भगवद गीता अध्याय 17.2 || आहार,यज्ञ,तप और दान के पृथक-पृथक भेद || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय सोलह (Chapter -17)

भगवद गीता अध्याय 17.2 में शलोक 07  से शलोक  22 आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद का वर्णन !

आहारस्त्वपि  सर्वस्य  त्रिविधो  भवति  प्रियः । 

यज्ञस्तपस्तथा    दानं   तेषां   भेदमिमं   शृणु ॥ ७ ॥ 

आहार:     –     भोजन   ;     तु     –    निश्चय ही    ;     अपि    –   भी   ;    सर्वस्य    –     हर एक का   ;       त्रि-विधः    –     तीन प्रकार का   ;     भवति    –    होता है     ;      प्रियः    –    प्यारा    ;    यज्ञः    –    यज्ञ    ;     तपः   –    तपस्या    ;     तथा    –   और   ;     दानम्    –   दान    ;      तेषाम् –    उनका     ;     भेदम्   –    अन्तर    ;     इमम्    –    यह   ;     शृणु   –   सुनो । 

यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है , वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है । यही बात यज्ञ , तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है । अब उनके भेदों के विषय में सुनो । 

तात्पर्य :-  प्रकृति के भिन्न – भिन्न गुणों के अनुसार भोजन , यज्ञ , तपस्या और दान में भेद होते हैं । वे सब एक से नहीं होते । जो लोग यह समझ सकते हैं कि किस गुण में क्या क्या करना चाहिए , वे वास्तव में बुद्धिमान हैं । जो लोग सभी प्रकार के यज्ञ , भोजन या दान को एकसा मान कर उनमें अन्तर नहीं कर पाते , वे अज्ञानी हैं ।

ऐसे भी प्रचारक लोग हैं , जो यह कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है और सिद्धि प्राप्त कर सकता है । लेकिन ये मूर्ख मार्गदर्शक शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य नहीं करते । ये अपनी विधियाँ बनाते हैं और सामान्य जनता को भ्रान्त करते रहते हैं । 

आयुः                सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः       । 

रस्याः  स्निग्धाः  स्थिरा  हद्या  आहाराः  सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥ 

आयु:     –    जीवन काल    ;     सत्त्व    –    अस्तित्व   ;     बल    –   वल   ;     आरोग्य    –   स्वास्थ्य  ;      सुख    –    सुख   ;     प्रीति    –    तथा संतोष     ; विवर्धना:     –    बढ़ाते हुए    ;     रस्या:   –     रस से युक्त   ;      स्निग्धाः   –    चिकना    ;     स्थिरा:    –    सहिष्णु     ;     हृद्याः    –   हृदय को भाने वाले ;   आहारा:    –      भोजन     ;     सात्त्विक     –     सतोगुणी    ;    प्रिया:    –  अच्छे लगने वाले । 

जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है , वह आयु बढ़ाने वाला , जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल , स्वास्थ्य , सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है । ऐसा भोजन रसमय , स्निग्ध , स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला होता है

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः      । 

आहारा   राजसस्येष्टा   दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥  

कटु   –  कडवे , तीते     ;   अम्ल    –    खट्टे   ;     लवण     –    नमकीन    ;      अति-उष्ण    –    अत्यन्त गरम   ;     तीक्ष्ण    –     चटपटे   ;     रूक्ष    – शुष्क    ;     विदाहिनः   –    जलाने वाले    ;     आहारा:    –    भोजन    ;     राजसस्य    –     रजोगुणी के   ;     इष्टा:    –    रुचिकर   ;  दुःख     –     दुख    ; शोक    –    शोक    ;     आमय    –   रोग    ;     प्रदाः    –     उत्पन्न करने वाले । 

अत्यधिक तिक्त , खट्टे , नमकीन , गरम , चटपटे , शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं । ऐसे भोजन दुख , शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं । 

