भगवद गीता अध्याय 18.3 || तीन गुण ज्ञान,कर्म,कर्ता,बुद्धि,धृति,सुख || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय अठारह (Chapter -18)

भगवद गीता अध्याय 18.3 में शलोक 19  से  शलोक  40 तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता , बुद्धि,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद का वर्णन !

ज्ञानं  कर्म  च  कर्ता  च  त्रिधैव   गुणभेदतः । 

प्रोच्यते  गुणसंख्याने  यथावच्छृणु  तान्यपि ॥ १९ ॥ 

ज्ञानम्     –    ज्ञान    ;   कर्म   –   कर्म   ;   च   –   भी   ;   कर्ता   –   कर्ता   ;   च   –   भी   ;   त्रिधा  –   तीन प्रकार का   ;   एव –    निश्चय ही    ; गुण-भेदतः     –      प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार    ;      प्रोच्यते     –     कहे जाते हैं     ;     गुण-सङ्ख्याने     –    विभिन्न गुणों के रूप में    ;    यथावत्   –    जिस रूप में हैं उसी में    ;     शृणु    –    सुनो   ;     तानि     –    उन सब को    ;     अपि   –   भी । 

प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ही ज्ञान , कर्म तथा कर्ता के तीन – तीन भेद हैं । अब तुम मुझसे इन्हें सुनो । 

तात्पर्य :-  चौदहवें अध्याय में प्रकृति के तीन गुणों का विस्तार से वर्णन हो चुका है । उस अध्याय में कहा गया था कि सतोगुण प्रकाशक होता है , रजोगुण भौतिकवादी तथा तमोगुण आलस्य तथा प्रमाद का प्रेरक होता है । प्रकृति के सारे गुण वन्धनकारी हैं , वे मुक्ति के साधन नहीं हैं । यहाँ तक कि सतोगुण में भी मनुष्य बद्ध रहता है ।

सत्रहवें अध्याय में विभिन्न प्रकार के मनुष्यों द्वारा विभिन्न गुणों में रहकर की जाने वाली विभिन्न प्रकार की पूजा का वर्णन किया गया । इस श्लोक में भगवान् कहते हैं कि वे तीनों गुणों के अनुसार विभिन्न प्रकार के ज्ञान , कर्ता तथा कर्म के विषय में बताना चाहते हैं ।

सर्वभूतेषु           येनैकं            भावमव्ययमीक्षते । 

अविभक्तं  विभक्तेषु  तज्ज्ञानं  विद्धि  सात्त्विकम् ॥ २० ॥ 

सर्व-भूतेषु       –     समस्त जीवों में    ;      येन   –   जिससे   ;     एकम्    –   एक    ;   भावम्    – स्थिति     ;      अव्ययम्    – अविनाशी    ;     ईक्षते    – देखता है    ;      अविभक्तम्     – अविभाजित     ;      विभक्तेषु     –   अनन्त विभागों में बँटे हुए में  ; तत्    –    उस    ;    ज्ञानम्  –     ज्ञान को    ; विद्धि    –   जानो      ;     सात्त्विकम्     –     सतोगुणी । 

जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है , उसे ही तुम सात्त्विक जानो । 

तात्पर्य :-  जो व्यक्ति हर जीव में , चाहे वह देवता हो , मनुष्य हो , पशु – पक्षी हो या जलजन्तु अथवा पौधा हो , एक ही आत्मा को देखता है , उसे सात्त्विक ज्ञान प्राप्त रहता है । समस्त जीवों में एक ही आत्मा है , यद्यपि पूर्व कर्मों के अनुसार उनके शरीर भिन्न – भिन्न हैं । जैसाकि सातवें अध्याय में वर्णन हुआ है , प्रत्येक शरीर में जीवनी शक्ति की अभिव्यक्ति परमेश्वर की पराप्रकृति के कारण होती है ।

उस एक पराप्रकृति , उस जीवनी शक्ति को प्रत्येक शरीर में देखना सात्त्विक दर्शन है । यह जीवनी शक्ति अविनाशी है , भले ही शरीर विनाशशील हों । जो आपसी भेद है , वह शरीर के कारण है । चूँकि वद्धजीवन में अनेक प्रकार के भौतिक रूप हैं , अतएव जीवनी शक्ति विभक्त प्रतीत होती है । ऐसा निराकार ज्ञान आत्म – साक्षात्कार का एक पहलू है । 

