अध्याय सोलह (Chapter -16)
भगवद गीता अध्याय 16.2 में शलोक 06 से शलोक 20 आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का वर्णन !
द्वौ भूतसर्गो लोकेऽस्मिन्देव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥ ६ ॥
द्वौ – दो ; भूत-सर्गों – जीवों की सृष्टियाँ ; लोके – संसार में ; अस्मिन् – इस ; दैवः – देवी ; आसुरः – आसुरी ; एव – निश्चय ही ; च – तथा ; दैव: – दैवी ; विस्तरशः – विस्तार से ; प्रोक्तः – कहा गया ; आसुरम् – आसुरी ; पार्थ – हे पृथापुत्र ; मे – मुझसे ; शृणु – सुनो ।
हे पृथापुत्र ! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं – दैवी तथा आसुरी । मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ । अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो ।
तात्पर्य :- अर्जुन को यह कह कर कि वह दैवीगुणों से सम्पन्न होकर जन्मा है , भगवान् कृष्ण अब उसे आसुरी गुण बताते हैं । इस संसार में बद्धजीव दो श्रेणियों में बँटे हुए हैं । जो जीव दिव्यगुणों से सम्पन्न होते हैं , वे नियमित जीवन विताते हैं , अर्थात् वे शास्त्रों तथा विद्वानों द्वारा बताये गये आदेशों का निर्वाह करते हैं ।
मनुष्य को चाहिए कि प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार ही कर्तव्य निभाए , यह प्रकृति देवी कहलाती है । जो शास्त्रविहित विधानों को नहीं मानता और अपनी सनक के अनुसार कार्य करता रहता है , वह आसुरी कहलाता है । शास्त्र के विधिविधानों के प्रति आज्ञा – भाव ही एकमात्र कसौटी है , अन्य नहीं । वैदिक साहित्य में उल्लेख है कि देवता तथा असुर दोनों ही प्रजापति से उत्पन्न हुए , अन्तर इतना ही है कि एक श्रेणी के लोग वैदिक आदेशों को मानते हैं और दूसरे नहीं मानते ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ ७ ॥
प्रवृत्तिम् – ठीक से कर्म करना ; च – भी ; निवृत्तिम् – अनुचित ढंग से कर्म न करना ; च – तथा ; जना: – लोग ; न – कभी नहीं ; विदुः – जानते ; आसुरा: – आसुरी गुण के ; न – कभी नहीं ; शौचम् – पवित्रता ; न – न तो ; अपि – भी ; च – तथा ; आचार: – आचरण ; न – कभी नहीं ; सत्यम् – सत्य ; तेषु – उनमें ; विद्यते – होता है ।
जो आसुरी हैं , वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । उनमें न तो पवित्रता , न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है ।
तात्पर्य :- प्रत्येक सभ्य मानव समाज में कुछ आचार संहिताएँ होती हैं , जिनका प्रारम्भ से पालन करना होता है । विशेषतया आर्यगण , जो वैदिक सभ्यता को मानते हैं और अत्यन्त सभ्य माने जाते हैं , इनका पालन करते हैं । किन्तु जो शास्त्रीय आदेशों को नहीं मानते , चे असुर समझे जाते हैं । इसीलिए यहाँ पर कहा गया है कि असुरगण न तो शास्त्रीय नियमों को जानते हैं , न उनमें इनके पालन करने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।
उनमें से अधिकांश इन नियमों को नहीं जानते और जो थोड़े से लोग जानते भी हैं , उनमें इनके पालन करने की प्रवृत्ति नहीं होती । उन्हें न तो वैदिक आदेशों में कोई श्रद्धा होती है . न ही वे उसके अनुसार कार्य करने के इच्छुक होते हैं । असुरगण न तो बाहर से , न भीतर से स्वच्छ होते हैं । मनुष्य को चाहिए कि स्नान करके , दंतमंजन करके , वाल बना कर , वस्त्र बदल कर शरीर को स्वच्छ रखे ।
जहाँ तक आन्तरिक स्वच्छता की बात है , मनुष्य को चाहिए कि वह सदेव ईश्वर के पवित्र नामों का स्मरण करे और हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करे । असुरगण वाह्य तथा आन्तरिक स्वच्छता के इन नियमों को न तो चाहते हैं , न इनका पालन ही करते हैं । जहाँ तक आचरण की बात है , मानव आचरण का मार्गदर्शन करने वाले अनेक विधि – विधान हैं , जैसे मनु – संहिता , जो मानवजाति का अधिनियम है ।
