अध्याय सोलह (Chapter -16)
भगवद गीता अध्याय 16.3 में शलोक 21 से शलोक 24 शास्त्र विपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा का वर्णन !
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ २१ ॥
त्रिविधम् – तीन प्रकार ; आत्मनः – आत्मा का ; नरकस्य – नरक का ; इदम् – यह ; द्वारम् – द्वार ; नाशनम् – विनाशकारी ; काम: – काम ; क्रोधः – क्रोध ; तथा – और ; लोभः – लोभ ; तस्मात् – अतएव ; एतत् – इन ; त्रयम् – तीनों को ; त्यजेत् – त्याग देना चाहिए ।
इस नरक के तीन द्वार हैं- काम , क्रोध तथा लोभ । प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दे , क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है ।
तात्पर्य :- यहाँ पर आसुरी जीवन आरम्भ होने का वर्णन हुआ है । मनुष्य अपने काम को तुष्ट करना चाहता है , किन्तु जब उसे पूरा नहीं कर पाता तो क्रोध तथा लोभ उत्पन्न होता है । जो बुद्धिमान मनुष्य आसुरी योनि में नहीं गिरना चाहता , उसे चाहिए कि वह इन तीनों शत्रुओं का परित्याग कर दे , क्योंकि ये आत्मा का हनन इस हद तक कर देते हैं कि इस भवबन्धन से मुक्ति की सम्भावना नहीं रह जाती ।
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ २२ ॥
एतेः – इनसे ; विमुक्तः – मुक्त होकर ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; तमः – द्वारे , अज्ञान के द्वारों से ; त्रिभिः – तीन प्रकार के ; नरः – व्यक्ति आचरति करता है ; आत्मन: – अपने लिए ; श्रेय: – मंगल , कल्याण ; ततः – तत्पश्चात् ; याति – जाता है ; पराम् – परम ; गतिम् – गन्तव्य को ।
हे कुन्तीपुत्र ! जो व्यक्ति इन तीनों नरक – द्वारों से बच पाता है , वह आत्म – साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गति को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- मनुष्य को मानव जीवन के तीन शत्रुओं – काम , क्रोध तथा लोभ – से अत्यन्त सावधान रहना चाहिए । जो व्यक्ति जितना ही इन तीनों से मुक्त होगा , उतना ही उसका जीवन शुद्ध होगा । तब वह वैदिक साहित्य में आदिष्ट विधि – विधानों का पालन कर सकता है । इस प्रकार मानव जीवन के विधि – विधानों का पालन करते हुए वह अपने आपको धीरे – धीरे आत्म – साक्षात्कार के पद पर प्रतिष्ठित कर सकता है ।
यदि वह इतना भाग्यशाली हुआ कि इस अभ्यास से कृष्णभावनामृत के पद तक उठ सके तो उसकी सफलता निश्चित है । वैदिक साहित्य में कर्म तथा कर्मफल की विधियों का आदेश है , जिससे मनुष्य शुद्धि की अवस्था ( संस्कार ) तक पहुँच सके । सारी विधि काम , क्रोध तथा लोभ के परित्याग पर आधारित है । इस विधि का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य आत्म साक्षात्कार के उच्चपद तक उठ सकता है और इस आत्म – साक्षात्कार की पूर्णता भक्ति में है ।
भक्ति में वद्धजीव की मुक्ति निश्चित है । इसीलिए वैदिक पद्धति के अनुसार चार आश्रमों तथा चार वर्णों का विधान किया गया है । विभिन्न जातियों ( वर्णों ) के लिए विभिन्न विधि – विधानों की व्यवस्था है । यदि मनुष्य उनका पालन कर पाता है , तो वह स्वतः ही आत्म – साक्षात्कार के सर्वोच्चपद को प्राप्त कर लेता है । तब उसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रह जाता ।
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ २३ ॥