पृथक्त्वेन   तु   यज्ज्ञानं   नानाभावान्पृथग्विधान् । 

वेत्ति   सर्वेषु   भूतेषु   तज्ज्ञानं   विद्धि   राजसम् ॥ २१ ॥ 

पृथक्त्वेन     –     विभाजन के कारण    ;      तु   –   लेकिन    ;    यत्    –   जो  ;     ज्ञानम्    –    ज्ञान    ;     नाना-भावान्    –    अनेक प्रकार की अवस्थाओं को     ;     पृथक्-विधान    –     विभिन्न   ;    वेत्ति    –    जानता है     ;    सर्वेषु    –    समस्त     ;     भूतेषु    – जीवों में    ;    तत्   –   उस    ;     ज्ञानम्     – ज्ञान को    ;   विद्धि    –   जानो    ;    राजसम्    –   राजसी । 

जिस ज्ञान कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न – भिन्न प्रकार का जीव देखता है , उसे तुम राजसी जानो ।

तात्पर्य :-  यह धारणा कि भौतिक शरीर ही जीव है और शरीर के विनष्ट होने पर चेतना भी नष्ट हो जाती है , राजसी ज्ञान है । इस ज्ञान के अनुसार एक शरीर दूसरे शरीर से भिन्न है , क्योंकि उनमें चेतना का विकास भिन्न प्रकार से होता है , अन्यथा चेतना को प्रकट करने वाला पृथक् आत्मा न रहे । शरीर स्वयं आत्मा है और शरीर के परे कोई पृथक् आत्मा नहीं है ।

इस ज्ञान के अनुसार चेतना अस्थायी है या यह कि पृथक आत्माएँ नहीं होतीं , एक सर्वव्यापी आत्मा है , जो ज्ञान से पूर्ण है और यह शरीर क्षणिक अज्ञानता का प्रकाश है । या यह कि इस शरीर के परे कोई विशेष जीवात्मा या परम आत्मा नहीं है । ये सब धारणाएँ रजोगुण से उत्पन्न हैं । 

यत्तु   कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये   सक्तमहैतुकम् । 

अतत्त्वार्थवदल्पं     च      तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥  

यत्   –   जो     ;     तु   –  लेकिन    ;     कृत्स्नवत्    –   पूर्ण रूप से    ;    एकस्मिन्    –   एक   ;    कार्ये    –    कार्य में     ;     सक्तम्    –    आसक्त     ; अहेतुकम्    –    बिना हेतु के   ;     अतत्त्व- अर्थ-वत्       –    वास्तविकता के ज्ञान से रहित     ;       अल्पम्    –    अति , तुच्छ    ;     च    –    तथा    ;     तत्   –   वह    ;     तामसम्     –    तमोगुणी     ;     उदाहृतम्     –   कहा जाता है । 

और वह ज्ञान , जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को , जो अति तुच्छ है , सब कुछ मान कर , सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है , तामसी कहा जाता है ।

तात्पर्य :-  सामान्य मनुष्य का ‘ ज्ञान ‘ सदैव तामसी होता है , क्योंकि प्रत्येक वद्धजीव तमोगुण में ही उत्पन्न होता है । जो व्यक्ति प्रमाणों से या शास्त्रीय आदेशों के माध्यम से ज्ञान अर्जित नहीं करता , उसका ज्ञान शरीर तक ही सीमित रहता है ।

उसे शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य करने की चिन्ता नहीं होती । उसके लिए धन ही ईश्वर है और ज्ञान का अर्थ शारीरिक आवश्यकताओं की तुष्टि है । ऐसे ज्ञान का परम सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता । यह बहुत कुछ साधारण पशुओं के ज्ञान यथा खाने , सोने , रक्षा करने तथा मैथुन करने का ज्ञान जैसा है । ऐसे ज्ञान को यहाँ पर तमोगुण से उत्पन्न बताया गया है ।

दूसरे शब्दों में , इस शरीर से परे आत्मा सम्बन्धी ज्ञान सात्त्विक ज्ञान कहलाता है । जिस ज्ञान से लौकिक तर्क तथा चिन्तन ( मनोधर्म ) द्वारा नाना प्रकार के सिद्धान्त तथा बाद जन्म लें , वह राजसी है और शरीर को सुखमय बनाये रखने वाले ज्ञान को तामसी कहा जाता है ।

