अध्याय पन्द्रह (Chapter -15)
भगवद गीता अध्याय 15.1 में शलोक 01 से शलोक 06 संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन !
पुरुषोत्तम योग
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १ ॥
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा ; ऊर्ध्व-मूलम् – ऊपर की ओर जड़ें ; अध: – नीचे की और ; शाखम् – शाखाएँ ; अश्वत्थम् – अश्वत्थ वृक्ष को प्राहुः कहा गया है ; अव्ययम् – शाश्वत ; छन्दांसि – वैदिक स्तोत्र ; यस्य – जिसके ; पर्णानि – पत्ते ; यः – जो कोई ; तम् – उसको ; वेद – जानता है ; सः – वह ; वेदवित् – वेदों का ज्ञाता ।
भगवान् ने कहा कहा जाता है कि एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष है , जिसकी जड़ें तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं । जो इस वृक्ष को जानता है , वह वेदों का ज्ञाता है ।
तात्पर्य :- भक्तियोग की महत्ता की विवेचना के बाद यह पूछा जा सकता है , ” वेदों का क्या प्रयोजन है ? ” इस अध्याय में बताया गया है कि वैदिक अध्ययन का प्रयोजन कृष्ण को समझना है । अतएव जो कृष्णभावनाभावित है , जो भक्ति में रत है , वह वेदों को पहले से जानता है । इस भौतिक जगत् के बन्धन की तुलना अधत्य के वृक्ष से की गई है । जो व्यक्ति सकाम कमों में लगा है , उसके लिए इस वृक्ष का कोई अन्त नहीं है ।
वह एक शाखा से दूसरी में और दूसरी से तीसरी में घूमता रहता है । इस जगत् रूपी वृक्ष का कोई अन्त नहीं है और जो इस वृक्ष में आसक्त है , उसकी मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं है । वैदिक स्तोत्र , जो आत्मोन्नति के लिए हैं , वे ही इस वृक्ष के पत्ते हैं । इस वृक्ष की जड़े ऊपर की ओर बढ़ती है , क्योंकि वे इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्चलोक से प्रारम्भ होती हैं , जहाँ पर ब्रह्मा स्थित है ।
यदि कोई इस मोह रूपी अविनाशी वृक्ष को समझ लेता है , तो वह इससे बाहर निकल सकता है । बाहर निकलने की इस विधि को जानना आवश्यक है । पिछले अध्यायों में बताया जा चुका है कि भवबन्धन से निकलने की कई विधियाँ हैं । हम तेरहवें अध्याय तक यह देख चुके हैं कि भगवद्भक्ति ही सर्वोत्कृष्ट विधि है । भक्ति का मूल सिद्धान्त है – भौतिक कार्यों से विरक्ति तथा भगवान् की दिव्य सेवा में अनुरक्ति इस अध्याय के प्रारम्भ में संसार से आसक्ति तोड़ने की विधि का वर्णन हुआ है ।
इस संसार की जड़ें ऊपर को बढ़ती है । इसका अर्थ है कि ब्रह्माण्ड के सर्वोच्चलोक से पूर्ण भौतिक पदार्थ से यह प्रक्रिया शुरू होती है । वहीं से सारे ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है , जिसमें अनेक लोक उसकी शाखाओं के रूप में होते हैं । इसके फल जीवों के कर्मों के फल के , अर्थात् धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष के , घोतक हैं । यद्यपि इस संसार में ऐसे वृक्ष का , जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर हों तथा जड़ें ऊपर की ओर हो , कोई अनुभव नहीं है , किन्तु वात कुछ ऐसी ही है ।
