अध्याय सोलह (Chapter -17)
भगवद गीता अध्याय 17.2 में शलोक 07 से शलोक 22 आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद का वर्णन !
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ ७ ॥
आहार: – भोजन ; तु – निश्चय ही ; अपि – भी ; सर्वस्य – हर एक का ; त्रि-विधः – तीन प्रकार का ; भवति – होता है ; प्रियः – प्यारा ; यज्ञः – यज्ञ ; तपः – तपस्या ; तथा – और ; दानम् – दान ; तेषाम् – उनका ; भेदम् – अन्तर ; इमम् – यह ; शृणु – सुनो ।
यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है , वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है । यही बात यज्ञ , तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है । अब उनके भेदों के विषय में सुनो ।
तात्पर्य :- प्रकृति के भिन्न – भिन्न गुणों के अनुसार भोजन , यज्ञ , तपस्या और दान में भेद होते हैं । वे सब एक से नहीं होते । जो लोग यह समझ सकते हैं कि किस गुण में क्या क्या करना चाहिए , वे वास्तव में बुद्धिमान हैं । जो लोग सभी प्रकार के यज्ञ , भोजन या दान को एकसा मान कर उनमें अन्तर नहीं कर पाते , वे अज्ञानी हैं ।
ऐसे भी प्रचारक लोग हैं , जो यह कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है और सिद्धि प्राप्त कर सकता है । लेकिन ये मूर्ख मार्गदर्शक शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य नहीं करते । ये अपनी विधियाँ बनाते हैं और सामान्य जनता को भ्रान्त करते रहते हैं ।
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥
आयु: – जीवन काल ; सत्त्व – अस्तित्व ; बल – वल ; आरोग्य – स्वास्थ्य ; सुख – सुख ; प्रीति – तथा संतोष ; विवर्धना: – बढ़ाते हुए ; रस्या: – रस से युक्त ; स्निग्धाः – चिकना ; स्थिरा: – सहिष्णु ; हृद्याः – हृदय को भाने वाले ; आहारा: – भोजन ; सात्त्विक – सतोगुणी ; प्रिया: – अच्छे लगने वाले ।
जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है , वह आयु बढ़ाने वाला , जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल , स्वास्थ्य , सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है । ऐसा भोजन रसमय , स्निग्ध , स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला होता है
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥
कटु – कडवे , तीते ; अम्ल – खट्टे ; लवण – नमकीन ; अति-उष्ण – अत्यन्त गरम ; तीक्ष्ण – चटपटे ; रूक्ष – शुष्क ; विदाहिनः – जलाने वाले ; आहारा: – भोजन ; राजसस्य – रजोगुणी के ; इष्टा: – रुचिकर ; दुःख – दुख ; शोक – शोक ; आमय – रोग ; प्रदाः – उत्पन्न करने वाले ।
अत्यधिक तिक्त , खट्टे , नमकीन , गरम , चटपटे , शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं । ऐसे भोजन दुख , शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं ।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥
यात-यामम् – भोजन करने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया ; गत-रसम् – स्वादरहित ; पूति – दुर्गंधयुक्त ; पर्युषितम् – विगड़ा हुआ ; च – भी ; यत् – जो ; उच्छिष्टम् – अन्यों का जूठन ; अपि – भी ; च – तथा ; अमेध्यम् – अस्पृश्य ; भोजनम् – भोजन ; तामस – तमोगुणी को ; प्रियम् – प्रिय ।
खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया , स्वादहीन , वियोजित एवं सड़ा , जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है , जो तामसी होते हैं ।