नियतं      सङ्गरहितमरागद्वेषतः      कृतम् । 

अफलप्रेप्सुना   कर्म   यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ 

नियतम्    –    नियमित    ;      सङ्ग-रहितम्      –     आसक्ति रहित    ;     अराग-द्वेषत:     –      राग-द्वेष मे रहित       ;     कृतम्    – किया गया     ;     अफल-प्रेप्सुना     –     फल की इच्छा से रहित वाले के द्वारा    ;     कर्म    –     कर्म    ;      यत्    –    जो     ; सात्त्विकम्     –     सतोगुणी    ;      उच्यते    – कहा जाता है । 

जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति , राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है , वह सात्त्विक कहलाता है ।

तात्पर्य :-  विभिन्न आश्रमों तथा समाज के वर्णों के आधार पर शास्त्रों में संस्तुत वृतिपरक कर्म , जो अनासक्त भाव से अथवा स्वामित्व के अधिकारों के बिना , प्रेम – घृणा – भावरहित परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए आसक्ति या अधिकार की भावना के बिना कृष्णभावनामृत में किये जाते हैं , सात्त्विक कहलाते हैं ।

यत्तु  कामेप्सुना  कर्म  साहंकारेण  वा  पुनः । 

क्रियते     बहुलायासं      तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४ ॥ 

यत्     –    जो     ;     तु    –    लेकिन    ;     काम-ईप्सुना     –    फल की इच्छा रखने वाले के द्वारा   ;       कर्म     –   कर्म    ;     स अहङ्कारण      – अहंकार सहित वा अथवा     ;     पुनः   –     फिर     ;      क्रियते    –   किया जाता है     ;     बहुल  आयासम्    –     कठिन परिश्रम से     ;    तत्    –    वह     ;    राजसम्    –    राजसी     ;       उदाहृतम्    –    कहा जाता है । 

लेकिन जो कार्य अपनी इच्छा पूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है , वह रजोगुणी कहा जाता है ।

अनुबन्धं  क्षयं  हिंसामनपेक्ष्य   च  पौरुषम् । 

मोहादारभ्यते      कर्म     यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥

अनुबन्धम्     –     भावी बन्धन का     ;     क्षयम्    –     विनाश    ;     हिंसाम्     –    तथा अन्यों को कष्ट    ;     अनपेक्ष्य     –    परिणाम पर विचार किये बिना     ;     च    –   भी    ;    पौरुषम्   –सामर्थ्य को    ;    मोहात्     –     मोह    ;     आरभ्यते     –    प्रारम्भ किया जाता है    ;     कर्म   –   कर्म     ;     यत् –    जो     ;     तत्    –    वह    ;     तामसम्    –    तामसी    ;     उच्यते    –   कहा जाता है 

जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बन्धन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुख पहुँचाने के लिए किया जाता है , वह तामसी कहलाता है । 

तात्पर्य :-  मनुष्य को अपने कर्मों का लेखा राज्य को अथवा परमेश्वर के दूतों को , जिन्हें यमदूत कहते हैं , देना होता है । उत्तरदायित्वहीन कर्म विनाशकारी है , क्योंकि इससे शास्त्रीय आदेशों का विनाश होता है ।

यह प्रायः हिंसा पर आधारित होता है और अन्य जीवों के लिए दुखदायी होता है । उत्तरदायित्व से हीन ऐसा कर्म अपने निजी अनुभव के आधार पर किया जाता है । यह मोह कहलाता है । ऐसा समस्त मोहग्रस्त कर्म तमोगुण के फलस्वरूप होता है । 

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी               धृत्युत्साहसमन्वितः ।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः  कर्ता  सात्त्विक   उच्यते ॥ २६ ॥ 

मुक्त-सङ्ग:    –    सारे भौतिक संसर्ग से मुक्त   ;     अनहम्-वादी-मिथ्या    –   अहंकार से रहित   ;   धृति     –     संकल्प उत्साह तथा उत्साह सहित    ;    समन्वितः   –   योग्य    ;     सिद्धि   –   सिद्धि     ;   असिद्धयो:     –     तथा विफलता में   ;    निर्विकारः   –    विना परिवर्तन के   ;     कर्ता    –   कर्ता    ;     सात्त्विक:    –    सतोगुणी    ;     उच्यते   –    कहा जाता है । 

जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित , संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है , वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है । 

तात्पर्य :-  कृष्णभावनामय व्यक्ति सदैव प्रकृति के गुणों से अतीत होता है । उसे अपने को सौंपे गये कर्म के परिणाम की कोई आकांक्षा नहीं रहती , क्योंकि वह मिथ्या अहंकार तथा घमंड से परे होता है ।

