अध्याय अठारह (Chapter -18)
भगवद गीता अध्याय 18.3 में शलोक 19 से शलोक 40 तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता , बुद्धि,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद का वर्णन !
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ १९ ॥
ज्ञानम् – ज्ञान ; कर्म – कर्म ; च – भी ; कर्ता – कर्ता ; च – भी ; त्रिधा – तीन प्रकार का ; एव – निश्चय ही ; गुण-भेदतः – प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार ; प्रोच्यते – कहे जाते हैं ; गुण-सङ्ख्याने – विभिन्न गुणों के रूप में ; यथावत् – जिस रूप में हैं उसी में ; शृणु – सुनो ; तानि – उन सब को ; अपि – भी ।
प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ही ज्ञान , कर्म तथा कर्ता के तीन – तीन भेद हैं । अब तुम मुझसे इन्हें सुनो ।
तात्पर्य :- चौदहवें अध्याय में प्रकृति के तीन गुणों का विस्तार से वर्णन हो चुका है । उस अध्याय में कहा गया था कि सतोगुण प्रकाशक होता है , रजोगुण भौतिकवादी तथा तमोगुण आलस्य तथा प्रमाद का प्रेरक होता है । प्रकृति के सारे गुण वन्धनकारी हैं , वे मुक्ति के साधन नहीं हैं । यहाँ तक कि सतोगुण में भी मनुष्य बद्ध रहता है ।
सत्रहवें अध्याय में विभिन्न प्रकार के मनुष्यों द्वारा विभिन्न गुणों में रहकर की जाने वाली विभिन्न प्रकार की पूजा का वर्णन किया गया । इस श्लोक में भगवान् कहते हैं कि वे तीनों गुणों के अनुसार विभिन्न प्रकार के ज्ञान , कर्ता तथा कर्म के विषय में बताना चाहते हैं ।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ २० ॥
सर्व-भूतेषु – समस्त जीवों में ; येन – जिससे ; एकम् – एक ; भावम् – स्थिति ; अव्ययम् – अविनाशी ; ईक्षते – देखता है ; अविभक्तम् – अविभाजित ; विभक्तेषु – अनन्त विभागों में बँटे हुए में ; तत् – उस ; ज्ञानम् – ज्ञान को ; विद्धि – जानो ; सात्त्विकम् – सतोगुणी ।
जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है , उसे ही तुम सात्त्विक जानो ।
तात्पर्य :- जो व्यक्ति हर जीव में , चाहे वह देवता हो , मनुष्य हो , पशु – पक्षी हो या जलजन्तु अथवा पौधा हो , एक ही आत्मा को देखता है , उसे सात्त्विक ज्ञान प्राप्त रहता है । समस्त जीवों में एक ही आत्मा है , यद्यपि पूर्व कर्मों के अनुसार उनके शरीर भिन्न – भिन्न हैं । जैसाकि सातवें अध्याय में वर्णन हुआ है , प्रत्येक शरीर में जीवनी शक्ति की अभिव्यक्ति परमेश्वर की पराप्रकृति के कारण होती है ।
उस एक पराप्रकृति , उस जीवनी शक्ति को प्रत्येक शरीर में देखना सात्त्विक दर्शन है । यह जीवनी शक्ति अविनाशी है , भले ही शरीर विनाशशील हों । जो आपसी भेद है , वह शरीर के कारण है । चूँकि वद्धजीवन में अनेक प्रकार के भौतिक रूप हैं , अतएव जीवनी शक्ति विभक्त प्रतीत होती है । ऐसा निराकार ज्ञान आत्म – साक्षात्कार का एक पहलू है ।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥ २१ ॥
पृथक्त्वेन – विभाजन के कारण ; तु – लेकिन ; यत् – जो ; ज्ञानम् – ज्ञान ; नाना-भावान् – अनेक प्रकार की अवस्थाओं को ; पृथक्-विधान – विभिन्न ; वेत्ति – जानता है ; सर्वेषु – समस्त ; भूतेषु – जीवों में ; तत् – उस ; ज्ञानम् – ज्ञान को ; विद्धि – जानो ; राजसम् – राजसी ।
जिस ज्ञान कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न – भिन्न प्रकार का जीव देखता है , उसे तुम राजसी जानो ।