यहाँ तक कि आज भी सारे हिन्दू मनुसंहिता का ही अनुगमन करते हैं । इसी ग्रंथ से उत्तराधिकार तथा अन्य विधि सम्बन्धी बातें ग्रहण की जाती हैं । मनुसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि स्त्री को स्वतन्त्रता न प्रदान की जाय । इसका अर्थ यह नहीं होता कि स्त्रियों को दासी बना कर रखा जाय । वे तो वालकों के समान हैं ।
बालकों को स्वतन्त्रता नहीं दी जाती , लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे दास बना कर रखे जाते हैं । लेकिन असुरों ने ऐसे आदेशों की उपेक्षा कर दी है और वे सोचने लगे हैं कि स्त्रियों को पुरुषों के समान ही स्वतन्त्रता प्रदान की जाय । लेकिन इससे संसार की सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ । वास्तव में स्त्री को जीवन की प्रत्येक अवस्था में सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए ।
उसके बाल्यकाल में पिता द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए , तारुण्य में पति द्वारा और बुढ़ापे में बड़े पुत्रों द्वारा । मनु – संहिता के अनुसार यही उचित सामाजिक आचरण है । लेकिन आधुनिक शिक्षा ने नारी जीवन का एक अतिरंजित अहंकारपूर्ण बोध उत्पन्न कर दिया है , अतएव अब विवाह एक कल्पना बन चुका है । स्त्री की नैतिक स्थिति भी अब बहुत अच्छी नहीं रह गई है ।
अतएव असुरगण कोई ऐसा उपदेश ग्रहण नहीं करते , जो समाज के लिए अच्छा हो । चूँकि वे महर्षियों के अनुभवों तथा उनके द्वारा निर्धारित विधि विधानों का पालन नहीं करते , अतएव आसुरी लोगों की सामाजिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय है ।
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥ ८ ॥
अनीश्वरम् – विना नियामक के ; अपरस्पर – विना कारण के ; सम्भूतम् – उत्पन्न ; किम्-अन्यत् – अन्य कोई कारण नहीं है ; असत्यम् – मिथ्या ; अप्रतिष्ठम् – आधाररहित ; ते – वे ; जगत् – दृश्य जगत् ; आहुः – कहते हैं ; काम-हैतुकम् – केवल काम के कारण ।
वे कहते हैं कि यह जगत् मिथ्या है , इसका कोई आधार नहीं है और इसका नियमन किसी ईश्वर द्वारा नहीं होता । उनका कहना है कि यह कामेच्छा से उत्पन्न होता है और काम के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं है ।
तात्पर्य :- आसुरी लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यह जगत् मायाजाल है । इसका न कोई कारण है , न कार्य , न नियामक , न कोई प्रयोजन- हर वस्तु मिथ्या है । उनका कहना है कि यह दृश्य जगत् आकस्मिक भौतिक क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं के कारण है । ये यह नहीं सोचते कि ईश्वर ने किसी प्रयोजन से इस संसार की रचना की है ।
उनका अपना सिद्धान्त है कि यह संसार अपने आप उत्पन्न हुआ है और यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं कि इसके पीछे किसी ईश्वर का हाथ है । उनके लिए आत्मा तथा पदार्थ में कोई अन्तर नहीं होता और वे परम आत्मा को स्वीकार नहीं करते । उनके लिए हर वस्तु पदार्थ मात्र है और यह पूरा जगत् मानो अज्ञान का पिण्ड हो ।
उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु शून्य है और जो भी सृष्टि दिखती है , वह केवल दृष्टि – भ्रम के कारण है । ये इसे सच मान बैठते हैं कि विभिन्नता से पूर्ण यह सारी सृष्टि अज्ञान का प्रदर्शन है । जिस प्रकार स्वप्न में हम ऐसी अनेक वस्तुओं की सृष्टि कर सकते हैं , जिनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता , अतएव जब हम जाग जाते हैं , तो देखते हैं कि सब कुछ स्वप्नमात्र था ।
