भगवद गीता अध्याय 17.1 || श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय सत्रह (Chapter -17)

भगवद गीता अध्याय 17.1 में शलोक 01 से शलोक  06 श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन !

अर्जुन उवाच 

ये   शास्त्रविधिमुत्सृज्य   यजन्ते   श्रद्धयान्विताः । 

तेषां  निष्ठा  तु  का  कृष्ण  सत्त्वमाहो  रजस्तमः ॥ १ ॥ 

अर्जुनः  उवाच     –    अर्जुन ने कहा    ;     ये    –   जो     ;     शास्त्र-विधिम्     –   शास्त्रों के विधान को    ;      उत्सृज्य    –     त्यागकर    ;      यजन्ते    –   पूजा करते हैं    ;      श्रद्धया    –     पूर्ण श्रद्धा से     ;     अन्विताः     –    युक्त     ;      तेषाम्     –   उनकी    ;     निष्ठा    –   श्रद्धा    ;    तु   –    लेकिन    ;     का    –    कौनसी     ;     कृष्ण    –    हे कृष्ण    ;     सत्त्वम्    –    सतोगुणी     ; आहो    –    अथवा ,  अन्य   ;     रजः    –    रजोगुणी     ;     तमः    – तमोगुणी । 

अर्जुन ने कहा हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्र के नियमों का पालन न करके अपनी कल्पना के अनुसार पूजा करते हैं , उनकी स्थिति कौन सी है ? वे सतोगुणी हैं , जोगुणी हैं या तमोगुणी

तात्पर्य :-  चतुर्थ अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में कहा गया है कि किसी विशेष प्रकार की पूजा में निष्ठावान् व्यक्ति क्रमशः ज्ञान की अवस्था को प्राप्त होता है और शान्ति तथा सम्पन्नता की सर्वोच्च सिद्धावस्था तक पहुंचता है ।

सोलहवें अध्याय में यह निष्कर्ष निकलता है कि जो शास्त्रों के नियमों का पालन नहीं करता , वह असुर है और जो निष्ठापूर्वक इन नियमों का पालन करता है , वह देव है । अब यदि कोई ऐसा निष्ठावान व्यक्ति हो , जो ऐसे कतिपय नियमों का पालन करता हो , जिनका शास्त्रों में उल्लेख न हो , तो उसकी स्थिति क्या होगी ? अर्जुन के इस सन्देह का स्पष्टीकरण कृष्ण द्वारा होना है ।

क्या वे लोग जो किसी व्यक्ति को चुनकर उस पर किसी भगवान् के रूप में श्रद्धा दिखाते हैं , सतो , रजो या तमोगुण में पूजा करते हैं ? क्या ऐसे व्यक्तियों को जीवन की सिद्धावस्था प्राप्त हो पाती है ? क्या वे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करके उच्चतम सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो पाते हैं ?

जो लोग शास्त्रों के विधि – विधानों का पालन नहीं करते , किन्तु जिनकी किसी पर श्रद्धा होती है और जो देवी देवताओं तथा मनुष्यों की पूजा करते हैं , क्या उन्हें सफलता प्राप्त होती है ? अर्जुन इन प्रश्नों को श्रीकृष्ण से पूछ रहा है । 

श्रीभगवानुवाच 

त्रिविधा  भवति  श्रद्धा  देहिनां  सा   स्वभावजा । 

सात्त्विकी  राजसी  चैव  तामसी  चेति  तां  शृणु ॥ २ ॥ 

श्रीभगवान्   उवाच     –    भगवान् ने कहा    ;     त्रि-विधा    –    तीन प्रकार की    ;    भवति   –    होती है     ;     श्रद्धा    –    श्रद्धा     ;     देहिनाम्    – देहधारियों की    ;     सा      –    वह   ;    स्व-भाव-जा     –     प्रकृति के गुण के अनुसार   ;     सात्त्विकी    –     सतोगुणी    ;    राजसी    – रजोगुणी     ; च    –   भी    ;     एव   –    निश्चय ही    ;     तामसी    –    तमोगुणी    :     च    –   तथा    ;    इति   –    इस प्रकार    ;     ताम्   –    उसको   ;     शृणु    –    मुझसे सुनो । 