तात्पर्य :- यह धारणा कि भौतिक शरीर ही जीव है और शरीर के विनष्ट होने पर चेतना भी नष्ट हो जाती है , राजसी ज्ञान है । इस ज्ञान के अनुसार एक शरीर दूसरे शरीर से भिन्न है , क्योंकि उनमें चेतना का विकास भिन्न प्रकार से होता है , अन्यथा चेतना को प्रकट करने वाला पृथक् आत्मा न रहे । शरीर स्वयं आत्मा है और शरीर के परे कोई पृथक् आत्मा नहीं है ।
इस ज्ञान के अनुसार चेतना अस्थायी है या यह कि पृथक आत्माएँ नहीं होतीं , एक सर्वव्यापी आत्मा है , जो ज्ञान से पूर्ण है और यह शरीर क्षणिक अज्ञानता का प्रकाश है । या यह कि इस शरीर के परे कोई विशेष जीवात्मा या परम आत्मा नहीं है । ये सब धारणाएँ रजोगुण से उत्पन्न हैं ।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥
यत् – जो ; तु – लेकिन ; कृत्स्नवत् – पूर्ण रूप से ; एकस्मिन् – एक ; कार्ये – कार्य में ; सक्तम् – आसक्त ; अहेतुकम् – बिना हेतु के ; अतत्त्व- अर्थ-वत् – वास्तविकता के ज्ञान से रहित ; अल्पम् – अति , तुच्छ ; च – तथा ; तत् – वह ; तामसम् – तमोगुणी ; उदाहृतम् – कहा जाता है ।
और वह ज्ञान , जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को , जो अति तुच्छ है , सब कुछ मान कर , सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है , तामसी कहा जाता है ।
तात्पर्य :- सामान्य मनुष्य का ‘ ज्ञान ‘ सदैव तामसी होता है , क्योंकि प्रत्येक वद्धजीव तमोगुण में ही उत्पन्न होता है । जो व्यक्ति प्रमाणों से या शास्त्रीय आदेशों के माध्यम से ज्ञान अर्जित नहीं करता , उसका ज्ञान शरीर तक ही सीमित रहता है ।
उसे शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य करने की चिन्ता नहीं होती । उसके लिए धन ही ईश्वर है और ज्ञान का अर्थ शारीरिक आवश्यकताओं की तुष्टि है । ऐसे ज्ञान का परम सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता । यह बहुत कुछ साधारण पशुओं के ज्ञान यथा खाने , सोने , रक्षा करने तथा मैथुन करने का ज्ञान जैसा है । ऐसे ज्ञान को यहाँ पर तमोगुण से उत्पन्न बताया गया है ।
दूसरे शब्दों में , इस शरीर से परे आत्मा सम्बन्धी ज्ञान सात्त्विक ज्ञान कहलाता है । जिस ज्ञान से लौकिक तर्क तथा चिन्तन ( मनोधर्म ) द्वारा नाना प्रकार के सिद्धान्त तथा बाद जन्म लें , वह राजसी है और शरीर को सुखमय बनाये रखने वाले ज्ञान को तामसी कहा जाता है ।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥
नियतम् – नियमित ; सङ्ग-रहितम् – आसक्ति रहित ; अराग-द्वेषत: – राग-द्वेष मे रहित ; कृतम् – किया गया ; अफल-प्रेप्सुना – फल की इच्छा से रहित वाले के द्वारा ; कर्म – कर्म ; यत् – जो ; सात्त्विकम् – सतोगुणी ; उच्यते – कहा जाता है ।
जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति , राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है , वह सात्त्विक कहलाता है ।
तात्पर्य :- विभिन्न आश्रमों तथा समाज के वर्णों के आधार पर शास्त्रों में संस्तुत वृतिपरक कर्म , जो अनासक्त भाव से अथवा स्वामित्व के अधिकारों के बिना , प्रेम – घृणा – भावरहित परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए आसक्ति या अधिकार की भावना के बिना कृष्णभावनामृत में किये जाते हैं , सात्त्विक कहलाते हैं ।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४ ॥
यत् – जो ; तु – लेकिन ; काम-ईप्सुना – फल की इच्छा रखने वाले के द्वारा ; कर्म – कर्म ; स अहङ्कारण – अहंकार सहित वा अथवा ; पुनः – फिर ; क्रियते – किया जाता है ; बहुल आयासम् – कठिन परिश्रम से ; तत् – वह ; राजसम् – राजसी ; उदाहृतम् – कहा जाता है ।