लेकिन वास्तव में , यद्यपि असुर यह कहते हैं कि जीवन स्वप्न है , लेकिन वे इस स्वप्न को भोगने में बड़े कुशल होते हैं । अतएव वे ज्ञानार्जन करने के बजाय अपने स्वप्नलोक में अधिकाधिक उलझ जाते हैं । उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार शिशु केवल स्त्रीपुरुष के सम्भोग का फल है , उसी तरह यह संसार बिना किसी आत्मा के उत्पन्न हुआ है ।
उनके लिए यह पदार्थ का संयोगमात्र है , जिसने जीवों को उत्पन्न किया , अतएव आत्मा के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता । जिस प्रकार अनेक जीवित प्राणी अकारण पसीने ही से ( स्वेदज ) तथा मृत शरीर से उत्पन्न हो जाते हैं , उसी प्रकार यह मारा जीवित संसार दृश्य जगत् के भौतिक संयोगों से प्रकट हुआ है । अतएव प्रकृति ही इस संसार की कारणस्वरूपा है , इसका कोई अन्य कारण नहीं है ।
वे भगवद्गीता में कहे गये कृष्ण के इन वचनों को नहीं मानते – मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् – सारा भौतिक जगत् मेरे ही निर्देश के अन्तर्गत गतिशील है । दूसरे शब्दों में , असुरों को संसार की सृष्टि के विषय में पूरा – पूरा ज्ञान नहीं है , प्रत्येक का अपना कोई न कोई सिद्धान्त है । उनके अनुसार शास्त्रों की कोई एक व्याख्या दूसरी व्याख्या के ही समान है , क्योंकि वे शास्त्रीय आदेशों के मानक ज्ञान में विश्वास नहीं करते ।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥ ९ ॥
एताम् – इस ; दृष्टिम् – दृष्टि को ; अवष्टभ्य – स्वीकार करके ; नष्ट – खोकर ; आत्मानः – अपने आप ; अल्प-बुद्धयः – अल्पज्ञानी ; प्रभवन्ति – फूलते – फलते हैं ; उग्र कर्माण: – कष्टकारक कर्मों में प्रवृत्त ; क्षयाय – विनाश के लिए ; जगतः – संसार का ; अहिताः – अनुपयोगी ।
ऐसे निष्कर्षों का अनुगमन करते हुए आसुरी लोग , जिन्होंने आत्म – ज्ञान खो दिया है और जो बुद्धिहीन हैं , ऐसे अनुपयोगी एवं भयावह कार्यों में प्रवृत्त होते हैं जो संसार का विनाश करने के लिए होता है ।
तात्पर्य :- आसुरी लोग ऐसे कार्यों में व्यस्त रहते हैं जिनसे संसार का विनाश हो जाये । भगवान् यहाँ कहते हैं कि वे कम बुद्धि वाले हैं । भौतिकवादी , जिन्हें ईश्वर का कोई बोध नहीं होता , सोचते हैं कि वे प्रगति कर रहे हैं । लेकिन भगवद्गीता के अनुसार वे बुद्धिहीन तथा समस्त विचारों से शून्य होते हैं । वे इस भौतिक जगत् का अधिक से अधिक भोग करने का प्रयत्न करते हैं , अतएव इन्द्रियतृप्ति के लिए वे कुछ न कुछ नया आविष्कार करते रहते हैं ।
ऐसे भौतिक आविष्कारों को मानवसभ्यता का विकास माना जाता है , लेकिन इसका दुष्परिणाम यह होता है कि लोग अधिकाधिक हिंसक तथा क्रूर होते जाते हैं – वे पशुओं के प्रति क्रूर हो जाते हैं और अन्य मनुष्यों के प्रति भी उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं कि एक दूसरे से किस प्रकार व्यवहार किया जाय । आसुरी लोगों में पशुवध अत्यन्त प्रधान होता है ।
ऐसे लोग संसार के शत्रु समझे जाते हैं , क्योंकि वे अन्ततः ऐसा आविष्कार कर लेंगे या कुछ ऐसी सृष्टि कर देंगे जिससे सबका विनाश हो जाय । अप्रत्यक्षतः यह श्लोक नाभिकीय अस्त्रों के आविष्कार की पूर्व सूचना देता है , जिसका आज सारे विश्व को गर्व है । किसी भी क्षण युद्ध हो सकता है और ये परमाणु हथियार विनाशलीला उत्पन्न कर सकते हैं ।
ऐसी वस्तुएँ संसार के विनाश के उद्देश्य से ही उत्पन्न की जाती हैं और यहाँ पर इसका संकेत किया गया है । ईश्वर के प्रति अविश्वास के कारण ही ऐसे हथियारों का आविष्कार मानव समाज में किया जाता है – वे संसार की शान्ति तथा सम्पन्नता के लिए नहीं होते ।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ १०॥
कामम् – काम, विषयभोग की ; आश्रित्य – शरण लेकर ; दुष्पूरम् – अपूरणीय, अतृप्त ; दम्भ – गर्व ; मान – तथा झूठी प्रतिष्ठा का ; मद-अन्विता: – मद में चूर ; मोहात् – मोह से ; गृहीत्वा – ग्रहण करके ; असत् – क्षणभंगुर ; ग्राहान् – वस्तुओं को ; प्रवर्तन्ते – फलते फूलते हैं ; अशुचि – अपवित्र ; व्रताः – व्रत लेने वाले ।