तात्पर्य :- आहार ( भोजन ) का उद्देश्य आयु को बढ़ाना , मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है । इसका यही एकमात्र उद्देश्य है । प्राचीन काल में विद्वान पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे , जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो , यथा दूध के व्यंजन , चीनी , चावल , गेहूँ , फल तथा तरकारियाँ । ये भोजन सतोगुणी व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं ।
अन्य कुछ पदार्थ , जैसे भुना मक्का तथा गुड़ स्वयं रुचिकर न होते हुए भी दूध या अन्य पदार्थों के साथ मिलने पर स्वादिष्ट हो जाते हैं । तब वे सात्त्विक हो जाते हैं । ये सारे भोजन स्वभाव से ही शुद्ध हैं । ये मांस तथा मदिरा जैसे अस्पृश्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न हैं ।
आठवें श्लोक में जिन स्निग्ध ( चिकने ) पदार्थों का उल्लेख है , उनका पशु – वध से प्राप्त चर्बी से कोई नाता नहीं होता । यह पशु चर्वी ( वसा ) दुग्ध के रूप में उपलब्ध है , जो समस्त भोजनों में परम चमत्कारी है । दुग्ध , मक्खन , पनीर तथा अन्य पदार्थों से जो पशु चर्वी मिलती है , उससे निर्दोष पशुओं के मारे जाने का प्रश्न नहीं उठता ।
यह केवल पाशविक मनोवृत्ति है , जिसके कारण पशुवध चल रहा है । आवश्यक चर्वी प्राप्त करने की सुसंस्कृत विधि दूध से है । पशुवध तो अमानवीय है । मटर , दाल , दलिया आदि से प्रचुर मात्रा में प्रोटीन उपलब्ध होता है । जो राजस भोजन कटु , बहुत लवणीय या अत्यधिक गर्म , चरपरा होता है , वह आमाशय की श्लेष्मा को घटा कर रोग उत्पन्न करता है ।
तामसी भोजन अनिवार्यतः वासी होता है । खाने से तीन घंटे पूर्व बना कोई भी भोजन ( भगवान् को अर्पित प्रसादम् को छोड़कर ) तामसी माना जाता है । बिगड़ने के कारण उससे दुर्गंध आती है , जिससे तामसी लोग प्रायः आकृष्ट होते हैं , किन्तु सात्त्विक पुरुष उससे मुख मोड़ लेते हैं ।
उच्छिष्ट ( जुठा ) भोजन उसी अवस्था में किया जा सकता है , जब वह उस भोजन का एक अंश हो जो भगवान् को अर्पित किया जा चुका हो , या कोई साधुपुरुष , विशेष रूप से गुरु द्वारा ग्रहण किया जा चुका हो । अन्यथा ऐसा जूठा भोजन तामसी होता है और वह संदूषण या रोग को बढ़ाने वाला होता है । यद्यपि ऐसा भोजन तामसी लोगों को स्वादिष्ट लगता है , लेकिन सतोगुणी उसे न तो छूना पसन्द करते हैं , न खाना ।
भोजन तो भगवान् को समर्पित भोजन का उच्छिष्ट है । भगवद्गीता में परमेश्वर कहते हैं कि वे तरकारियाँ , आटे तथा दूध की बनी वस्तुएँ भक्तिपूर्वक भेंट किये जाने पर स्वीकार करते हैं । पत्रं पुष्पं फलं तोयम् । निस्सन्देह भक्ति तथा प्रेम ही प्रमुख वस्तुएँ हैं , जिन्हें भगवान स्वीकार करते हैं । लेकिन इसका भी उल्लेख है कि प्रसादम् को एक विशेष विधि में बनाया जाय ।
कोई भी भोजन , जो शास्त्रीय ढंग से तैयार किया जाता है और भगवान् को अर्पित किया जाता है , ग्रहण किया जा सकता है , भले ही वह कितने ही घर पूर्व क्यों न तैयार हुआ हो , क्योंकि ऐसा भोजन दिव्य होता है । अतएव भोजन को रोगाणुरोधक , खाद्य तथा सभी मनुष्यों के लिए रुचिकर बनाने के लिए सर्वप्रथम भगवान् को अर्पित करना चाहिए ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदिष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥
अफल-आकाक्षिभिः – फल की इच्छा से रहित ; यज्ञः – यज्ञ ; विधि-दिष्टः – शास्त्रों के निर्देशानुसार जो किया जाता है ; यष्टव्यम् – सम्पन्न किया जाना चाहिए ; एव – निश्चय ही ; मनः – मन में ; समाधाय – स्थिर करके ; सः – वह ; सात्त्विक: – सतोगुणी ।
यतों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है , जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है , जो फल की इच्छा नहीं करते ।