यातयामं   गतरसं   पूति   पर्युषितं   च   यत् । 

उच्छिष्टमपि  चामेध्यं   भोजनं  तामसप्रियम् ॥ १० ॥ 

यात-यामम्     –    भोजन करने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया     ;     गत-रसम्    –    स्वादरहित    ; पूति    –    दुर्गंधयुक्त    ;     पर्युषितम्    –    विगड़ा हुआ    ;    च    –   भी   ;    यत्    –    जो     ; उच्छिष्टम्   –    अन्यों का जूठन     ;     अपि    –   भी   ; च   –   तथा    ;     अमेध्यम्    –   अस्पृश्य    ;    भोजनम्    –   भोजन   ;      तामस    –   तमोगुणी को   ;     प्रियम्   –   प्रिय । 

खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया , स्वादहीन , वियोजित एवं सड़ा , जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है , जो तामसी होते हैं । 

तात्पर्य :-  आहार ( भोजन ) का उद्देश्य आयु को बढ़ाना , मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है । इसका यही एकमात्र उद्देश्य है । प्राचीन काल में विद्वान पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे , जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो , यथा दूध के व्यंजन , चीनी , चावल , गेहूँ , फल तथा तरकारियाँ । ये भोजन सतोगुणी व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं ।

अन्य कुछ पदार्थ , जैसे भुना मक्का तथा गुड़ स्वयं रुचिकर न होते हुए भी दूध या अन्य पदार्थों के साथ मिलने पर स्वादिष्ट हो जाते हैं । तब वे सात्त्विक हो जाते हैं । ये सारे भोजन स्वभाव से ही शुद्ध हैं । ये मांस तथा मदिरा जैसे अस्पृश्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न हैं ।

आठवें श्लोक में जिन स्निग्ध ( चिकने ) पदार्थों का उल्लेख है , उनका पशु – वध से प्राप्त चर्बी से कोई नाता नहीं होता । यह पशु चर्वी ( वसा ) दुग्ध के रूप में उपलब्ध है , जो समस्त भोजनों में परम चमत्कारी है । दुग्ध , मक्खन , पनीर तथा अन्य पदार्थों से जो पशु चर्वी मिलती है , उससे निर्दोष पशुओं के मारे जाने का प्रश्न नहीं उठता ।

यह केवल पाशविक मनोवृत्ति है , जिसके कारण पशुवध चल रहा है । आवश्यक चर्वी प्राप्त करने की सुसंस्कृत विधि दूध से है । पशुवध तो अमानवीय है । मटर , दाल , दलिया आदि से प्रचुर मात्रा में प्रोटीन उपलब्ध होता है । जो राजस भोजन कटु , बहुत लवणीय या अत्यधिक गर्म , चरपरा होता है , वह आमाशय की श्लेष्मा को घटा कर रोग उत्पन्न करता है ।

तामसी भोजन अनिवार्यतः वासी होता है । खाने से तीन घंटे पूर्व बना कोई भी भोजन ( भगवान् को अर्पित प्रसादम् को छोड़कर ) तामसी माना जाता है । बिगड़ने के कारण उससे दुर्गंध आती है , जिससे तामसी लोग प्रायः आकृष्ट होते हैं , किन्तु सात्त्विक पुरुष उससे मुख मोड़ लेते हैं ।

उच्छिष्ट ( जुठा ) भोजन उसी अवस्था में किया जा सकता है , जब वह उस भोजन का एक अंश हो जो भगवान् को अर्पित किया जा चुका हो , या कोई साधुपुरुष , विशेष रूप से गुरु द्वारा ग्रहण किया जा चुका हो । अन्यथा ऐसा जूठा भोजन तामसी होता है और वह संदूषण या रोग को बढ़ाने वाला होता है । यद्यपि ऐसा भोजन तामसी लोगों को स्वादिष्ट लगता है , लेकिन सतोगुणी उसे न तो छूना पसन्द करते हैं , न खाना ।

भोजन तो भगवान् को समर्पित भोजन का उच्छिष्ट है । भगवद्गीता में परमेश्वर कहते हैं कि वे तरकारियाँ , आटे तथा दूध की बनी वस्तुएँ भक्तिपूर्वक भेंट किये जाने पर स्वीकार करते हैं । पत्रं पुष्पं फलं तोयम् । निस्सन्देह भक्ति तथा प्रेम ही प्रमुख वस्तुएँ हैं , जिन्हें भगवान स्वीकार करते हैं । लेकिन इसका भी उल्लेख है कि प्रसादम् को एक विशेष विधि में बनाया जाय ।

