भगवद गीता अध्याय 15.4 || क्षर,अक्षर,पुरुषोत्तम का विश्लेषण || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय पन्द्रह (Chapter -15)

भगवद गीता अध्याय 15.4 में शलोक 12 से  शलोक 15 क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण का वर्णन !

द्वाविमौ   पुरुषौ   लोके    क्षरश्चाक्षर   एव च । 

क्षरः  सर्वाणि  भूतानि  कूटस्थोऽक्षर  उच्यते ॥ १६ ॥ 

च      –     तथा     ;    अक्षर:    –     अच्युत      ;    द्वौ    –    दो    ;      इमो   –    ये    ;     पुरुषो   –   जीव    ;     लोके    –    संसार में     ;   क्षरः   –    च्युत    ;     एव    –     निश्चय ही    ;   च    –   तथा    ;      क्षरः    –    च्युत      ;      सर्वाणि    –   समस्त   ;    भूतानि     –   जीवों को    ;     कूट-स्थः     – एकत्व में ;     अक्षर:    –     अच्युत      ;       उच्यते      –     कहा जाता है । 

जीव दो प्रकार के हैं — च्युत तथा अच्युत । भौतिक जगत् में प्रत्येक जीव च्युत ( क्षर ) होता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रत्येक जीव अच्युत ( अक्षर ) कहलाता है । 

तात्पर्य :-   जैसा कि पहले बताया जा चुका है , भगवान् ने अपने व्यासदेव अवतार में ब्रह्मसूत्र का संकलन किया । भगवान् ने यहाँ पर वेदान्तसूत्र की विषयवस्तु का सार – संक्षेप दिया है । उनका कहना है कि जीव जिनकी संख्या अनन्त है , दो श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं च्युत ( क्षर ) तथा अच्युत ( अक्षर ) । जीव भगवान् के सनातन पृथक्कीकृत अंश ( विभिन्नांश ) हैं ।

जब उनका संसर्ग भौतिक जगत् से होता है तो वे जीवभूत कहलाते हैं । यहाँ पर क्षरः सर्वाणि भूतानि पद प्रयुक्त हुआ है , जिसका अर्थ है कि जीव च्युत हैं । लेकिन जो जीव परमेश्वर से एकत्व स्थापित कर लेते हैं वे अच्युत कहलाते हैं । एकत्व का अर्थ यह नहीं है कि उनकी अपनी निजी सत्ता नहीं है , बल्कि यह कि दोनों में भिन्नता नहीं है । वे सब सृजन के प्रयोजन को मानते हैं ।

निस्सन्देह आध्यात्मिक जगत् में सृजन जैसी कोई वस्तु नहीं है , लेकिन चूँकि , जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है , भगवान् समस्त उद्भवों के स्रोत हैं , अतएव यहाँ पर इस विचारधारा की व्याख्या की गई है । भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार जीवों की दो श्रेणियाँ हैं । वेदों में इसके प्रमाण मिलते हैं , अतएव इसमें सन्देह करने का प्रश्न ही नहीं उठता ।

इस संसार में संघर्ष रत सारे जीव मन तथा पाँच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले हैं जो परिवर्तनशील हैं । जब तक जीव बद्ध है , तब तक उसका शरीर पदार्थ के संसर्ग से बदलता रहता है । चूँकि पदार्थ बदलता रहता है , इसलिए जीव बदलते प्रतीत होते हैं । लेकिन आध्यात्मिक जगत् में शरीर पदार्थ से नहीं बना होता , अतएव उसमें परिवर्तन नहीं होता ।

भौतिक जगत् में जीव छः परिवर्तनों से गुजरता है – जन्म , वृद्धि , अस्तित्व , प्रजनन , क्षय तथा विनाश ये भौतिक शरीर के परिवर्तन हैं । लेकिन आध्यात्मिक जगत् में शरीर – परिवर्तन नहीं होता , वहाँ न जरा है , न जन्म और न मृत्यु । वे सब एकावस्था में रहते हैं ।

क्षरः सर्वाणि भूतानि जो भी जीव , आदि जीव ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र चींटी तक भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है , वह अपना शरीर बदलता है । अतएव ये सब क्षर या च्युत हैं । किन्तु आध्यात्मिक जगत् में वे मुक्त जीव सदा एकावस्था में रहते हैं । 

