भगवद गीता अध्याय 18.1 || संन्यास की सिद्धि और त्याग || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय अठारह (Chapter -18)

भगवद गीता अध्याय 18.1 में शलोक 01 से  शलोक 12 में संन्यास की सिद्धि और त्याग के विषय का वर्णन !

उपसंहार- संन्यास की सिद्धि 

अर्जुन उवाच

संन्यासस्य  महाबाहो  तत्त्वमिच्छामि  वेदितुम् । 

त्यागस्य    च    हृषीकेश    पृथक्केशिनिषूदन ॥ १ ॥  

अर्जुन  उवाच     –    अर्जुन ने कहा   ;    संन्यासस्य      –     संन्यास ( त्याग ) का    ;    महाबाहो   – हे बलशाली भुजाओं वाले    ;      तत्वम्    –    सत्य को    ;     इच्छामि    –    चाहता हूं    ;   वेदितुम  –      जानना     ;       त्यागस्य     –     त्याग ( संन्यास ) का     ;   च – भी   ;     हृषीकेश    –    हे इन्द्रियों के स्वामी     ;      पृथक्    –    भिन्न रूप से      ;     केशि-निषूदन    –      हे केशी असुर के संहर्ता । 

अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु ! में त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन , हे हृषीकेश ! में त्यागमय जीवन ( संन्यास आश्रम ) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ । 

तात्पर्य :-  वास्तव में भगवद्गीता सत्रह अध्यायों में ही समाप्त हो जाती है । अठारहवाँ अध्याय तो पूर्वविवेचित विषयों का पूरक संक्षेप है । प्रत्येक अध्याय में भगवान् वल देकर कहते हैं कि भगवान् की सेवा ही जीवन का चरम लक्ष्य है । इसी विषय को  इस अठारहवें अध्याय में ज्ञान के परम गुह्य मार्ग के रूप में संक्षेप में बताया गया है ।

प्रथम छह अध्यायों में भक्तियोग पर बल दिया गया – योगिनामपि सर्वेषाम् … ” समस्त योगियों में से जो योगी अपने अन्तर में सदेव मेरा चिन्तन करता है , वह सर्वश्रेष्ठ है । ” अगले छह अध्यायों में शुद्ध भक्ति , उसकी प्रकृति तथा कार्यों का विवेचन है । अन्त के छह अध्यायों में ज्ञान , वैराग्य अपरा तथा परा प्रकृति के कार्यों और भक्ति का वर्णन है ।

निष्कर्ष रूप में यह कहा गया है कि सारे कार्यों को परमेश्वर से युक्त होना चाहिए , जो तत् सत् शब्दों से प्रकट होता है और ये शब्द परम पुरुष विष्णु के सूचक हैं । भगवद्गीता के तृतीय खण्ड से यही प्रकट होता है कि भक्ति ही एकमात्र जीवन का चरम लक्ष्य है । पूर्ववर्ती आचार्यों तथा ब्रह्मसूत्र या वेदान्त – सूत्र का उद्धरण देकर इसकी स्थापना की गई है ।

कुछ निर्विशेषवादी वेदान्त सूत्र के ज्ञान पर अपना एकाधिकार जनाते हैं , लेकिन वास्तव में वेदान्त सूत्र भक्ति को समझने के लिए है , क्योंकि ब्रह्मसूत्र के रचयिता ( प्रणेता ) साक्षात् भगवान् हैं और वे ही इसके ज्ञाता हैं । इसका वर्णन पन्द्रहवें अध्याय में हुआ है । प्रत्येक शास्त्र , प्रत्येक वेद का लक्ष्य भक्ति है । भगवद्गीता में इसी की व्याख्या है ।

जिस प्रकार द्वितीय अध्याय में सम्पूर्ण विषयवस्तु की प्रस्तावना ( सार ) का वर्णन है , उसी प्रकार अठारहवें अध्याय में सारे उपदेश का सारांश दिया गया है । इसमें त्याग ( वैराग्य ) तथा त्रिगुणातीत दिव्य पथ की प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य बताया गया है । अर्जुन भगवद्गीता के दो विषयों का स्पष्ट अन्तर जानने का इच्छुक है – ये हैं , त्याग तथा संन्यास ।