लेकिन जो कार्य अपनी इच्छा पूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है , वह रजोगुणी कहा जाता है ।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥
अनुबन्धम् – भावी बन्धन का ; क्षयम् – विनाश ; हिंसाम् – तथा अन्यों को कष्ट ; अनपेक्ष्य – परिणाम पर विचार किये बिना ; च – भी ; पौरुषम् –सामर्थ्य को ; मोहात् – मोह ; आरभ्यते – प्रारम्भ किया जाता है ; कर्म – कर्म ; यत् – जो ; तत् – वह ; तामसम् – तामसी ; उच्यते – कहा जाता है ।
जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बन्धन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुख पहुँचाने के लिए किया जाता है , वह तामसी कहलाता है ।
तात्पर्य :- मनुष्य को अपने कर्मों का लेखा राज्य को अथवा परमेश्वर के दूतों को , जिन्हें यमदूत कहते हैं , देना होता है । उत्तरदायित्वहीन कर्म विनाशकारी है , क्योंकि इससे शास्त्रीय आदेशों का विनाश होता है ।
यह प्रायः हिंसा पर आधारित होता है और अन्य जीवों के लिए दुखदायी होता है । उत्तरदायित्व से हीन ऐसा कर्म अपने निजी अनुभव के आधार पर किया जाता है । यह मोह कहलाता है । ऐसा समस्त मोहग्रस्त कर्म तमोगुण के फलस्वरूप होता है ।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥ २६ ॥
मुक्त-सङ्ग: – सारे भौतिक संसर्ग से मुक्त ; अनहम्-वादी-मिथ्या – अहंकार से रहित ; धृति – संकल्प उत्साह तथा उत्साह सहित ; समन्वितः – योग्य ; सिद्धि – सिद्धि ; असिद्धयो: – तथा विफलता में ; निर्विकारः – विना परिवर्तन के ; कर्ता – कर्ता ; सात्त्विक: – सतोगुणी ; उच्यते – कहा जाता है ।
जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित , संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है , वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनामय व्यक्ति सदैव प्रकृति के गुणों से अतीत होता है । उसे अपने को सौंपे गये कर्म के परिणाम की कोई आकांक्षा नहीं रहती , क्योंकि वह मिथ्या अहंकार तथा घमंड से परे होता है ।
फिर भी कार्य के पूर्ण होने तक वह सदेव उत्साह से पूर्ण रहता है । उसे होने वाले कष्टों की कोई चिन्ता नहीं होती , वह सदैव उत्साहपूर्ण रहता है । वह सफलता या विफलता की परवाह नहीं करता , वह सुख – दुख में समभाव रहता है । ऐसा कर्ता सात्त्विक है ।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः |
कर्ता राजसः हर्षशोकान्वितः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥
रागी – अत्यधिक आसक्त ; कर्म-फल – कर्म के फल की ; प्रेप्सुः – इच्छा करते हुए ; लुब्धः – लालची ; हिंसा-आत्मकः – सदैव ईर्ष्यालु ; अशुचिः – अपवित्र ; हर्ष-शोक-अन्वितः – हर्ष तथा शोक से युक्त ; कर्ता – ऐसा कर्ता ; राजसः – रजोगुणी ; परिकीर्तितः – घोषित किया जाता है ।
जो कर्ता कर्म तथा कर्म – फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी , सदैव ईर्ष्यालु , अपवित्र और सुख – दुख से विचलित होने वाला है , वह राजसी कहा जाता है ।
तात्पर्य :- मनुष्य सदैव किसी कार्य के प्रति या फल के प्रति इसलिए अत्यधिक आसक्त रहता है , क्योंकि वह भौतिक पदार्थों , घर – बार , पत्नी तथा पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त होता है । ऐसा व्यक्ति जीवन में ऊपर उठने की आकांक्षा नहीं रखता ।
वह इस संसार को यथासम्भव आरामदेह बनाने में ही व्यस्त रहता है । सामान्यतः वह अत्यन्त लोभी होता है और सोचता है कि उसके द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक वस्तु स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होगी ।