उत्तमः    पुरुषस्त्वन्यः    परमात्मेत्युदाहृतः । 

यो   लोकत्रयमाविश्य  बिभर्त्यव्यय   ईश्वरः ॥ १७ ॥ 

उत्तमः    –   श्रेष्ठ     ;     पुरुषः    –    व्यक्ति , पुरुष   ;    तु    –    लेकिन    ;    अन्य:   –  अन्य  ;   परम     –   परम   ;    आत्मा   –    आत्मा    ;     इति    –    इस प्रकार    ;      उदाहृतः   –    कहा जाता है    ;    यः   –   जो    ;    लोक   –    ब्रह्माण्ड के    ;    त्रयम्    –   तीन विभागों में    ;   आविश्य     –    प्रवेश करके    ;     बिभिर्ति   –    पालन करता है     ;    अव्ययः   –    अविनाशी   ;  ईश्वरः    –  भगवान् । 

इन दोनों के अतिरिक्त , एक परम पुरुष परमात्मा है , जो साक्षात् अविनाशी भगवान् है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है । 

तात्पर्य : –  इस श्लोक का भाव कठोपनिषद् ( २.२.१३ ) तथा श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( ६.१३ ) अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त हुआ है । वहाँ यह कहा गया है कि असंख्य जीवों के नियन्ता , जिनमें से कुछ बद्ध हैं और कुछ मुक्त हैं , एक परम पुरुष है जो परमात्मा है । उपनिषद् का श्लोक इस प्रकार है – नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् ।

सारांश यह है कि बद्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीवों में से एक परम पुरुष भगवान् होता है , जो उन सबका पालन करता है और उन्हें उनके कर्मों के अनुसार भोग की सुविधा प्रदान  करता है । वह भगवान् परमात्मा रूप में सबके हृदय में स्थित है । जो बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें समझ सकता है , वही पूर्ण शान्ति – लाभ कर सकता है , अन्य कोई नहीं ।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि           चोत्तमः ।

अतोऽस्मि  लोके  वेदे  च   प्रथितः  पुरुषोत्तमः ॥ १८ ॥ 

यस्मात्     –    चूँकि     ;      क्षरम्   –   च्युत   ;    अतीतः   –    दिव्य   ;    अहम्    –   मैं हूँ     ; अक्षरात्    –    अक्षर से परे    ;    अपि    –   भीः   ;    च   – तथा   ;    उत्तमः   –    सर्वश्रेष्ठ  ;   अतः –    अतएव    ;    अस्मि   –    मैं हूँ    ;    लोके   –    संसार में   ;     वेदे    –   वैदिक साहित्य में    ;  च    –    तथा   ;   प्रथितः   –    विख्यात    ;     पुरुष   उत्तमः    –     परम पुरुष के रूप में

चूँकि मैं क्षर तथा अक्षर दोनों के परे हूँ और चूँकि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ , अतएव में इस जगत् में तथा वेदों में परम पुरुष के रूप में विख्यात हूँ । 

तात्पर्य :-  भगवान् कृष्ण से बढ़कर कोई नहीं है न तो वद्धजीव न मुक्त जीव । अतएव वे पुरुषोत्तम हैं । अब यह स्पष्ट हो चुका है कि जीव तथा भगवान् व्यष्टि हैं । अन्तर इतना है कि जीव चाहे बद्ध अवस्था में रहे या मुक्त अवस्था में , वह शक्ति में भगवान् की अकल्पनीय शक्तियों से बढ़कर नहीं हो सकता ।

यह सोचना गलत है कि भगवान् तथा जीव समान स्तर पर हैं या सब प्रकार से एकसमान हैं । इनके व्यक्तित्वों में सदैव श्रेष्ठता तथा निम्नता बनी रहती है । उत्तम शब्द अत्यन्त सार्थक है । भगवान् से बढ़कर कोई नहीं है । लोके शब्द ” पौरुष आगम ( स्मृति – शास्त्र ) में ” के लिए आया है ।

जैसा कि निरुक्ति कोश में पुष्टि की गई है— लोक्यते वेदार्थोऽनेन- ” वेदों का प्रयोजन स्मृति – शास्त्रों में विवेचित है । ” श्लोक आया भगवान् के अन्तर्यामी परमात्मा स्वरूप का भी वेदों में वर्णन हुआ है । निम्नलिखित वेदों में ( छान्दोग्य उपनिषद् ८.१२.३ ) है- तावदेष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरूपं सम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते स उत्तमः पुरुषः । ” शरीर से निकल कर परम आत्मा का प्रवेश निराकार ब्रह्मज्योति में होता है ।

