अध्याय अठारह (Chapter -18)
भगवद गीता अध्याय 18.2 में शलोक 13 से शलोक 18 कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत के कथन कावर्णन !
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥ १३ ॥
पञ्च – पाँच ; एतानि – ये ; महा-बाहो – हे महावाहु ; कारणानि – कारण ; निबोध – जानो ; मे – मुझसे ; साङ्ख्ये – वेदान्त में ; कृत-अन्ते – निष्कर्ष रूप में ; प्रोक्तानि – कहा गया ; सिद्धये – सिद्धि के लिए ; सर्व – समस्त ; कर्मणाम् – कर्मों का ।
हे महाबाहु अर्जुन ! वेदान्त के अनुसार समस्त कर्म की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं । अब तुम इन्हें मुझसे सुनो ।
तात्पर्य :- यहाँ पर प्रश्न पूछा जा सकता है कि चूँकि प्रत्येक कर्म का कुछ न कुछ फल होता है , तो फिर यह कैसे सम्भव है कि कृष्णभावनामय व्यक्ति को कर्म के फलों का सुख – दुख नहीं भोगना पड़ता ? भगवान् वेदान्त दर्शन का उदाहरण यह दिखाने के लिए देते हैं कि यह किस प्रकार सम्भव है । वे कहते हैं कि समस्त कर्मों के पाँच कारण होते हैं ।
अतएव किसी कर्म में सफलता के लिए इन पाँचों कारणों पर विचार करना होगा । सांख्य का अर्थ है ज्ञान का आधारस्तम्भ और वेदान्त अग्रणी आचार्यों द्वारा स्वीकृत ज्ञान का चरम आधारस्तम्भ है यहाँ तक कि शंकर भी वेदान्तसूत्र को इसी रूप में स्वीकार करते हैं ।
अतएव ऐसे शास्त्र की राय ग्रहण करनी चाहिए । चरम नियन्त्रण परमात्मा में निहित है । जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः- वे प्रत्येक व्यक्ति को उसके पूर्वकर्मों का स्मरण करा कर किसी न किसी कार्य में प्रवृत्त करते रहते हैं । और जो कृष्णभावनाभावित कर्म अन्तर्यामी भगवान् के निर्देशानुसार किये जाते हैं , उनका फल न तो इस जीवन में , न ही मृत्यु के पश्चात् मिलता है ।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥ १४ ॥
अधिष्ठानम् – स्थान ; तथा – और ; कर्ता – करने वाला ; करणम् – उपकरण यन्त्र ( इन्द्रियाँ ) ; च – तथा ; पृथक्-विधम् – विभिन्न प्रकार के ; विविधा: – नाना प्रकार के ; च – तथा ; पृथक्-पृथक – पृथक ; चेष्टा: – प्रयास ; देवम् – परमात्मा ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; अत्र – यहाँ ; पञ्चमम् – पाँचवा ।
कर्म का स्थान ( शरीर ) , कर्ता , विभिन्न इन्द्रियाँ , अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा – ये पाँच कर्म के कारण हैं ।
तात्पर्य :- अधिष्ठानम् शब्द शरीर के लिए आया है । शरीर के भीतर आत्मा कर्म करता है , जिससे कर्मफल होता है । अतएव यह कर्ता कहलाता है । आत्मा ही ज्ञाता तथा कर्ता है , इसका उल्लेख श्रुति में है । एष हि द्रष्टा स्रष्टा ( प्रश्न उपनिषद् ४.९ ) । वेदान्तसूत्र में भी ज्ञोऽतएव ( २.३.१८ ) तथा कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् ( २.३ . ३३ ) श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है ।
कर्म के उपकरण इन्द्रियाँ हैं और आत्मा इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न कर्म करता है । प्रत्येक कर्म के लिए पृथक चेष्टा होती है । लेकिन सारे कार्यकलाप परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं , जो प्रत्येक हृदय में मित्र रूप में आसीन है । परमेश्वर परम कारण है ।
अतएव जो इन परिस्थितियों में अन्तर्यामी परमात्मा के निर्देश के अन्तर्गत कृष्णभावनामय होकर कर्म करता है , वह किसी कर्म से बँधता नहीं । जो पूर्ण कृष्णभावनामय हैं , वे अन्ततः अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते । सब कुछ परम इच्छा , परमात्मा , भगवान् पर निर्भर है ।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ १५ ॥
शरीर – शरीर से ; वाक् – वाणी से ; मनोभिः – तथा मन से ; यत् – जो ; कर्म – कर्म ; प्रारभते – प्रारम्भ करता है ; नरः – व्यक्ति ; न्याय्यम् – उचित , न्यायपूर्ण ; वा – अथवा ; विपरीतम् – ( न्याय ) विरुद्ध ; वा – अथवा ; पञ्च – पाँच ; एते – ये सब ; तस्य – उसके ; हेतवः – कारण ।
मनुष्य अपने शरीर , मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है , वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में न्याय्य ( उचित ) तथा विपरीत ( अनुचित ) शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । सही कार्य शास्त्रों में निर्दिष्ट निर्देशों के अनुसार किया जाता है और अनुचित कार्य में शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना की जाती है । किन्तु जो भी कर्म किया जाता है , उसकी पूर्णता के लिए इन पाँच कारणों की आवश्यकता पड़ती है ।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वात्र स पश्यति दुर्मतिः ॥ १६ ॥