ऐसा व्यक्ति अन्यों से ईर्ष्या करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी अनुचित कार्य कर सकता है । अतएव ऐसा व्यक्ति अपवित्र होता है और वह इसकी चिन्ता नहीं करता कि उसकी कमाई शुद्ध है या अशुद्ध । यदि उसका कार्य सफल हो जाता है तो वह अत्यधिक प्रसन्न और असफल होने पर अत्यधिक दुखी होता है । रजोगुणी कर्ता ऐसा ही होता है ।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ २८ ॥
अयुक्त: – शास्त्रों के आदेशों को न मानने वाला ; प्राकृतः – भौतिकवादी ; स्तब्ध: – हठी ; शठः – कपटी ; नैष्कृतिक: – अन्यों का अपमान करने मेंपटु ; अलसः – आलसी ; विषादी – खित्र ; दीर्घ-सूत्री-ऊँघ – ऊँध कर काम करने वाला, देर लगाने वाला ; च – भी ; कर्ता – कर्ता ; तामसः – तमोगुणी ; उच्यते – कहलाता है ।
जो कर्ता सदा शास्त्रों के आदेशों के विरुद्ध कार्य करता रहता है , जो भौतिकवादी , हठी , कपटी तथा अन्यों का अपमान करने में पद है तथा जो आलसी , सदैव खिन्न तथा काम करने में दीर्घसूत्री है , वह तमोगुणी कहलाता है ।
तात्पर्य :- शास्त्रीय आदेशों से हमें पता चलता है कि हमें कौन सा काम करना चाहिए । ओर कौन सा नहीं करना चाहिए । जो लोग शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करके अकरणीय कार्य करते हैं , प्रायः भौतिकवादी होते हैं । ये प्रकृति के गुणों के अनुसार कार्य करते हैं , शास्त्रों के आदेशों के अनुसार नहीं । ऐ
से कर्ता भद्र नहीं होते और सामान्यतया सदेव कपटी ( धूर्त ) तथा अन्यों का अपमान करने वाले होते हैं । वे अत्यन्त आलसी होते . हैं , काम होते हुए भी उसे ठीक से नहीं करते और बाद में करने के लिए उसे एक तरफ रख देते हैं , अतएव वे खिन्न रहते हैं जो काम एक घंटे में हो सकता है , उसे वे वर्षों तक घसीटते जाते हैं वे दीर्घसूत्री होते हैं । ऐसे कर्ता तमोगुणी होते हैं ।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥ २९ ॥
बुद्धेः – बुद्धि का ; भेदम् – अन्तर ; घृतेः – धैर्य का ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; गुणतः – गुणों के द्वारा ; त्रि-विधम् – तीन प्रकार के ; शृणु – सुनो ; प्रोच्यमानम् – जैसा मेरे द्वारा कहा गया , आशेषेण विस्तार से ; पृथक्त्वेन – भिन्न प्रकार से ; धनञ्जय – हे सम्पत्ति के विजेता ।
हे धनञ्जय ! अब में प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊँगा । तुम इसे सुनो ।
तात्पर्य :- ज्ञान ज्ञेय तथा ज्ञाता की व्याख्या प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन – तीन पृथक् विभागों में करने के बाद अब भगवान् कर्ता की बुद्धि तथा उसके संकल्प ( धैर्य ) के विषय में उसी प्रकार से बता रह है ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्य भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३० ॥
प्रवृत्तिम् – कर्म को ; च – भी ; निवृत्तिम् – अकर्म को ; अभये – तथा निडरता में ; च – तथा ; कार्य – करणीय ; अकार्य – तथा अकरणीय में ; बन्धम् – बन्धन ; मोक्षम् – मोक्ष ; च – तथा ; या – जो ; वेति – जानता है ; बुद्धि – बुद्धि ; सा – वह ; सात्त्विकी – सतोगुणी ।
हे पृथापुत्र ! वह बुद्धि सतोगुणी है , जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है , किससे उरना चाहिए और किससे नहीं , क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है ।
