अध्याय अठारह (Chapter -18)
भगवद गीता अध्याय 18.1 में शलोक 01 से शलोक 12 में संन्यास की सिद्धि और त्याग के विषय का वर्णन !
उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ १ ॥
अर्जुन उवाच – अर्जुन ने कहा ; संन्यासस्य – संन्यास ( त्याग ) का ; महाबाहो – हे बलशाली भुजाओं वाले ; तत्वम् – सत्य को ; इच्छामि – चाहता हूं ; वेदितुम – जानना ; त्यागस्य – त्याग ( संन्यास ) का ; च – भी ; हृषीकेश – हे इन्द्रियों के स्वामी ; पृथक् – भिन्न रूप से ; केशि-निषूदन – हे केशी असुर के संहर्ता ।
अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु ! में त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन , हे हृषीकेश ! में त्यागमय जीवन ( संन्यास आश्रम ) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ ।
तात्पर्य :- वास्तव में भगवद्गीता सत्रह अध्यायों में ही समाप्त हो जाती है । अठारहवाँ अध्याय तो पूर्वविवेचित विषयों का पूरक संक्षेप है । प्रत्येक अध्याय में भगवान् वल देकर कहते हैं कि भगवान् की सेवा ही जीवन का चरम लक्ष्य है । इसी विषय को इस अठारहवें अध्याय में ज्ञान के परम गुह्य मार्ग के रूप में संक्षेप में बताया गया है ।
प्रथम छह अध्यायों में भक्तियोग पर बल दिया गया – योगिनामपि सर्वेषाम् … ” समस्त योगियों में से जो योगी अपने अन्तर में सदेव मेरा चिन्तन करता है , वह सर्वश्रेष्ठ है । ” अगले छह अध्यायों में शुद्ध भक्ति , उसकी प्रकृति तथा कार्यों का विवेचन है । अन्त के छह अध्यायों में ज्ञान , वैराग्य अपरा तथा परा प्रकृति के कार्यों और भक्ति का वर्णन है ।
निष्कर्ष रूप में यह कहा गया है कि सारे कार्यों को परमेश्वर से युक्त होना चाहिए , जो तत् सत् शब्दों से प्रकट होता है और ये शब्द परम पुरुष विष्णु के सूचक हैं । भगवद्गीता के तृतीय खण्ड से यही प्रकट होता है कि भक्ति ही एकमात्र जीवन का चरम लक्ष्य है । पूर्ववर्ती आचार्यों तथा ब्रह्मसूत्र या वेदान्त – सूत्र का उद्धरण देकर इसकी स्थापना की गई है ।
कुछ निर्विशेषवादी वेदान्त सूत्र के ज्ञान पर अपना एकाधिकार जनाते हैं , लेकिन वास्तव में वेदान्त सूत्र भक्ति को समझने के लिए है , क्योंकि ब्रह्मसूत्र के रचयिता ( प्रणेता ) साक्षात् भगवान् हैं और वे ही इसके ज्ञाता हैं । इसका वर्णन पन्द्रहवें अध्याय में हुआ है । प्रत्येक शास्त्र , प्रत्येक वेद का लक्ष्य भक्ति है । भगवद्गीता में इसी की व्याख्या है ।
जिस प्रकार द्वितीय अध्याय में सम्पूर्ण विषयवस्तु की प्रस्तावना ( सार ) का वर्णन है , उसी प्रकार अठारहवें अध्याय में सारे उपदेश का सारांश दिया गया है । इसमें त्याग ( वैराग्य ) तथा त्रिगुणातीत दिव्य पथ की प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य बताया गया है । अर्जुन भगवद्गीता के दो विषयों का स्पष्ट अन्तर जानने का इच्छुक है – ये हैं , त्याग तथा संन्यास ।
अतएव वह इन दोनों शब्दों के अर्थ की जिज्ञासा कर रहा है । इस श्लोक में परमेश्वर को सम्बोधित करने के लिए प्रयुक्त हृषीकेश तथा केशिनिषूदन ये दो शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । हृषीकेश कृष्ण हैं , समस्त इन्द्रियों के स्वामी , जो हमें मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सहायक बनते हैं । अर्जुन उनसे प्रार्थना करता है कि वे सभी बातों को इस तरह संक्षिप्त कर दें , जिससे वह समभाव में स्थिर रहे । फिर भी उसके मन में कुछ संशय हैं और ये संशय असुरों के समान होते हैं ।
अतएव वह कृष्ण को केशि – निषूदन कहकर सम्बोधित करता है । केशी अत्यन्त दुर्जेय असुर था , जिसका वध कृष्ण ने किया था । अब अर्जुन थाहता है कि वे उसके संशय रूपी असुर का वध करें ।