भगवान् ने कहा- देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है – सतोगुणी , रजोगुणी अथवा तमोगुणी । अब इसके विषय में मुझसे सुनो । 

तात्पर्य :-  जो लोग शास्त्रों के विधि – विधानों को जानते हैं , लेकिन आलस्य या कार्यविमुखतावश इनका पालन नहीं करते , वे प्रकृति के गुणों द्वारा शासित होते हैं । वे अपने सतोगुणी , रजोगुणी या तमोगुणी पूर्वकमों के अनुसार एक विशेष प्रकार का स्वभाव प्राप्त करते हैं । विभिन्न गुणों के साथ जीव की संगति शाश्वत चलती रही है । चूँकि जीव प्रकृति के संसर्ग में रहता है , अतएव वह प्रकृति के गुणों के अनुसार ही विभिन्न प्रकार की मनोवृत्तियाँ अर्जित करता है ।

लेकिन यदि कोई प्रामाणिक गुरु की संगति करता है और उसके तथा शास्त्रों के विधि – विधानों का पालन करता है , तो उसकी यह मनोवृत्ति बदल सकती है । वह क्रमशः अपनी स्थिति तमोगुण से सतोगुण या रजोगुण से सतोगुण में परिवर्तित कर सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति के किसी गुण विशेष में अंधविश्वास करने से ही व्यक्ति सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । उसे प्रामाणिक गुरु की संगति में रहकर वुद्धिपूर्वक वातों पर विचार करना होता है । तभी वह उच्चतर गुण की स्थिति को प्राप्त हो सकता  है ।

सत्त्वानुरूपा    सर्वस्य   श्रद्धा   भवति  भारत । 

श्रद्धामयोऽयं  पुरुषो  यो  यच्छ्रद्धः  स  एव  सः ॥ ३ ॥ 

सत्त्व-अनुरूपा    –    अस्तित्व के अनुसार    ;     सर्वस्य     –    सर्वो की    ;      श्रद्धा     –   श्रद्धा , निष्ठा    ;     भवति    –    हो जाती है     ;     भारत    –     हे भरतपुत्र    ;     श्रद्धा    –    श्रद्धा    ;   मयः    –     से युक्त    ;     अयम्    –    यह    ;     पुरुषः    –    जीवात्मा     ;     यः   –   जो   ;    यत्  –     जिसके होने से    ;      श्रद्धः    –    श्रद्धाः    ;     सः    –    इस प्रकार    ;    एव    –    निश्चय ही    ;      सः    –    वह । 

हे भरतपुत्र ! विभिन्न गुणों के अन्तर्गत अपने अपने अस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है । अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है । 

तात्पर्य :-  प्रत्येक व्यक्ति में चाहे वह जैसा भी हो , एक विशेष प्रकार की श्रद्धा पाई जाती है । लेकिन उसके द्वारा अर्जित स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा उत्तम ( सतोगुणी ) , राजस ( रजोगुणी ) अथवा तामसी कहलाती है ।

इस प्रकार अपनी विशेष प्रकार की श्रद्धा के अनुसार ही वह कतिपय लोगों से संगति करता है । अब वास्तविक तथ्य तो यह है कि , जैसा पंद्रहवें अध्याय में कहा गया है , प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है , अतएव वह मूलतः इन समस्त गुणों से परे होता है । लेकिन जब वह भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को भूल जाता है और बद्ध जीवन में भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है , तो वह विभिन्न प्रकार की प्रकृति के साथ संगति करके अपना स्थान बनाता है ।

इस प्रकार से प्राप्त कृत्रिम श्रद्धा तथा अस्तित्व मात्र भौतिक होते हैं । भले ही कोई किसी धारणा या देहात्मवोध द्वारा प्रेरित हो , लेकिन मूलतः वह निर्गुण या दिव्य होता है । अतएव भगवान् के साथ अपना सम्वन्ध फिर से प्राप्त करने के लिए उसे भौतिक कल्मष से शुद्ध होना पड़ता है । यही एकमात्र मार्ग है , निर्भय होकर कृष्णभावनामृत में लौटने का ।