अतएव वह इन दोनों शब्दों के अर्थ की जिज्ञासा कर रहा है । इस श्लोक में परमेश्वर को सम्बोधित करने के लिए प्रयुक्त हृषीकेश तथा केशिनिषूदन ये दो शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । हृषीकेश कृष्ण हैं , समस्त इन्द्रियों के स्वामी , जो हमें मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सहायक बनते हैं । अर्जुन उनसे प्रार्थना करता है कि वे सभी बातों को इस तरह संक्षिप्त कर दें , जिससे वह समभाव में स्थिर रहे । फिर भी उसके मन में कुछ संशय हैं और ये संशय असुरों के समान होते हैं ।

अतएव वह कृष्ण को केशि – निषूदन कहकर सम्बोधित करता है । केशी अत्यन्त दुर्जेय असुर था , जिसका वध कृष्ण ने किया था । अब अर्जुन थाहता है कि वे उसके संशय रूपी असुर का वध करें ।

श्रीभगवानुवाच  

काम्यानां  कर्मणां  न्यासं   संन्यासं  कवयो  विदुः ।

सर्वकर्मफलत्यागं        प्राहुस्त्यागं       विचक्षणाः ॥ २ ॥ 

श्रीभगवान्   उवाच     –    भगवान् ने कहा     ;      काम्यानाम्    –    काम्यकर्मों का   ;    कर्मणाम्   –     कर्मों का    ;    न्यासम्   –     त्याग   ;     संन्यासम्   –    संन्यास    ;     कवयः    –     विद्वान जन    ;     विदुः   –    जानते हैं    ;     सर्व    –   समस्त    ;    कर्म    –    कर्मों का    ;    फल   –   फल    ;     त्यागम्   –     त्याग को   ;     प्राहु    –    कहते हैं    ;    त्यागम्    –    त्याग   ;    विचक्षणाः    –    अनुभवी । 

भगवान् ने कहा – भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल – त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं ।

तात्पर्य :-  कर्मफल की आकांक्षा से किये गये कर्म का त्याग करना चाहिए । यही भगवद्गीता का उपदेश है । लेकिन जिन कर्मों से उच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो , उनका परित्याग नहीं करना चाहिए । अगले श्लोकों से यह स्पष्ट हो जायगा । वैदिक साहित्य में किसी विशेष उद्देश्य से यज्ञ सम्पन्न करने की अनेक विधियों का उल्लेख है ।

कुछ यज्ञ ऐसे हैं , जो अच्छी सन्तान प्राप्त करने के लिए या स्वर्ग की प्राप्ति के लिए किये जाते हैं , लेकिन जो यज्ञ इच्छाओं के वशीभूत हों , उनको बन्द करना चाहिए । परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नति या हृदय की शुद्धि के लिए किये जाने वाले यज्ञों का परित्याग करना उचित नहीं है । 

त्याज्यं  दोषवदित्येके  कर्म   प्राहुर्मनीषिणः । 

यज्ञदानतपःकर्म   न   त्याज्यमिति    चापरे ॥ ३ ॥ 

त्याज्यम्     –    त्याजनीय   ;     दोष-वत्    –     दोष के समान    ;     इति    –   इस प्रकार  ;    एके  –     एक समूह के    ;      कर्म   –     कर्म    ;     प्राहुः –   कहते हैं    ;    मनीषिणः     –    महान चिन्तक   ;    यज्ञ    –   यज्ञ   ;    दान   –    दान   ;     तपः   –    तथा तपस्या का    ;     कर्म   –   कर्म   ;     न    – कभी नहीं     ;     त्याज्यम्    –     त्यागने चाहिए   ;    इति   –    इस प्रकार   ;     च –    तथा     ;    अपरे   –    अन्य । 

कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए । किन्तु अन्य विद्वान् मानते हैं कि यज्ञ , दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए । 

तात्पर्य :-  वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक कर्म हैं जिनके विषय में मतभेद है । उदाहरणार्थ , यह कहा जाता है कि यज्ञ में पशु मारा जा सकता है , फिर भी कुछ का मत है कि पशुहत्या पूर्णतया निषिद्ध है । यद्यपि वैदिक साहित्य में पशु – वध की संस्तुति हुई है , लेकिन पशु को मारा गया नहीं माना जाता । यह बलि पशु को नवीन जीवन प्रदान करने के लिए होती है ।