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ २ ॥
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा ; काम्यानाम् – काम्यकर्मों का ; कर्मणाम् – कर्मों का ; न्यासम् – त्याग ; संन्यासम् – संन्यास ; कवयः – विद्वान जन ; विदुः – जानते हैं ; सर्व – समस्त ; कर्म – कर्मों का ; फल – फल ; त्यागम् – त्याग को ; प्राहु – कहते हैं ; त्यागम् – त्याग ; विचक्षणाः – अनुभवी ।
भगवान् ने कहा – भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल – त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं ।
तात्पर्य :- कर्मफल की आकांक्षा से किये गये कर्म का त्याग करना चाहिए । यही भगवद्गीता का उपदेश है । लेकिन जिन कर्मों से उच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो , उनका परित्याग नहीं करना चाहिए । अगले श्लोकों से यह स्पष्ट हो जायगा । वैदिक साहित्य में किसी विशेष उद्देश्य से यज्ञ सम्पन्न करने की अनेक विधियों का उल्लेख है ।
कुछ यज्ञ ऐसे हैं , जो अच्छी सन्तान प्राप्त करने के लिए या स्वर्ग की प्राप्ति के लिए किये जाते हैं , लेकिन जो यज्ञ इच्छाओं के वशीभूत हों , उनको बन्द करना चाहिए । परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नति या हृदय की शुद्धि के लिए किये जाने वाले यज्ञों का परित्याग करना उचित नहीं है ।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ ३ ॥
त्याज्यम् – त्याजनीय ; दोष-वत् – दोष के समान ; इति – इस प्रकार ; एके – एक समूह के ; कर्म – कर्म ; प्राहुः – कहते हैं ; मनीषिणः – महान चिन्तक ; यज्ञ – यज्ञ ; दान – दान ; तपः – तथा तपस्या का ; कर्म – कर्म ; न – कभी नहीं ; त्याज्यम् – त्यागने चाहिए ; इति – इस प्रकार ; च – तथा ; अपरे – अन्य ।
कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए । किन्तु अन्य विद्वान् मानते हैं कि यज्ञ , दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए ।
तात्पर्य :- वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक कर्म हैं जिनके विषय में मतभेद है । उदाहरणार्थ , यह कहा जाता है कि यज्ञ में पशु मारा जा सकता है , फिर भी कुछ का मत है कि पशुहत्या पूर्णतया निषिद्ध है । यद्यपि वैदिक साहित्य में पशु – वध की संस्तुति हुई है , लेकिन पशु को मारा गया नहीं माना जाता । यह बलि पशु को नवीन जीवन प्रदान करने के लिए होती है ।
कभी – कभी यज्ञ में मारे गये पशु को नवीन पशु – जीवन प्राप्त होता है , तो कभी वह पशु तत्क्षण मनुष्य योनि को प्राप्त हो जाता है । लेकिन इस सम्बन्ध में मनीषियों में मतभेद है । कुछ का कहना है कि पशुहत्या नहीं की जानी चाहिए और कुछ कहते हैं कि विशेष यज्ञ ( वलि ) के लिए यह शुभ है । अब यज्ञ – कर्म विषयक विभिन्न मतों का स्पष्टीकरण भगवान् स्वयं कर रहे हैं ।
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥ ४ ॥
निश्चयम् – निश्चय को ; शृणु – सुनो ; मे – मेरे ; तत्र – वहाँ ; त्यागे – त्याग के विषय में ; भरत-सत्-तम – हे भरतश्रेष्ठ ; त्यागः – त्याग ; हि – निश्चय ही ; पुरुष-व्याघ्र – हे मनुष्यों में बाघ ; त्रि-विधः – तीन प्रकार का ; सम्प्रकीर्तितः – घोषित किया जाता है ।
हे भरतश्रेष्ठ ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो । हे नरशार्दूल ! शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है ।
तात्पर्य :- यद्यपि त्याग के विषय में विभिन्न प्रकार के मत है , लेकिन परम पुरुष श्रीकृष्ण अपना निर्णय दे रहे हैं , जिसे अन्तिम माना जाना चाहिए । निस्सन्देह , सारे वेद भगवान् द्वारा प्रदत्त विभिन्न विधान ( नियम ) हैं ।
