भगवद गीता अध्याय 15.1 || संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय पन्द्रह (Chapter -15)

भगवद गीता अध्याय 15.1 में शलोक 01 से  शलोक 06 संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन !

पुरुषोत्तम योग 

श्रीभगवानुवाच 

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं             प्राहुरव्ययम् । 

छन्दांसि  यस्य  पर्णानि  यस्तं  वेद  स  वेदवित् ॥ १ ॥ 

श्रीभगवान्   उवाच    –      भगवान् ने कहा   ;     ऊर्ध्व-मूलम्     –     ऊपर की ओर जड़ें   ;    अध:    –        नीचे की और    ;   शाखम्    –    शाखाएँ    ; अश्वत्थम्      –    अश्वत्थ वृक्ष को प्राहुः कहा गया है     ;      अव्ययम्    –     शाश्वत     ;     छन्दांसि     –    वैदिक स्तोत्र     ;    यस्य    –   जिसके     ;      पर्णानि –   पत्ते   ;    यः   –   जो कोई    ;    तम्    –   उसको    ;     वेद    –     जानता है    ; सः  –  वह   ;   वेदवित्   –  वेदों का ज्ञाता । 

भगवान् ने कहा कहा जाता है कि एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष है , जिसकी जड़ें तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं । जो इस वृक्ष को जानता है , वह वेदों का ज्ञाता है ।

तात्पर्य :-  भक्तियोग की महत्ता की विवेचना के बाद यह पूछा जा सकता है , ” वेदों का  क्या प्रयोजन है ? ” इस अध्याय में बताया गया है कि वैदिक अध्ययन का प्रयोजन कृष्ण को समझना है । अतएव जो कृष्णभावनाभावित है , जो भक्ति में रत है , वह वेदों को पहले से जानता है । इस भौतिक जगत् के बन्धन की तुलना अधत्य के वृक्ष से की गई है । जो व्यक्ति सकाम कमों में लगा है , उसके लिए इस वृक्ष का कोई अन्त नहीं है ।

वह एक शाखा से दूसरी में और दूसरी से तीसरी में घूमता रहता है । इस जगत् रूपी वृक्ष का कोई अन्त नहीं है और जो इस वृक्ष में आसक्त है , उसकी मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं है । वैदिक स्तोत्र , जो आत्मोन्नति के लिए हैं , वे ही इस वृक्ष के पत्ते हैं । इस वृक्ष की जड़े ऊपर की ओर बढ़ती है , क्योंकि वे इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्चलोक से प्रारम्भ होती हैं , जहाँ पर ब्रह्मा स्थित है ।

यदि कोई इस मोह रूपी अविनाशी वृक्ष को समझ लेता है , तो वह इससे बाहर निकल सकता है । बाहर निकलने की इस विधि को जानना आवश्यक है । पिछले अध्यायों में बताया जा चुका है कि भवबन्धन से निकलने की कई विधियाँ हैं । हम तेरहवें अध्याय तक यह देख चुके हैं कि भगवद्भक्ति ही सर्वोत्कृष्ट विधि है । भक्ति का मूल सिद्धान्त है – भौतिक कार्यों से विरक्ति तथा भगवान् की दिव्य सेवा में अनुरक्ति इस अध्याय के प्रारम्भ में संसार से आसक्ति तोड़ने की विधि का वर्णन हुआ है ।

इस संसार की जड़ें ऊपर को बढ़ती है । इसका अर्थ है कि ब्रह्माण्ड के सर्वोच्चलोक से पूर्ण भौतिक पदार्थ से यह प्रक्रिया शुरू होती है । वहीं से सारे ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है , जिसमें अनेक लोक उसकी शाखाओं के रूप में होते हैं । इसके फल जीवों के कर्मों के फल के , अर्थात् धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष के , घोतक हैं । यद्यपि इस संसार में ऐसे वृक्ष का , जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर हों तथा जड़ें ऊपर की ओर हो , कोई अनुभव नहीं है , किन्तु वात कुछ ऐसी ही है ।

ऐसा वृक्ष जलाशय के निकट पाया जा सकता है । हम देख सकते हैं – जलाशय के तट पर उगे वृक्ष का प्रतिविम्व जल में पड़ता है , तो उसकी जड़ें ऊपर तथा शाखाएँ नीचे की ओर दिखती हैं । दूसरे शब्दों में , यह जगत् रूपी वृक्ष आध्यात्मिक जगत् रूपी वास्तविक वृक्ष का प्रतिविम्व मात्र है । इस आध्यात्मिक जगत् का प्रतिविम्ब हमारी इच्छाओं में स्थित है , जिस प्रकार वृक्ष का प्रतिविम्य जल में रहता है ।