यदि कोई कृष्णभावनामृत में स्थित हो , तो उसका सिद्धि प्राप्त करने के लिए वह मार्ग प्रशस्त हो जाता है । यदि वह आत्म – साक्षात्कार के इस पथ को ग्रहण नहीं करता , तो वह निश्चित रूप से प्रकृति के गुणों के साथ वह जाता है । इस श्लोक में श्रद्धा शब्द अत्यन्त सार्थक है । श्रद्धा मूलतः सतोगुण से उत्पन्न होती है । मनुष्य की श्रद्धा किसी देवता , किसी कृत्रिम ईश्वर या मनोधर्म में हो सकती है लेकिन प्रबल श्रद्धा सात्त्विक कार्यों से उत्पन्न होती है ।

किन्तु भौतिक वद्धजीवन में कोई भी कार्य पूर्णतया शुद्ध नहीं होता । वे सब मिश्रित होते हैं । वे शुद्ध सात्त्विक नहीं होते । शुद्ध सत्त्व दिव्य होता है , शुद्ध सत्त्व में रहकर मनुष्य भगवान् के वास्तविक स्वभाव को समझ सकता है । जब तक श्रद्धा पूर्णतया सात्त्विक नहीं होती , तब तक वह प्रकृति के किसी भी गुण से दूषित हो सकती है ।

प्रकृति के दूषित गुण हृदय तक फैल जाते हैं , अतएव किसी विशेष गुण के सम्पर्क में रहकर हृदय जिस स्थिति में होता है , उसी के अनुसार श्रद्धा स्थापित होती है । यह समझना चाहिए कि यदि किसी का हृदय सतोगुण में स्थित है , तो उसकी श्रद्धा भी सतोगुणी है । यदि हृदय रजोगुण में स्थित है , तो उसकी श्रद्धा रजोगुणी है और यदि हृदय तमोगुण में स्थित है तो उसकी श्रद्धा तमोगुणी होती है ।

इस प्रकार हमें संसार में विभिन्न प्रकार की श्रद्धाएँ मिलती हैं और विभिन्न प्रकार की श्रद्धाओं के अनुसार विभिन्न प्रकार के धर्म होते हैं । धार्मिक श्रद्धा का असली सिद्धान्त सतोगुण में स्थित होता है । लेकिन चूंकि हृदय कलुषित रहता है , अतएव विभिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धान्त पाये जाते हैं । श्रद्धा की विभिन्नता के कारण ही पूजा भी भिन्न – भिन्न प्रकार की होती है ।  

यजन्ते  सात्त्विका   देवान्यक्षरक्षांसि   राजसाः ।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये   यजन्ते    तामसा    जनाः ॥ ४ ॥ 

यजन्ते      –    पूजते हैं    ;      सात्त्विका:    –     सतोगुण में स्थित लोग     ;     देवान्    –    देवताओं को      ;      यक्ष-रक्षांसि    असुरगण को     ;     राजसा:    –     रजोगुण में स्थित लोग    ;    प्रेतान्     –    मृतकों की आत्माओं को    ;     भूत-गणान्     –    भूतों को    ;   च    – तथा    ;   अन्ये     – अन्य    ;      यजन्ते    –    पूजते हैं    ;     तामसा:   –   तमोगुण में स्थित    ;     जनाः   –    लोग । 

सतोगुणी व्यक्ति देवताओं को पूजते हैं , रजोगुणी यक्षों व राक्षसों की पूजा करते हैं और तमोगुणी व्यक्ति भूत – प्रेतों को पूजते हैं । 

तात्पर्य :-   इस श्लोक में भगवान् विभिन्न वाह्य कर्मों के अनुसार पूजा करने वालों के प्रकार बता रहे हैं । शास्त्रों के आदेशानुसार केवल भगवान् ही पूजनीय हैं । लेकिन जो शास्त्रों के आदेशों से अभिज्ञ नहीं या उन पर श्रद्धा नहीं रखते , वे अपनी गुण – स्थिति के अनुसार विभिन्न वस्तुओं की पूजा करते हैं । जो लोग सतोगुणी हैं , वे सामान्यतया देवताओं की पूजा करते हैं ।

इन देवताओं में ब्रह्मा , शिव तथा अन्य देवता , यथा इन्द्र , चन्द्र तथा सूर्य सम्मिलित हैं । देवता कई हैं । सतोगुणी लोग किसी विशेष अभिप्राय से किसी विशेष देवता की पूजा करते हैं । इसी प्रकार जो रजोगुणी हैं , वे यक्ष – राक्षसों की पूजा करते हैं । हमें स्मरण है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय कलकत्ता का एक व्यक्ति हिटलर की पूजा करता था , क्योंकि , भला हो उस युद्ध का , उसने उसमें काले धन्धे से प्रचुर धन संचित कर लिया था ।