तात्पर्य :- सामान्यतया यज्ञ किसी प्रयोजन से किया जाता है । लेकिन यहाँ पर बताया गया है कि दिना किसी इच्छा के सम्पन्न किया जाना चाहिए । इसे कर्तव्य समझ कर किया जाना चाहिए ।
उदाहरणार्थ , मन्दिरों या गिरजाघरों में मनाये जाने वाले अनुष्ठान सामान्यतया मौलिक लाभ को दृष्टि में राख कर किये जाते हैं , लेकिन यह सतोगुण में नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि वह कर्तव्य मानकर मन्दिर या गिरजाघर में जाए , भगवान् को नमस्कार करे और फूल तथा प्रसाद चढ़ाए ।
प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि केवल ईश्वर की पूजा करने के लिए मन्दिर जाना व्यर्थ है । लेकिन शास्त्रों में आर्थिक लाभ के लिए पूजा करने का आदेश नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि केवल अर्चाविग्रह को नमस्कार करने जाए । इससे मनुष्य सतोगुण को प्राप्त होगा । प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है । कि वह शास्त्रों के आदेशों का पालन करे और भगवान् को नमस्कार करे ।
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥
अभिसन्धाय – इच्छा कर के ; तु – लेकिन ; फलम् – फल को ; दम्भ – घमंड ; अर्थम् – के लिए ; अपि – भी ; च – तथा ; एव – निश्चय ही ; यत् – जो ; इज्यते – किया जाता है ; भरत श्रेष्ठ – हे भरतवंशियों में प्रमुख ; तम् – उस ; यज्ञम् – यज्ञ को ; विद्धि – जानो ; राजसम् – रजोगुणी ।
लेकिन हे भरतश्रेष्ठ ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्ववश किया जाता है , उसे तुम राजसी जानो ।
तात्पर्य :- कभी – कभी स्वर्गलोक पहुँचने या किसी भौतिक लाभ के लिए यज्ञ तथा अनुष्ठान किये जाते हैं । ऐसे यज्ञ या अनुष्ठान राजसी माने जाते हैं ।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥
विधि-हीनम् – शास्त्रीय निर्देश के बिना ; असृष्ट-अन्नम् – प्रसाद वितरण किये बिना ; मन्त्र-हीनम् – वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना ; अदक्षिणम् – पुरोहितों को दक्षिणा दिये विना ; श्रद्धा – श्रद्धा ; विरहितम् – विहीन ; यज्ञम् – यज्ञ को ; तामसम् – तामसी ; परिचक्षते – माना जाता है ।
जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके , प्रसाद वितरण किये बिना , वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना , पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना तथा श्रद्धा के बिना सम्पन्न किया जाता है , वह तामसी माना जाता है ।
तात्पर्य :- तमोगुण में श्रद्धा वास्तव में अश्रद्धा है । कभी – कभी लोग किसी देवता की पूजा धन अर्जित करने के लिए करते हैं और फिर वे इस धन को शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके मनोरंजन में व्यय करते हैं । ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों को सात्त्विक नहीं माना जाता । ये तामसी होते हैं । इनसे तामसी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और मानव समाज को कोई लाभ नहीं पहुँचता ।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥
देव – परमेश्वर ; द्विज – ब्राह्मण ; गुरु – गुरु ; प्राज्ञ – तथा पूज्य व्यक्तियों की ; शौचम् – पवित्रता ; आर्जवम् – सरलता ; ब्रह्मचर्यम् – ब्रह्मचर्य ; पूजनम् – पूजा ; अहिंसा – अहिंसा ; च – भी ; शारीरम् – शरीर सम्बन्धी ; तपः – तपस्या ; उच्यते – कहा जाता है ।
परमेश्वर , ब्राह्मणों , गुरु , माता – पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या ।