यहाँ पर भगवान् साक्षात् उपस्थित हैं , अतएव उनके वचनों को अन्तिम मान लेना चाहिए । भगवान् कहते हैं कि भौतिक प्रकृति के तीन गुणों में से जिस गुण में त्याग किया जाता है , उसी के अनुसार त्याग का प्रकार समझना चाहिए ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ ५ ॥
यज्ञः – यज्ञ ; दान – दान ; तपः – तथा तप का ; कर्म – कर्म ; न – कभी नहीं ; त्याज्यम् – त्यागने के योग्य ; कार्यम् – करना चाहिए ; एव – निश्चय ही ; तत् – उसे ; यज्ञः – यज्ञ ; दानम् – दान ; तपः – तप ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; पावनानि – शुद्ध करने वाले ; मनीषिणाम् – महात्माओं के लिए भी ।
यज्ञ , दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए , उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए । निस्सन्देह यज्ञ , दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं ।
तात्पर्य :- योगी को चाहिए कि मानव समाज की उन्नति के लिए कर्म करे । मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन तक ऊपर उठाने के लिए अनेक संस्कार ( पवित्र कर्म ) हैं । उदाहरणार्थ , विवाहोत्सव एक यज्ञ माना जाता है । यह विवाह यज्ञ कहलाता है ।
क्या एक संन्यासी , जिसने अपना पारिवारिक सम्बन्ध त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया है , विवाहोत्सव को प्रोत्साहन दे ? भगवान् कहते हैं कि कोई भी यज्ञ जो मानव कल्याण के लिए हो , उसका कभी भी परित्याग न करे । विवाह यज्ञ मानव मन को संयमित करने के लिए है , जिससे आध्यात्मिक प्रगति के लिए वह शान्त बन सके ।
संन्यासी को भी चाहिए कि इस विवाह यज्ञ की संस्तुति अधिकांश मनुष्यों के लिए करे । संन्यासियों को चाहिए कि स्त्रियों का संग न करें , लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जो व्यक्ति अभी जीवन की निम्न अवस्थाओं में है , अर्थात् जो तरुण है , वह विवाह – यज्ञ में पत्नी न स्वीकार करे । सारे यज्ञ परमेश्वर की प्राप्ति के लिए हैं ।
अतएव निम्नतर अवस्थाओं में यज्ञों का परित्याग नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार दान हृदय की शुद्धि ( संस्कार ) के लिए है । यदि दान सुपात्र को दिया जाता है , तो इससे आध्यात्मिक जीवन में प्रगति होती है , जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है ।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६ ॥
एतानि – वे सव ; अपि – निश्चय ही ; तु – लेकिन ; कर्माणि – कार्य ; सङ्गम् – संगति को ; त्यक्त्वा – त्यागकर ; फलानि – फलों को ; च – भी ; कर्तव्यानि – कर्तव्य समझ कर करने चाहिए ; इति – इस प्रकार ; मे – मेरा ; पार्थ – हे पूढापुत्र ; निश्चितम् – निश्चित ; मतम् – मत ; उत्तमम् – श्रेष्ठ ।
इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए । हे पृथापुत्र ! इन्हें कर्तव्य मानकर सम्पन्न किया जाना चाहिए । यही मेरा अन्तिम मत है ।
तात्पर्य :- यद्यपि सारे यज्ञ शुद्ध करने वाले हैं , लेकिन मनुष्य को ऐसे कार्यों से किसी फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए । दूसरे शब्दों में , जीवन में जितने सारे यज्ञ भौतिक उन्नति के लिए हैं , उनका परित्याग करना चाहिए । लेकिन जिन यज्ञों से मनुष्य का अस्तित्व शुद्ध हो और जो आध्यात्मिक स्तर तक उठाने वाले हों , उनको कभी बन्द नहीं करना चाहिए ।
जिस किसी वस्तु से कृष्णभावनामृत तक पहुंचा जा सके , उसको प्रोत्साहन देना चाहिए । श्रीमद्भागवत में भी यह कहा गया है कि जिस कार्य से भगवद्भक्ति का लाभ हो , उसे स्वीकार करना चाहिए । यही धर्म की सर्वोच्च कसोटी है । भगवद्भक्त को ऐसे किसी भी कर्म , यज्ञ या दान को स्वीकार करना चाहिए , जो भगवद्भक्ति करने में सहायक हो ।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ ७ ॥