तात्पर्य :- शास्त्रों के निर्देशानुसार कर्म करने को या उन कर्मों को करना जिन्हें किया जाना चाहिए , प्रवृत्ति कहते हैं । जिन कार्यों का इस तरह निर्देश नहीं होता वे नहीं किये जाने चाहिए । जो व्यक्ति शास्त्रों के निर्देशों को नहीं जानता , वह कमों तथा उनकी प्रतिक्रिया से बँध जाता है । जो बुद्धि अच्छे बुरे का भेद बताती है , यह सात्त्विकी है ।
यया धर्ममधर्मं च कार्य चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥ ३१ ॥
यया – जिसके द्वारा ; धर्मम् – धर्म को ; अधर्मम् – अधर्म को ; च – तथा ; कार्यम् – करणीय ; च – भी ; अकार्यम् – अकरणीय को ; एव – निश्चय ही ; च – भी ; अयथा-वत् – अधूरे ढंग से ; प्रजानाति – जानती है ; बुद्धिः – बुद्धि ; सा – वह ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; राजसी – रजोगुणी ।
हे पृथापुत्र ! जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म , करणीय तथा अकरणीय कर्म में भेद नहीं कर पाती , वह राजसी है ।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२ ॥
अधर्मम् – अधर्म को ; धर्मम् – धर्म ; इति – इस प्रकार ; या – जो ; मन्यते – सोचती है ; तमसा – भ्रम से ; आवृता – आच्छादित , ग्रस्त ; सर्व-अर्थान् – सारी वस्तुओं को ; विपरीतान् – उल्टी दिशा में ; च – भी ; बुद्धिः – बुद्धि ; सा – वह ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; तामसी – तमोगुण से युक्त ।
जो बुद्धि मोह तथा अंधकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है , हे पार्थ ! वह तामसी है ।
तात्पर्य :- तामसी बुद्धि को जिस दिशा में काम करना चाहिए , उससे सदैव उल्टी दिशा में काम करती है । यह उन धर्मों को स्वीकारती है , जो वास्तव में धर्म नहीं हैं और वास्तविक धर्म को टुकराती है ।
अज्ञानी मनुष्य महात्मा को सामान्य व्यक्ति मानते हैं और सामान्य व्यक्ति को महात्मा स्वीकार करते हैं । वे सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य मानते हैं । वे सारे कामों में कुपथ ग्रहण करते हैं , अतएव उनकी बुद्धि तामसी होती है ।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३३ ॥
घृत्या – संकल्प , धृति द्वारा ; यया – जिससे ; धारयते – धारण करता है ; मनः – मन की ; प्राण – प्राण ; इन्द्रिय – तथा इन्द्रियों के ; क्रिया: –कार्यकलापों को ; योगेन – योगाभ्यास द्वारा ; अव्यभिचारिण्या – तोड़े बिना, निरन्तर ; धृतिः – धृति ; सा – वह ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; सात्त्विकी – सात्त्विक ।
हे पृथापुत्र ! जो अटूट है , जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन , प्राण तथा इन्द्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है , वह धृति सात्त्विक है ।
तात्पर्य :- योग परमात्मा को जानने का साधन है । जो व्यक्ति मन , प्राण तथा इन्द्रियों को परमात्मा में एकाग्र करके दृढतापूर्वक उनमें स्थित रहता है , वही कृष्णभावना में होता है । ऐसी धृति सात्त्विक होती है । अव्यभिचारिण्या शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सूचित करता है कि कृष्णभावनामृत में तत्पर मनुष्य कभी किसी दूसरे कार्य द्वारा विचलित नहीं होता ।
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारवतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ ३४ ॥