तात्पर्य :- यहाँ पर भगवान् तपस्या के भेद बताते हैं । सर्वप्रथम वे शारीरिक तपस्या का वर्णन करते हैं । मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर या देवों , योग्य ब्राह्मणों , गुरु तथा माता पिता जैसे गुरुजनों या वैदिक ज्ञान में पारंगत व्यक्ति को प्रणाम करे या प्रणाम करना सीखे । इन सबका समुचित आदर करना चाहिए ।
उसे चाहिए कि आंतरिक तथा बाह्य रूप में अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण में बना कोई ऐसा कार्य न करे , जो शास्त्र – सम्मत न हो । यह वैवाहिक जीवन के अतिरिक्त मैथुन में रत न हो , क्योंकि शास्त्रों में केवल विवाह में ही मैथुन की अनुमति है , अन्यथा नहीं । यह ब्रह्मचर्य कहलाता है । ये सब शारीरिक तपस्याएँ हैं ।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥
अनुद्वेग-करम् – क्षुब्ध करने वाले ; वाक्यम् – शब्द ; सत्यम् – सच्चे ; प्रिय – प्रिय ; हितम् – लाभप्रद ; च – भी ; यत् – जो ; स्वाध्याय – वैदिक अध्ययन का ; अभ्यसनम् – अभ्यास ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; वाक्-मयम् – वाणी की ; तपः – तपस्या ; उच्यते – कही जाती है ।
सच्चे , भाने वाले , हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना- यही बाणी की तपस्या है ।
तात्पर्य :- मनुष्य को ऐसा नहीं बोलना चाहिए कि दूसरों के मन क्षुब्ध हो जाएं । निस्सन्देह जब शिक्षक वोले तो वह अपने विद्यार्थियों को उपदेश देने के लिए सत्य बोल सकता है , लेकिन उसी शिक्षक को चाहिए कि यदि वह उनसे बोले जो उसके विद्यार्थी नहीं है , तो उनके मन को क्षुब्ध करने वाला सत्य न बोले । यही वाणी की तपस्या है ।
इसके अतिरिक्त प्रलाप ( व्यर्थ की वार्ता ) नहीं करना चाहिए । आध्यात्मिक क्षेत्रों में बोलने की विधि यह है कि जो भी कहा जाय वह शास्त्र – सम्मत हो । उसे तुरन्त ही अपने कथन की पुष्टि के लिए शास्त्रों का प्रमाण देना चाहिए । इसके साथ – साथ वह बात सुनने में अति प्रिय लगनी चाहिए । ऐसी विवेचना से मनुष्य को सर्वोच्च लाभ और मानव समाज का उत्थान हो सकता है । वैदिक साहित्य का विपुल भण्डार है और इसका अध्ययन किया जाना चाहिए । यही वाणी की तपस्या कही जाती है ।
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥
मनः-प्रसादः – मन की तुष्टि ; सौम्यत्वम् – अन्यों के प्रति कपट भाव से रहित ; मोनम् – गम्भीरता ; आत्म – अपना ; विनिग्रहः – नियन्त्रण, संयम ; भाव – स्वभाव का ; संशुद्धिः – शुद्धीकरण ; इति – इस प्रकार ; एतत् – यह ; तपः – तपस्या ; मानसम् – मन की ; उच्यते – कही जाती है ।
तथा संतोष , सरलता , गम्भीरता , आत्म – संयम एवं जीवन की शुद्धि – ये मन की तपस्याएँ हैं ।
तात्पर्य :- मन को संयमित बनाने का अर्थ है , उसे इन्द्रियतृप्ति से विलग करना । उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे वह सदैव परोपकार के विषय में सोचे । मन के लिए सर्वोत्तम प्रशिक्षण विचारों की श्रेष्ठता है । मनुष्य को कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होना चाहिए और इन्द्रियभोग से सदैव बचना चाहिए । अपने स्वभाव को शुद्ध बनाना कृष्णभावनाभावित होना है ।
इन्द्रियभोग के विचारों से मन को अलग रख करके ही मन की तुष्टि प्राप्त की जा सकती है । हम इन्द्रियभोग के बारे में जितना सोचते हैं , उतना ही मन अतृप्त होता जाता है । इस वर्तमान युग में हम मन को व्यर्थ ही अनेक प्रकार के इन्द्रियतृप्ति के साधनों में लगाये रखते हैं , जिससे मन संतुष्ट नहीं हो पाता ।