कभी न संतुष्ट होने वाले काम का आश्रय लेकर तथा गर्व के मद एवं मिथ्या प्रतिष्ठा में डूबे हुए आसुरी लोग इस तरह मोहग्रस्त होकर सदैव क्षणभंगुर वस्तुओं के द्वारा अपवित्र कर्म का व्रत लिए रहते हैं ।
तात्पर्य :- यहाँ पर आसुरी मनोवृत्ति का वर्णन हुआ है । असुरों में काम कभी तृप्त नहीं होता । वे भौतिक भोग के लिए अपनी अतृप्त इच्छाएँ बढ़ाते चले जाते हैं । यद्यपि वे क्षणभंगुर वस्तुओं को स्वीकार करने के कारण सदैव चिन्तामग्न रहते हैं , तो भी वे मोहवश ऐसे कार्य करते जाते हैं । उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता , अतएव वे यह नहीं कह पाते कि वे गलत दिशा में जा रहे हैं ।
क्षणभंगुर वस्तुओं को स्वीकार करने के कारण वे अपना निजी ईश्वर निर्माण कर लेते हैं , अपने निजी मन्त्र बना लेते हैं और तदनुसार कीर्तन करते हैं । इसका फल यह होता है कि वे दो वस्तुओं की ओर अधिकाधिक आकृष्ट होते हैं – कामभोग तथा सम्पत्ति संचय इस प्रसंग में अशुचि – व्रताः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , जिसका अर्थ है ‘ अपवित्र व्रत ‘ ।
ऐसे आसुरी लोग मद्य , स्त्रियों , धूत क्रीड़ा तथा मांसाहार के प्रति आसक्त होते हैं – ये ही उनकी अशुचि अर्थात् अपवित्र ( गंदी ) आदतें हैं । दर्प तथा अहंकार से प्रेरित होकर वे ऐसे धार्मिक सिद्धान्त बनाते हैं , जिनकी अनुमति वैदिक आदेश नहीं देते । यद्यपि ऐसे आसुरी लोग अत्यन्त निन्दनीय होते हैं , लेकिन संसार में कृत्रिम साधनों से ऐसे लोगों का झूठा सम्मान किया जाता है । यद्यपि वे नरक की ओर बढ़ते रहते हैं , लेकिन वे अपने को बहुत बड़ा मानते हैं ।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ ११ ॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥ १२ ॥
चिन्ताम् – भव तथा चिन्ताओं का ; अपरिमेयाम् – अपार ; च – तथा ; प्रलय-अन्ताम् – मरणकाल तक ; उपाश्रिताः – शरणागत ; काम-उपभोग – इन्द्रियतृप्ति ; परमा: – जीवन का परम लक्ष्य ; एतावत् – इतना ; इति – इस प्रकार ; निश्चिताः – निश्चित करके ; आशा-पाश – आशा रूप वन्धन ; शतैः – सैकड़ों के द्वारा ; बद्घा: – बँधे हुए ; काम – काम ; क्रोध – तथा क्रोध में ; परायणाः – सदैव स्थित ; ईहन्ते – इच्छा करते हैं ; काम – काम ; भोग – इन्द्रियभोग ; अर्थम् – के निमित्त ; अन्यायेन – अवैध रूप से ; अर्थ – धन का ; सञ्चयान् – संग्रह ।
उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है । इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है । वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं ।
तात्पर्य :- आसुरी लोग मानते हैं कि इन्द्रियों का भोग ही जीवन का चरमलक्ष्य है और वे आमरण इसी विचारधारा को धारण किये रहते हैं । वे मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास नहीं करते । वे यह नहीं मानते कि मनुष्य को इस जगत् में अपने कर्म के अनुसार विविध प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं ।
जीवन के लिए उनकी योजनाओं का अन्त नहीं होता ओर वे एक के बाद एक योजना बनाते रहते हैं जो कभी समाप्त नहीं होतीं । हमें ऐसे एक व्यक्ति की ऐसी आसुरी मनोवृत्ति का निजी अनुभव है , जो मरणकाल तक अपने वैद्य से अनुनय – विनय करता रहा कि वह किसी तरह उसके जीवन की अवधि चार वर्ष बढ़ा दें , क्योंकि उसकी योजनाएँ तब भी अधूरी थीं ।