यया – जिसमे ; सु – लेकिन ; धर्म – धार्मिकता ; काम – इन्द्रिवतृप्ति ; अर्थान् – तथा आर्थिक विकास को ; धृत्या – संकल्प या धूति से ; धारयते – धारण करता है ; अर्जुन – हे अर्जुन ; प्रसङ्गेन – आसक्ति के कारण ; फल-आकाङ्क्षी – कर्मफल की इच्छा करने वाला ; धृतिः – सकल्प या धृति ; सा – बह ; पार्थ – हे पुत्र ; राजसी – रजोगुणी ।
लेकिन हे अर्जुन ! जिस धृति से मनुष्य धर्म , अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है , वह राजसी है ।
तात्पर्य :- जो व्यक्ति धार्मिक या आर्थिक कार्यों में कर्मफलों का सदेव आकांक्षी होता है , जिसकी एकमात्र इच्छा इन्द्रियतृप्ति होती है तथा जिसका मन , जीवन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार संलग्न रहती हैं , वह रजोगुणी होता है ।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥ ३५ ॥
यथा – जिससे ; स्वप्नम् – स्वप्न ; भवम् – भय ; शोकम् – शोक ; विषादम् – विषाद , खिन्नता ; मदम् – मोह की ; एव – निश्चय ही ; च – भी ; न – कभी नहीं ; विमुञ्चति – त्यागती है ; दुर्मेधा – दुर्बुद्धि ; धृतिः – धृतिः ; सा – वह ; पार्थ – हे पुत्र ; तामसी – तमोगुणी ।
हे पार्थ ! जो धृति स्वप्न , भय , शोक , विषाद तथा मोह के परे नहीं जाती , ऐसी दुर्बुद्धिपूर्ण धृति तामसी है ।
तात्पर्य :- इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सतोगुणी मनुष्य स्वप्न नहीं देखता । यहाँ पर स्वप्न का अर्थ अति निद्रा है । स्वप्न सदा आता है , चाहे वह सात्त्विक हो , राजस हो या तामसी , स्वप्न तो प्राकृतिक घटना है ।
लेकिन जो अपने को अधिक सोने से नहीं बचा पाते , जो भौतिक वस्तुओं को भोगने के गर्व से नहीं बचा पाते , जो सदैव संसार पर प्रभुत्व जताने का स्वप्न देखते रहते हैं और जिनके प्राण , मन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार लिप्त रहती हैं , वे तामसी धृति वाले कहे जाते हैं ।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६ ॥
सुखम् – सुख ; तु – लेकिन ; इदानीम् – अव ; त्रि-विधम् – तीन प्रकार का ; शृणु – सुनो ; मे – मुझसे ; भरत-ऋषभ – हे भरतश्रेष्ठ ; अभ्यासात् – अभ्यास से ; रमते – भोगता है ; यत्र – जहाँ ; दुःख – दुख का ; अन्तम् – अन्त ; च – भी ; निगच्छति – प्राप्त करता है ।
हे भरतश्रेष्ठ ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो , जिनके द्वारा कद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी – कभी दुखों का अन्त हो जाता है ।
तात्पर्य :- वज्रजीव भौतिक सुख भोगने की बारम्बार चेष्टा करता है । इस प्रकार वह चर्वित चर्वण करता है । लेकिन कभी कभी ऐसे भोग के अन्तर्गत वह किसी महापुरुष की संगति से भववन्धन से मुक्त हो जाता है ।
दूसरे शब्दों में , वद्धजीव सदा ही किसी न किसी इन्द्रियतृप्ति में लगा रहता है , लेकिन जब सुसंगति से यह समझ लेता है कि . यह तो एक ही वस्तु की पुनरावृत्ति है और उसमें वास्तविक कृष्णभावनामृत का उदय होता है , तो कभी – कभी वह ऐसे तथाकथित आवृत्तिमूलक सुख से मुक्त हो जाता है ।
विषमिव यत्तदग्रे परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३७ ॥
यत् – जो ; तत् – वह ; अग्रे – आरम्भ में ; विषम्-इव – विष के समान ; परिणामे – अन्त में ; अमृत – अमृत ; उपमम् – सदृश ; सुखम् – सुख ; सात्त्विकम् – सतोगुणी ; प्रोक्तम् – कहलाता है ; आत्म – अपनी ; बुद्धि – वृद्धि की ; प्रसाद-जम् – तुष्टि से उत्पन्न ।
जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है , लेकिन अन्त में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म – साक्षात्कार जगाता है , वह सात्त्विक सुख कहलाता है ।
