भगवद गीता अध्याय 17.3 || ॐ तत्सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय सोलह (Chapter -17)

भगवद गीता अध्याय 17.3 में शलोक 23 से शलोक 28 ॐ तत्सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या का वर्णन !

तस्माद्   ॐ   इत्युदाहृत्य  यज्ञदानतपः  क्रियाः । 

प्रवर्तन्ते   विधानोक्ताः   सततं    ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ॥ 

तस्मात्    –    अतएव    ;    ॐ    –    ओम् से प्रारम्भ करके    ;    इति    –    इस प्रकार   ;    उदाहृत्य    –     संकेत करके    ;     यज्ञ    – यज्ञ    ;    दान   – दान    ;    तपः   –    तथा तप की  ;     क्रिया:    –    क्रियाएँ    ;     प्रवर्तन्ते    –   प्रारम्भ होती हैं    ;    विधान-उक्ताः –    शास्त्रीय विधान के अनुसार   ;    सततम्    –    सदैव    ;     ब्रह्म-वादिनाम्    –    अध्यात्मवादियों या योगियों की । 

अतएव योगीजन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ , दान तथा तप की समस्त क्रियाओं का शुभारम्भ सदैव ओम् से करते हैं । 

तात्पर्य :-   ॐ तद् विष्णोः परमं पदम् ( ऋग्वेद १.२२.२० ) । विष्णु के चरणकमल परम भक्ति के आश्रय हैं । भगवान् के लिए सम्पन्न हर एक क्रिया सारे कार्यक्षेत्र की सिद्धि निश्चित कर देती है । 

तदित्यनभिसन्धाय         फलं       यज्ञतपःक्रियाः । 

दानक्रियाश्च    विविधाः   क्रियन्ते  मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ २५ ॥  

तत्    –     वह    ;     इति     –   इस प्रकार     ;     अनभिसन्धाय    –     विना इच्छा किये    ;   फलम्    –   फल    ;     यज्ञ   –   यज्ञ    ;    तपः    –    तथा तप की    ;     क्रिया:    –    क्रियाएँ    ; दान    –    दान की    ;     क्रिया:    –     क्रियाएँ    ;     च    –    भी     ;      विविधाः    –    विभिन्न   ;    क्रियन्ते    –     की जाती हैं    ;      मोक्ष-काक्षिभिः    –     मोक्ष चाहने वालों के द्वारा । 

मनुष्य को चाहिए कि कर्मफल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ , तप तथा दान को ‘ तत् ‘ शब्द कह कर सम्पन्न करे । ऐसी दिव्य क्रियाओं का उद्देश्य भव – बन्धन से मुक्त होना है । 

तात्पर्य :- आध्यात्मिक पद तक उठने के लिए मनुष्य को चाहिए कि किसी लाभ के निमित कर्म न करे । सारे कार्य भगवान् के परम धाम वापस जाने के उद्देश्य से किये जायें , जो चरम उपलब्धि है । 

सद्भावे     साधुभावे    च     सदित्येतत्प्रयुज्यते । 

प्रशस्ते  कर्मणि  तथा   सच्छब्दः  पार्थ   युज्यते ॥ २६ ॥ 

यज्ञे  तपसि  दाने   च  स्थितिः  सदिति  चोच्यते । 

कर्म      चैव      तदर्थीयं      सदित्येवाभिधीयते ॥ २७ ॥ 

सत्-भावे     –     ब्रह्म के स्वभाव के अर्थ में    ;      साधु-भावे    –     भक्त के स्वभाव के    ;     अर्थ   –    में    ;     च    –    भी   ;     सत्    –    सत् शब्द    ;    इति    –    इस प्रकार    ;    एतत्   –   यह   ;      प्रयुज्यते     –    प्रयुक्त किया जाता है     ;     प्रशस्ते    –     प्रामाणिक    ;     कर्मणि    –    कर्मों में     ;    तथा     –   भी     ;     सत्-शब्द:     –    सत् शब्द    ;     पार्थ     –    हे पृथापुत्र   ;     युज्यते     –     प्रयुक्त किया जाता है         

यज्ञे    –    यज्ञ में     ;    तपसि    –     तपस्या में     ;   दाने     –      दान में     ;     च    –    भी    ;     स्थितिः     –   स्थितिः    ;    सत्    –    वहा    ;    इति –      इस प्रकार    ;    च    – तथा     ;     उच्यते    –     उच्चारण किया जाता है     ;     कर्म   –   कार्य    ;     च    –    भी   ;     एव    –    निश्चय ही     ;     तत्    –   उस   ;   अर्थीयम्     –    के लिए    ;      सत्     –    ब्रह्म    ;   इति     –    इस प्रकार     ;     एव     –    निश्चय ही    ;     अभिधीयते    – कहा जाता है । 

परम सत्य भक्तिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत् शब्द से अभिहित किया जाता है । हे पृथापुत्र ! ऐसे यज्ञ का सम्पन्नकर्ता भी ‘ सत् ‘ कहलाता है जिस प्रकार यज्ञ , तप तथा दान के सारे कर्म भी जो परमपुरुष को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किये जाते हैं , ‘ सत् ‘ हैं । 

