अध्याय पन्द्रह (Chapter -15)
भगवद गीता अध्याय 15.3 में शलोक 12 से शलोक 15 प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन !
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यचन्द्रमसि यचाग्नी तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२ ॥
यत् – जो ; आदित्य-गतम् – सूर्यप्रकाश में स्थित ; तेज: – तेज ; जगत् – सारा मसार ; भासवते – प्रकाशित होता है ; अखिलम् – सम्पूर्ण ; यत् – जो ; चन्द्रमसि – चन्द्रमा मे ; यत् – जो ; च – भी ; तत् – वह ; तेज: – तेज ; विद्धि – जानो ; मामकम् – मुझसे ।
सूर्य का तेज , जो सारे विश्व के अंधकार को दूर करता है , मुझसे ही निकलता है । चन्द्रमा तथा अग्नि के तेज भी मुझसे उत्पन्न है ।
तात्पर्य :- अज्ञानी मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह सब कुछ कैसे घटित होता है । लेकिन भगवान् ने यहाँ पर जो कुछ बतलाया है , उसे समझ कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । प्रत्येक व्यक्ति सूर्य , चन्द्रमा , अग्नि तथा बिजली देखता है । उसे यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि चाहे सूर्य का तेज या चन्द्रमा , अग्नि अथवा बिजली का तेज , ये सब भगवान् से ही उद्भूत हैं ।
कृष्णभावनामृत का प्रारम्भ इस भौतिक जगत् में वज्रजीव को उन्नति करने के लिए काफी अवसर प्रदान करता है । जीव मूलतः परमेश्वर के अंश हैं और भगवान् यहाँ पर इंगित कर रहे हैं कि जीव किस प्रकार भगवद्धाम को प्राप्त कर सकते हैं । इस श्लोक से हम यह समझ सकते हैं कि सूर्य सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित कर रहा है ।
ब्रह्माण्ड अनेक हैं और सोर मण्डल भी अनेक हैं । सूर्य , चन्द्रमा तथा लोक भी अनेक हैं , लेकिन प्रत्येक ब्रह्माण्ड में केवल एक सूर्य है । भगवद्गीता में ( १०.२१ ) कहा गया है कि चन्द्रमा भी एक नक्षत्र है ( नक्षत्राणामहं शशी ) । सूर्य का प्रकाश परमेश्वर के आध्यात्मिक आकाश में आध्यात्मिक तेज के कारण है । सूर्योदय के साथ ही मनुष्य के कार्यकलाप प्रारम्भ हो जाते हैं ।
वे भोजन पकाने के लिए अग्नि जलाते हैं और फैक्टरियाँ चलाने के लिए भी अग्नि जलाते हैं । अग्नि की सहायता से अनेक कार्य किये जाते हैं । अतएव सूर्योदय , अग्नि तथा चन्द्रमा की चाँदनी जीवों को अत्यन्त मुहावने लगते हैं । उनकी सहायता के बिना कोई जीव नहीं रह सकता । अतएव यदि मनुष्य यह जान ले कि सूर्य , चन्द्रमा तथा अग्नि का प्रकाश तथा तेज भगवान् श्रीकृष्ण से उद्भूत हो रहा है , तो उसमें कृष्णभावनामृत का सूत्रपात हो जाता है ।
चन्द्रमा के प्रकाश से सारी वनस्पतियाँ पोषित होती हैं । चन्द्रमा का प्रकाश इतना आनन्दप्रद है कि लोग सरलता से समझ सकते हैं कि वे भगवान् कृष्ण की कृपा से ही जी रहे हैं । उनकी कृपा के बिना न तो सूर्य होगा , न चन्द्रमा , न अग्नि और सूर्य , चन्द्रमा तथा अग्नि के बिना हमारा जीवित रहना असम्भव है । बद्धजीव में कृष्णभावनामृत जगाने वाले ये ही कतिपय विचार हैं ।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १३ ॥
गाम – लोक में ; आविश्व – प्रवेश करके ; च – भी ; भूतानि – जीवों को ; धारयामि – धारण करता हूँ ; अहम् – मै ; ओजसा – अपनी शक्ति से ; पुष्णामि – पोषण करता हूँ ; च – तथा ; औषधी: – वनस्पतियाँ का ; सर्वाः – समस्त ; सोमः – चन्द्रमा ; भूत्वा – बनकर ; रस-आत्मकः – रस प्रदान करने वाला ।
मै प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं । मै चन्द्रमा बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन – रस प्रदान करता हूँ ।
तात्पर्य :- ऐसा ज्ञात है कि सारे लोक केवल भगवान् की शक्ति से वायु में तैर रहे हैं । भगवान् प्रत्येक अणु , प्रत्येक लोक तथा प्रत्येक जीव में प्रवेश करते हैं । इसकी विवेचना ब्रह्मसहिता में की गई है । उसमें कहा गया है – परमेश्वर का एक अंश , परमात्मा , लोकों में , ब्रह्माण्ड में , जीव में तथा अणु तक में प्रवेश करता है । अतएव उनके प्रवेश करने से प्रत्येक वस्तु ठीक से दिखती है ।