इसी प्रकार जो रजोगुणी तथा तमोगुणी होते हैं , वे सामान्यतया किसी प्रवल मनुष्य को ईश्वर के रूप में चुन लेते हैं । वे सोचते हैं कि कोई भी व्यक्ति ईश्वर की तरह पूजा जा सकता है और फल एकसा होगा । यहाँ पर इसका स्पष्ट वर्णन है कि रजोगुणी लोग ऐसे देवताओं की सृष्टि करके उन्हें पूजते हैं और जो तमोगुणी है – अंधकार में हैं – वे प्रेतों की पूजा करते हैं । कभी कभी लोग किसी मृत प्राणी की कब्र पर पूजा करते हैं ।

मेथुन सेवा भी तमोगुणी मानी जाती है । इसी प्रकार भारत के सुदूर ग्रामों में भूतों की पूजा करने वाले हैं । हमने देखा है कि भारत के निम्नजाति के लोग कभी – कभी जंगल में जाते हैं और यदि उन्हें इसका पता चलता है कि कोई भूत किसी वृक्ष पर रहता है , तो वे उस वृक्ष की पूजा करते हैं और वलि चढ़ाते हैं । ये पूजा के विभिन्न प्रकार वास्तव में ईश्वर पूजा नहीं हैं ।

ईश्वरपूजा तो सात्त्विक पुरुषों के लिए है । श्रीमद्भागवत में ( ४.३.२३ ) कहा गया है- सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव – शब्दितम् – जव व्यक्ति सतोगुणी होता है , तो वह वासुदेव की पूजा करता है । तात्पर्य यह है कि जो लोग गुणों से पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और दिव्य पद को प्राप्त हैं , वे ही भगवान् की पूजा कर सकते हैं । निर्विशेषवादी सतोगुण में स्थित माने जाते हैं और वे पंचदेवताओं की पूजा करते हैं ।

वे भौतिक जगत में निराकार विष्णु को पूजते हैं , जो सिद्धान्तीकृत विष्णु कहलाता है । विष्णु भगवान् के विस्तार हैं , लेकिन निर्विशेषवादी अन्ततः भगवान् में विश्वास न करने के कारण सोचते हैं कि विष्णु का स्वरूप निराकार ब्रह्म का दूसरा पक्ष है । इसी प्रकार वे यह मानते हैं कि ब्रह्माजी रजोगुण के निराकार रूप हैं ।

अतः वे कभी – कभी पाँच देवताओं का वर्णन करते हैं , जो पूज्य हैं । लेकिन चूँकि वे लोग निराकार ब्रह्म को ही वास्तविक सत्य मानते हैं , इसलिए वे अन्ततः समस्त पूज्य वस्तुओं को त्याग देते हैं । निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रकृति के विभिन्न गुणों को दिव्य प्रकृति वाले व्यक्तियों की संगति से शुद्ध किया जा सकता है । 

अशास्त्रविहितं    घोरं   तप्यन्ते   ये  तपो  जनाः । 

दम्भाहंकारसंयुक्ताः          कामरागबलान्विताः ॥ ५ ॥

कर्षयन्तः          शरीरस्थं        भूतग्राममचेतसः । 

मां    चैवान्तःशरीरस्थं   तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ ६ ॥ 

अ-शास्त्र     –     जो शास्त्रों में नहीं है   ;     विहितम्    –    निर्देशित   ;     घोरम्   –    अन्यों के लिए हानिप्रद    ;      तप्यन्ते    –    तप करते हैं     ;      ये    – जो लोग     ;     तपः   –     तपस्या     ; जनाः    –    लोग     ;     दम्भ    –    घमण्ड    ;     अहङ्कार   –    तथा अहंकार से    ;     संयुक्ताः     –     प्रवृत्त    ;     काम    –    काम    ;     राग     –     तथा आसक्ति का    ;     बल    –    बलपूर्वक   ;   अन्विता:    –     प्रेरित   ।    