तब वे अपने इस आध्यात्मिक स्वरूप में बने रहते हैं । यह परम आत्मा ही परम पुरुष कहलाता है । ” इसका अर्थ यह हुआ कि परम पुरुष अपना आध्यात्मिक तेज प्रकट करते तथा प्रसारित करते रहते हैं और यही चरम प्रकाश है । उस परम पुरुष का एक स्वरूप है अन्तर्यामी परमात्मा । भगवान् सत्यवती तथा पराशर के पुत्ररूप में अवतार ग्रहण कर व्यासदेव के रूप में वैदिक ज्ञान की व्याख्या करते हैं ।

यो  मामेवमसम्मूढो  जानाति   पुरुषोत्तमम् । 

स   सर्वविद्भजति   मां   सर्वभावेन   भारत ॥ १९ ॥

यः    –    जो     ;       माम्     –   मुझको    ;     एवम्    –    इस प्रकार   ;     असम्मूढः    – संशयरहित     ;     जानाति    –    जानता है     ;     सः    –    वह    ; सर्व-वित्    –     सब कुछ जानने वाला     ;    भजति    –    भक्ति करता है ; उत्तमम् – भगवान् माम्मुझको    ;     सर्व-भावेन     – सभी प्रकार से    ;    भारत    –    हे भरतपुत्र

जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में जानता है , वह सब कुछ जानने वाला है । अतएव हे भरतपुत्र ! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है । 

तात्पर्य :-  जीव तथा भगवान् की स्वाभाविक स्थिति के विषय में अनेक दार्शनिक ऊहापोह करते हैं । इस श्लोक में भगवान् स्पष्ट बताते हैं कि जो भगवान् कृष्ण को परम पुरुष के रूप में जानता है , वह सारी वस्तुओं का ज्ञाता है । अपूर्ण ज्ञाता परम सत्य के विषय में केवल चिन्तन करता जाता है , जबकि पूर्ण ज्ञाता समय का अपव्यय किये बिना सीधे कृष्णभावनामृत में लग जाता है , अर्थात् भगवान् की भक्ति करने लगता है ।

सम्पूर्ण भगवद्गीता में पग – पग पर इस तथ्य पर बल दिया गया है । फिर भी भगवद्गीता के ऐसे अनेक कट्टर भाष्यकार हैं , जो परमेश्वर तथा जीव को एक ही मानते हैं । वैदिक ज्ञान श्रुति कहलाता है , जिसका अर्थ है श्रवण करके सीखना । वास्तव में वैदिक सूचना कृष्ण तथा उनके प्रतिनिधियों जैसे अधिकारियों से ग्रहण करनी चाहिए ।

यहाँ कृष्ण ने हर वस्तु का अंतर सुन्दर ढंग से बताया है , अतएव इसी स्रोत से सुनना चाहिए । लेकिन केवल सूकरों की तरह सुनना पर्याप्त नहीं है , मनुष्य को चाहिए कि अधिकारियों से समझे । ऐसा नहीं कि केवल शुष्क चिन्तन ही करता रहे । मनुष्य को विनीत भाव से भगवद्गीता से सुनना चाहिए सारे जीव सदैव भगवान् के अधीन हैं ।

जो भी इसे समझ लेता है , वही श्रीकृष्ण के कथनानुसार वेदों के प्रयोजन को समझता है , अन्य कोई नहीं समझता । भजति शब्द अत्यन्त सार्थक है । कई स्थानों पर भजति का सम्बन्ध भगवान् की सेवा के अर्थ में व्यक्त हुआ है । यदि कोई व्यक्ति पूर्ण कृष्णभावनामृत में रत है , अर्थात् भगवान् की भक्ति करता है , तो यह समझना चाहिए कि उसने सारा वैदिक ज्ञान समझ लिया है

वैष्णव परम्परा में यह कहा जाता है कि यदि कोई कृष्ण – भक्ति में लगा रहता है , तो उसे भगवान् को जानने के लिए किसी अन्य आध्यात्मिक विधि की आवश्यकता नहीं रहती । भगवान् की भक्ति करने के कारण वह पहले से लक्ष्य तक पहुँचा रहता है ।

वह ज्ञान की समस्त प्रारम्भिक विधियों को पार कर चुका होता है । लेकिन यदि कोई लाखों जन्मों तक चिन्तन करने पर भी इस लक्ष्य पर नहीं पहुँच पाता कि श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं और उनकी ही शरण ग्रहण करनी चाहिए , तो उसका अनेक जन्मों का चिन्तन व्यर्थ जाता है ।