फिर भी कार्य के पूर्ण होने तक वह सदेव उत्साह से पूर्ण रहता है । उसे होने वाले कष्टों की कोई चिन्ता नहीं होती , वह सदैव उत्साहपूर्ण रहता है । वह सफलता या विफलता की परवाह नहीं करता , वह सुख – दुख में समभाव रहता है । ऐसा कर्ता सात्त्विक है । 

रागी    कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो   हिंसात्मकोऽशुचिः |   

कर्ता    राजसः    हर्षशोकान्वितः   परिकीर्तितः ॥ २७ ॥ 

रागी    –    अत्यधिक आसक्त     ;     कर्म-फल   –     कर्म के फल की    ;    प्रेप्सुः    –   इच्छा करते हुए    ;     लुब्धः    –    लालची    ; हिंसा-आत्मकः      –    सदैव ईर्ष्यालु   ;    अशुचिः   –  अपवित्र    ;     हर्ष-शोक-अन्वितः     –      हर्ष तथा शोक से युक्त     ;     कर्ता    –   ऐसा कर्ता    ; राजसः   –   रजोगुणी ;     परिकीर्तितः     –    घोषित किया जाता है । 

जो कर्ता कर्म तथा कर्म – फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी , सदैव ईर्ष्यालु , अपवित्र और सुख – दुख से विचलित होने वाला है , वह राजसी कहा जाता है । 

तात्पर्य :-  मनुष्य सदैव किसी कार्य के प्रति या फल के प्रति इसलिए अत्यधिक आसक्त रहता है , क्योंकि वह भौतिक पदार्थों , घर – बार , पत्नी तथा पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त होता है । ऐसा व्यक्ति जीवन में ऊपर उठने की आकांक्षा नहीं रखता ।

वह इस संसार को यथासम्भव आरामदेह बनाने में ही व्यस्त रहता है । सामान्यतः वह अत्यन्त लोभी होता है और सोचता है कि उसके द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक वस्तु स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होगी ।

ऐसा व्यक्ति अन्यों से ईर्ष्या करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी अनुचित कार्य कर सकता है । अतएव ऐसा व्यक्ति अपवित्र होता है और वह इसकी चिन्ता नहीं करता कि उसकी कमाई शुद्ध है या अशुद्ध । यदि उसका कार्य सफल हो जाता है तो वह अत्यधिक प्रसन्न और असफल होने पर अत्यधिक दुखी होता है । रजोगुणी कर्ता ऐसा ही होता है ।

अयुक्तः  प्राकृतः  स्तब्धः  शठो  नैष्कृतिकोऽलसः । 

विषादी    दीर्घसूत्री    च    कर्ता   तामस   उच्यते ॥ २८ ॥ 

अयुक्त:   –   शास्त्रों के आदेशों को न मानने वाला    ;    प्राकृतः   –   भौतिकवादी   ;     स्तब्ध:   –   हठी   ;   शठः   – कपटी   ; नैष्कृतिक: –    अन्यों का अपमान करने मेंपटु    ;    अलसः   –  आलसी    ;   विषादी   –   खित्र   ;    दीर्घ-सूत्री-ऊँघ    –   ऊँध कर काम करने वाला, देर लगाने वाला    ;    च    –   भी   ;   कर्ता   –   कर्ता   ;  तामसः   –   तमोगुणी   ;   उच्यते   –   कहलाता है । 

जो कर्ता सदा शास्त्रों के आदेशों के विरुद्ध कार्य करता रहता है , जो भौतिकवादी , हठी , कपटी तथा अन्यों का अपमान करने में पद है तथा जो आलसी , सदैव खिन्न तथा काम करने में दीर्घसूत्री है , वह तमोगुणी कहलाता है । 

तात्पर्य :-  शास्त्रीय आदेशों से हमें पता चलता है कि हमें कौन सा काम करना चाहिए । ओर कौन सा नहीं करना चाहिए । जो लोग शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करके अकरणीय कार्य करते हैं , प्रायः भौतिकवादी होते हैं । ये प्रकृति के गुणों के अनुसार कार्य करते हैं , शास्त्रों के आदेशों के अनुसार नहीं । ऐ

से कर्ता भद्र नहीं होते और सामान्यतया सदेव कपटी ( धूर्त ) तथा अन्यों का अपमान करने वाले होते हैं । वे अत्यन्त आलसी होते . हैं , काम होते हुए भी उसे ठीक से नहीं करते और बाद में करने के लिए उसे एक तरफ रख देते हैं , अतएव वे खिन्न रहते हैं जो काम एक घंटे में हो सकता है , उसे वे वर्षों तक घसीटते जाते हैं वे दीर्घसूत्री होते हैं । ऐसे कर्ता तमोगुणी होते हैं । 

