठते , अतएव वह प्रसन्न रहता है ।
वह न तो किसी भौतिक क्षति पर शोक करता है , न किसी लाभ की आकांक्षा करता है , क्योंकि वह भगवद्भक्ति से पूर्ण होता है । वह किसी भौतिक भोग की आकांक्षा नहीं करता , क्योंकि वह जानता है कि प्रत्येक जीव भगवान् का अंश है , अतएव वह उनका नित्य दास है । वह भौतिक जगत में न तो किसी को अपने से उच्च देखता है और न किसी को निम्न ।
ये उच्च तथा निम्न पद क्षणभंगुर है और भक्त को क्षणभंगुर प्राकट्य या तिरोधान से कुछ लेना – देना नहीं रहता । उसके लिए पत्थर तथा सोना बराबर होते हैं । यह ब्रह्मभूत अवस्था है , जिसे शुद्ध भक्त सरलता से प्राप्त कर लेता है ।
उस अवस्था में परब्रह्म से तादात्म्य और अपने व्यक्तित्व का विलय नारकीय बन जाता है , स्वर्ग प्राप्त करने का विचार मृगतृष्णा लगता है और इन्द्रियाँ विषदंतविहीन सर्प की भाँति प्रतीत होती हैं ।
जिस प्रकार विषदंतविहीन सर्प से कोई भय नहीं रह जाता उसी प्रकार स्वतः संयमित इन्द्रियों से कोई भय नहीं रह जाता । यह संसार उस व्यक्ति के लिए दुखमय है , जो भौतिकता से ग्रस्त है । लेकिन भक्त के लिए समग्र जगत् बैकुण्ठ तुल्य है ।
इस ब्रह्माण्ड का महान से महानतम पुरुष भी भक्त के लिए एक क्षुद्र चींटी से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होता । ऐसी अवस्था भगवान् चैतन्य की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है , जिन्होंने इस युग में शुद्ध भक्ति का प्रचार किया ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ ५५ ॥
भक्त्या – शुद्ध भक्ति से ; माम् – मुझको ; अभिजानाति – जान सकता है ; यावान् – जितना ; यः च अस्मि – जैसा में हूँ ; तत्त्वतः – सत्यत ; ततः – तत्पश्चात् ; माम् – मुझको ; तत्त्वतः – सत्यत ; ज्ञात्वा – जानकर ; विशते – प्रवेश करता है ; तत्-अनन्तरम् – तत्पश्चात् ।
केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है । जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है , तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है ।
तात्पर्य :- भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके स्वांशों को न तो मनोधर्म द्वारा जाना जा सकता है , न ही अभक्तगण उन्हें समझ पाते हैं । यदि कोई व्यक्ति भगवान् को समझना चाहता है , तो उसे शुद्ध भक्त के पथदर्शन में शुद्ध भक्ति ग्रहण करनी होती है , अन्यथा भगवान् सम्बन्धी सत्य ( तत्त्व ) उससे सदा छिपा रहेगा । जैसा कि भगवद्गीता में ( ७.२५ ) कहा जा चुका है – नाहं प्रकाशः सर्वस्य में सबों के समक्ष प्रकाशित नहीं होता ।
केवल पाण्डित्य या मनोधर्म द्वारा ईश्वर को नहीं समझा जा सकता । कृष्ण को केवल वही समझ पाता है , जो कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में तत्पर रहता है । इसमें विश्वविद्यालय की उपाधियाँ सहायक नहीं होती हैं । जो व्यक्ति कृष्ण विज्ञान ( तत्त्व ) से पूर्णतया अवगत है , वही वैकुण्ठजगत् या कृष्ण के धाम में प्रवेश कर सकता है ।
ब्रह्मभूत होने का अर्थ यह नहीं है कि वह अपना स्वरूप खो बैठता है । भक्ति तो रहती ही है और जब तक भक्ति का अस्तित्व रहता है , तब तक ईश्वर , भक्त तथा भक्ति की विधि रहती है । ऐसे ज्ञान का नाश मुक्ति के बाद भी नहीं होता । मुक्ति का अर्थ देहात्मबुद्धि से मुक्ति प्राप्त करना है ।
