अध्याय पन्द्रह (Chapter -15)
भगवद गीता अध्याय 15.2 में शलोक 07 से शलोक 11 इश्वरांशजीव ,जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता का वर्णन !
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥
मम – मेरा ; एव – निश्चय ही ; अंश: – सूक्ष्म कण ; जीव-लोके – बद्ध जीवन के संसार में ; जीव-भूतः – वद्धजीव ; सनातनः – शाश्वत ; मनः – मन ; षष्ठानि – छह ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों समेत ; प्रकृति – भौतिक प्रकृति में ; स्थानि – स्थित ; कर्षति – संघर्ष करता है ।
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं । बद्र जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं , जिनमें मन भी सम्मिलित है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्वर का सनातन रूप से मुक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि ब जीवन में यह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्वर से एकाकार हो जाता है । वह मनातन का अंश रूप है ।
यहाँ परस्पष्टतःसनातन कहा गया है । वेदवचन के अनुसार परमेश्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं , जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार विष्णुता कहलाते हैं और गोग विस्तार जीव कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में , विष्णु तत्त्व निजी विस्तार ( स्वांश ) है और जीव विभिन्नांश ( पृथकीकृत अंश ) हैं । अपने म्यांश द्वारा ये भगवान् रामदेव तथा वैकुण्ठलोक के प्रधान देशों के रूप में प्रकट होते हैं । जीव , सनातन सेवक होते हैं ।
भगवान् के स्वांश सदेव विद्यमान रहते है । इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशों के अपने स्वरूप होते हैं । परमेश्वर के विभिप्रांश होने के कारण जीवों में भी उनके आशिक गुण पाये जाते हैं , जिनमें से स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है । इसी स्वातंत्र्य के दुरुपयोग से जीव बज्र बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है ।
दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान के समान ही सनातन होता है । मुक्त अवस्था में इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान् की दिव्य सेवा में निरत रहता है । यद जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है । फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है ।
न केवल मनुष्य तथा कुत्ते – दिल्ली जैसे जीव , अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े – बड़े नियन्ता – पथा ब्रह्मा – शिव तथा विष्णु तक , परमेश्वर के अंश हैं । ये सभी सनातनः अभिव्यक्तियों है , क्षणिक नहीं । कर्षति ( संघर्ष करना ) शब्द अत्यन्त सार्थक है । वद्धजीव मानो लोह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है ।
जब मन सतोगुण में रहता है . तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है , तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है , तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है । लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि वद्धजीव मन तथा इन्द्रियों भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह मौलिक आवरण नष्ट हो जाता है ।
लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट है । माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है – स वा एष ब्रह्मनिष्ठ हृदं शरीर ममतसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मर्णवेदं सर्वमनुभवति । यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है ओर आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है , तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है यह भगवान का साक्षात्कार कर सकता है ।
यह उनसे आमने – सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् है , उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है – वसन्ति पत्र पुरुषाः सर्व वैकुण्ठ – मूर्तयः वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है , अंश रूप जीवों तथा विष्णुमूर्ति के विस्तारों ( अंशों ) में कोई अन्तर नहीं होता ।
दूसरे शब्दों में , भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है । ममेवांशः शब्द भी अत्यन्त सार्थक है , जिसका अर्थ है भगवान् के अंश । भगवान् का अंश ऐसा नहीं होता , जैसे किसी पदार्थ का टूटा खंड ( अंश ) । हम द्वितीय अध्याय में देख चुके हैं कि आत्मा के खंड नहीं किये जा सकते ।