ऐसा वृक्ष जलाशय के निकट पाया जा सकता है । हम देख सकते हैं – जलाशय के तट पर उगे वृक्ष का प्रतिविम्व जल में पड़ता है , तो उसकी जड़ें ऊपर तथा शाखाएँ नीचे की ओर दिखती हैं । दूसरे शब्दों में , यह जगत् रूपी वृक्ष आध्यात्मिक जगत् रूपी वास्तविक वृक्ष का प्रतिविम्व मात्र है । इस आध्यात्मिक जगत् का प्रतिविम्ब हमारी इच्छाओं में स्थित है , जिस प्रकार वृक्ष का प्रतिविम्य जल में रहता है ।
इच्छा ही इस प्रतिविम्वित भौतिक प्रकाश में वस्तुओं के स्थित होने का कारण है । जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से बाहर निकलना चाहता है , उसे अध्ययन के माध्यम से इस वृक्ष को भलीभाँति जान लेना चाहिए । फिर यह इस वृक्ष से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है । वास्तविक वृक्ष का प्रतिविम्व होने के कारण वास्तविक प्रतिरूप है ।
आध्यात्मिक जगत् में सब कुछ है । ब्रह्म को निर्विशेषवादी इस भौतिक वृक्ष का मूल मानते हैं और सांख्य दर्शन के अनुसार इसी मूल से पहले प्रकृति , पुरुष और तब तीन गुण निकलते है और फिर पाँच स्थूल तत्त्व ( पंच महाभूत ) , फिर दस इन्द्रियाँ ( दशेन्द्रिय ) , मन आदि । इस प्रकार से सारे संसार को चोवीस तत्वों में विभाजित करते हैं ।
यदि ब्रह्म समस्त अभिव्यक्तियों का केन्द्र है , तो एक प्रकार से यह भौतिक जगत् १८० अंश ( गोलार्द्ध ) में है और दूसरे १८० अंश ( गोलार्ड ) में आध्यात्मिक जगत् है । चूंकि यह भौतिक जगत् उल्टा प्रतिविम्व है , अतः आध्यात्मिक जगत् में भी इसी प्रकार की विविधता होनी चाहिये । प्रकृति परमेश्वर की वहिरंगा शक्ति है और पुरुष साक्षात् परमेश्वर है । इसकी व्याख्या भगवद्गीता में हो चुकी है ।
चूंकि यह अभिव्यक्ति भौतिक है , अतः क्षणिक है । प्रतिविम्ब भी क्षणिक होता है , क्योंकि कभी वह दिखता है और कभी नहीं दिखता । परन्तु वह स्रोत जहाँ से यह प्रतिविम्व प्रतिविम्बित होता है , शाश्वत है । वास्तविक वृक्ष के भौतिक प्रतिविम्ब का विच्छेदन करना होता है । जब कोई कहता है कि अमुक व्यक्ति वेद जानता है , तो इससे समझा जाता है कि वह इस जगत् की आसक्ति से विच्छेद करना जानता है ।
यदि वह इस विधि को जानता है , तो समझिये कि वह वास्तव में वेदों को जानता है । जो व्यक्ति वेदों के कर्मकाण्ड द्वारा आकृष्ट होता है , वह इस वृक्ष की सुन्दर हरी पत्तियों से आकृष्ट होता है । वह वेदों के वास्तविक उद्देश्य को नहीं जानता । वेदों का उद्देश्य भगवान् ने स्वयं प्रकट किया है और वह है इस प्रतिविम्बित वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक जगत् के वास्तविक वृक्ष को प्राप्त करना ।
अधचोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २ ॥
अधः – नीचे ; च – तथा ; ऊर्ध्वम् – ऊपर की ओर ; प्रसृताः – फैली हुई ; तस्य – उसकी ; शाखा: – शाखाएँ ; गुण – प्रकृति के गुणों द्वारा ; प्रवृद्धाः – विकसित ; विषय – इन्द्रियविषय ; प्रवाला: – टहनियाँ ; अघ: – नीचे की ओर ; च – तथा ; मूलानि – जड़ों को ; अनुसन्ततानि – विस्तृत ; कर्म – कर्म करने के लिए ; अनुबन्धीनि – वैधा ; मनुष्य-लोके – मानव समाज के जगत् में ।
इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं । इसकी टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं । इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी जाती हैं , जो मानवसमाज के सकाम कर्मों से बँधी हुई हैं ।