नियतस्य – नियत , निर्दिष्ट ( कार्य ) का ; तु – लेकिन ; संन्यास: – संन्यास , त्याग ; कर्मणः – कर्मों का ; न – कभी नहीं ; उपपद्यते – योग्य होता है ; मोहात् – मोहवश ; तस्य – उसका ; परित्यागः – त्याग देना ; तामस: – तमोगुणी ; परिकीर्तितः – घोषित किया जाता है ।
निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए । यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है , तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है ।
तात्पर्य :- जो कार्य भौतिक तुष्टि के लिए किया जाता है , उसे अवश्य ही त्याग दे , लेकिन जिन कार्यों से आध्यात्मिक उन्नति हो , यथा भगवान् के लिए भोजन बनाना , भगवान् को भोग अर्पित करना , फिर प्रसाद ग्रहण करना , उनकी संस्तुति की जाती है । कहा जाता है कि संन्यासी को अपने लिए भोजन नहीं बनाना चाहिए ।
लेकिन अपने लिए भोजन पकाना भले ही वर्जित हो , परमेश्वर के लिए भोजन पकाना वर्जित नहीं है । इसी प्रकार अपने शिष्य की कृष्णभावनामृत में प्रगति करने में सहायक बनने के लिए संन्यासी विवाह – यज्ञ सम्पन्न करा सकता है । यदि कोई ऐसे कार्यों का परित्याग कर देता है , तो यह समझना चाहिए कि वह तमोगुण के अधीन है ।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ ८ ॥
दुःखम् – दुखी ; इति – इस प्रकार ; एव – निश्चय ही ; यत् – जो ; कर्म – कार्य ; काय – शरीर के लिए ; क्लेश – कष्ट के ; भयात् – भय से ; त्यजेत् – त्याग देता है ; सः – वह ; कृत्वा – करके ; राजसम् – रजोगुण में ; त्यागम् – त्याग ; न – नहीं ; एव – निश्चय ही ; त्याग – त्याग ; फलम् – फल को ; लभेत् – प्राप्त करता हैं ।
जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझ कर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है , उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है । ऐसा करने से कभी त्याग का उच्चफल प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्य :- जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को प्राप्त है , उसे इस भय से अर्थोपार्जन बन्द नहीं करना चाहिए कि वह सकाम कर्म कर रहा है । यदि कोई कार्य करके कमाये धन को कृष्णभावनामृत में लगाता है , या यदि कोई प्रातःकाल जल्दी उठकर दिव्य कृष्णभावनामृतः को अग्रसर करता है , तो उसे चाहिए कि वह डर कर या यह सोचकर कि ऐसे कार्य कष्टप्रद हैं , उन्हें त्यागे नहीं
ऐसा त्याग राजसी होता है । राजसी कर्म का फल सदैव दुखद होता है । यदि कोई व्यक्ति इस भाव से कर्म त्याग करता है , तो उसे त्याग का फल कभी नहीं मिल पाता ।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ ९ ॥
कार्यम् – करणीय ; इति – इस प्रकार ; एव – निस्सन्देह ; यत् – जो ; कर्म – कर्म ; नियतम् – निर्दिष्ट ; क्रियते – किया जाता है ; अर्जुन – हे अर्जुन ; सङ्गम् – संगति , संग ; त्यक्त्वा – त्याग कर ; फलम् – फल ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; सः – वह ; त्यागः – त्याग ; सात्त्विकः – सात्त्विक , सतोगुणी ; मतः – मेरे मत से ।
हे अर्जुन ! जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मान कर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आसक्ति को त्याग देता है , तो उसका त्याग सात्त्विक कहलाता ।