इच्छा ही इस प्रतिविम्वित भौतिक प्रकाश में वस्तुओं के स्थित होने का कारण है । जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से बाहर निकलना चाहता है , उसे अध्ययन के माध्यम से इस वृक्ष को भलीभाँति जान लेना चाहिए । फिर यह इस वृक्ष से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है । वास्तविक वृक्ष का प्रतिविम्व होने के कारण वास्तविक प्रतिरूप है ।

आध्यात्मिक जगत् में सब कुछ है । ब्रह्म को निर्विशेषवादी इस भौतिक वृक्ष का मूल मानते हैं और सांख्य दर्शन के अनुसार इसी मूल से पहले प्रकृति , पुरुष और तब तीन गुण निकलते है और फिर पाँच स्थूल तत्त्व ( पंच महाभूत ) , फिर दस इन्द्रियाँ ( दशेन्द्रिय ) , मन आदि । इस प्रकार से सारे संसार को चोवीस तत्वों में विभाजित करते हैं ।

यदि ब्रह्म समस्त अभिव्यक्तियों का केन्द्र है , तो एक प्रकार से यह भौतिक जगत् १८० अंश ( गोलार्द्ध ) में है और दूसरे १८० अंश ( गोलार्ड ) में आध्यात्मिक जगत् है । चूंकि यह भौतिक जगत् उल्टा प्रतिविम्व है , अतः आध्यात्मिक जगत् में भी इसी प्रकार की विविधता होनी चाहिये । प्रकृति परमेश्वर की वहिरंगा शक्ति है और पुरुष साक्षात् परमेश्वर है । इसकी व्याख्या भगवद्गीता में हो चुकी है ।

चूंकि यह अभिव्यक्ति भौतिक है , अतः क्षणिक है । प्रतिविम्ब भी क्षणिक होता है , क्योंकि कभी वह दिखता है और कभी नहीं दिखता । परन्तु वह स्रोत जहाँ से यह प्रतिविम्व प्रतिविम्बित होता है , शाश्वत है । वास्तविक वृक्ष के भौतिक प्रतिविम्ब का विच्छेदन करना होता है । जब कोई कहता है कि अमुक व्यक्ति वेद जानता है , तो इससे समझा जाता है कि वह इस जगत् की आसक्ति से विच्छेद करना जानता है ।

यदि वह इस विधि को जानता है , तो समझिये कि वह वास्तव में वेदों को जानता है । जो व्यक्ति वेदों के कर्मकाण्ड द्वारा आकृष्ट होता है , वह इस वृक्ष की सुन्दर हरी पत्तियों से आकृष्ट होता है । वह वेदों के वास्तविक उद्देश्य को नहीं जानता । वेदों का उद्देश्य भगवान् ने स्वयं प्रकट किया है और वह है इस प्रतिविम्बित वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक जगत् के वास्तविक वृक्ष को प्राप्त करना । 

अधचोर्ध्वं  प्रसृतास्तस्य  शाखा 

गुणप्रवृद्धा          विषयप्रवालाः । 

अधश्च        मूलान्यनुसन्ततानि 

कर्मानुबन्धीनि       मनुष्यलोके ॥ २ ॥ 

अधः   –   नीचे    ;     च    –   तथा    ;   ऊर्ध्वम्    –    ऊपर की ओर   ;    प्रसृताः   –   फैली हुई  ;    तस्य    –    उसकी   ;    शाखा:    – शाखाएँ    ;     गुण    –     प्रकृति के गुणों द्वारा    ;    प्रवृद्धाः   –     विकसित    ;    विषय    –    इन्द्रियविषय    ;    प्रवाला:    – टहनियाँ   ;    अघ:    –   नीचे की ओर   ;    च    –    तथा   ;     मूलानि    –    जड़ों को    ;    अनुसन्ततानि      –     विस्तृत   ;    कर्म   –    कर्म करने के लिए    ;    अनुबन्धीनि   –    वैधा    ;    मनुष्य-लोके     –    मानव समाज के जगत् में

इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं । इसकी टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं । इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी जाती हैं , जो मानवसमाज के सकाम कर्मों से बँधी हुई हैं ।

तात्पर्य :-  अश्वत्थ वृक्ष की यहाँ और भी व्याख्या की गई है । इसकी शाखाएँ चतुर्दिक फैली हुई हैं । निचले भाग में जीवों की विभिन्न योनियाँ हैं , यथा मनुष्य , पशु , घोड़े , गाय , कुत्ते , विल्लियाँ आदि । ये सभी वृक्ष की शाखाओं के निचले भाग में स्थित हैं । लेकिन ऊपरी भाग में जीवों की उच्चयोनियाँ हैं – यथा देव , गन्धर्व तथा अन्य बहुत सी उच्चतर यौनियाँ ।