तात्पर्य :- अश्वत्थ वृक्ष की यहाँ और भी व्याख्या की गई है । इसकी शाखाएँ चतुर्दिक फैली हुई हैं । निचले भाग में जीवों की विभिन्न योनियाँ हैं , यथा मनुष्य , पशु , घोड़े , गाय , कुत्ते , विल्लियाँ आदि । ये सभी वृक्ष की शाखाओं के निचले भाग में स्थित हैं । लेकिन ऊपरी भाग में जीवों की उच्चयोनियाँ हैं – यथा देव , गन्धर्व तथा अन्य बहुत सी उच्चतर यौनियाँ ।
जिस प्रकार सामान्य वृक्ष का पोषण जल से होता है , उसी प्रकार यह वृक्ष प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित है । कभी – कभी हम देखते हैं कि जलाभाव से कोई कोई भूखण्ड वीरान हो जाता है , तो कोई खण्ड लहलहाता है , इसी प्रकार जहाँ प्रकृति के किन्ही विशेष गुणों का आनुपातिक आधिक्य होता है , वहाँ उसी के अनुरूप जीवों की योनियाँ प्रकट होती हैं ।
वृक्ष की टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं । विभिन्न गुणों के विकास से हम विभिन्न प्रकार की इन्द्रियों का विकास करते हैं और इन इन्द्रियों के द्वारा हम विभिन्न इन्द्रियविषयों का भोग करते हैं । शाखाओं के सिरे इन्द्रियाँ हैं – यथा कान , नाक , आँख आदि , जो विभिन्न इन्द्रियविषयों के भोग में आसक्त हैं । टहनियाँ शब्द , रूप , स्पर्श आदि इन्द्रिय विषय हैं ।
सहायक जड़ें राग तथा द्वेष हैं , जो विभिन्न प्रकार के कष्ट तथा इन्द्रियभोग के विभिन्न रूप हैं । धर्म – अधर्म की प्रवृत्तियाँ इन्हीं गौण जड़ों से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं , जो चारों दिशाओं में फैली हैं । वास्तविक जड़ तो ब्रहालोक में है , किन्तु अन्य जड़ें मर्त्यलोक में हैं । जब मनुष्य उच्चलोकों में पुण्यकर्मों का फल भोग चुकता है , तो वह इस धरा पर उतरता है और उन्नति के लिए सकाम कर्मों का नवीनीकरण करता है । यह मनुष्यलोक कर्मक्षेत्र माना जाता है ।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥
न – नहीं ; रूपम् – रूप ; अस्य – इस वृक्ष का ; इह – इस संसार में ; तथा – भी ; उपलभ्यते – अनुभव किया जा सकता है ; न – कभी नहीं ; अन्तः – अन्त ; न – कभी नहीं ; च – भी ; आदि: – प्रारम्भ ; न – कभी नहीं ; च – भी ; सम्प्रतिष्ठा – नींव ; अश्वत्थम् – अश्वत्थ वृक्ष को ; एनम् – इस ; सु-विरूढ – अत्यन्त दृढ़ता से ; मूलम् – जड़वाला ।
असङ्ग-शस्त्रेण – विरक्ति के हथियार से ; दृढेन – दृढ ; छित्वा – काट कर ; ततः – तत्पश्चात् ; पदम् – स्थिति को ; तत् – उस ; परिमार्गितव्यम् – खोजना चाहिए ; यस्मिन् – जहाँ ; गता: – जाकर ; न – कभी नहीं ; निवर्तन्ति – वापस आते हैं ; भूयः – पुनः ; तम् – उसको ; एव – ही ; च – भी ; आद्यम् – आदि ; पुरुषम् – भगवान् की ; प्रपद्ये – शरण में जाता हूँ ; यतः – जिससे ; प्रवृत्तिः – प्रारम्भ ; प्रसृता – विस्तीर्ण ; पुराणी – अत्यन्त पुरानी ।
इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता । कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है , अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है ? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए ।
तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान् की शरण ग्रहण कर ली जाये , जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है ।