ऐसे मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि वैद्य क्षणभर भी जीवन को नहीं बढ़ा सकता । जब मृत्यु का बुलावा आ जाता है , तो मनुष्य की इच्छा पर ध्यान नहीं दिया जाता । प्रकृति के नियम किसी को निश्चित अवधि के आगे क्षणभर भी भोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करते । आसुरी मनुष्य , जो ईश्वर या अपने अन्तर में स्थित परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखता , केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए सभी प्रकार के पापकर्म करता रहता है ।
वह नहीं जानता कि उसके हृदय के भीतर एक साक्षी वैठा है । परमात्मा प्रत्येक जीवात्मा के कार्यों को देखता रहता है । जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है कि एक वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं , एक पक्षी कर्म करता हुआ टहनियों में लगे सुख – दुख रूपी फलों को भोग रहा है और दूसरा उसका साक्षी है । लेकिन आसुरी मनुष्य को न तो वैदिकशास्त्र का ज्ञान है , न कोई श्रद्धा है ।
अतएव वह इन्द्रियभोग के लिए कुछ भी करने के लिए अपने को स्वतन्त्र मानता है , उसे परिणाम की परवाह नहीं रहती ।
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १३ ॥
असो मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १४ ॥
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ १५ ॥
इदम् – यह ; अद्य – आज ; मया – मेरे द्वारा ; लब्धम् – प्राप्त ; इमम् – इसे ; प्राप्स्ये – प्राप्त करूँगा ; मनः-रथम् – इच्छित ; इदम् – यह ; अस्ति – है ; इदम् – यह ; अपि – भी ; मे – मेरा ; भविष्यति – भविष्य में बढ़ जायगा ; पुनः – फिर ; धनम् – धन ।
असौ – वह ; मया – मेरे ; हतः – मारा गया ; शत्रुः – शत्रु ; हनिष्ये – मारूँगा ; च – भी ; अपरान् – अन्यों को ; अपि – निश्चय ही ; ईश्वरः – प्रभु , स्वामी ; अहम् – मैं हूँ ; भोगी – भोक्ता ; सिद्धः – सिद्ध ; अहम् – मैं हूँ ; बलवान् – शक्तिशाली ; सुखी – प्रसन्न ।
आठ्यः – धनी ; अभिजन-वान् – कुलीन सम्बन्धियों से घिरा ; अस्मि – मैं हूँ ; क: – कौन ; अन्यः – दूसरा ; अस्ति – है ; सदृशः – समान ; मया – मेरे द्वारा ; यक्ष्ये – मैं यज्ञ करूँगा ; दास्यामि – दान दूंगा ; मोदिष्ये – आमोद-प्रमोद मनाऊँगा ; इति – इस प्रकार ; अज्ञान – अज्ञानतावश ; विमोहिताः – मोहग्रस्त ।
आसुरी व्यक्ति सोचता है , आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से में और अधिक धन कमाऊँगा । इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा । वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिए जाएंगे । मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ । मैं भोक्ता हूँ ।
मैं सिद्ध , शक्तिमान् तथा सुखी हूँ । मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं । कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है । यज्ञ करूँगा , दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा । इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं ।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६ ॥
अनेक – कई ; चित्त – चिन्ताओं से ; विभ्रान्ताः – उद्विग्न ; मोह – मोह में ; जाल – जाल से ; समावृताः – घिरे हुए ; प्रसक्ताः – आसक्त ; काम-भोगेषु – इन्द्रियतृप्ति में ; पतन्ति – गिर जाते हैं ; नरके – नरक में ; अशुचौ – अपवित्र ।
इस प्रकार अनेक चिन्ताओं से उद्विग्न होकर तथा मोहजाल में बंधकर वे इन्द्रियभोग में अत्यधिक आसक्त हो जाते हैं और नरक में गिरते हैं ।
तात्पर्य :- आसुरी व्यक्ति धन अर्जित करने की इच्छा की कोई सीमा नहीं जानता । उसकी इच्छा असीम बनी रहती है । वह केवल यही सोचता रहता है कि उसके पास इस समय कितनी सम्पत्ति है और ऐसी योजना बनाता है कि सम्पत्ति का संग्रह बढ़ता ही जाय । इसीलिए वह किसी भी पापपूर्ण साधन को अपनाने में झिझकता नहीं और अवेध तृप्ति के लिए कालाबाजारी करता है ।