जिस प्रकार सामान्य वृक्ष का पोषण जल से होता है , उसी प्रकार यह वृक्ष प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित है । कभी – कभी हम देखते हैं कि जलाभाव से कोई कोई भूखण्ड वीरान हो जाता है , तो कोई खण्ड लहलहाता है , इसी प्रकार जहाँ प्रकृति के किन्ही विशेष गुणों का आनुपातिक आधिक्य होता है , वहाँ उसी के अनुरूप जीवों की योनियाँ प्रकट होती हैं ।

वृक्ष की टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं । विभिन्न गुणों के विकास से हम विभिन्न प्रकार की इन्द्रियों का विकास करते हैं और इन इन्द्रियों के द्वारा हम विभिन्न इन्द्रियविषयों का भोग करते हैं । शाखाओं के सिरे इन्द्रियाँ हैं – यथा कान , नाक , आँख आदि , जो विभिन्न  इन्द्रियविषयों के भोग में आसक्त हैं । टहनियाँ शब्द , रूप , स्पर्श आदि इन्द्रिय विषय हैं ।

सहायक जड़ें राग तथा द्वेष हैं , जो विभिन्न प्रकार के कष्ट तथा इन्द्रियभोग के विभिन्न रूप हैं । धर्म – अधर्म की प्रवृत्तियाँ इन्हीं गौण जड़ों से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं , जो चारों दिशाओं में फैली हैं । वास्तविक जड़ तो ब्रहालोक में है , किन्तु अन्य जड़ें मर्त्यलोक में हैं । जब मनुष्य उच्चलोकों में पुण्यकर्मों का फल भोग चुकता है , तो वह इस धरा पर उतरता है और उन्नति के लिए सकाम कर्मों का नवीनीकरण करता है । यह मनुष्यलोक कर्मक्षेत्र माना जाता है ।

न    रूपमस्येह    तथोपलभ्यते 

नान्तो  न  चादिर्न  च  सम्प्रतिष्ठा । 

अश्वत्थमेनं             सुविरूढमूल-  

मसङ्गशस्त्रेण     दृढेन     छित्त्वा ॥ ३ ॥ 

ततः     पदं       तत्परिमार्गितव्यं 

यस्मिन्गता   न   निवर्तन्ति   भूयः । 

तमेव      चाद्यं      पुरुषं     प्रपद्ये 

यतः    प्रवृत्तिः    प्रसृता    पुराणी ॥ ४ ॥ 

न    –   नहीं    ;   रूपम्   –   रूप   ;   अस्य   –   इस वृक्ष का   ;   इह  –   इस संसार में   ;     तथा    –    भी    ;   उपलभ्यते   –    अनुभव किया जा सकता है     ;      न   –   कभी नहीं    ;    अन्तः    –    अन्त   ;     न   –    कभी नहीं    ;   च   –   भी    ;    आदि:    – प्रारम्भ    ;    न   –   कभी नहीं   ;    च   –    भी   ;    सम्प्रतिष्ठा    –   नींव   ;    अश्वत्थम्   –    अश्वत्थ वृक्ष को    ;    एनम्  –   इस     ;   सु-विरूढ    –   अत्यन्त दृढ़ता से    ;     मूलम्   –   जड़वाला    

असङ्ग-शस्त्रेण   – विरक्ति के हथियार से     ;     दृढेन    –   दृढ    ;    छित्वा    –    काट कर    ;    ततः   –    तत्पश्चात्   ;     पदम्    –  स्थिति को    ;    तत् –   उस    ;     परिमार्गितव्यम्    –     खोजना चाहिए     ;   यस्मिन्    –    जहाँ    ;    गता:    –    जाकर    ;     न –    कभी नहीं   ;    निवर्तन्ति   –   वापस आते हैं    ;     भूयः   –   पुनः   ;    तम्    –  उसको    ;     एव    –   ही   ;     च   –   भी    ;   आद्यम्   –    आदि    ;    पुरुषम्      –    भगवान् की    ;     प्रपद्ये    – शरण में जाता हूँ   ;    यतः   – जिससे   ;     प्रवृत्तिः   –    प्रारम्भ    ;   प्रसृता    –    विस्तीर्ण   ;     पुराणी    –    अत्यन्त पुरानी

इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता । कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है , अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है ? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए ।

तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान् की शरण ग्रहण कर ली जाये , जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है । 