तात्पर्य :- अब यह स्पष्ट कह दिया गया है कि इस अश्वत्थ वृक्ष के वास्तविक स्वरूप को इस भौतिक जगत् में नहीं समझा जा सकता । चूँकि इसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं , अतः वास्तविक वृक्ष का विस्तार विरुद्ध दिशा में होता है । जब वृक्ष के भौतिक विस्तार में कोई फँस जाता है , तो उसे न तो यह पता चल पाता है कि यह कितनी दूरी तक फैला है और न वह इस वृक्ष के शुभारम्भ को ही देख पाता है ।
फिर भी मनुष्य को कारण की खोज करनी ही होती है । ” में अमुक पिता का पुत्र हूँ , जो अमुक का पुत्र है , आदि ” इस प्रकार अनुसन्धान करने से मनुष्य को ब्रह्मा प्राप्त होते हैं , जिन्हें गर्भादकशायी विष्णु ने उत्पन्न किया । इस प्रकार अन्ततः भगवान् तक पहुँचा जा सकता है , जहाँ सारी गवेषणा का अन्त हो जाता है ।
मनुष्य को इस वृक्ष के उद्गम , परमेश्वर की खोज ऐसे व्यक्तियों की संगति द्वारा करनी होती है , जिन्हें उस परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त है । इस प्रकार ज्ञान से मनुष्य धीरे – धीरे वास्तविकता के इस छद्म प्रतिविम्व से विलग हो जाता है और सम्बन्ध विच्छेद होने पर वह वास्तव में मूलवृक्ष में स्थित जाता है । इस प्रसंग में असङ्ग शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि विषयभोग की आसक्ति तथा भौतिक प्रकृति पर प्रभुता अत्यन्त प्रवल होती है ।
अतएव प्रामाणिक शास्त्रों पर आधारित आत्म – ज्ञान की विवेचना द्वारा विरक्ति सीखनी चाहिए और ज्ञानी पुरुषों से श्रवण करना चाहिए । भक्तों की संगति में रहकर ऐसी विवेचना से भगवान् की प्राप्ति होती है । तब सर्वप्रथम जो करणीय है , वह है भगवान् की शरण ग्रहण करना ।
यहाँ पर उस स्थान ( पद ) का वर्णन किया गया है , जहाँ जाकर मनुष्य इस छद्म प्रतिविम्बित वृक्ष में कभी वापस नहीं लौटता । भगवान् कृष्ण वह आदि मूल हैं , जहाँ से प्रत्येक वस्तु निकली है । उस भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए केवल उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिए , जो श्रवण , कीर्तन आदि द्वारा भक्ति करने के फलस्वरूप प्राप्त होती है । वे ही भौतिक जगत के विस्तार के कारण हैं ।
इसकी व्याख्या पहले ही स्वयं भगवान् ने की है । अहं सर्वस्य प्रभवः- मैं प्रत्येक वस्तु का उद्गम हूँ । अतएव इस भौतिक जीवन रूपी प्रबल अश्वत्थ के वृक्ष के बन्धन से छूटने के लिए कृष्ण की शरण ग्रहण की जानी चाहिए । कृष्ण की शरण ग्रहण करते मनुष्य स्वतः इस भौतिक विस्तार से विलग हो जाता है ।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वेर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै
गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ ५ ॥
निः – रहित ; मान – झूठी प्रतिष्ठा ; मोहाः – तथा मोह ; जित – जीता गया ; सङ्घ – संगति की ; दोषा: – त्रुटियाँ ; अध्यात्म – आध्यात्मिक ज्ञान में ; नित्या: – शाश्वतता में ; विनिवृत्त – विलग ; कामा: – काम से ; इन्द्रः – द्वैत से ; विमुक्ताः – मुक्त ; सुख-दुःख – सुख तथा दुख ; संज्ञे: – नामक ; गच्छन्ति – प्राप्त करते हैं ; अमूढाः – मोहरहित ; पदम् – पद , स्थान को ; अव्ययम् – शाश्वत ; तत् – उस ।