कर्षयन्तः    –    कष्ट देते हुए     ; शरीर-स्थम्    –    शरीर के भीतर  स्थित     ;        भूत-ग्रामम्    –     भौतिक तत्त्वों का संयोग     ;      अचेतसः     –     भ्रमित मनोवृत्ति वाले     ;     माम्    – मुझको   ;     च    –    भी   ;    एव    –   निश्चय ही    ;    अन्तः  –   भीतर   ; शरीर-स्थम्     –     शरीर में स्थित   ;     तान्    –    उनको    ;     विद्धि    –    जानो    ; आसुर-निश्चयान्      –     असुर । 

जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अभिभूत होकर शास्त्रविरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं , जो काम तथा आसक्ति द्वारा प्रेरित होते हैं जो मूर्ख हैं तथा जो शरीर के भौतिक तत्त्वों को तथा शरीर के भीतर स्थित परमात्मा को कष्ट पहुँचाते हैं , वे असुर कहे जाते हैं । 

तात्पर्य :- कुछ पुरुष ऐसे हैं जो ऐसी तपस्या की विधियों का निर्माण कर लेते हैं , जिनका वर्णन शास्त्रों में नहीं है । उदाहरणार्थ , किसी स्वार्थ के प्रयोजन से , यथा राजनीतिक कारणों से उपवास करना शास्त्रों में वर्णित नहीं है । शास्त्रों में तो आध्यात्मिक उन्नति के लिए उपवास करने की संस्तुति है , किसी राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्य के लिए नहीं ।

भगवद्गीता के अनुसार जो लोग ऐसी तपस्याएँ करते हैं वे निश्चित रूप से आसुरी हैं । उनके कार्य शास्त्रविरुद्ध हैं और सामान्य जनता के हित में नहीं हैं । वास्तव में वे लोग गर्व , अहंकार , काम तथा भौतिक भोग के प्रति आसक्ति के कारण ऐसा करते हैं । ऐसे कार्यों से न केवल शरीर के उन तत्त्वों को विक्षोभ होता है जिनसे शरीर बना है , अपितु शरीर के भीतर निवास कर रहे परमात्मा को भी कष्ट पहुँचता है ।

ऐसे अवैध उपवास से या किसी राजनीतिक उद्देश्य से की गई तपस्या आदि से निश्चय ही अन्य लोगों की शान्ति भंग होती है । उनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं है । आसुरी व्यक्ति सोचता है कि इस विधि से वह अपने शत्रु या विपक्षियों को अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वाध्य कर सकता है , लेकिन कभी – कभी ऐसे उपवास से व्यक्ति की मृत्यु भी हो जाती है ।

ये कार्य भगवान् द्वारा अनुमत नहीं हैं , वे कहते हैं कि जो इन कार्यों में प्रवृत्त होते हैं , वे असुर हैं । ऐसे प्रदर्शन भगवान् के अपमानस्वरूप हैं , क्योंकि इन्हें वैदिक शास्त्रों के आदेशों का उल्लंघन करके किया जाता है । इस प्रसंग में अचेतसः शब्द महत्त्वपूर्ण । सामान्य मानसिक स्थिति वाले पुरुषों को शास्त्रों के आदेशों का पालन करना चाहिए ।

जो ऐसी स्थिति में नहीं हैं वे शास्त्रों की उपेक्षा तथा अवज्ञा करते हैं और तपस्या की अपनी विधि निर्मित कर लेते हैं । मनुष्य को सदैव आसुरी लोगों की चरम परिणति को स्मरण करना चाहिए , जैसा कि पिछले अध्याय में वर्णन किया गया है । भगवान् ऐसे लोगों को आसुरी व्यक्तियों के यहाँ जन्म लेने के लिए बाध्य करते हैं । फलस्वरूप वे भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को जाने बिना जन्मजन्मान्तर आसुरी जीवन में रहते हैं ।

किन्तु यदि ऐसे व्यक्ति इतने भाग्यशाली हुए कि कोई गुरु उनका मार्गदर्शन करके उन्हें वैदिक ज्ञान के मार्ग पर ले जा सके , तो वे इस भवबन्धन से छूट कर अन्ततोगत्वा परमगति को प्राप्त होते हैं ।

भगवद गीता अध्याय 17.1~श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita shatrabipreet ghortap Ch17.1
भगवद गीता अध्याय 17.1

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