इस खंड की भौतिक दृष्टि से अनुभूति नहीं हो पाती । यह पदार्थ की भाँति नहीं है , जिसे चाहो तो कितने ही खण्ड कर दो और उन्हें पुनः जोड़ दी । ऐसी विचारधारा यहाँ पर लागू नहीं होती , क्योंकि संस्कृत के सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है । विभिन्नांश सनातन है । द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में भगवान् का अंश विद्यमान हे ( देहिनोऽस्मिन्यथा देहे ) ।
वह अंश जब शारीरिक बन्धन से मुक्त हो जाता है , तो आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक में अपना आदि आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर लेता है , जिससे वह भगवान् की संगति का लाभ उठाता है । किन्तु ऐसा समझा जाता है कि जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है , जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण होते हैं ।
शरीरं यदवाप्नोति यञ्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ ८ ॥
शरीरम् – शरीर को ; यत् – जिस ; अवाप्नोति – प्राप्त करता है ; यत् – जिस ; च – तथा ; अपि – भी ; उत्क्रामति – त्यागता है ; ईश्वर: – शरीर का स्वामी ; गृहीत्वा – ग्रहण करके ; एतानि – इन सबको ; संयाति – चला जाता है ; वायुः – वायु ; गन्धान् – महक को ; इव – सदृश ; आशयात् – स्रोत से ।
इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है , जिस तरह वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है ।
तात्पर्य :- यहाँ पर जीव को ईश्वर अर्थात् अपने शरीर का नियामक कहा गया है । यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है और चाहे तो निम्नयोनि में जा सकता है । इस विषय में उसे थोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है ।
शरीर में जो परिवर्तन होता है , वह उस पर निर्भर करता है । मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है , वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है । यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है , तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है । यदि वह अपनी चेतना दैवी गुणों में स्थित करता है , तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है ।
और यदि वह कृष्णभावनामृत में होता है , तो वह आध्यात्मिक जगत में कृष्णलोक को जाता है , जहाँ उसका सान्निध्य कृष्ण से होता है । यह दावा मिथ्या है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है । आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता है , और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं ।
कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर यह शरीर त्यागना होता है । यहाँ यह कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर , जो अगले शरीर का वीज वहन करता है , अगले जीवन में दूसरा शरीर निर्माण करता है । एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण की प्रक्रिया तथा शरीर में रहते हुए संघर्ष करने को कर्षति अर्थात् जीवन संघर्ष कहते हैं ।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ ९ ॥
श्रोत्रम् – कान ; चक्षुः – आँखें ; स्पर्शनम् – स्पर्श ; च – भी ; रसनम् – जीभ ; एव – भी ; अधिष्ठाय – स्थित होकर ; च – तथा ; मनः – मन ; अयम् – यह ; विषयान् – इन्द्रियविषयों को ; उपसेवते – भोग करता है ।
इस प्रकार दूसरा स्थूल शरीर धारण करके जीव विशेष प्रकार का कान , आँख , जीभ , नाक तथा स्पर्श इन्द्रिय ( त्वचा ) प्राप्त करता है , जो मन के चारों ओर संपुंजित हैं । इस प्रकार वह इन्द्रियविषयों के एक विशिष्ट समुच्चय का भोग करता है ।
तात्पर्य :- दूसरे शब्दों में , यदि जीव अपनी चेतना को कुत्तों तथा बिल्लियों के गुणों जैसा बना देता है , तो उसे अगले जन्म में कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है , जिसका वह भोग करता है । चेतना मूलतः जल के समान विमल होती है , लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते हैं , तो उसका रंग बदल जाता है । इसी प्रकार से चेतना भी शुद्ध है , क्योंकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगति के अनुसार चेतना वदलती जाती है ।
वास्तविक चेतना तो कृष्णभावनामृत है , अतः जब कोई कृष्णभावनामृत में स्थित होता है , तो वह शुद्धतर जीवन विताता है । लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृत्ति से मिश्रित हो जाती है , तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है । यह आवश्यक नहीं है कि उसे पुनः मनुष्य शरीर प्राप्त हो वह कुत्ता , बिल्ली , सुकर , देवता या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी रूप प्राप्त कर सकता है ।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १० ॥