बुद्धेर्भेदं  धृतेश्चैव   गुणतस्त्रिविधं  शृणु । 

प्रोच्यमानमशेषेण   पृथक्त्वेन  धनञ्जय ॥ २९ ॥ 

बुद्धेः   –   बुद्धि का    ;     भेदम्   –    अन्तर   ;    घृतेः   –  धैर्य का    ;    च   –   भी   ;    एव    – निश्चय ही    ;    गुणतः    –   गुणों के द्वारा ;    त्रि-विधम्    – तीन प्रकार के    ;     शृणु   –   सुनो   ;     प्रोच्यमानम्     –     जैसा मेरे द्वारा कहा गया  ,  आशेषेण विस्तार से   ; पृथक्त्वेन   –    भिन्न प्रकार से   ;     धनञ्जय –   हे सम्पत्ति के विजेता

हे धनञ्जय ! अब में प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊँगा । तुम इसे सुनो  ।

तात्पर्य :- ज्ञान ज्ञेय तथा ज्ञाता की व्याख्या प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन – तीन पृथक् विभागों में करने के बाद अब भगवान् कर्ता की बुद्धि तथा उसके संकल्प ( धैर्य ) के विषय में उसी प्रकार से बता रह है । 

प्रवृत्तिं     च     निवृत्तिं     च     कार्याकार्य     भयाभये । 

बन्धं   मोक्षं  च   या   वेत्ति  बुद्धिः  सा  पार्थ  सात्त्विकी ॥ ३० ॥

प्रवृत्तिम्    –    कर्म को    ;     च     –  भी   ;    निवृत्तिम्    –    अकर्म को     ;    अभये   –    तथा निडरता में    ;    च    –     तथा   ;     कार्य    –    करणीय ;     अकार्य    –    तथा  अकरणीय में     ;      बन्धम्    –    बन्धन    ;     मोक्षम्   –   मोक्ष    ;     च    –  तथा    ;    या  –    जो    ;    वेति    –   जानता है    ;   बुद्धि   –  बुद्धि    ;     सा    –   वह    ;    सात्त्विकी    –   सतोगुणी ।

हे पृथापुत्र ! वह बुद्धि सतोगुणी है , जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है , किससे उरना चाहिए और किससे नहीं , क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है । 

तात्पर्य :-  शास्त्रों के निर्देशानुसार कर्म करने को या उन कर्मों को करना जिन्हें किया जाना चाहिए , प्रवृत्ति कहते हैं । जिन कार्यों का इस तरह निर्देश नहीं होता वे नहीं किये जाने चाहिए । जो व्यक्ति शास्त्रों के निर्देशों को नहीं जानता , वह कमों तथा उनकी प्रतिक्रिया से बँध जाता है । जो बुद्धि अच्छे बुरे का भेद बताती है , यह सात्त्विकी है ।

यया   धर्ममधर्मं   च   कार्य    चाकार्यमेव   च । 

अयथावत्प्रजानाति   बुद्धिः  सा  पार्थ  राजसी ॥ ३१ ॥

यया    –   जिसके द्वारा     ;      धर्मम्    –    धर्म को    ;    अधर्मम्    –    अधर्म को    ;   च    –   तथा   ;      कार्यम्     –    करणीय    ;    च   –   भी    ;    अकार्यम्    –    अकरणीय को    ;     एव    – निश्चय ही    ;      च    –    भी    ;    अयथा-वत्    –    अधूरे ढंग से   ;     प्रजानाति    –     जानती है    ;     बुद्धिः –   बुद्धि     ;    सा    –   वह    ;    पार्थ    –     हे पृथापुत्र    ;    राजसी   –    रजोगुणी । 

हे पृथापुत्र ! जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म , करणीय तथा अकरणीय कर्म में भेद नहीं कर पाती , वह राजसी है । 

अधर्मं    धर्ममिति   या    मन्यते   तमसावृता । 

सर्वार्थान्विपरीतांश्च  बुद्धिः  सा  पार्थ  तामसी ॥ ३२ ॥ 

अधर्मम्     –    अधर्म को     ;    धर्मम्    –    धर्म   ;   इति    –   इस प्रकार    ;     या    –   जो    ;  मन्यते   –   सोचती है     ;    तमसा – भ्रम से   ;  आवृता    –    आच्छादित , ग्रस्त     ;    सर्व-अर्थान्    –    सारी वस्तुओं को   ;    विपरीतान्    –    उल्टी दिशा में   ;    च   – भी    ;     बुद्धिः   –    बुद्धि     ;    सा   –   वह   ;   पार्थ    –    हे पृथापुत्र    ;   तामसी    –     तमोगुण से युक्त । 