अतएव सर्वश्रेष्ठ विधि यही है कि मन को वैदिक साहित्य की ओर मोड़ा जाय , क्योंकि यह संतोष प्रदान करने वाली कहानियों से भरा है – यथा पुराण तथा महाभारत । कोई भी इस ज्ञान का लाभ उठा कर शुद्ध हो सकता है । मन को छल – कपट से मुक्त होना चाहिए और मनुष्य को सबके कल्याण ( हित ) के विषय में सोचना चाहिए । मौन ( गम्भीरता ) का अर्थ है कि मनुष्य निरन्तर आत्मसाक्षात्कार के विषय में सोचता रहे ।
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण मोन इस दृष्टि से धारण किये रहता है । मन – निग्रह का अर्थ है – मन को इन्द्रियभोग से पृथक् करना । मनुष्य को अपने व्यवहार में निष्कपट होना चाहिए और इस तरह उसे अपने जीवन ( भाव ) को शुद्ध बनाना चाहिए । ये सब गुण मन की तपस्या के अन्तर्गत आते हैं ।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥
श्रद्धया – श्रद्धा समेत ; परया – दिव्य ; तप्तम् – किया गया ; तपः – तप ; तत् – वह ; त्रि-विधम् – तीन प्रकार के ; नरैः – मनुष्यों द्वारा ; अफल-आकाङ्क्षिभिः – फल की इच्छा न करनेवाले ; युक्तेः – प्रवृत्त ; सात्त्विकम् – सतोगुण में ; परिचक्षते – कहा जाता है ।
भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से सम्पन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है ।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥ १८ ॥
सत्-कार – आदर ; मान – सम्मान ; पूजा – तथा पूजा ; अर्थम् – के लिए ; तपः – तपस्या ; दम्भेन – घमंड से ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; यत् – जो ; क्रियते – किया जाता है ; तत् – वह ; इह – इस संसार में ; प्रोक्तम् – कहा जाता है ; राजसम् – रजोगुणी ; चलम् – चलायमान ; अध्रुवम् – क्षणिक ।
जो तपस्या दंभपूर्वक तथा सम्मान , सत्कार एवं पूजा कराने के लिए सम्पन्न की जाती है , वह राजसी ( रजोगुणी ) कहलाती है । यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत ।
तात्पर्य :- कभी – कभी तपस्या इसलिए की जाती है कि लोग आकर्षित हों तथा उनसे सत्कार , सम्मान तथा पूजा मिल सके । रजोगुणी लोग अपने अधीनस्थों से पूजा करवाते हैं और उनसे चरण धुलवाकर धन चढ़वाते हैं । तपस्या करने के बहाने ऐसे कृत्रिम आयोजन राजसी माने जाते हैं । इनके फल क्षणिक होते हैं , वे कुछ समय तक रहते हैं । वे कभी स्थायी नहीं होते ।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥
मुढ – मूर्ख ; प्राहेण – प्रयत्न से ; आत्मन: – अपने ही ; यत् – जो ; पीडया – उत्पीड़न द्वारा ; क्रियते – की जाती है ; तपः – तपस्या ; परस्य – अन्यों को ; उत्सादन-अर्थम् – विनाश करने के लिए ; तत् – यह ; तामसम् – तमोगुणी ; उदाहृतम् – कही जाती है ।
मूर्खतावश आत्म – उत्पीहन के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुंचाने के लिए जो तपस्या की जाती है , वह तामसी कहलाती है ।
तात्पर्य :- मूर्खतापूर्ण तपस्या के ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं , जैसे कि हिरण्यकशिपु जैसे असुरों ने अमर बनने तथा देवताओं का वध करने के लिए कठिन तप किए । उसने ब्रह्मा से ऐसी ही वस्तुएँ मांगी थीं , लेकिन अन्त में वह भगवान् द्वारा मारा गया । किसी असम्भव वस्तु के लिए तपस्या करना निश्चय ही तामसी तपस्या है ।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ २०॥
दातव्यम् – देने योग्य ; इति – इस प्रकार ; यत् – जो ; दानम् – दान ; दीयते – दिया जाता है ; अनुपकारिणे – प्रत्युपकार की भावना के विना ; देशे – उचित स्थान में ; काले – उचित समय में ; च – भी ; पात्रे – उपयुक्त व्यक्ति को ; च – तथा ; तत् – वह ; दानम् – दान ; सात्त्विकम् – सतोगुणी , सात्विक ; स्मृतम् – माना जाता है ।