यः – जो ; शास्त्र-विधिम् – शास्त्रों की विधियों को ; उत्सृज्य – त्याग कर ; वर्तते – करता रहता है ; काम-कारत: – काम के वशीभूत होकर मनमाने ढंग से ; न – कभी नहीं ; सः – वह ; सिद्धिम् – सिद्धि को अवाप्नोति प्राप्त करता है ; न – कभी नहीं ; सुखम् – सुख ; न – कभी नहीं ; पराम् – परम ; गतिम् – सिद्ध अवस्था को ।
जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है , उसे न तो सिद्धि , न सुख , न ही परमगति की प्राप्ति हो पाती है ।
तात्पर्य :- जैसा कि पहले कहा जा चुका है मानव समाज के विभिन्न आश्रमों तथा वर्णों के लिए शास्त्रविधि दी गयी है । प्रत्येक व्यक्ति को इन विधि – विधानों का पालन करना होता है । यदि कोई इनका पालन न करके काम , क्रोध और लोभवश स्वेच्छा से कार्य करता है , तो उसे जीवन में कभी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ।
दूसरे शब्दों में , भले ही मनुष्य ये सारी बातें सिद्धान्त के रूप में जानता रहे , लेकिन यदि वह इन्हें अपने जीवन में नहीं उतार पाता , तो वह अधम जाना जाता है । मनुष्ययोनि में जीव से आशा की जाती है कि वह बुद्धिमान बने और सर्वोच्चपद तक जीवन को ले जाने वाले विधानों का पालन करे ।
किन्तु यदि वह इनका पालन नहीं करता , तो उसका अधःपतन हो जाता है । लेकिन फिर भी जो विधि – विधानों तथा नैतिक सिद्धान्तों का पालन करता है , किन्तु अन्ततोगत्वा परमेश्वर को समझ नहीं पाता , तो उसका सारा ज्ञान व्यर्थ जाता है । और यदि वह ईश्वर के अस्तित्व को मान भी ले , किन्तु यदि वह भगवान् की सेवा नहीं करता , तो भी उसके प्रयास निष्फल हो जाते हैं ।
अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपने आप को कृष्णभावनामृत तथा भक्ति के पद तक ऊपर ले जाये । तभी वह परम सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है , अन्यथा नहीं । काम – कारतः शब्द अत्यन्त सार्थक है । जो व्यक्ति जानबूझ कर नियमों का अतिक्रमण करता है , वह काम के वश में होकर कर्म करता है । वह जानता है कि ऐसा करना मना है , लेकिन फिर भी वह ऐसा करता है ।
इसी को स्वेच्छाचार कहते हैं । यह जानते हुए भी कि अमुक काम करना चाहिए , फिर भी वह उसे नहीं करता है , इसीलिए उसे स्वेच्छाचारी कहा जाता है । ऐसे व्यक्ति अवश्य ही भगवान् द्वारा दंडित होते हैं । ऐसे व्यक्तियों को मनुष्य जीवन की सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती । मनुष्य जीवन तो अपने आपको शुद्ध बनाने के लिए है , किन्तु जो व्यक्ति विधि – विधानों का पालन नहीं करता , वह अपने को न तो शुद्ध बना सकता है , न ही वास्तविक सुख प्राप्त कर सकता है ।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ २४ ॥
तस्मात् – इसलिए ; शास्त्रम् – शास्त्र ; प्रमाणम् – प्रमाण ; ते – तुम्हारा कार्य ; कर्तव्य अकार्य – निषिद्ध कर्म ; व्यवस्थितौ – निश्चित करने में ; ज्ञात्वा – जानकर ; शास्त्र – शास्त्र का ; विधान – विधान ; उक्तम् – कहा गया ; कर्म – कर्म ; कर्तुम् – करना ; इह – इस संसार में ; अर्हसि – तुम्हें चाहिए ।
अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है । उसे ऐसे विधि – विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके ।