इति    गुह्यतमं       शास्त्रमिदमुक्तं     मयानघ ।

एतद्बुद्ध्वा    बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च   भारत ॥ २० ॥ 

इति   –   इस प्रकार     ;   गुह्यतमम्   –  सर्वाधिक गुप्त    ;   शास्त्रम्   –  शास्त्र   ; इदम्   –  यह  ;  उक्तम्  –   प्रकट किया गया   ;  मया  –  मेरे द्वारा   ;  अनघ   –  हे पापरहित  ;  एतत्  – यह  ;  बुद्ध्वा  –  समझ कर   ;   बुद्धिमान्   – बुद्धिमान   ; स्यात्   –  हो जाता है   ;   कृत-कृत्यः  –  अपने प्रयत्नों में परम पूर्ण    ;    च  –  तथा    ;  भारत  –  हे भरतपुत्र । 

हे अनघ ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है , जिसे मैंने अब प्रकट किया है । जो कोई इसे समझता है , वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे । 

तात्पर्य :-   भगवान् ने यहाँ स्पष्ट किया है कि यही सारे शास्त्रों का सार है और भगवान् ने इसे जिस रूप में कहा उसे उसी रूप में समझा जाना चाहिए । इस तरह मनुष्य बुद्धिमान तथा दिव्य ज्ञान में पूर्ण हो जाएगा । दूसरे शब्दों में , भगवान् के इस दर्शन को समझने तथा उनकी दिव्य सेवा में प्रवृत्त होने से प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के समस्त कल्मष से मुक्त हो सकता है ।

भक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की एक विधि है । जहाँ भी भक्ति होती है , वहाँ भौतिक कल्मष नहीं रह सकता । भगवद्भक्ति तथा स्वयं भगवान् एक हैं , क्योंकि दोनों आध्यात्मिक हैं । भक्ति परमेश्वर की अन्तरंगा शक्ति के भीतर होती है । भगवान् सूर्य के समान हैं और अज्ञान अंधकार है । जहाँ सूर्य विद्यमान है , वहाँ अंधकार का प्रश्न ही नहीं उठता ।

अतएव जब भी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन के अन्तर्गत भक्ति की जाती है , तो अज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठता । प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि इस कृष्णभावनामृत को ग्रहण करे और बुद्धिमान तथा शुद्ध बनने के लिए भक्ति करे । जब तक कोई कृष्ण को इस प्रकार नहीं समझता और भक्ति में प्रवृत्त नहीं होता , तब तक सामान्य मनुष्य की दृष्टि में कोई कितना बुद्धिमान क्यों न हो , वह पूर्णतया बुद्धिमान नहीं है ।

जिस अनघ शब्द से अर्जुन को सम्बोधित किया गया है , वह सार्थक है । अनघ अर्थात् “ हे निष्पाप ” का अर्थ है कि जब तक मनुष्य समस्त पापकर्मों से मुक्त नहीं हो जाता , तब तक कृष्ण को समझ पाना कठिन है । उसे समस्त कल्मष , समस्त पापकर्मों से मुक्त होना होता है , तभी वह समझ सकता है । लेकिन भक्ति इतनी शुद्ध तथा शक्तिमान् होती है कि एक बार भक्ति में प्रवृत्त होने पर मनुष्य स्वतः निष्पाप हो जाता है ।

शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति करते हुए कुछ बातों को बिल्कुल ही दूर कर देना चाहिए । सबसे महत्त्वपूर्ण बात जिस पर विजय पानी है , वह है हृदय की दुर्बलता । पहला पतन प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के कारण होता है । इस तरह मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को त्याग देता है ।

दूसरी हृदय की दुर्बलता है कि जब कोई अधिकाधिक प्रभुत्व जताने की इच्छा करता है , तो वह भौतिक पदार्थ के स्वामित्व के प्रति आसक्त हो जाता है । इस संसार की सारी समस्याएँ इन्हीं हृदय की दुर्बलताओं के कारण हैं । इस अध्याय के प्रथम पाँच श्लोकों में हृदय की इन्हीं दुर्बलताओं से अपने को मुक्त करने की विधि का वर्णन हुआ है और छठे श्लोक से अन्तिम श्लोक तक पुरुषोत्तम योग की विवेचना हुई है । 

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय ” पुरुषोत्तम योग ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।

भगवद गीता अध्याय 15.4~क्षर,अक्षर,पुरुषोत्तम का विश्लेषण / Powerful Bhagavad Gita ksher, aksher Ch15.4
भगवद गीता अध्याय 15.4

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