कोई भी भोजन , जो शास्त्रीय ढंग से तैयार किया जाता है और भगवान् को अर्पित किया जाता है , ग्रहण किया जा सकता है , भले ही वह कितने ही घर पूर्व क्यों न तैयार हुआ हो , क्योंकि ऐसा भोजन दिव्य होता है । अतएव भोजन को रोगाणुरोधक , खाद्य तथा सभी मनुष्यों के लिए रुचिकर बनाने के लिए सर्वप्रथम भगवान् को अर्पित करना चाहिए । 

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो  विधिदिष्टो  य  इज्यते  । 

यष्टव्यमेवेति  मनः   समाधाय  स  सात्त्विकः ॥ ११ ॥  

अफल-आकाक्षिभिः    –     फल की इच्छा से रहित    ;     यज्ञः   –   यज्ञ    ;    विधि-दिष्टः    – शास्त्रों के निर्देशानुसार जो किया जाता है    ;     यष्टव्यम्    – सम्पन्न किया जाना चाहिए    ;   एव   –    निश्चय ही    ;    मनः   –    मन में   ;    समाधाय     –   स्थिर करके   ;     सः   –   वह    ;   सात्त्विक:    –    सतोगुणी । 

यतों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है , जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है , जो फल की इच्छा नहीं करते । 

तात्पर्य :-   सामान्यतया  यज्ञ  किसी प्रयोजन से किया जाता है । लेकिन यहाँ पर बताया गया है कि दिना किसी इच्छा के सम्पन्न किया जाना चाहिए । इसे कर्तव्य समझ कर किया जाना चाहिए ।

उदाहरणार्थ , मन्दिरों या गिरजाघरों में मनाये जाने वाले अनुष्ठान सामान्यतया मौलिक लाभ को दृष्टि में राख कर किये जाते हैं , लेकिन यह सतोगुण में नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि वह कर्तव्य मानकर मन्दिर या गिरजाघर में जाए , भगवान् को नमस्कार करे और फूल तथा प्रसाद चढ़ाए ।

प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि केवल ईश्वर की पूजा करने के लिए मन्दिर जाना व्यर्थ है । लेकिन शास्त्रों में आर्थिक लाभ के लिए पूजा करने का आदेश नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि केवल अर्चाविग्रह को नमस्कार करने जाए । इससे मनुष्य सतोगुण को प्राप्त होगा । प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है । कि वह शास्त्रों के आदेशों का पालन करे और भगवान् को नमस्कार करे ।

अभिसन्धाय  तु  फलं  दम्भार्थमपि  चैव  यत् । 

इज्यते  भरतश्रेष्ठ   तं   यज्ञं   विद्धि   राजसम् ॥ १२ ॥ 

अभिसन्धाय    –    इच्छा कर के    ;     तु   –    लेकिन    ;     फलम्   –    फल को    ;     दम्भ   –  घमंड     ;     अर्थम्    –    के लिए   ;    अपि    –    भी   ;   च   –   तथा   ;    एव   –   निश्चय ही  ;   यत्   –   जो    ;     इज्यते   –   किया जाता है    ;    भरत श्रेष्ठ   –   हे भरतवंशियों में प्रमुख    ;  तम्   –    उस   ;  यज्ञम्    –   यज्ञ को   ;    विद्धि   –   जानो   ;   राजसम्   –   रजोगुणी । 

लेकिन हे भरतश्रेष्ठ ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्ववश किया जाता है , उसे तुम राजसी जानो । 

तात्पर्य :-  कभी – कभी स्वर्गलोक पहुँचने या किसी भौतिक लाभ के लिए यज्ञ तथा अनुष्ठान किये जाते हैं । ऐसे यज्ञ या अनुष्ठान राजसी माने जाते हैं । 

विधिहीनमसृष्टान्नं   मन्त्रहीनमदक्षिणम् । 

श्रद्धाविरहितं   यज्ञं   तामसं   परिचक्षते ॥ १३ ॥ 

विधि-हीनम्   –   शास्त्रीय निर्देश के बिना    ;    असृष्ट-अन्नम्    –     प्रसाद वितरण किये बिना    ;   मन्त्र-हीनम्    –    वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना    ; अदक्षिणम्   –    पुरोहितों को दक्षिणा दिये विना     ;    श्रद्धा    –    श्रद्धा    ;     विरहितम्    –    विहीन   ;    यज्ञम्   –    यज्ञ को    ; तामसम्    –    तामसी    ; परिचक्षते   –    माना जाता है । 

जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके , प्रसाद वितरण किये बिना , वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना , पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना तथा श्रद्धा के बिना सम्पन्न किया जाता है , वह तामसी माना जाता है । 

तात्पर्य :-  तमोगुण में श्रद्धा वास्तव में अश्रद्धा है । कभी – कभी लोग किसी देवता की पूजा धन अर्जित करने के लिए करते हैं और फिर वे इस धन को शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके मनोरंजन में व्यय करते हैं । ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों को सात्त्विक नहीं माना जाता । ये तामसी होते हैं । इनसे तामसी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और मानव समाज को कोई लाभ नहीं पहुँचता । 

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं      शौचमार्जवम् । 

ब्रह्मचर्यमहिंसा  च  शारीरं  तप  उच्यते ॥ १४ ॥ 

देव   –   परमेश्वर    ;    द्विज   –    ब्राह्मण     ;    गुरु    –   गुरु    ;    प्राज्ञ    –    तथा पूज्य व्यक्तियों की    ;     शौचम्    –   पवित्रता    ; आर्जवम्   – सरलता    ;    ब्रह्मचर्यम्    –    ब्रह्मचर्य  ;      पूजनम्    –   पूजा     ;    अहिंसा    –    अहिंसा    ;    च    –    भी    ;    शारीरम्    –  शरीर सम्बन्धी    ;    तपः    –  तपस्या ;    उच्यते    –    कहा जाता है ।  

परमेश्वर , ब्राह्मणों , गुरु , माता – पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या । 

तात्पर्य :-  यहाँ पर भगवान् तपस्या के भेद बताते हैं । सर्वप्रथम वे शारीरिक तपस्या का वर्णन करते हैं । मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर या देवों , योग्य ब्राह्मणों , गुरु तथा माता पिता जैसे गुरुजनों या वैदिक ज्ञान में पारंगत व्यक्ति को प्रणाम करे या प्रणाम करना सीखे । इन सबका समुचित आदर करना चाहिए ।

उसे चाहिए कि आंतरिक तथा बाह्य रूप में अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण में बना कोई ऐसा कार्य न करे , जो शास्त्र – सम्मत न हो । यह वैवाहिक जीवन के अतिरिक्त मैथुन में रत न हो , क्योंकि शास्त्रों में केवल विवाह में ही मैथुन की अनुमति है , अन्यथा नहीं । यह ब्रह्मचर्य कहलाता है । ये सब शारीरिक तपस्याएँ हैं । 

अनुद्वेगकरं  वाक्यं  सत्यं  प्रियहितं  च  यत् । 

स्वाध्यायाभ्यसनं   चैव  वाङ्मयं  तप  उच्यते ॥ १५ ॥

अनुद्वेग-करम्    –    क्षुब्ध करने वाले   ;     वाक्यम्   –    शब्द   ;    सत्यम्   –    सच्चे    ;    प्रिय    –   प्रिय    ;     हितम्    –    लाभप्रद ;    च    –    भी   ;     यत्    –    जो    ;    स्वाध्याय    –  वैदिक अध्ययन का   ;    अभ्यसनम्    –   अभ्यास   ;    च   –   भी    ;    एव    – निश्चय ही    ;   वाक्-मयम्     –     वाणी की    ;     तपः   –    तपस्या   ;     उच्यते     –    कही जाती है । 

सच्चे , भाने वाले , हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना- यही बाणी की तपस्या है । 

तात्पर्य :-  मनुष्य को ऐसा नहीं बोलना चाहिए कि दूसरों के मन क्षुब्ध हो जाएं । निस्सन्देह जब शिक्षक वोले तो वह अपने विद्यार्थियों को उपदेश देने के लिए सत्य बोल सकता है , लेकिन उसी शिक्षक को चाहिए कि यदि वह उनसे बोले जो उसके विद्यार्थी नहीं है , तो उनके मन को क्षुब्ध करने वाला सत्य न बोले । यही वाणी की तपस्या है ।