जब आत्मा होता है तो जीवित मनुष्य पानी में तैर सकता है । लेकिन जब जीवित स्फुलिंग इस देह से निकल जाता है और शरीर मृत हो जाता है तो शरीर डूब जाता है । निस्सन्देह सड़ने के बाद यह शरीर तिनके तथा अन्य वस्तुओं के समान तैरता है । लेकिन मरने के तुरन्त बाद शरीर पानी में डूब जाता है । इसी प्रकार ये सारे लोक शून्य में तैर रहे हैं और यह सब उनमें भगवान् की परम शक्ति के प्रवेश के कारण है ।
उनकी शक्ति प्रत्येक लोक को उसी तरह थामे रहती है , जिस प्रकार धूल को मुट्ठी मुट्ठी में वन्द रहने पर धूल के गिरने का भय नहीं रहता , लेकिन ज्योंही धूल को वायु में फेंक दिया जाता है , वह नीचे गिर पड़ती है । इसी प्रकार ये सारे लोक , जो वायु में तैर रहे हैं , वास्तव में भगवान् के विराट रूप की मुट्ठी में बँचे हैं ।
उनके बल तथा शक्ति से सारी चर तथा अचर वस्तुएँ अपने – अपने स्थानों पर टिकी हैं । वैदिक मन्त्रों में कहा गया है कि भगवान् के कारण सूर्य चमकता है और सारे लोक लगातार घूमते रहते हैं । यदि ऐसा उनके कारण न हो तो सारे लोक वायु में धूल के समान बिखर कर नष्ट हो जाएँ । इसी प्रकार से भगवान् के ही कारण चन्द्रमा समस्त वनस्पतियों का पोषण करता है ।
चन्द्रमा के प्रभाव से सब्जियाँ सुस्वादु बनती हैं । चन्द्रमा के प्रकाश के बिना सब्जियाँ न तो बढ़ सकती हैं और न स्वादिष्ट हो सकती हैं । वास्तव में मानवसमाज भगवान् की कृपा से काम करता है , सुख से रहता है और भोजन का आनन्द लेता है । अन्यथा मनुष्य जीवित न रहता । रसात्मकः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्रत्येक वस्तु चन्द्रमा के प्रभाव से परमेश्वर के द्वारा स्वादिष्ट बनती है ।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥
वैश्वानरः – पाचक-अग्नि के रूप में मेरा पूर्ण अंश ; भूत्वा – वन कर ; प्राणिनाम् – समस्त जीवों के ; देहम – शरीरों में ; आश्रित: – स्थित ; प्राण – उच्छ्वास , निश्वास ; अपान – श्वास ; समायुक्त: – सन्तुलित रखते हुए ; पचामि – पचाता हूं ; अन्नम् – अन्न को ; चतुः-विधम् – चार प्रकार के ।
मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन – अग्नि ( वैश्वानर ) हूँ और में श्वास – प्रश्वास ( प्राण वायु ) में रह कर चार प्रकार के अत्रों को पचाता हूँ ।
तात्पर्य :- आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार आमाशय ( पेट ) में अग्नि होती है , जो वहाँ पहुँचे भोजन को पचाती है । जब यह अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं रहती तो भूख नहीं जगती और जब यह अग्नि ठीक रहती है , तो भूख लगती है । कभी – कभी जब अग्नि मन्द हो जाती है तो उपचार की आवश्यकता होती है । जो भी हो , यह अग्नि भगवान् का प्रतिनिधि स्वरूप है ।
वैदिक मन्त्रों से भी ( बृहदारण्यक उपनिषद् ५.९ .१ ) पुष्टि होती है कि परमेश्वर या ब्रह्म अग्निरूप में आमाशय के भीतर स्थित हैं और समस्त प्रकार के अन्न को पचाते हैं ( अयमग्निवैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते ) । चूँकि भगवान् सभी प्रकार के अन्नों के पाचन में सहायक होते हैं , अतएव जीव भोजन करने के मामले में स्वतन्त्र नहीं है । जब तक परमेश्वर पाचन में उसकी सहायता नहीं करते , तब तक खाने की कोई सम्भावना नहीं है ।
इस प्रकार भगवान ही अन्न को उत्पन्न करते और वे ही पचाते हैं और उनकी ही कृपा से हम जीवन का आनन्द उठाते हैं । वेदान्तसूत्र में ( १.२.२७ ) भी इसकी पुष्टि हुई है । शब्दादिभ्योऽन्तः प्रतिष्ठानाच्च भगवान् शब्द के भीतर , शरीर के भीतर , वायु के भीतर तथा यहाँ तक कि पाचन शक्ति के रूप में आमाशय में भी उपस्थित है ।
अन्न चार प्रकार का होता है कुछ निगले जाते हैं ( पेय ) , कुछ चवाये जाते हैं ( भोज्य ) , कुछ चाटे जाते हैं ( लेह्य ) तथा कुछ चूसे जाते हैं ( चोष्य ) । भगवान् सभी प्रकार के अन्नों की पाचक शक्ति हैं ।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ १५ ॥
सर्वस्य – समस्त प्राणियों ; च – तथा ; अहम् – मैं ; हृदि – हृदय में ; सन्निविष्ट: – स्थित ; मत्तः – मुझ से ; स्मृतिः – स्मरणशक्ति ; ज्ञानम् – ज्ञान ; अपोहनम् – विस्मृति ; च – तथा ; वेद: – वेदों के द्वारा ; च – भी ; सर्वः – समस्त ; अहम् – मैं हूँ ; एव – निश्चय ही ; वेद्य: – जानने योग्य , ज्ञेय ; वेदान्त-कृत् – वेदान्त के संकलनकर्ता ; वेदवित् – वेदों के ज्ञाता ; एव – निश्चय ही ; च – तथा ; अहम् – मैं ।