वह पहले से अपनी अधिकृत सम्पत्ति , यथा भूमि , परिवार , घर तथा बैंक पूँजी पर मुग्ध रहता है और उनमें वृद्धि के लिए सदैव योजनाएँ बनाता रहता है । उसे अपनी शक्ति पर ही विश्वास रहता है और वह यह नहीं जानता कि उसे जो लाभ हो रहा है वह उसके पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों का फल है । उसे ऐसी वस्तुओं का संचय करने का अवसर इसीलिए मिला है , लेकिन उसे पूर्वजन्म के कारणों का कोई बोध नहीं होता ।
वह यही सोचता है कि उसकी सारी सम्पत्ति उसके निजी उद्योग से है । आसुरी व्यक्ति अपने वाहु वल पर विश्वास करता है , कर्म के नियम पर नहीं । कर्म – नियम के अनुसार पूर्वजन्म में उत्तम कर्म करने के फलस्वरूप मनुष्य उच्चकुल में जन्म लेता है , या धनवान बनता है या सुशिक्षित बनता है , या बहुत सुन्दर शरीर प्राप्त करता है । आसुरी व्यक्ति सोचता है कि ये चीजें आकस्मिक हैं और उसके बाहुबल ( सामर्थ्य ) के फलस्वरूप हैं ।
उसे विभिन्न प्रकार के लोगों , सुन्दरता तथा शिक्षा के पीछे किसी प्रकार की योजना ( व्यवस्था ) नहीं प्रतीत होती । ऐसे आसुरी मनुष्य की प्रतियोगिता में जो भी सामने आता है , वह उसका शत्रु बन जाता है । ऐसे अनेक आसुरी व्यक्ति होते हैं और इनमें से प्रत्येक अन्यों का शत्रु होता है । यह शत्रुता पहले मनुष्यों के बीच , फिर परिवारों के बीच , तब समाजों में और अन्ततः राष्ट्रों के बीच बढ़ती जाती है ।
अतएव विश्वभर में निरन्तर संघर्ष , युद्ध तथा शत्रुता बनी हुई है । प्रत्येक आसुरी व्यक्ति सोचता है कि वह अन्य सभी लोगों की बलि करके रह सकता है । सामान्यतया ऐसा व्यक्ति स्वयं को परम ईश्वर मानता है और आसुरी उपदेशक अपने अनुवायियों से कहता है कि , ” तुम लोग ईश्वर को अन्यत्र क्यों ढूंढ रहे हो ? तुम स्वयं अपने ईश्वर हो ! तुम जो चाहो सो कर सकते हो । ईश्वर पर विश्वास मत करो । ईश्वर को दूर करो । ईश्वर मृत है । ” ये ही आसुरी लोगों के उपदेश हैं ।
यद्यपि आसुरी मनुष्य अन्यों को अपने ही समान या अपने से बढ़कर धनी तथा प्रभावशाली देखता है , तो भी वह सोचता है कि उससे बढ़कर न तो कोई धनी है और न प्रभावशाली । जहाँ तक उच्चलोकों में जाने की बात है वे यज्ञों को सम्पन्न करने में विश्वास नहीं करते । वे सोचते हैं कि वे अपनी यज्ञ – विधि का निर्माण करेंगे और कोई ऐसी मशीन बना लेंगे जिससे वे किसी भी उच्चलोक तक पहुँच जाएँगे ।
ऐसे आसुरी व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण रावण था । उसने लोगों के समक्ष ऐसी योजना प्रस्तुत की थी , जिसके द्वारा वह एक ऐसी सीढ़ी बनाने वाला था , जिससे कोई भी व्यक्ति बंदों में वर्णित यज्ञों को सम्पन्न किये विना स्वर्गलोक को जा सकता था । उसी प्रकार से आधुनिक युग के ऐसे ही आसुरी लोग यान्त्रिक विधि से उच्चतर लोकों तक पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं ।
अतएव ये सब मोह के उदाहरण हैं । परिणाम यह होता है कि दिना जाने हुए वे नरक की ओर बढ़ते जाते हैं । यहाँ पर मोहजाल शब्द अत्यन्त सार्थक है । जाल का तात्पर्य है मनुष्य मछली की भाँति मोह रूपी जाल में फँस कर उससे निकल नहीं पाता ।
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञै दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥
आत्म-सम्भाविता: – अपने को श्रेष्ठ मानने वाले ; स्तब्धाः – घमण्डी ; धन-मान – धन तथा झूठी प्रतिष्ठा के ; मद – मद में ; अन्विताः – लीन ; यजन्ते – यज्ञ करते हैं ; नाम – नाम मात्र के लिए ; यज्ञैः – यज्ञों के द्वारा ; ते – वे ; दम्भेन – घमंड से ; अविधि-पूर्वकम् – विधि-विधानों का पालन किये बिना ।
अपने को श्रेष्ठ मानने वाले तथा सदैव घमंड करने वाले , सम्पत्ति तथा मिथ्या प्रतिष्ठा से मोहग्रस्त लोग किसी विधि – विधान का पालन न करते हुए कभी – कभी नाममात्र के लिए बड़े ही गर्व के साथ यज्ञ करते हैं ।