तात्पर्य :-  प्रशस्ते कर्मणि अर्थात् “ नियत कर्तव्य ” सूचित करते हैं कि वैदिक साहित्य में ऐसी कई क्रियाएँ निर्धारित हैं , जो गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक संस्कार के रूप में हैं । ऐसे संस्कार जीव की चरम मुक्ति के लिए होते हैं । ऐसी सारी क्रियाओं के समय ॐ तत् सत् उच्चारण करने की संस्तुति की जाती है । सद्भाव तथा साधुभाव आध्यात्मिक स्थिति के सूचक हैं ।

कृष्णभावनामृत में कर्म करना सत् है और जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत के कार्यों के प्रति सचेष्ट रहता है , वह साधु कहलाता है । श्रीमद्भागवत में ( ३.२५.२५ ) कहा गया है कि भक्तों की संगति से आध्यात्मिक विषय स्पष्ट हो जाता है । इसके लिए सतां प्रसङ्गात् शब्द व्यवहृत हुए हैं । बिना सत्संग के दिव्य ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता । किसी को दीक्षित करते समय या यज्ञोपवीत धारण कराते समय ॐ तत् सत् शब्दों का उच्चारण किया जाता है ।

इसी प्रकार सभी प्रकार के यज्ञ करते समय ॐ तत् सत् या ब्रह्म ही चरम लक्ष्य होता है । तदर्थीयम शब्द वहा का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी भी कार्य में सेवा करने का सूचक है , जिसमें भगवान् के मन्दिर में भोजन पकाना तथा सहायता करने जैसी सेवाएँ या भगवान् के यश का प्रसार करने वाला अन्य कोई भी कार्य सम्मिलित है ।

इस तरह ॐ तत् सत् शब्द समस्त कार्यों को पूरा करने के लिए कई प्रकार से प्रयुक्त किये जाते हैं ।

अश्रद्धया  हुतं  दत्तं  तपस्तप्तं  कृतं  च  यत् । 

असदित्युच्यते  पार्थ  न  च  तत्प्रेत्य  नो  इह ॥ २८ ॥  

अश्रद्धया    –    श्रद्धारहित     ;      हृतम्    –    यज्ञ में आहुति किया गया     ;     दत्तम   –    प्रदत्त   ;   तपः    –     तपस्या    ;    तप्तम्     –    सम्पन्न   ;     कृतम्    –     किया गया    ;      च    –    भी    ;     यत्    –    जो   ;   असत्    –     झूठा   ;      इति    –    इस प्रकार    ;    उच्यते    –    कहा जाता है    ; पार्थ    –    हे पूधापुत्र    ;   न    –     कभी नहीं    ;     च    –   भी    ;     प्रेत्य    –      मर कर     ;    न   उ   –     न तो    ;     इह    –    इस जीवन में   । 

हे पार्थ ! श्रद्धा के बिना यज्ञ , दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है , वह नश्वर है । वह ‘ असत् ‘ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म – दोनों में ही व्यर्थ जाता है । 

तात्पर्य :-  चाहे यज्ञ हो , दान हो या तप हो , बिना आध्यात्मिक लक्ष्य के व्यर्थ रहता है । अतएव इस श्लोक में यह घोषित किया गया है कि ऐसे कार्य कुत्सित हैं । प्रत्येक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर ब्रह्म के लिए किया जाना चाहिए । सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में भगवान् में श्रद्धा की संस्तुति की गई है ।

ऐसी श्रद्धा तथा समुचित मार्गदर्शन के बिना कोई फल नहीं मिल सकता । समस्त वैदिक आदेशों के पालन का चरम लक्ष्य कृष्ण को जानना है । इस सिद्धान्त का पालन किये बिना कोई सफल नहीं हो सकता ।

इसीलिए सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि मनुष्य प्रारम्भ से ही किसी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में कृष्णभावनामृत में कार्य करे । सब प्रकार से सफल होने का यही मार्ग है । बद्ध अवस्था में लोग देवताओं , भूतों या कुबेर जैसे यक्षों की पूजा के प्रति आकृष्ट होते हैं । यद्यपि सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण से श्रेष्ठ है , लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को ग्रहण करता है , वह प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है ।

यद्यपि क्रमिक उन्नति की विधि है , किन्तु शुद्ध भक्तों की संगति से यदि कोई कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है , तो यह सर्वश्रेष्ठ मार्ग है । इस अध्याय में इसी की संस्तुति की गई है । इस प्रकार से सफलता पाने के लिए उपयुक्त गुरु प्राप्त करके उसके निर्देशन में प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए । तभी ब्रह्म श्रद्धा हो सकती है ।

जब कालक्रम से यह श्रद्धा परिपक्व होती है , तो इसे ईश्वरप्रेम कहते हैं । यही प्रेम समस्त जीवों का चरम लक्ष्य है । अतएव मनुष्य को चाहिए कि सीधे कृष्णभावनामृत ग्रहण करे । इस सत्रहवें अध्याय का यही संदेश है ।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय ” श्रद्धा के विभाग ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।

भगवद गीता अध्याय 17.3~ॐ तत्सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita Om tatsat byakhya Ch17.3
भगवद गीता अध्याय 17.3

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