जो बुद्धि मोह तथा अंधकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है , हे पार्थ ! वह तामसी है । 

तात्पर्य :-  तामसी बुद्धि को जिस दिशा में काम करना चाहिए , उससे सदैव उल्टी दिशा में काम करती है । यह उन धर्मों को स्वीकारती है , जो वास्तव में धर्म नहीं हैं और वास्तविक धर्म को टुकराती है ।

अज्ञानी मनुष्य महात्मा को सामान्य व्यक्ति मानते हैं और सामान्य व्यक्ति को महात्मा स्वीकार करते हैं । वे सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य मानते हैं । वे सारे कामों में कुपथ ग्रहण करते हैं , अतएव उनकी बुद्धि तामसी होती है । 

धृत्या     यया     धारयते      मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः । 

योगेनाव्यभिचारिण्या  धृतिः  सा  पार्थ  सात्त्विकी ॥ ३३ ॥ 

घृत्या     –     संकल्प , धृति द्वारा    ;     यया    –   जिससे     ;    धारयते    –   धारण करता है     ;   मनः   –    मन की    ;     प्राण   – प्राण    ;   इन्द्रिय    –   तथा इन्द्रियों के    ;     क्रिया:    –कार्यकलापों को      ;    योगेन    –    योगाभ्यास द्वारा      ;    अव्यभिचारिण्या – तोड़े बिना,  निरन्तर     ;     धृतिः   –   धृति ;     सा    –   वह    ;    पार्थ    –    हे पृथापुत्र   ;    सात्त्विकी    – सात्त्विक   । 

हे पृथापुत्र ! जो अटूट है , जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन , प्राण तथा इन्द्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है , वह धृति सात्त्विक है । 

तात्पर्य :-  योग परमात्मा को जानने का साधन है । जो व्यक्ति मन , प्राण तथा इन्द्रियों को परमात्मा में एकाग्र करके दृढतापूर्वक उनमें स्थित रहता है , वही कृष्णभावना में होता है । ऐसी धृति सात्त्विक होती है । अव्यभिचारिण्या शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सूचित करता है कि कृष्णभावनामृत में तत्पर मनुष्य कभी किसी दूसरे कार्य द्वारा विचलित नहीं होता ।

यया    तु    धर्मकामार्थान्धृत्या    धारवतेऽर्जुन । 

प्रसङ्गेन  फलाकाङ्क्षी  धृतिः  सा  पार्थ  राजसी ॥ ३४ ॥ 

यया    –   जिसमे   ;    सु   –   लेकिन   ;    धर्म   –    धार्मिकता     ;    काम   –    इन्द्रिवतृप्ति   ;     अर्थान्     –    तथा आर्थिक विकास को     ;     धृत्या    –     संकल्प या धूति से    ;     धारयते    –  धारण करता है     ;    अर्जुन   –     हे अर्जुन    ;    प्रसङ्गेन    –   आसक्ति के कारण    ;      फल-आकाङ्क्षी    – कर्मफल की इच्छा करने वाला    ;     धृतिः    –    सकल्प या धृति   ;   सा   –   बह   ;     पार्थ   –   हे पुत्र    ;    राजसी    –   रजोगुणी

लेकिन हे अर्जुन ! जिस धृति से मनुष्य धर्म , अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है , वह राजसी है । 

तात्पर्य :-  जो व्यक्ति धार्मिक या आर्थिक कार्यों में कर्मफलों का सदेव आकांक्षी होता है , जिसकी एकमात्र इच्छा इन्द्रियतृप्ति होती है तथा जिसका मन , जीवन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार संलग्न रहती हैं , वह रजोगुणी होता है । 

यया   स्वप्नं   भयं   शोकं  विषादं  मदमेव    च । 

न  विमुञ्चति  दुर्मेधा   धृतिः  सा  पार्थ  तामसी ॥ ३५ ॥ 

यथा    –    जिससे    ;     स्वप्नम्   –   स्वप्न   ;    भवम्   –   भय   ;    शोकम्     –   शोक  ;    विषादम्    –     विषाद , खिन्नता    ; मदम् –    मोह की     ;   एव   –    निश्चय ही   ;    च  –   भी   ;    न   –   कभी नहीं   ;    विमुञ्चति   –    त्यागती है   ;    दुर्मेधा    –    दुर्बुद्धि   ; धृतिः   –    धृतिः   ;   सा    –     वह ;     पार्थ    –    हे पुत्र   ;     तामसी   –   तमोगुणी । 