तात्पर्य :- अपने को सब कुछ मानते हुए , किसी प्रमाण या शास्त्र की परवाह न करके आसुरी लोग कभी – कभी तथाकथित धार्मिक या याज्ञिक अनुष्ठान करते हैं । चूँकि वे किसी प्रमाण में विश्वास नहीं करते , अतएव वे अत्यन्त घमंडी होते हैं । थोड़ी सी सम्पत्ति तथा झूठी प्रतिष्ठा पा लेने के कारण जो मोह ( भ्रम ) उत्पन्न होता है , उसी के कारण ऐसा होता है ।
कभी – कभी ऐसे असुर उपदेशक की भूमिका निभाते हैं , लोगों को भ्रान्त करते हैं और धार्मिक सुधारक या ईश्वर के अवतारों के रूप में प्रसिद्ध हो जाते हैं । वे यज्ञ करने का दिखावा करते हैं , या देवताओं की पूजा करते हैं , या अपने निजी ईश्वर की सृष्टि करते हैं । सामान्य लोग उनका प्रचार ईश्वर कह कर करते हैं , उन्हें पूजते हैं और मूर्ख लोग उन्हें धर्म या आध्यात्मिक ज्ञान के सिद्धान्तों में बढ़ा – चढ़ा मानते हैं ।
वे संन्यासी का वेश धारण कर लेते हैं और उस वेश में सभी प्रकार का अधर्म करते हैं । वास्तव में इस संसार से विरक्त होने वाले पर अनेक प्रतिबन्ध होते हैं । लेकिन ये असुर इन प्रतिबन्धों की परवाह नहीं करते । वे सोचते हैं जो भी मार्ग बना लिया जाय , वही अपना मार्ग है । उनके समक्ष आदर्श मार्ग जैसी कोई वस्तु नहीं , जिस पर चला जाय ।
यहाँ पर अविधिपूर्वकम् शब्द पर बल दिया गया है जिसका अर्थ है विधि – विधानों की परवाह न करते हुए । ये सारी बातें सदेव अज्ञान तथा मोह के कारण होती हैं ।
अहङ्कारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः ।
मामात्मपरदे प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८ ॥
अहङ्कारम् – मिथ्या , अभिमान ; बलम् – वल ; दर्पम् – घमंड ; कामम् – काम , विषयभोग ; क्रोधम् – क्रोध ; च – भी ; संश्रिताः – शरणागत , आश्रय लेते हुए ; माम् – मुझको ; आत्म – अपने ; पर – तथा पराये ; देहेषु – शरीरों में ; प्रद्विषन्तः – निन्दा करते हुए ; अभ्यसूयकाः – ईर्ष्यालु ।
मिथ्या अहंकार , बल , दर्प , काम तथा क्रोध से मोहित होकर आसुरी व्यक्ति अपने में शरीर में तथा अन्यों के शरीर में स्थित भगवान् से ईर्ष्या और वास्तविक धर्म की निन्दा करने लगते हैं ।
तात्पर्य :- आसुरी व्यक्ति भगवान् की श्रेष्ठता का विरोधी होने के कारण शास्त्रों में विश्वास करना पसन्द नहीं करता । वह शास्त्रों तथा भगवान् के अस्तित्व इन दोनों से ही ईर्ष्या करता है । यह ईर्ष्या उसकी तथाकथित प्रतिष्ठा तथा धन एवं शक्ति के संग्रह से उत्पन्न होती है । वह यह नहीं जानता कि वर्तमान जीवन अगले जीवन की तैयारी है ।
इसे न जानते हुए वह वास्तव में अपने प्रति तथा अन्यों के प्रति भी द्वेष करता है । वह अन्य जीवधारियों की तथा स्वयं अपनी हिंसा करता है । वह भगवान् के परम नियन्त्रण की चिन्ता नहीं करता , क्योंकि उसे ज्ञान नहीं होता । शास्त्रों तथा भगवान् से ईर्ष्या करने के कारण वह ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध झूठे तर्क प्रस्तुत करता है और शास्त्रीय प्रमाण को अस्वीकार करता है ।
वह प्रत्येक कार्य में अपने को स्वतन्त्र तथा शक्तिमान मानता है । वह सोचता है कि कोई भी शक्ति , वल या सम्पत्ति में उसकी समता नहीं कर सकता , अतः वह चाहे जिस तरह कर्म करे , उसे कोई रोक नहीं सकता । यदि उसका कोई शत्रु उसे ऐन्द्रिय कार्यों में आगे बढ़ने से रोकता है , तो वह उसे अपनी शक्ति से छिन्न – भिन्न करने की योजनाएं बनाता है ।
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १९ ॥
तान् – उन ; अहम् – मैं ; द्वितः – ईर्ष्या ; क्रूरान् – शरारती लोगों को ; संसारेषु – भवसागर में ; नर-अधमान् – अथम मनुष्यों को ; क्षिषामि – डालता हूँ ; अजस्त्रम् – सदेय ; अशुभान् – अशुभ ; आसुरीषु – आपुरी ; एव – निश्चय ही ; योनिषु – गर्भ में ।