कभी – कभी यज्ञ में मारे गये पशु को नवीन पशु – जीवन प्राप्त होता है , तो कभी वह पशु तत्क्षण मनुष्य योनि को प्राप्त हो जाता है । लेकिन इस सम्बन्ध में मनीषियों में मतभेद है । कुछ का कहना है कि पशुहत्या नहीं की जानी चाहिए और कुछ कहते हैं कि विशेष यज्ञ ( वलि ) के लिए यह शुभ है । अब यज्ञ – कर्म विषयक विभिन्न मतों का स्पष्टीकरण भगवान् स्वयं कर रहे हैं । 

निश्चयं   शृणु   मे    तत्र   त्यागे    भरतसत्तम । 

त्यागो  हि  पुरुषव्याघ्र  त्रिविधः  सम्प्रकीर्तितः ॥ ४ ॥ 

निश्चयम्     –     निश्चय को   ;     शृणु    –   सुनो   ;      मे    –    मेरे    ;    तत्र    –    वहाँ    ;    त्यागे   –     त्याग के विषय में   ;     भरत-सत्-तम     –     हे भरतश्रेष्ठ    ;     त्यागः    –    त्याग   ;     हि   – निश्चय ही    ;     पुरुष-व्याघ्र    –    हे मनुष्यों में बाघ    ;     त्रि-विधः   –  तीन प्रकार का    ;     सम्प्रकीर्तितः    – घोषित किया जाता है । 

हे भरतश्रेष्ठ ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो । हे नरशार्दूल ! शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है । 

तात्पर्य :- यद्यपि त्याग के विषय में विभिन्न प्रकार के मत है , लेकिन परम पुरुष श्रीकृष्ण अपना निर्णय दे रहे हैं , जिसे अन्तिम माना जाना चाहिए । निस्सन्देह , सारे वेद भगवान् द्वारा प्रदत्त विभिन्न विधान ( नियम ) हैं ।

यहाँ पर भगवान् साक्षात् उपस्थित हैं , अतएव उनके वचनों को अन्तिम मान लेना चाहिए । भगवान् कहते हैं कि भौतिक प्रकृति के तीन गुणों में से जिस गुण में त्याग किया जाता है , उसी के अनुसार त्याग का प्रकार समझना चाहिए । 

यज्ञदानतपःकर्म   न  त्याज्यं  कार्यमेव  तत् । 

यज्ञो  दानं  तपश्चैव   पावनानि  मनीषिणाम् ॥ ५ ॥ 

यज्ञः    –   यज्ञ   ;     दान   –   दान     ;    तपः   –   तथा तप का   ;    कर्म   –   कर्म    ;   न   –   कभी नहीं    ;     त्याज्यम्     –     त्यागने के योग्य   ;     कार्यम् –    करना चाहिए     ;    एव   –   निश्चय ही     ;     तत्    –    उसे   ;     यज्ञः   –    यज्ञ   ;     दानम्    –   दान    ;     तपः   –   तप   ; च   –  भी   ;   एव   – निश्चय ही    ;   पावनानि   –   शुद्ध करने वाले    ;    मनीषिणाम्    –   महात्माओं के लिए भी । 

यज्ञ , दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए , उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए । निस्सन्देह यज्ञ , दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं । 

तात्पर्य :- योगी को चाहिए कि मानव समाज की उन्नति के लिए कर्म करे । मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन तक ऊपर उठाने के लिए अनेक संस्कार ( पवित्र कर्म ) हैं । उदाहरणार्थ , विवाहोत्सव एक यज्ञ माना जाता है । यह विवाह यज्ञ कहलाता है ।

क्या एक संन्यासी , जिसने अपना पारिवारिक सम्बन्ध त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया है , विवाहोत्सव को प्रोत्साहन दे ? भगवान् कहते हैं कि कोई भी यज्ञ जो मानव कल्याण के लिए हो , उसका कभी भी परित्याग न करे । विवाह यज्ञ मानव मन को संयमित करने के लिए है , जिससे आध्यात्मिक प्रगति के लिए वह शान्त बन सके ।

संन्यासी को भी चाहिए कि इस विवाह यज्ञ की संस्तुति अधिकांश मनुष्यों के लिए करे । संन्यासियों को चाहिए कि स्त्रियों का संग न करें , लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जो व्यक्ति अभी जीवन की निम्न अवस्थाओं में है , अर्थात् जो तरुण है , वह विवाह – यज्ञ में पत्नी न स्वीकार करे । सारे यज्ञ परमेश्वर की प्राप्ति के लिए हैं ।