इसके अतिरिक्त प्रलाप ( व्यर्थ की वार्ता ) नहीं करना चाहिए । आध्यात्मिक क्षेत्रों में बोलने की विधि यह है कि जो भी कहा जाय वह शास्त्र – सम्मत हो । उसे तुरन्त ही अपने कथन की पुष्टि के लिए शास्त्रों का प्रमाण देना चाहिए । इसके साथ – साथ वह बात सुनने में अति प्रिय लगनी चाहिए । ऐसी विवेचना से मनुष्य को सर्वोच्च लाभ और मानव समाज का उत्थान हो सकता है । वैदिक साहित्य का विपुल भण्डार है और इसका अध्ययन किया जाना चाहिए । यही वाणी की तपस्या कही जाती है । 

मनः  प्रसादः  सौम्यत्वं  मौनमात्मविनिग्रहः ।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो         मानसमुच्यते ॥ १६ ॥ 

मनः-प्रसादः   –    मन की तुष्टि    ;     सौम्यत्वम्    –    अन्यों के प्रति कपट भाव से रहित    ;    मोनम्     –     गम्भीरता     ;     आत्म    – अपना    ; विनिग्रहः   –    नियन्त्रण, संयम   ;   भाव  –      स्वभाव का    ;    संशुद्धिः    –    शुद्धीकरण    ;     इति   –    इस प्रकार   ;    एतत्    –    यह   ;    तपः    – तपस्या   ;   मानसम्    –    मन की    ;     उच्यते   –    कही जाती है । 

तथा संतोष , सरलता , गम्भीरता , आत्म – संयम एवं जीवन की शुद्धि – ये मन की तपस्याएँ हैं । 

तात्पर्य :-  मन को संयमित बनाने का अर्थ है , उसे इन्द्रियतृप्ति से विलग करना । उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे वह सदैव परोपकार के विषय में सोचे । मन के लिए सर्वोत्तम प्रशिक्षण विचारों की श्रेष्ठता है । मनुष्य को कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होना चाहिए और इन्द्रियभोग से सदैव बचना चाहिए । अपने स्वभाव को शुद्ध बनाना कृष्णभावनाभावित होना है ।

इन्द्रियभोग के विचारों से मन को अलग रख करके ही मन की तुष्टि प्राप्त की जा सकती है । हम इन्द्रियभोग के बारे में जितना सोचते हैं , उतना ही मन अतृप्त होता जाता है । इस वर्तमान युग में हम मन को व्यर्थ ही अनेक प्रकार के इन्द्रियतृप्ति के साधनों में लगाये रखते हैं , जिससे मन संतुष्ट नहीं हो पाता ।

अतएव सर्वश्रेष्ठ विधि यही है कि मन को वैदिक साहित्य की ओर मोड़ा जाय , क्योंकि यह संतोष प्रदान करने वाली कहानियों से भरा है – यथा पुराण तथा महाभारत । कोई भी इस ज्ञान का लाभ उठा कर शुद्ध हो सकता है । मन को छल – कपट से मुक्त होना चाहिए और मनुष्य को सबके कल्याण ( हित ) के विषय में सोचना चाहिए । मौन ( गम्भीरता ) का अर्थ है कि मनुष्य निरन्तर आत्मसाक्षात्कार के विषय में सोचता रहे ।

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण मोन इस दृष्टि से धारण किये रहता है । मन – निग्रह का अर्थ है – मन को इन्द्रियभोग से पृथक् करना । मनुष्य को अपने व्यवहार में निष्कपट होना चाहिए और इस तरह उसे अपने जीवन ( भाव ) को शुद्ध बनाना चाहिए । ये सब गुण मन की तपस्या के अन्तर्गत आते हैं । 

श्रद्धया   परया    तप्तं   तपस्तत्त्रिविधं   नरैः ।

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तः  सात्त्विकं  परिचक्षते ॥ १७ ॥  

श्रद्धया    –    श्रद्धा समेत   ;     परया    –    दिव्य   ;    तप्तम्   –    किया गया   ;    तपः   –   तप  ;   तत्    –    वह    ;     त्रि-विधम्    –     तीन प्रकार के     ;     नरैः    –    मनुष्यों द्वारा   ;    अफल-आकाङ्क्षिभिः     –     फल की इच्छा न करनेवाले   ;     युक्तेः    –    प्रवृत्त   ;    सात्त्विकम्   –   सतोगुण में    ;    परिचक्षते    –    कहा जाता है । 

भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से सम्पन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है । 

सत्कारमानपूजार्थं  तपो  दम्भेन  चैव  यत् । 

क्रियते  तदिह  प्रोक्तं  राजसं   चलमध्रुवम् ॥ १८ ॥  

सत्-कार    –    आदर    ;    मान    –   सम्मान    ;     पूजा    –    तथा पूजा    ;    अर्थम्   –   के लिए    ;     तपः    –    तपस्या    ;    दम्भेन   –    घमंड से    ;   च   –   भी    ;     एव   –    निश्चय ही    ;   यत्    –    जो    ;      क्रियते    –   किया जाता है    ;    तत्   –   वह ;    इह   –    इस संसार में    ;  प्रोक्तम्    – कहा जाता है    ;     राजसम्    –    रजोगुणी     ;     चलम्    –    चलायमान    ;  अध्रुवम्    – क्षणिक । 

जो तपस्या दंभपूर्वक तथा सम्मान , सत्कार एवं पूजा कराने के लिए सम्पन्न की जाती है , वह राजसी ( रजोगुणी ) कहलाती है । यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत । 

तात्पर्य :-  कभी – कभी तपस्या इसलिए की जाती है कि लोग आकर्षित हों तथा उनसे सत्कार , सम्मान तथा पूजा मिल सके । रजोगुणी लोग अपने अधीनस्थों से पूजा करवाते हैं और उनसे चरण धुलवाकर धन चढ़वाते हैं । तपस्या करने के बहाने ऐसे कृत्रिम आयोजन राजसी माने जाते हैं । इनके फल क्षणिक होते हैं , वे कुछ समय तक रहते हैं । वे कभी स्थायी नहीं होते । 

मूढग्राहेणात्मनो   यत्पीडया  क्रियते  तपः । 

परस्योत्सादनार्थं   वा  तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥ 

मुढ   –   मूर्ख    ;     प्राहेण    –   प्रयत्न से     ;    आत्मन:    –    अपने ही   ;    यत्   –   जो    ;   पीडया   –   उत्पीड़न द्वारा   ;     क्रियते   –    की जाती है    ;    तपः    –    तपस्या   ;   परस्य   –   अन्यों को   ;     उत्सादन-अर्थम्    –     विनाश करने के लिए   ;     तत्    – यह   ;    तामसम्   – तमोगुणी    ;   उदाहृतम्    –    कही जाती है । 

मूर्खतावश आत्म – उत्पीहन के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुंचाने के लिए जो तपस्या की जाती है , वह तामसी कहलाती है । 

तात्पर्य :-  मूर्खतापूर्ण तपस्या के ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं , जैसे कि हिरण्यकशिपु जैसे असुरों ने अमर बनने तथा देवताओं का वध करने के लिए कठिन तप किए । उसने ब्रह्मा से ऐसी ही वस्तुएँ मांगी थीं , लेकिन अन्त में वह भगवान् द्वारा मारा गया । किसी असम्भव वस्तु के लिए तपस्या करना निश्चय ही तामसी तपस्या है । 

दातव्यमिति         यद्दानं       दीयतेऽनुपकारिणे । 

देशे  काले  च  पात्रे  च  तद्दानं  सात्त्विकं  स्मृतम् ॥ २०॥  

दातव्यम्    –    देने योग्य    ;     इति    –    इस प्रकार    ;     यत्    –   जो    ;   दानम्   –   दान    ; दीयते     –    दिया जाता है     ; अनुपकारिणे     –    प्रत्युपकार की भावना के विना    ;     देशे    – उचित स्थान में    ;    काले    –    उचित समय में    ;    च   –    भी    ;    पात्रे    –    उपयुक्त व्यक्ति को   ;     च  – तथा   ;     तत्    –    वह    ;     दानम्   –   दान    ;     सात्त्विकम्   –    सतोगुणी  , सात्विक    ;     स्मृतम्    –    माना जाता है । 

जो दान कर्तव्य समझकर , किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना , समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है , वह सात्त्विक माना जाता है । 