हे पार्थ ! जो धृति स्वप्न , भय , शोक , विषाद तथा मोह के परे नहीं जाती , ऐसी दुर्बुद्धिपूर्ण धृति तामसी है । 

तात्पर्य :-  इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सतोगुणी मनुष्य स्वप्न नहीं देखता । यहाँ पर स्वप्न का अर्थ अति निद्रा है । स्वप्न सदा आता है , चाहे वह सात्त्विक हो , राजस हो या तामसी , स्वप्न तो प्राकृतिक घटना है ।

लेकिन जो अपने को अधिक सोने से नहीं बचा पाते , जो भौतिक वस्तुओं को भोगने के गर्व से नहीं बचा पाते , जो सदैव संसार पर प्रभुत्व जताने का स्वप्न देखते रहते हैं और जिनके प्राण , मन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार लिप्त रहती हैं , वे तामसी धृति वाले कहे जाते हैं । 

सुखं   त्विदानीं   त्रिविधं   शृणु   मे  भरतर्षभ । 

अभ्यासाद्रमते  यत्र   दुःखान्तं   च  निगच्छति ॥ ३६ ॥ 

सुखम्   –   सुख   ;     तु    –    लेकिन   ;     इदानीम्    –   अव    ;     त्रि-विधम्   –   तीन प्रकार का     ;     शृणु   –    सुनो     ;    मे –   मुझसे    ;    भरत-ऋषभ    –    हे भरतश्रेष्ठ    ;    अभ्यासात्    –    अभ्यास से     ;     रमते   –     भोगता है     ;    यत्र    –    जहाँ    ;   दुःख   –   दुख का     ;    अन्तम्    – अन्त    ;    च     –   भी    ;     निगच्छति    –   प्राप्त करता है । 

हे भरतश्रेष्ठ ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो , जिनके द्वारा कद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी – कभी दुखों का अन्त हो जाता है ।

तात्पर्य :-  वज्रजीव भौतिक सुख भोगने की बारम्बार चेष्टा करता है । इस प्रकार वह चर्वित चर्वण करता है । लेकिन कभी कभी ऐसे भोग के अन्तर्गत वह किसी महापुरुष की संगति से भववन्धन से मुक्त हो जाता है ।

दूसरे शब्दों में , वद्धजीव सदा ही किसी न किसी इन्द्रियतृप्ति में लगा रहता है , लेकिन जब सुसंगति से यह समझ लेता है कि . यह तो एक ही वस्तु की पुनरावृत्ति है और उसमें वास्तविक कृष्णभावनामृत का उदय होता है , तो कभी – कभी वह ऐसे तथाकथित आवृत्तिमूलक सुख से मुक्त हो जाता है ।

विषमिव        यत्तदग्रे       परिणामेऽमृतोपमम् ।

तत्सुखं    सात्त्विकं   प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३७ ॥ 

यत्    –   जो    ;    तत्   –   वह   ;     अग्रे   –   आरम्भ में    ;     विषम्-इव   –   विष के समान    ; परिणामे    –    अन्त में   ;    अमृत   – अमृत   ;    उपमम्    –   सदृश   ;     सुखम्   –   सुख   ;   सात्त्विकम्    –   सतोगुणी   ;     प्रोक्तम्    –    कहलाता है    ;     आत्म    – अपनी    ;   बुद्धि  –   वृद्धि की   ;    प्रसाद-जम्    –    तुष्टि से उत्पन्न । 

जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है , लेकिन अन्त में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म – साक्षात्कार जगाता है , वह सात्त्विक सुख कहलाता है । 

तात्पर्य :-  आत्म – साक्षात्कार के साधन में मन तथा इन्द्रियों को वश में करने तथा मन को आत्मकेन्द्रित करने के लिए नाना प्रकार के विधि – विधानों का पालन पड़ता है । ये सारी विधियाँ बहुत कठिन और विष के समान अत्यन्त कड़वी लगने वाली हैं , लेकिन यदि कोई इन नियमों के पालन में सफल हो जाता है और दिव्य पद को प्राप्त हो जाता है , तो वह वास्तविक अमृत का पान करने लगता है और जीवन का सुख प्राप्त करता है ।