जो झूठी प्रतिष्ठा , मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं , जो शाश्वत तत्त्व को समझते हैं , जिन्होंने भांतिक काम को नष्ट कर दिया है , जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना जानते हैं , वे उस शाश्वत से राज्य को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्य :- यहाँ पर शरणागति का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है । इसके लिए जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता है , वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना । चूँकि वळजीव अपने को प्रकृति का स्वामी मानकर गर्वित रहता है , अतएव उसके लिए भगवान् की शरण में जाना कठिन होता है ।
उसे वास्तविक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है , उसका स्वामी तो परमेश्वर है । जब मनुष्य अहंकार से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाता है , तभी शरणागति की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है । जो व्यक्ति इस संसार में सदैव सम्मान की आशा रखता है , उसके लिए भगवान् के शरणागत होना कठिन है ।
अहंकार तो मोह के कारण होता है , क्योंकि यद्यपि मनुष्य यहाँ आता है , कुछ काल तक रहता है और फिर चला जाता है , तो भी मूर्खतावश यह समझ बैठता है कि वही इस संसार का स्वामी है । इस तरह वह सारी परिस्थिति को जटिल बना देता है और सदैव कष्ट उठाता रहता है । सारा संसार इसी भ्रान्तधारणा के अन्तर्गत आगे बढ़ता है ।
लोग सोचते हैं कि यह भूमि या पृथ्वी मानव समाज की है । और उन्होंने भूमि का विभाजन इस मिथ्या धारणा से कर रखा है कि वे इसके स्वामी हैं । मनुष्य को इस भ्रम से मुक्त होना चाहिए कि मानव समाज ही इस जगत् का स्वामी है । जब मनुष्य इस प्रकार की भ्रान्तधारणा से मुक्त हो जाता है , तो वह पारिवारिक , सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्नेह से उत्पन्न कुसंगतियों से मुक्त हो जाता है ।
ये त्रुटिपूर्ण संगतियाँ ही उसे इस संसार से बाँधने वाली हैं । इस अवस्था के बाद उसे आध्यात्मिक ज्ञान विकसित करना होता है । उसे ऐसे ज्ञान का अनुशीलन करना होता है कि वास्तव उसका क्या है और क्या नहीं है । और जब उसे वस्तु सही – सही ज्ञान हो जाता है तो वह सुख – दुख , हर्ष – विषाद जैसे द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है । वह ज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है और तब भगवान् का शरणागत बनना सम्भव हो पाता है ।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निर्वतन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६ ॥
न – नहीं ; तत् – वह ; भासयते – प्रकाशित करता है ; सूर्यः – सूर्य ; न – न तो ; शशाङ्क: – चन्द्रमा ; न – न तो ; पावकः – अग्नि , विजली ; यत् – जहाँ ; गत्वा – जाकर ; न – कभी नहीं ; निवर्तन्ते – वापस आते हैं ; तत्-धाम – वह धाम ; परमम् – परम ; मम – मेरा ।
वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं , वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते ।
तात्पर्य :- यहाँ पर आध्यात्मिक जगत् अर्थात् भगवान् कृष्ण के धाम का वर्णन हुआ है , जिसे कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन कहा जाता है । चिन्मय आकाश में न तो सूर्यप्रकाश की आवश्यकता है , न चन्द्रप्रकाश अथवा अग्नि या बिजली की , क्योंकि सारे लोक स्वयं प्रकाशित हैं । इस ब्रह्माण्ड में केवल एक लोक , सूर्य , ऐसा है जो स्वयं प्रकाशित है ।