अतएव निम्नतर अवस्थाओं में यज्ञों का परित्याग नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार दान हृदय की शुद्धि ( संस्कार ) के लिए है । यदि दान सुपात्र को दिया जाता है , तो इससे आध्यात्मिक जीवन में प्रगति होती है , जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है । 

एतान्यपि  तु  कर्माणि  सङ्गं  त्यक्त्वा   फलानि  च । 

कर्तव्यानीति    मे    पार्थ     निश्चितं     मतमुत्तमम् ॥ ६ ॥ 

एतानि    –    वे सव     ;   अपि    –    निश्चय ही   ;    तु    –    लेकिन    ;    कर्माणि    –   कार्य   ;   सङ्गम्     –    संगति को    ; त्यक्त्वा –    त्यागकर   ;   फलानि   –   फलों को    ;   च    –  भी   ;     कर्तव्यानि    –    कर्तव्य समझ कर करने चाहिए     ;     इति   –    इस प्रकार   ;      मे   –  मेरा   ;     पार्थ    –    हे पूढापुत्र    ;    निश्चितम्    –    निश्चित    ;     मतम्    –    मत    ;    उत्तमम्    –   श्रेष्ठ । 

इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए । हे पृथापुत्र ! इन्हें कर्तव्य मानकर सम्पन्न किया जाना चाहिए । यही मेरा अन्तिम मत है । 

तात्पर्य :-  यद्यपि सारे यज्ञ शुद्ध करने वाले हैं , लेकिन मनुष्य को ऐसे कार्यों से किसी फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए । दूसरे शब्दों में , जीवन में जितने सारे यज्ञ भौतिक उन्नति के लिए हैं , उनका परित्याग करना चाहिए । लेकिन जिन यज्ञों से मनुष्य का अस्तित्व शुद्ध हो और जो आध्यात्मिक स्तर तक उठाने वाले हों , उनको कभी बन्द नहीं करना चाहिए ।

जिस किसी वस्तु से कृष्णभावनामृत तक पहुंचा जा सके , उसको प्रोत्साहन देना चाहिए । श्रीमद्भागवत में भी यह कहा गया है कि जिस कार्य से भगवद्भक्ति का लाभ हो , उसे स्वीकार करना चाहिए । यही धर्म की सर्वोच्च कसोटी है । भगवद्भक्त को ऐसे किसी भी कर्म , यज्ञ या दान को स्वीकार करना चाहिए , जो भगवद्भक्ति करने में सहायक हो । 

नियतस्य  तु  संन्यासः  कर्मणो  नोपपद्यते । 

मोहात्तस्य  परित्यागस्तामसः  परिकीर्तितः ॥ ७ ॥ 

नियतस्य   –   नियत , निर्दिष्ट ( कार्य ) का     ;     तु     –    लेकिन    ;    संन्यास:    –    संन्यास , त्याग    ;     कर्मणः    –     कर्मों का     ; न     –    कभी नहीं   ;    उपपद्यते   –   योग्य होता है    ; मोहात्    –    मोहवश   ;     तस्य    –    उसका     ;   परित्यागः   –    त्याग देना    ;    तामस:    – तमोगुणी    ; परिकीर्तितः   –    घोषित किया जाता है । 

निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए । यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है , तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है । 

तात्पर्य :-  जो कार्य भौतिक तुष्टि के लिए किया जाता है , उसे अवश्य ही त्याग दे , लेकिन जिन कार्यों से आध्यात्मिक उन्नति हो , यथा भगवान् के लिए भोजन बनाना , भगवान् को भोग अर्पित करना , फिर प्रसाद ग्रहण करना , उनकी संस्तुति की जाती है । कहा जाता है कि संन्यासी को अपने लिए भोजन नहीं बनाना चाहिए ।

लेकिन अपने लिए भोजन पकाना भले ही वर्जित हो , परमेश्वर के लिए भोजन पकाना वर्जित नहीं है । इसी प्रकार अपने शिष्य की कृष्णभावनामृत में प्रगति करने में सहायक बनने के लिए संन्यासी विवाह – यज्ञ सम्पन्न करा सकता है । यदि कोई ऐसे कार्यों का परित्याग कर देता है , तो यह समझना चाहिए कि वह तमोगुण के अधीन है । 