उत्क्रामन्तम् – शरीर त्यागते हुए ; स्थितम् – शरीर में रहते हुए ; वा अपि – अथवा ; भुञ्जानम् – भोग करते हुए ; वा – अथवा ; गुण-अन्वितम् – प्रकृति के गुणों के अधीन ; विमूढाः – मूर्ख व्यक्ति ; न – कभी नहीं ; अनुपश्यन्ति – देख सकते हैं ; पश्यन्ति – देख सकते हैं ; ज्ञान-चक्षुषः – ज्ञान रूपी आँखों वाले ।
मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है , न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है । लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान में प्रशिक्षित होती हैं , वह यह सब देख सकता है ।
तात्पर्य :- ज्ञान – चक्षुषः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । विना ज्ञान के कोई न तो यह समझ सकता है कि जीव इस शरीर को किस प्रकार त्यागता है , न ही यह कि वह अगले जीवन में कैसा शरीर धारण करने जा रहा है , अथवा यह कि वह विशेष प्रकार के शरीर में क्यों रह रहा है । इसके लिए पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता होती है , जिसे प्रामाणिक गुरु से भगवद्गीता तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों को सुन कर समझा जा सकता है ।
जो इन बातों को समझने के लिए प्रशिक्षित है , वह भाग्यशाली है । प्रत्येक जीव किन्हीं परिस्थितियों में शरीर त्यागता है , जीवित रहता है और प्रकृति के अधीन होकर भोग करता है । फलस्वरूप वह इन्द्रियभोग के भ्रम में नाना प्रकार के सुख दुख सहता रहता है । ऐसे व्यक्ति जो काम तथा इच्छा के कारण निरन्तर मूर्ख बनते रहते हैं , अपने शरीर – परिवर्तन तथा विशेष शरीर में अपने वास को समझने की सारी शक्ति खो बैठते हैं । वे इसे नहीं समझ सकते ।
किन्तु जिन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हो चुका है , वे देखते हैं कि आत्मा शरीर से भिन्न है और यह अपना शरीर बदल कर विभिन्न प्रकार से भोगता रहता है । ऐसे ज्ञान से युक्त व्यक्ति समझ सकता है कि इस संसार में वद्धजीव किस प्रकार कष्ट भोग रहे हैं । अतएव जो लोग कृष्णभावनामृत में अत्यधिक आगे बढ़े हुए हैं , वे इस ज्ञान को सामान्य लोगों तक पहुँचाने में प्रयत्नशील रहते हैं , क्योंकि उनका बद्ध जीवन अत्यन्त कष्टप्रद रहता है ।
उन्हें इसमें से निकल कर कृष्णभावनाभावित होकर आध्यात्मिक लोक में जाने के लिए अपने को मुक्त करना चाहिए ।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ ११ ॥
यतन्तः – प्रयास करते हुए ; योगिनः – अध्यात्मवादी , योगी ; च – भी ; एनम् – इसे ; पश्यन्ति – देख सकते हैं ; आत्मनि – अपने में ; अवस्थितम् – स्थित ; यतन्तः – प्रयास करते हुए ; अपि – यद्यपि ; पश्यन्ति – देखते ; अकृत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार से विहीन ; न – नहीं ; एनम् – इसे ; अचेतसः – अविकसित मनों वाले , अज्ञानी ।
आत्म – साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह सब स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म – साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं , वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है ।
तात्पर्य :- अनेक योगी आत्म – साक्षात्कार के पथ पर होते हैं , लेकिन जो आत्म साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है , वह यह नहीं देख पाता कि जीव के शरीर में कैसे – कैसे परिवर्तन हो रहे हैं । इस प्रसंग में योगिनः शब्द महत्त्वपूर्ण है । आजकल ऐसे अनेक तथाकथित योगी हैं और योगियों के तथाकथित संगठन हैं , लेकिन आत्म – साक्षात्कार के मामले में वे शून्य हैं ।
वे केवल कुछ आसनों में व्यस्त रहते हैं और यदि उनका शरीर सुगठित तथा स्वस्थ हो गया , तो वे सन्तुष्ट हो जाते हैं । उन्हें इसके अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं रहती । वे यतन्तोऽप्यकृतात्मानः कहलाते हैं । यद्यपि वे तथाकथित योगपद्धति का प्रयास करते हैं , लेकिन वे स्वरूपसिद्ध नहीं हो पाते ।
अतएव ऐसे व्यक्ति आत्मा के देहान्तरण को नहीं समझ सकते । केवल वे ही ये सभी बातें समझ पाते हैं , जो सचमुच योग पद्धति में रमते हैं और जिन्हें आत्मा , जगत् तथा परमेश्वर की अनुभूति हो चुकी है । दूसरे शब्दों में , जो भक्तियोगी हैं वे ही समझ सकते हैं कि किस प्रकार से सब कुछ घटित होता है ।
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