तात्पर्य :- आत्म – साक्षात्कार के साधन में मन तथा इन्द्रियों को वश में करने तथा मन को आत्मकेन्द्रित करने के लिए नाना प्रकार के विधि – विधानों का पालन पड़ता है । ये सारी विधियाँ बहुत कठिन और विष के समान अत्यन्त कड़वी लगने वाली हैं , लेकिन यदि कोई इन नियमों के पालन में सफल हो जाता है और दिव्य पद को प्राप्त हो जाता है , तो वह वास्तविक अमृत का पान करने लगता है और जीवन का सुख प्राप्त करता है ।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥
विषय – इन्द्रिय विषयों ; इन्द्रिय – तथा इन्द्रियों के ; संयोगात् – संयोग से ; यत् – जो ; तत् – वह ; अग्रे – प्रारम्भ में ; अमृत-उपमम् – अमृत के समान ; परिणामे – अन्त में ; विषम् इव – विष के समान ; तत् – वह ; सुखम् – सुख ; राजसम् – राजसी ; स्मृतम् – माना जाता है ।
जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है , वह रजोगुणी कहलाता है ।
तात्पर्य :- जब कोई युवक किसी युवती से मिलता है , तो इन्द्रियाँ युवक को प्रेरित करती हैं कि वह उस युवती को देखे , उसका स्पर्श करे और उससे संभोग करे । प्रारम्भ में इन्द्रियों को यह अत्यन्त सुखकर लग सकता है , लेकिन अन्त में या कुछ समय बाद वही विष तुल्य वन जाता है ।
तब वे विलग हो जाते हैं या उनमें तलाक ( विवाह – विच्छेद ) हो जाता है । फिर शोक , विषाद इत्यादि उत्पन्न होता है । ऐसा सुख सदैव राजसी होता है । जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होता है , वह सदेव दुख का कारण बनता है , अतएव इससे सभी तरह से बचना चाहिए ।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३९ ॥
यत् – जो ; अग्रे – प्रारम्भ में ; च – भी ; अनुबन्धे – अन्त में ; च – भी ; सुखम् – सुख ; आत्मनः – अपना ; निद्रा – नींद ; आलस्य – आलस्य ; प्रमाद – तथा मोह से ; उत्थम् – उत्पन्न ; तामसम् – तामसी ; उदाहृतम् – कहलाता है ।
तथा जो सुख आत्म – साक्षात्कार के प्रति अन्धा है , जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और जो निद्रा , आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है , वह तामसी कहलाता है ।
तात्पर्य :- जो व्यक्ति आलस्य तथा निद्रा में ही सुखी रहता है , वह निश्चय ही तमोगुणी है । जिस व्यक्ति को इसका कोई अनुमान नहीं है कि किस प्रकार कर्म किया जाय और किस प्रकार नहीं , वह भी तमोगुणी है । तमोगुणी व्यक्ति के लिए सारी वस्तुएँ भ्रम ( मोह ) हैं ।
उसे न तो प्रारम्भ में सुख मिलता है , न अन्त में रजोगुणी व्यक्ति के लिए प्रारम्भ में कुछ क्षणिक सुख और अन्त में दुख हो सकता है , लेकिन जो तमोगुणी है , उसे प्रारम्भ में तथा अन्त में दुख ही दुख मिलता है ।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ४० ॥
न – नहीं ; तत् – वह ; अस्ति – है ; पृथिव्याम् – पृथ्वी पर ; वा – अथवा ; दिवि – उच्चतर लोकों में ; देवेषु – देवताओं में ; वा – अथवा ; पुनः – फिर ; सत्त्वम् – अस्तित्व ; प्रकृति-जैः – प्रकृति से उत्पन्न ; मुक्तम् – मुक्त ; यत् – जो ; एभिः – इनके प्रभाव से ; स्यात् – हो ; त्रिभिः – तीन ; गुणेः – गुणों से ।
इस लोक में , स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है , जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो ।
तात्पर्य :- भगवान् इस श्लोक में समग्र ब्रह्माण्ड में प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं ।
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