जो लोग ईर्ष्यालु तथा क्रूर हैं और नराधम हैं , उन्हें में निरन्तर विभिन्न आसुरी योनियों में भवसागर में डालता रहता हूँ ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में स्पष्ट इंगित हुआ है कि किसी जीव को किसी विशेष शरीर में रखने का परमेश्वर को विशेष अधिकार प्राप्त है । आसुरी लोग भले ही भगवान् की श्रेष्ठता को न स्वीकार करें और वे अपनी निजी सनकों के अनुसार कर्म करें . लेकिन उनका अगला जन्म भगवान् के निर्णय पर निर्भर करेगा , उन पर नहीं ।
श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध में कहा गया है कि मृत्यु के बाद जीव को माता के गर्भ में रखा जाता जहाँ उच्च शक्ति के निरीक्षण में उसे विशेष प्रकार का शरीर प्राप्त होता है । यही कारण है कि संसार में जीवों को इतनी योनियाँ प्राप्त होती हैं – यथा पशु , कीट , मनुष्य आदि । ये सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं । ये अकस्मात् नहीं आई ।
जहाँ तक असुरों की बात है , यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि ये असुरों के गर्भ में निरन्तर रखे जाते हैं । इस प्रकार ये ईर्ष्यालु बने रहते हैं और मानवों में अधम है । ऐसे आसुरी योनि वाले मनुष्य सदेव काम से पूरित रहते हैं , सदैव उम्र , घृणास्पद तथा अपवित्र होते हैं । जंगलों अनेक शिकारी मनुष्य आसुरी योनि से सम्बन्धित माने जाते हैं ।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ २० ॥
आसुरीम् – आसुरी ; योनिम् – योनि को ; आपना: – प्राप्त हुए ; मूढाः – मूर्ख ; जन्मनि जन्मनि – जन्मजन्मान्तर में ; माम् – मुझ को ; अप्राप्य – पाये बिना ; एव – निश्चय ही ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; ततः – तत्पश्चात् ; यान्ति – जाते हैं ; अधमाम् – अधम , निन्दित ; गतिम् – गन्तव्य को ।
हे कुन्तीपुत्र ! ऐसे व्यक्ति आसुरी योनि में बारम्बार जन्म ग्रहण करते हुए कभी भी मुझ तक पहुँच नहीं पाते । वे धीरे – धीरे अत्यन्त अधम गति को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्य :- यह विख्यात है कि ईश्वर अत्यन्त दयालु हैं , लेकिन यहाँ पर हम देखते हैं कि वे असुरों पर कभी भी दया नहीं करते । यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि आसुरी लोगों को जन्मजन्मान्तर तक उनके समान असुरों के गर्भ में रखा जाता है और ईश्वर की कृपा प्राप्त न होने से उनका अधःपतन होता रहता है , जिससे अन्त में उन्हें कुत्तों , विल्लियों तथा सूकरों जैसा शरीर मिलता है
यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे असुर जीवन की किसी भी अवस्था में ईश्वर की कृपा के भाजन नहीं बन पाते । वेदों में भी कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति अधःपतन होने पर कूकर – सूकर बनते हैं । इस प्रसंग में यह तर्क किया जा सकता है कि यदि ईश्वर ऐसे असुरों पर कृपालु नहीं हैं तो उन्हें सर्वकृपालु क्यों कहा जाता है ?
इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि वेदान्तसूत्र से पता चलता है कि परमेश्वर किसी से घृणा नहीं करते । असुरों को निम्नतम ( अधम ) योनि में रखना उनकी कृपा की अन्य विशेषता है । कभी – कभी परमेश्वर असुरों का वध करते हैं , लेकिन यह वध भी उनके लिए कल्याणकारी होता है , क्योंकि वैदिक साहित्य से पता चलता है कि जिस किसी का वध परमेश्वर द्वारा होता है , उसको मुक्ति मिल जाती है ।
इतिहास में ऐसे असुरों के अनेक उदाहरण प्राप्त हैं – यथा रावण , कंस , हिरण्यकशिपु , जिन्हें मारने के लिए भगवान् ने विविध अवतार धारण किये । अतएव असुरों पर ईश्वर की कृपा तभी होती है , जब वे इतने भाग्यशाली होते हैं कि ईश्वर उनका वध करें ।
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