लेकिन आध्यात्मिक आकाश में सभी लोक स्वयं प्रकाशित हैं । उन समस्त लोकों के ( जिन्हें वैकुण्ठ कहा जाता है ) चमचमाते तेज से चमकीला आकाश बनता है , जिसे ब्रह्मज्योति कहते हैं । वस्तुतः यह तेज कृष्णलोक , गोलोक वृन्दावन से निकलता है । इस तेज का एक अंश महत् – तत्त्व अर्थात् भौतिक जगत् से आच्छादित रहता है ।
इसके अतिरिक्त ज्योतिर्मय आकाश का अधिकांश भाग तो आध्यात्मिक लोकों से पूर्ण है , जिन्हें वैकुण्ठ कहा जाता है और जिनमें से गोलोक वृन्दावन प्रमुख है । जब तक जीव इस अंधकारमय जगत् में रहता है , तब तक वह बद्ध अवस्था में होता है । लेकिन ज्योंही वह इस भौतिक जगत् रूपी मिथ्या , विकृत वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक आकाश में पहुँचता है , त्योंही वह मुक्त हो जाता है ।
तब वह यहाँ वापस नहीं आता । इस बद्ध जीवन में जीव अपने को भौतिक जगत् का स्वामी मानता है , लेकिन अपनी मुक्त अवस्था में वह आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश करता है और परमेश्वर का पार्षद बन जाता है । वहाँ पर वह सच्चिदानन्दमय जीवन विताता है । इस सूचना से मनुष्य को मुग्ध हो जाना चाहिए । उसे उस शाश्वत जगत् में ले जाये जाने की इच्छा करनी चाहिए और सच्चाई के इस मिथ्या प्रतिबिम्ब से अपने आपको विलग कर लेना चाहिए ।
जो इस संसार से अत्यधिक आसक्त है , उसके लिए इस आसक्ति का छेदन करना दुष्कर होता है । लेकिन यदि वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर ले , तो उसके क्रमशः छूट जाने की सम्भावना है । उसे ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिए जो कृष्णभावनाभावित होते हैं । उसे ऐसा समाज खोजना चाहिए , जो कृष्णभावनामृत के प्रति समर्पित हो और उसे भक्ति करनी सीखनी चाहिए ।
इस प्रकार वह संसार के प्रति अपनी आसक्ति विच्छेद कर सकता है । यदि कोई चाहे कि केसरिया वस्त्र पहनने से भौतिक जगत् के आकर्षण से विच्छेद हो जाएगा , तो ऐसा सम्भव नहीं है । उसे भगवद्भक्ति के प्रति आसक्त होना पड़ेगा । अतएव मनुष्य को चाहिए कि गम्भीरतापूर्वक समझे कि वारहवें अध्याय में भक्ति का जैसा वर्णन है वही वास्तविक वृक्ष की इस मिथ्या अभिव्यक्ति से बाहर निकलने का एकमात्र साधन है ।
चौदहवें अध्याय में बताया गया है कि भौतिक प्रकृति द्वारा सारी विधियाँ दूषित हो जाती हैं , केवल भक्ति ही शुद्ध रूप से दिव्य है । यहाँ परमं मम शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं ।
वास्तव में जगत का कोना – कोना भगवान् की सम्पत्ति है , परन्तु दिव्य जगत परम है और छह ऐश्वयों से पूर्ण है । कठोपनिषद् ( २.२.१५ ) में भी इसकी पुष्टि की गई है कि दिव्य जगत में सूर्य प्रकाश , चन्द्र प्रकाश या तारागण की कोई आवश्यकता नहीं है , ( न तत्र सूयॉ भाति न चन्द्र तारकम् ) क्योंकि समस्त आध्यात्मिक आकाश भगवान की आन्तरिक शक्ति से प्रकाशमान है । उस परम घाम तक केवल शरणागति से ही पहुँचा जा सकता है , अन्य किसी साधन से नहीं ।
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