आध्यात्मिक जीवन में वैसा ही अन्तर , वही व्यक्तित्व ( स्वरूप ) बना रहता है , लेकिन शुद्ध कृष्णभावनामृत में ही विशते शब्द का अर्थ है ” मुझमें प्रवेश करता है । ” भ्रमवश यह नहीं सोचना चाहिए । कि यह शब्द अद्वैतवाद का पोषक है और मनुष्य निर्गुण ब्रह्म से एकाकार हो जाता है । ऐसा नहीं है ।
विशते का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व सहित भगवान् के धाम में , भगवान् की संगति करने तथा उनकी सेवा करने के लिए प्रवेश कर सकता है । उदाहरणार्थ , एक हरा पक्षी ( शुक ) हरे वृक्ष में इसलिए प्रवेश नहीं करता कि वह वृक्ष से तदाकार ( लीन ) हो जाय , अपितु वह वृक्ष के फलों का भोग करने के लिए प्रवेश करता है ।
निर्विशेषवादी सामान्यतया समुद्र में गिरने वाली तथा समुद्र से मिलने वाली नदी का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं । यह निर्विशेषवादियों के लिए आनन्द का विषय हो सकता है , लेकिन साकारवादी अपने व्यक्तित्व को उसी प्रकार बनाये रखना चाहता है , जिस प्रकार समुद्र में एक लचर प्राणी । यदि हम समुद्र की गहराई में प्रवेश करें तो हमें अनेकानेक जीव मिलते हैं ।
केवल समुद्र की ऊपरी जानकारी पर्याप्त नहीं है , समुद्र की गहराई में रहने वाले जलचर प्राणियों की भी जानकारी रखना आवश्यक है । भक्त अपनी शुद्ध भक्ति के कारण परमेश्वर के दिव्य गुणों तथा ऐश्वर्य को यथार्थ रूप में जान सकता है । जैसा कि ग्यारहवें अध्याय में कहा जा चुका है , केवल भक्ति द्वारा इसे समझा जा सकता है । इसी की पुष्टि यहाँ भी हुई है ।
मनुष्य भक्ति द्वारा भगवान् को समझ सकता है और उनके धाम में प्रवेश कर सकता है । भौतिक बुद्धि से मुक्ति की अवस्था ब्रह्मभूत अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद भगवान् के विषय में श्रवण करने से भक्ति का शुभारम्भ होता है । जब कोई परमेश्वर के विषय में श्रवण करता है , तो स्वतः ब्रह्मभूत अवस्था का उदय होता है और भौतिक कल्मष – यथा लोभ तथा काम – का विलोप हो जाता है ।
ज्यों – ज्यों भक्त के हृदय से काम तथा इच्छाएँ विलुप्त होती जाती हैं , त्यों – त्यों वह भगवद्भक्ति के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है और इस तरह वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है । जीवन की उस स्थिति में वह भगवान् को समझ सकता है । श्रीमद्भागवत में भी इसका कथन हुआ है । मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है ।
इसकी पुष्टि वेदान्तसूत्र से ( ४.१.१२ ) होती है- आप्रायणात् तत्रापि हि दृष्टम् । इसका अर्थ है कि मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है । श्रीमद्भागवत में वास्तविक भक्तिमयी मुक्ति की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार यह जीव का अपने स्वरूप या अपनी निजी स्वाभाविक स्थिति में पुनःप्रतिष्ठापित हो जाना है ।
अतएव स्वाभाविक स्थिति की व्याख्या पहले ही की जा चुकी है – प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है , अतएव उसकी स्वाभाविक स्थिति सेवा करने की है । मुक्ति के बाद यह सेवा कभी रुकती नहीं । वास्तविक मुक्ति तो देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणा से मुक्त होना है ।
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