तत्र – वहाँ ; एवम् – इस प्रकार ; सति – होकर ; कर्तारम् – कर्ता ; आत्मानम् – स्वयं का ; केवलम् – केवल ; तु – लेकिन ; यः – जो ; पश्यति – देखता है ; अकृत-बुद्धित्वात् – कुबुद्धि के कारण ; न – कभी नहीं ; सः – वह ; पश्यति – देखता है ; दुर्मतिः – मूर्ख ।
अतएव जो इन पाँचों कारणों को न मान कर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है , वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता ।
तात्पर्य :- मूर्ख व्यक्ति यह नहीं समझता कि परमात्मा उसके अन्तर में मित्र रूप में बैठा है और उसके कर्मों का संचालन कर रहा है । यद्यपि स्थान , कर्ता , चेष्टा तथा इन्द्रियाँ भौतिक कारण हैं , लेकिन अन्तिम ( मुख्य ) कारण तो स्वयं भगवान् हैं ।
अतएव मनुष्य को चाहिए कि केवल चार भौतिक कारणों को ही न देखे , अपितु परम सक्षम कारण को भी देखे । जो परमेश्वर को नहीं देखता , वह अपने आपको ही कर्ता मानता है ।
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकात्र हन्ति न निबध्यते ॥ १७ ॥
यस्य – जिसके ; न – नहीं ; अहङ्कृतः – मिथ्या अहंकार का ; भाव: – स्वभाव ; लिप्यते – आसक्त है ; हत्वा – मारकर ; यस्य – जिसकी ; न – कभी नहीं ; बुद्धिः – बुद्धि ; सः – वह ; इमान् – इस ; लोकान् – संसार को ; न – कभी नहीं ; हन्ति – मारता है ; न – कभी नहीं ; निबध्यते – बद्ध होता है ।
जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है , जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है , वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता । न ही वह अपने कर्मों से बँधा होता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि युद्ध न करने की इच्छा अहंकार से उत्पन्न होती है । अर्जुन स्वयं को कर्ता मान बैठा था , लेकिन उसने अपने भीतर तथा बाहर परम ( परमात्मा ) के निर्देश पर विचार नहीं किया था । यदि कोई यह न जाने कि कोई परम निर्देश भी है , तो वह कर्म क्यों करे ?
लेकिन जो व्यक्ति कर्म के उपकरणों को , कर्ता रूप में अपने को तथा परम निर्देशक के रूप में परमेश्वर को मानता है , वह प्रत्येक कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है । ऐसा व्यक्ति कभी मोहग्रस्त नहीं होता । जीव में व्यक्तिगत कार्यकलाप तथा उसके उत्तरदायित्व का उदय मिथ्या अहंकार से तथा ईश्वरविहीनता या कृष्णभावनामृत के अभाव से होता है ।
जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में परमात्मा या भगवान् के आदेशानुसार कर्म करता है , वह वध करता हुआ भी वध नहीं करता । न ही वह कभी ऐसे वध के फल भोगता है । जब कोई सैनिक अपने श्रेष्ठ अधिकारी सेनापति की आज्ञा से वध करता है , तो उसको दण्डित नहीं किया जाता । लेकिन यदि वही सैनिक स्वेच्छा से वध कर दें , तो निश्चित रूप से न्यायालय द्वारा उसका निर्णय होता है
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८ ॥
ज्ञानम् – ज्ञान ; ज्ञेयम् – ज्ञान का लक्ष्य ( जानने योग्य ) ; परिज्ञाता – जानने वाला ; त्रि-विधा – तीन प्रकार के ; कर्म – कर्म की ; चोदना – प्रेरणा ( अनुप्रेरणा ) ; करणम् – इन्द्रियाँ ; कर्म – कर्म ; कर्ता – कर्ता ; इति – इस प्रकार ; त्रि-विधः – तीन प्रकार के ; कर्म – कर्म के ; सङ्ग्रहः – संग्रह , संचय ।
ज्ञान , ज्ञेय तथा ज्ञाता- ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं । इन्द्रियाँ ( करण ) , कर्म तथा कर्ता – ये तीन कर्म के संघटक हैं ।
तात्पर्य :- दैनिक कार्य के लिए तीन प्रकार की प्रेरणाएँ हैं – ज्ञान , ज्ञेय तथा ज्ञाता । कर्म का उपकरण ( करण ) , स्वयं कर्म तथा कर्ता – ये तीनों कर्म के संघटक कहलाते हैं । किसी भी मनुष्य द्वारा किये गये किसी कर्म में ये ही तत्त्व रहते हैं । कर्म करने के पूर्व कुछ न कुछ प्रेरणा होती है ।
किसी भी कर्म से पहले प्राप्त होने वाला फल कर्म के सूक्ष्म रूप में वास्तविक बनता है । इसके बाद वह क्रिया का रूप धारण करता है । पहले मनुष्य को सोचने , अनुभव करने तथा इच्छा करने जैसी मनोवैज्ञानिक विधियों का सामना करना होता है , जिसे प्रेरणा कहते हैं और यह प्रेरणा चाहे शास्त्रों से प्राप्त हो , या गुरु के उपदेश से , एकसी होती है ।
अतएव जब प्रेरणा होती है और जब कर्ता होता है , तो इन्द्रियों की सहायता से , जिनमें मन सम्मिलित है और जो समस्त इन्द्रियों का केन्द्र है , वास्तविक कर्म सम्पन्न होता है । किसी कर्म के समस्त संघटकों को कर्म – संग्रह कहा जाता है ।
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