तात्पर्य :- नियत कर्म इसी मनोभाव से किया जाना चाहिए । मनुष्य को फल के प्रति अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए , उसे कर्म के गुणों से विलग हो जाना चाहिए । जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में रहकर कारखाने में कार्य करता है , वह न तो कारखाने के कार्य से अपने को जोड़ता है , न ही कारखाने के श्रमिकों से वह तो मात्र कृष्ण के लिए कार्य करता है । और जब वह इसका फल कृष्ण को अर्पण कर देता है , तो वह दिव्य स्तर पर कार्य करता है ।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्त्रसंशयः ॥ १० ॥
न – नहीं ; द्वेष्टि – घृणा करता है ; अकुशलम् – अशुभ ; कर्म – कर्म ; कुशले – शुभ में ; न – न तो ; अनुषज्जते – आसक्त होता है ; त्यागी – त्यागी ; सत्त्व – सतोगुण में ; समाविष्टः – लीन ; मेधावी – बुद्धिमान ; छिन्न – छित्र हुए ; संशयः – समस्त संशय या संदेह ।
सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी , जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है , न शुभकर्म से लिप्त होता है , वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता ।
तात्पर्य :- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या सतोगुणी व्यक्ति न तो किसी व्यक्ति से घृणा करता है , न अपने शरीर को कष्ट देने वाली किसी बात से वह उपयुक्त स्थान पर तथा उचित समय पर , बिना डरे , अपना कर्तव्य करता है । ऐसे व्यक्ति को , जो अध्यात्म को प्राप्त है , सर्वाधिक बुद्धिमान तथा अपने कर्मों में संशयरहित मानना चाहिए ।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११ ॥
न – कभी नहीं ; हि – निश्चय ही ; देह-भृता – देहधारी द्वारा ; शक्यम् – सम्भव है ; त्यक्तुम् – त्यागने के लिए ; कर्माणि – कर्म ; अशेषतः – पूर्णतया ; यः – जो ; तु – लेकिन ; कर्म – कर्म के ; फल – फल का ; त्यागी – त्याग करने वाला ; सः – वह ; त्यागी – त्यागी ; इति – इस प्रकार ; अभिधीयते – कहलाता है ।
निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है । लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है , वह वास्तव में त्यागी कहलाता है ।
तात्पर्य :- भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य कभी भी कर्म का त्याग नहीं कर सकता । अतएव जो कृष्ण के लिए कर्म करता है और कर्मफलों को भोगता नहीं तथा जो कृष्ण को सब कुछ अर्पित करता है , वहीं वास्तविक त्यागी है ।
अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ में अनेक सदस्य हैं , जो अपने अपने कार्यालयों , कारखानों या अन्य स्थानों में कठिन श्रम करते हैं और वे जो कुछ कमाते हैं , उसे संघ को दान दे देते हैं । ऐसे महात्मा व्यक्ति वास्तव में संन्यासी हैं और वे संन्यास में स्थित होते हैं । यहाँ स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कर्मफलों का परित्याग किस प्रकार और किस प्रयोजन के लिए किया जाय ।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥ १२ ॥
अनिष्टम् – नरक ले जाने वाले ; इष्टम् – स्वर्ग ले जाने वाले ; मिश्रम् – मिश्रित ; च – तथा ; त्रि-विधम् – तीन प्रकार ; कर्मणः – कर्म का ; फलम् – फल ; भवति – होता है ; अत्यागिनाम् – त्याग न करने वालों को ; प्रेत्य – मरने के बाद ; न – नहीं ; तु – लेकिन ; संन्यासिनाम् – संन्यासी के लिए ; क्वचित् – किसी समय , कभी ।
जो त्यागी नहीं है , उसके लिए इच्छित ( इष्ट ) , अनिच्छित ( अनिष्ट ) तथा मिश्रित ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं । लेकिन जो संन्यासी हैं , उन्हें ऐसे फल का सुख – दुख नहीं भोगना पड़ता ।
तात्पर्य :- जो कृष्णभावनामय व्यक्ति कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को जानते हुए कर्म करता है , वह सदैव मुक्त रहता है । अतएव उसे मृत्यु के पश्चात् अपने कर्मफलों का सुख – दुख नहीं भोगना पड़ता ।
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