तात्पर्य :-   वैदिक साहित्य में ऐसे व्यक्ति को दान देने की संस्तुति है , जो आध्यात्मिक कार्यों में लगा हो । अविचारपूर्ण ढंग से दान देने की संस्तुति नहीं है । आध्यात्मिक सिद्धि को सदैव ध्यान में रखा जाता है । अतएव किसी तीर्थ स्थान में सूर्य या चन्द्रग्रहण के समय , मासान्त में या योग्य ब्राह्मण अथवा वैष्णव ( भक्त ) को , या मन्दिर में दान देने की संस्तुति है ।

बदले में किसी प्रकार की प्राप्ति की अभिलाषा न रखते हुए ऐसे दान किये जाने चाहिए । कभी – कभी निर्धन को दान करुणावश दिया जाता है । लेकिन यदि निर्धन दान देने योग्य ( पात्र ) नहीं होता , तो उससे आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती । दूसरे शब्दों में , वैदिक साहित्य में अविचारपूर्ण दान की संस्तुति नहीं है ।

यत्तु    प्रत्युपकारा    फलमुद्दिश्य   वा    पुनः । 

दीयते  च  परिक्लिष्टं  तद्दानं  राजसं  स्मृतम् ॥ २१ ॥  

यत्    –    जो   ;    तु    –   लेकिन   ;       प्रति-उपकार-अर्थम्     –    बदले में पाने के उद्देश्य से    ;     फलम्     –    फल को    ;      उद्देिश्य    –    इच्छा करके    ;     वा   –    अथवा    ;     दीयते    – दिया जाता  है    ;     पुनः    –   फिर    ;    च    –   भी   ;    परिक्लिष्टम्    –   पश्चात्ताप के साथ   ;    तत्    – उस    ;    दानम्    –    दान की    ;     राजसम्    –    रजोगुणी    ;     स्मृतम्    –   माना जाता है । 

किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है , वह रजोगुणी ( राजस ) कहलाता है ।

तात्पर्य :-  दान कभी स्वर्ग जाने के लिए दिया जाता है , तो कभी अत्यन्त कष्ट से तथा कभी इस पश्चात्ताप के साथ कि ” मैंने इतना व्यय इस तरह क्यों किया ? ” कभी – कभी अपने वरिष्ठजनों के दबाव में आकर भी दान दिया जाता है । ऐसे दान रजोगुण में दिये गये माने जाते हैं । ऐसे अनेक दातव्य न्यास हैं , जो उन संस्थाओं को दान देते हैं , जहाँ इन्द्रियभोग का बाजार गर्म रहता है । वैदिक शास्त्र ऐसे दान की संस्तुति नहीं करते । केवल सात्त्विक दान की संस्तुति की गई है । 

 अदेशकाले   यद्दानमपात्रेभ्यश्च   दीयते ।  

असत्कृतमवज्ञातं     तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥

अदेश    –    अशुद्ध स्थान    ;     काले    –   तथा अशुद्ध समय में    ;     यत्   –   जो   ;    दानम्    – दान    ;    अपात्रेभ्यः    – अयोग्य व्यक्तियों को   ; च    –   भी   ;  दीयते   –  दिया जाता है   ;   असत्-कृतम्    –  सम्मान के विना     ;   अवज्ञातम्   –     समुचित ध्यान दिये विना   ;   तत्   –    वह   ; तामसम्   –   तमोगुणी   ;   उदाहृतम्   –    कहा जाता है । 

तथा जो दान किसी अपवित्र स्थान में , अनुचित समय में , किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान तथा आदर से दिया जाता है , वह तामसी कहलाता है । 

तात्पर्य :-  यहाँ पर मद्यपान तथा द्यूतक्रीड़ा में व्यसनी के लिए दान देने को प्रोत्साहन नहीं दिया गया । ऐसा दान तामसी है । ऐसा दान लाभदायक नहीं होता , वरन् इससे पापी पुरुषों को प्रोत्साहन मिलता है । इसी प्रकार , यदि विना सम्मान तथा ध्यान दिये किसी उपयुक्त व्यक्ति को दान दिया जाय , तो वह भी तामसी है ।

भगवद गीता अध्याय 17.2~आहार,यज्ञ,तप और दान के पृथक-पृथक भेद / Powerful Bhagavad Gita Aahar,yagya,daan Ch17.2
भगवद गीता अध्याय 17.2

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