तात्पर्य :-  अब यह स्पष्ट कह दिया गया है कि इस अश्वत्थ वृक्ष के वास्तविक स्वरूप को इस भौतिक जगत् में नहीं समझा जा सकता । चूँकि इसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं , अतः वास्तविक वृक्ष का विस्तार विरुद्ध दिशा में होता है । जब वृक्ष के भौतिक विस्तार में कोई फँस जाता है , तो उसे न तो यह पता चल पाता है कि यह कितनी दूरी तक फैला है और न वह इस वृक्ष के शुभारम्भ को ही देख पाता है ।

फिर भी मनुष्य को कारण  की खोज करनी ही होती है । ” में अमुक पिता का पुत्र हूँ , जो अमुक का पुत्र है , आदि ” इस प्रकार अनुसन्धान करने से मनुष्य को ब्रह्मा प्राप्त होते हैं , जिन्हें गर्भादकशायी विष्णु ने उत्पन्न किया । इस प्रकार अन्ततः भगवान् तक पहुँचा जा सकता है , जहाँ सारी गवेषणा का अन्त हो जाता है ।

मनुष्य को इस वृक्ष के उद्गम , परमेश्वर की खोज ऐसे व्यक्तियों की संगति द्वारा करनी होती है , जिन्हें उस परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त है । इस प्रकार ज्ञान से मनुष्य धीरे – धीरे वास्तविकता के इस छद्म प्रतिविम्व से विलग हो जाता है और सम्बन्ध विच्छेद होने पर वह वास्तव में मूलवृक्ष में स्थित जाता है । इस प्रसंग में असङ्ग शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि विषयभोग की आसक्ति तथा भौतिक प्रकृति पर प्रभुता अत्यन्त प्रवल होती है ।

अतएव प्रामाणिक शास्त्रों पर आधारित आत्म – ज्ञान की विवेचना द्वारा विरक्ति सीखनी चाहिए और ज्ञानी पुरुषों से श्रवण करना चाहिए । भक्तों की संगति में रहकर ऐसी विवेचना से भगवान् की प्राप्ति होती है । तब सर्वप्रथम जो करणीय है , वह है भगवान् की शरण ग्रहण करना ।

यहाँ पर उस स्थान ( पद ) का वर्णन किया गया है , जहाँ जाकर मनुष्य इस छद्म प्रतिविम्बित वृक्ष में कभी वापस नहीं लौटता । भगवान् कृष्ण वह आदि मूल हैं , जहाँ से प्रत्येक वस्तु निकली है । उस भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए केवल उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिए , जो श्रवण , कीर्तन आदि द्वारा भक्ति करने के फलस्वरूप प्राप्त होती है । वे ही भौतिक जगत के विस्तार के कारण हैं ।

इसकी व्याख्या पहले ही स्वयं भगवान् ने की है । अहं सर्वस्य प्रभवः- मैं प्रत्येक वस्तु का उद्गम हूँ । अतएव इस भौतिक जीवन रूपी प्रबल अश्वत्थ के वृक्ष के बन्धन से छूटने के लिए कृष्ण की शरण ग्रहण की जानी चाहिए । कृष्ण की शरण ग्रहण करते मनुष्य स्वतः इस भौतिक विस्तार से विलग हो जाता है ।

निर्मानमोहा       जितसङ्गदोषा 

अध्यात्मनित्या   विनिवृत्तकामाः । 

द्वन्द्वेर्विमुक्ताः       सुखदुःखसंज्ञै 

गच्छन्त्यमूढाः    पदमव्ययं    तत् ॥ ५ ॥ 

निः    –    रहित    ;     मान   –   झूठी प्रतिष्ठा    ;    मोहाः   –    तथा मोह   ;    जित   –   जीता गया   ;     सङ्घ    –    संगति की   ;    दोषा:    –   त्रुटियाँ    ;   अध्यात्म    –    आध्यात्मिक ज्ञान में   ;   नित्या:    –   शाश्वतता में     ;    विनिवृत्त    –   विलग   ;    कामा:    –   काम से   ;    इन्द्रः   –   द्वैत से    ;    विमुक्ताः –    मुक्त   ;    सुख-दुःख    –    सुख तथा दुख   ;    संज्ञे:   –    नामक   ;   गच्छन्ति    –    प्राप्त करते हैं    ;     अमूढाः   –    मोहरहित   ;    पदम्    –   पद , स्थान को    ;    अव्ययम्    –    शाश्वत   ;    तत्   –   उस । 

जो झूठी प्रतिष्ठा , मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं , जो शाश्वत तत्त्व को समझते हैं , जिन्होंने भांतिक काम को नष्ट कर दिया है , जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना जानते हैं , वे उस शाश्वत से राज्य को प्राप्त होते हैं । 