तात्पर्य :- जैसा कि पन्द्रहवें अध्याय में कहा जा चुका है वेदों के सारे विधि – विधान कृष्ण को जानने के लिए हैं । यदि कोई भगवद्गीता से कृष्ण को जान लेता है और भक्ति में प्रवृत्त होकर कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है , तो वह वैदिक साहित्य द्वारा प्रदत्त ज्ञान की चरम सिद्धि तक पहुँच जाता है ।
भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने इस विधि को अत्यन्त सरल बनाया- उन्होंने लोगों से केवल हरे कृष्ण महामन्त्र जपने तथा भगवान् की भक्ति में प्रवृत्त होने और अर्चाविग्रह को अर्पित भोग का उच्छिष्ट खाने के लिए कहा । जो व्यक्ति इन भक्तिकार्यों में संलग्न रहता है , उसे वैदिक साहित्य से अवगत और सारतत्त्व को प्राप्त हुआ माना जाता है ।
निस्सन्देह , उन सामान्य व्यक्तियों के लिए , जो कृष्णभावनाभावित नहीं हैं , या भक्ति में प्रवृत्त नहीं हैं , करणीय तथा अकरणीय कर्म का निर्णय वेदों के आदेशों के अनुसार किया जाना चाहिए । मनुष्य को तर्क किये बिना तदनुसार कर्म करना चाहिए । इसी को शास्त्र के नियमों का पालन करना कहा जाता है । शास्त्रों में वे चार मुख्य दोष नहीं पाये जाते , जो वद्धजीव में होते हैं । ये हैं – अपूर्ण इन्द्रियाँ , कपटता , त्रुटि करना तथा मोहग्रस्त होना ।
इन चार दोषों के कारण वद्धजीव विधि – विधान बनाने के लिए अयोग्य होता है , अतएव विधि – विधान , जिनका उल्लेख शास्त्र में होता है जो इन दोषों से परे होते हैं , सभी बड़े – बड़े महात्माओं , आचार्यों तथा महापुरुषों द्वारा बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर लिए जाते हैं । भारत में आध्यात्मिक विद्या के कई दल हैं , जिन्हें प्रायः दो श्रेणियों में रखा जाता है- निराकारवादी तथा साकारवादी ।
दोनों ही दल वेदों के नियमों के अनुसार अपना जीवन विताते हैं । शास्त्रों के नियमों का पालन किये बिना कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । अतएव जो शास्त्रों के तात्पर्य को वास्तव में समझता है , वह भाग्यशाली माना जाता है । मानवसमाज में समस्त पतनों का मुख्य कारण भागवतविद्या के नियमों के प्रति द्वेष है । यह मानवजीवन का सर्वोच्च अपराध है ।
अतएव भगवान् की भौतिक शक्ति अर्थात् माया त्रयतापों के रूप में हमें सदैव कष्ट देती रहती है । यह भौतिक शक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बनी है । इसके पूर्व कि भगवान् के ज्ञान का मार्ग खुले , मनुष्य को कम से कम सतोगुण तक ऊपर उठना होता है । सतोगुण तक उठे बिना वह तमो तथा रजोगुणों में रहता है , जो आसुरी जीवन के कारणस्वरूप हैं । रजो तथा तमोगुणी व्यक्ति शास्त्रों , पवित्र मनुष्यों तथा भगवान् के समुचित ज्ञान की खिल्ली उड़ाते हैं ।
वे गुरु के आदेशों का उल्लंघन करते हैं और शास्त्रों के विधानों की परवाह नहीं करते । वे भक्ति की महिमा का श्रवण करके भी उसके प्रति आकृष्ट नहीं होते । इस प्रकार वे अपनी उन्नति का अपना निजी मार्ग बनाते हैं । मानव समाज के ये ही कतिपय दोष हैं , जिनके कारण आसुरी जीवन विताना पड़ता है ।
किन्तु यदि उपयुक्त तथा प्रामाणिक गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त हो जाता है , तो उसका जीवन सफल हो जाता है क्योंकि गुरु उच्चपद की ओर उन्नति का मार्ग दिखा सकता है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय ” देवी तथा आसुरी स्वभाव ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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