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति , ज्ञान तथा विस्मृति होती है । मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ । निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ ।
तात्पर्य :- परमेश्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं । जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है , लेकिन उसे परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है , जो उसके सारे कर्मों का साक्षी है । अतएव वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है । इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है ।
लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है । इस प्रकार भगवान् न केवल सर्वव्यापी हैं , अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं । वे विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं । वे न केवल निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं , अपितु वे वेदों के अवतार के रूप में भी पूजनीय हैं । वेद लोगों को सही दिशा बताते हैं , जिससे वे समुचित ढंग से अपना
जीवन डाल सकें और भगवान् के धाम को वापस जा सकें । वेद भगवान् कृष्ण विषयक ज्ञान प्रदान करते हैं और अपने अवतार व्यासदेव के रूप में कृष्ण ही वेदान्तसूत्र के संकलनकर्ता है । व्यासदेव द्वारा श्रीमद्भागवत के रूप में किया गया वेदान्तसूत्र का भाष्य वेदान्तसूत्र की वास्तविक सूचना प्रदान करता है ।
भगवान् इतने पूर्ण हैं कि वद्धजीवों के उदार हेतु वे उसके अन्न के प्रदाता एवं पाचक हैं , उसके कार्यकलापों के साक्षी हैं तथा वेदों के रूप में ज्ञान के प्रदाता हैं । वे भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में भगवद्गीता के शिक्षक हैं । वे दद्धजीव द्वारा पूज्य हैं । इस प्रकार ईश्वर सर्वकल्याणप्रद तथा सर्वदयामय हैं । अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम् । जीव ज्योंही अपने इस शरीर को छोड़ता भूल जाता है , लेकिन परमेश्वर द्वारा प्रेरित होने पर वह फिर से काम करने लगता है ।
इसे यद्यपि जीव भूल जाता है , लेकिन भगवान् उसे बुद्धि प्रदान करते हैं , जिससे वह अपने पूर्वजन्म के अपूर्ण कार्य को फिर से करने लगता है । अतएव जीव अपने हृदय में स्थित परमेश्वर के आदेशानुसार इस जगत् में सुख या दुख का केवल भोग ही नहीं करता है , अपितु उनसे वेद समझने का अवसर भी प्राप्त करता है । यदि कोई ठीक से वैदिक ज्ञान पाना चाहे तो कृष्ण उसे आवश्यक बुद्धि प्रदान करते हैं ।
वे किसलिए वैदिक ज्ञान प्रस्तुत करते हैं ? इसलिए कि जीव को कृष्ण को समझने की आवश्यकता है । इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है – योऽसौ सर्वेर्वेदैर्गीयते । चारों वेदों , वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों एवं पुराणों समेत सारे वैदिक साहित्य में परमेश्वर की कीर्ति का गान है । उन्हें वैदिक अनुष्ठानों द्वारा , वैदिक दर्शन की व्याख्या द्वारा तथा भगवान् की भक्तिमय पूजा द्वारा प्राप्त किया जाता है । अतएव वेदों का उद्देश्य कृष्ण को समझना है ।
वेद हमें निर्देश देते हैं , जिससे कृष्ण को जाना जा सकता है और उनकी अनुभूति की जा सकती है । भगवान् ही चरम लक्ष्य हैं । वेदान्तसूत्र ( १.१.४ ) में इसकी पुष्टि इन शब्दों में हुई है – तत्तु समन्वयात् । मनुष्य तीन अवस्थाओं में सिद्धि प्राप्त करता है ।
अतएव वैदिक साहित्य के ज्ञान से भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझा जा सकता है , विभिन्न विधियों को सम्पन्न करके उन तक पहुँचा जा सकता है और अन्त में उस परम लक्ष्य श्रीभगवान् की प्राप्ति की जा सकती है । इस श्लोक में वेदों के प्रयोजन , वेदों के ज्ञान तथा वेदों के लक्ष्य को स्पष्टतः परिभाषित किया गया है ।
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