दुःखमित्येव    यत्कर्म     कायक्लेशभयात्त्यजेत् । 

स  कृत्वा  राजसं  त्यागं  नैव  त्यागफलं  लभेत् ॥ ८ ॥ 

दुःखम्    –   दुखी    ;    इति    –   इस प्रकार    ;     एव    –    निश्चय ही   ;     यत्    –    जो   ;   कर्म    –    कार्य    ;   काय    –   शरीर के लिए    ;     क्लेश –    कष्ट के    ;    भयात्   –    भय से ;    त्यजेत्    –    त्याग देता है    ;    सः    –   वह   ;    कृत्वा   –    करके   ;     राजसम्     –   रजोगुण में    ;    त्यागम्   –    त्याग     ;    न    –    नहीं    ;    एव   –   निश्चय ही   ;    त्याग   –   त्याग   ;     फलम्    –  फल को   ;   लभेत्   –   प्राप्त करता हैं । 

जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझ कर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है , उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है । ऐसा करने से कभी त्याग का उच्चफल प्राप्त नहीं होता । 

तात्पर्य :-  जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को प्राप्त है , उसे इस भय से अर्थोपार्जन बन्द नहीं करना चाहिए कि वह सकाम कर्म कर रहा है । यदि कोई कार्य करके कमाये धन को कृष्णभावनामृत में लगाता है , या यदि कोई प्रातःकाल जल्दी उठकर दिव्य कृष्णभावनामृतः को अग्रसर करता है , तो उसे चाहिए कि वह डर कर या यह सोचकर कि ऐसे कार्य कष्टप्रद हैं , उन्हें त्यागे नहीं

ऐसा त्याग राजसी होता है । राजसी कर्म का फल सदैव दुखद होता है । यदि कोई व्यक्ति इस भाव से कर्म त्याग करता है , तो उसे त्याग का फल कभी नहीं मिल पाता । 

कार्यमित्येव      यत्कर्म       नियतं       क्रियतेऽर्जुन । 

सङ्गं  त्यक्त्वा  फलं  चैव  स  त्यागः   सात्त्विको  मतः ॥ ९ ॥ 

कार्यम्    –   करणीय    ;     इति    –    इस प्रकार    ;     एव    –    निस्सन्देह    ;   यत्   –    जो    ; कर्म   –    कर्म   ;     नियतम्    – निर्दिष्ट   ;     क्रियते –    किया जाता है   ;     अर्जुन   –   हे अर्जुन    ;     सङ्गम्    –    संगति , संग   ;    त्यक्त्वा    –    त्याग कर    ;    फलम्    –   फल   ;    च   –    भी    ;   एव  –   निश्चय ही    ;    सः   –    वह    ;   त्यागः   –    त्याग   ;     सात्त्विकः   – सात्त्विक , सतोगुणी     ;     मतः    –   मेरे मत से । 

हे अर्जुन ! जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मान कर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आसक्ति को त्याग देता है , तो उसका त्याग सात्त्विक कहलाता । 

तात्पर्य :-  नियत कर्म इसी मनोभाव से किया जाना चाहिए । मनुष्य को फल के प्रति अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए , उसे कर्म के गुणों से विलग हो जाना चाहिए । जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में रहकर कारखाने में कार्य करता है , वह न तो कारखाने के कार्य से अपने को जोड़ता है , न ही कारखाने के श्रमिकों से वह तो मात्र कृष्ण के लिए कार्य करता है । और जब वह इसका फल कृष्ण को अर्पण कर देता है , तो वह दिव्य स्तर पर कार्य करता है । 

न   द्वेष्ट्यकुशलं   कर्म   कुशले   नानुषज्जते । 

त्यागी  सत्त्वसमाविष्टो   मेधावी  छिन्त्रसंशयः ॥ १० ॥ 

न    –   नहीं    ;    द्वेष्टि   –    घृणा करता है    ;    अकुशलम्   –    अशुभ   ;    कर्म   –   कर्म   ; कुशले   –    शुभ में    ;    न    –    न तो ;    अनुषज्जते     – आसक्त होता है    ;     त्यागी   – त्यागी     ;     सत्त्व    –    सतोगुण में    ;    समाविष्टः   –    लीन    ;    मेधावी    – बुद्धिमान    ;     छिन्न    –    छित्र हुए    ; संशयः    –    समस्त संशय या संदेह । 

सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी , जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है , न शुभकर्म से लिप्त होता है , वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता । 

तात्पर्य :-  कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या सतोगुणी व्यक्ति न तो किसी व्यक्ति से घृणा करता है , न अपने शरीर को कष्ट देने वाली किसी बात से वह उपयुक्त स्थान पर तथा उचित समय पर , बिना डरे , अपना कर्तव्य करता है । ऐसे व्यक्ति को , जो अध्यात्म को प्राप्त है , सर्वाधिक बुद्धिमान तथा अपने कर्मों में संशयरहित मानना चाहिए । 

न  हि   देहभृता  शक्यं  त्यक्तुं  कर्माण्यशेषतः । 

यस्तु       कर्मफलत्यागी     त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११ ॥

न    –    कभी नहीं    ;    हि    –    निश्चय ही    ;       देह-भृता     –    देहधारी द्वारा     ;    शक्यम्   – सम्भव है    ;       त्यक्तुम्     – त्यागने के लिए     ; कर्माणि    –    कर्म    ;     अशेषतः    – पूर्णतया    ;    यः    –    जो    ;    तु    –     लेकिन    ;     कर्म   –    कर्म के    ; फल   –    फल का    ;     त्यागी    – त्याग करने वाला   ;     सः    –    वह     ;    त्यागी   –    त्यागी   ;     इति     –   इस प्रकार    ;     अभिधीयते    –     कहलाता है । 

निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है । लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है , वह वास्तव में त्यागी कहलाता है । 

तात्पर्य :-  भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य कभी भी कर्म का त्याग नहीं कर सकता । अतएव जो कृष्ण के लिए कर्म करता है और कर्मफलों को भोगता नहीं तथा जो कृष्ण को सब कुछ अर्पित करता है , वहीं वास्तविक त्यागी है ।

अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ में अनेक सदस्य हैं , जो अपने अपने कार्यालयों , कारखानों या अन्य स्थानों में कठिन श्रम करते हैं और वे जो कुछ कमाते हैं , उसे संघ को दान दे देते हैं । ऐसे महात्मा व्यक्ति वास्तव में संन्यासी हैं और वे संन्यास में स्थित होते हैं । यहाँ स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कर्मफलों का परित्याग किस प्रकार और किस प्रयोजन के लिए किया जाय । 

अनिष्टमिष्टं   मिश्रं   च  त्रिविधं   कर्मणः   फलम् । 

भवत्यत्यागिनां  प्रेत्य  न  तु  संन्यासिनां  क्वचित् ॥ १२ ॥ 

अनिष्टम्     –     नरक ले जाने वाले   ;      इष्टम्    –     स्वर्ग ले जाने वाले     ;    मिश्रम्    –    मिश्रित   ;      च    –    तथा    ;      त्रि-विधम्     –    तीन प्रकार     ;      कर्मणः    –    कर्म का     ;    फलम् –     फल     ;     भवति     –     होता है     ;     अत्यागिनाम्    – त्याग न करने वालों को    ;     प्रेत्य    –     मरने के बाद   ;     न   –    नहीं   ;    तु    –    लेकिन    ;    संन्यासिनाम्    –    संन्यासी के लिए ;     क्वचित्     –    किसी समय , कभी । 

जो त्यागी नहीं है , उसके लिए इच्छित ( इष्ट ) , अनिच्छित ( अनिष्ट ) तथा मिश्रित ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं । लेकिन जो संन्यासी हैं , उन्हें ऐसे फल का सुख – दुख नहीं भोगना पड़ता । 

तात्पर्य :-  जो कृष्णभावनामय व्यक्ति कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को जानते हुए कर्म करता है , वह सदैव मुक्त रहता है । अतएव उसे मृत्यु के पश्चात् अपने कर्मफलों का सुख – दुख नहीं भोगना पड़ता । 

भगवद गीता अध्याय 18.1~संन्यास की सिद्धि और त्याग के विषय का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita sanyas sidhi or tyag Ch18.1 
भगवद गीता अध्याय 18.1

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