जो दान कर्तव्य समझकर , किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना , समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है , वह सात्त्विक माना जाता है ।
तात्पर्य :- वैदिक साहित्य में ऐसे व्यक्ति को दान देने की संस्तुति है , जो आध्यात्मिक कार्यों में लगा हो । अविचारपूर्ण ढंग से दान देने की संस्तुति नहीं है । आध्यात्मिक सिद्धि को सदैव ध्यान में रखा जाता है । अतएव किसी तीर्थ स्थान में सूर्य या चन्द्रग्रहण के समय , मासान्त में या योग्य ब्राह्मण अथवा वैष्णव ( भक्त ) को , या मन्दिर में दान देने की संस्तुति है ।
बदले में किसी प्रकार की प्राप्ति की अभिलाषा न रखते हुए ऐसे दान किये जाने चाहिए । कभी – कभी निर्धन को दान करुणावश दिया जाता है । लेकिन यदि निर्धन दान देने योग्य ( पात्र ) नहीं होता , तो उससे आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती । दूसरे शब्दों में , वैदिक साहित्य में अविचारपूर्ण दान की संस्तुति नहीं है ।
यत्तु प्रत्युपकारा फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥
यत् – जो ; तु – लेकिन ; प्रति-उपकार-अर्थम् – बदले में पाने के उद्देश्य से ; फलम् – फल को ; उद्देिश्य – इच्छा करके ; वा – अथवा ; दीयते – दिया जाता है ; पुनः – फिर ; च – भी ; परिक्लिष्टम् – पश्चात्ताप के साथ ; तत् – उस ; दानम् – दान की ; राजसम् – रजोगुणी ; स्मृतम् – माना जाता है ।
किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है , वह रजोगुणी ( राजस ) कहलाता है ।
तात्पर्य :- दान कभी स्वर्ग जाने के लिए दिया जाता है , तो कभी अत्यन्त कष्ट से तथा कभी इस पश्चात्ताप के साथ कि ” मैंने इतना व्यय इस तरह क्यों किया ? ” कभी – कभी अपने वरिष्ठजनों के दबाव में आकर भी दान दिया जाता है । ऐसे दान रजोगुण में दिये गये माने जाते हैं । ऐसे अनेक दातव्य न्यास हैं , जो उन संस्थाओं को दान देते हैं , जहाँ इन्द्रियभोग का बाजार गर्म रहता है । वैदिक शास्त्र ऐसे दान की संस्तुति नहीं करते । केवल सात्त्विक दान की संस्तुति की गई है ।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥
अदेश – अशुद्ध स्थान ; काले – तथा अशुद्ध समय में ; यत् – जो ; दानम् – दान ; अपात्रेभ्यः – अयोग्य व्यक्तियों को ; च – भी ; दीयते – दिया जाता है ; असत्-कृतम् – सम्मान के विना ; अवज्ञातम् – समुचित ध्यान दिये विना ; तत् – वह ; तामसम् – तमोगुणी ; उदाहृतम् – कहा जाता है ।
तथा जो दान किसी अपवित्र स्थान में , अनुचित समय में , किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान तथा आदर से दिया जाता है , वह तामसी कहलाता है ।
तात्पर्य :- यहाँ पर मद्यपान तथा द्यूतक्रीड़ा में व्यसनी के लिए दान देने को प्रोत्साहन नहीं दिया गया । ऐसा दान तामसी है । ऐसा दान लाभदायक नहीं होता , वरन् इससे पापी पुरुषों को प्रोत्साहन मिलता है । इसी प्रकार , यदि विना सम्मान तथा ध्यान दिये किसी उपयुक्त व्यक्ति को दान दिया जाय , तो वह भी तामसी है ।
और भी पढ़े :
* Sanskrit Counting from 1 To 100 * Sanskrit Counting 100 to 999 * Sanskrit language Introduction
* श्री गणेश जी की आरती * विष्णु जी की आरती * शिव जी की आरती * हनुमान जी की आरती * लक्ष्मी जी की आरती * दुर्गा जी की आरती * आरती कुंजबिहारी की * सरस्वती आरती * गायत्री माता की आरती * सत्यनारायण आरती * श्री रामचंद्र आरती * साईं बाबा की आरती
* सम्पूर्ण भगवद गीता हिंदी में~ Powerful Shrimad Bhagavad Gita in Hindi 18 Chapter