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्         । 

परिणामे  विषमिव  तत्सुखं  राजसं  स्मृतम् ॥ ३८ ॥ 

विषय   –   इन्द्रिय विषयों   ;    इन्द्रिय   –   तथा इन्द्रियों के    ;    संयोगात्   –    संयोग से   ;    यत्   –    जो     ;     तत्   –   वह   ;    अग्रे   –   प्रारम्भ में    ; अमृत-उपमम्    –    अमृत के समान   ; परिणामे   –    अन्त में   ;    विषम्  इव    –    विष के समान    ;     तत्   –   वह    ;    सुखम्   – सुख    ;    राजसम्    –    राजसी   ;     स्मृतम्    –    माना जाता है । 

जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है , वह रजोगुणी कहलाता है । 

तात्पर्य :-  जब कोई युवक किसी युवती से मिलता है , तो इन्द्रियाँ युवक को प्रेरित करती हैं कि वह उस युवती को देखे , उसका स्पर्श करे और उससे संभोग करे । प्रारम्भ में इन्द्रियों को यह अत्यन्त सुखकर लग सकता है , लेकिन अन्त में या कुछ समय बाद वही विष तुल्य वन जाता है ।

तब वे विलग हो जाते हैं या उनमें तलाक ( विवाह – विच्छेद ) हो जाता है । फिर शोक , विषाद इत्यादि उत्पन्न होता है । ऐसा सुख सदैव राजसी होता है । जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होता है , वह सदेव दुख का कारण बनता है , अतएव इससे सभी तरह से बचना चाहिए ।

यदग्रे  चानुबन्धे  च  सुखं  मोहनमात्मनः । 

निद्रालस्यप्रमादोत्थं   तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९ ॥ 

यत्   –   जो   ;    अग्रे   –   प्रारम्भ में   ;    च   –   भी    ;     अनुबन्धे    –   अन्त में     ;    च   –   भी   ;     सुखम्    –   सुख    ;   आत्मनः   –    अपना    ; निद्रा    –    नींद     ;     आलस्य    –  आलस्य    ;    प्रमाद    –   तथा मोह से    ;     उत्थम्    –    उत्पन्न    ;   तामसम्    –   तामसी   ;   उदाहृतम्     –    कहलाता है । 

तथा जो सुख आत्म – साक्षात्कार के प्रति अन्धा है , जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और जो निद्रा , आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है , वह तामसी कहलाता है । 

तात्पर्य :-  जो व्यक्ति आलस्य तथा निद्रा में ही सुखी रहता है , वह निश्चय ही तमोगुणी है । जिस व्यक्ति को इसका कोई अनुमान नहीं है कि किस प्रकार कर्म किया जाय और किस प्रकार नहीं , वह भी तमोगुणी है । तमोगुणी व्यक्ति के लिए सारी वस्तुएँ भ्रम ( मोह ) हैं ।

उसे न तो प्रारम्भ में सुख मिलता है , न अन्त में रजोगुणी व्यक्ति के लिए प्रारम्भ में कुछ क्षणिक सुख और अन्त में दुख हो सकता है , लेकिन जो तमोगुणी है , उसे प्रारम्भ में तथा अन्त में दुख ही दुख मिलता है । 

न  तदस्ति  पृथिव्यां  वा  दिवि  देवेषु   वा  पुनः । 

सत्त्वं   प्रकृतिजैर्मुक्तं   यदेभिः   स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ४० ॥ 

न    –  नहीं   ;   तत्    –   वह   ;   अस्ति   –  है   ;    पृथिव्याम्   –   पृथ्वी पर   ;    वा   –   अथवा     ;     दिवि    –   उच्चतर लोकों में   ;   देवेषु    – देवताओं में   ;    वा   –   अथवा   ;    पुनः   –    फिर     ;    सत्त्वम्   –    अस्तित्व   ;   प्रकृति-जैः   –   प्रकृति से उत्पन्न ;   मुक्तम्   – मुक्त    ;    यत्    –    जो ;    एभिः   –   इनके प्रभाव से    ;     स्यात्   –   हो    ;    त्रिभिः   –   तीन  ;      गुणेः   –    गुणों से । 

इस लोक में , स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है , जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो ।

तात्पर्य :-  भगवान् इस श्लोक में समग्र ब्रह्माण्ड में प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं । 

भगवद गीता अध्याय 18.3~तीनों गुणों ज्ञान ,कर्म ,कर्ता ,बुद्धि ,धृति,सुख के पृथक-पृथक भेद / Powerful Bhagavad Gita gian,karm,karta or dhriti Ch18.3
भगवद गीता अध्याय 18.3

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