तात्पर्य :-  यहाँ पर शरणागति का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है । इसके लिए जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता है , वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना । चूँकि वळजीव अपने को प्रकृति का स्वामी मानकर गर्वित रहता है , अतएव उसके लिए भगवान् की शरण में जाना कठिन होता है ।

उसे वास्तविक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है , उसका स्वामी तो परमेश्वर है । जब मनुष्य अहंकार से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाता है , तभी शरणागति की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है । जो व्यक्ति इस संसार में सदैव सम्मान की आशा रखता है , उसके लिए भगवान् के शरणागत होना कठिन है ।

अहंकार तो मोह के कारण होता है , क्योंकि यद्यपि मनुष्य यहाँ आता है , कुछ काल तक रहता है और फिर चला जाता है , तो भी मूर्खतावश यह समझ बैठता है कि वही इस संसार का स्वामी है । इस तरह वह सारी परिस्थिति को जटिल बना देता है और सदैव कष्ट उठाता रहता है । सारा संसार इसी भ्रान्तधारणा के अन्तर्गत आगे बढ़ता है ।

लोग सोचते हैं कि यह भूमि या पृथ्वी मानव समाज की है । और उन्होंने भूमि का विभाजन इस मिथ्या धारणा से कर रखा है कि वे इसके स्वामी हैं । मनुष्य को इस भ्रम से मुक्त होना चाहिए कि मानव समाज ही इस जगत् का स्वामी है । जब मनुष्य इस प्रकार की भ्रान्तधारणा से मुक्त हो जाता है , तो वह पारिवारिक , सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्नेह से उत्पन्न कुसंगतियों से मुक्त हो जाता है ।

ये त्रुटिपूर्ण संगतियाँ ही उसे इस संसार से बाँधने वाली हैं । इस अवस्था के बाद उसे आध्यात्मिक ज्ञान विकसित करना होता है । उसे ऐसे ज्ञान का अनुशीलन करना होता है कि वास्तव उसका क्या है और क्या नहीं है । और जब उसे वस्तु सही – सही ज्ञान हो जाता है तो वह सुख – दुख , हर्ष – विषाद जैसे द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है । वह ज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है और तब भगवान् का शरणागत बनना सम्भव हो पाता है ।

न  तद्भासयते  सूर्यो  न  शशाङ्को  न  पावकः । 

यद्गत्वा    न   निर्वतन्ते   तद्धाम   परमं   मम ॥ ६ ॥ 

न   –   नहीं    ;    तत्   –   वह   ;    भासयते    –    प्रकाशित करता है    ;    सूर्यः    –    सूर्य   ;    न  –    न तो     ;     शशाङ्क:    –    चन्द्रमा    ;    न    –    न तो     ;    पावकः    –   अग्नि , विजली    ; यत्    –    जहाँ    ;     गत्वा    –    जाकर   ;    न    –     कभी नहीं    ; निवर्तन्ते    –    वापस आते हैं    ;     तत्-धाम    –    वह धाम    ;     परमम्   –    परम   ;    मम   –   मेरा । 

वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं , वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते । 

तात्पर्य :-  यहाँ पर आध्यात्मिक जगत् अर्थात् भगवान् कृष्ण के धाम का वर्णन हुआ है , जिसे कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन कहा जाता है । चिन्मय आकाश में न तो सूर्यप्रकाश की आवश्यकता है , न चन्द्रप्रकाश अथवा अग्नि या बिजली की , क्योंकि सारे लोक स्वयं प्रकाशित हैं । इस ब्रह्माण्ड में केवल एक लोक , सूर्य , ऐसा है जो स्वयं प्रकाशित है ।

लेकिन आध्यात्मिक आकाश में सभी लोक स्वयं प्रकाशित हैं । उन समस्त लोकों के ( जिन्हें वैकुण्ठ कहा जाता है ) चमचमाते तेज से चमकीला आकाश बनता है , जिसे ब्रह्मज्योति कहते हैं । वस्तुतः यह तेज कृष्णलोक , गोलोक वृन्दावन से निकलता है । इस तेज का एक अंश महत् – तत्त्व अर्थात् भौतिक जगत् से आच्छादित रहता है ।

इसके  अतिरिक्त ज्योतिर्मय आकाश का अधिकांश भाग तो आध्यात्मिक लोकों से पूर्ण है , जिन्हें वैकुण्ठ कहा जाता है और जिनमें से गोलोक वृन्दावन प्रमुख है । जब तक जीव इस अंधकारमय जगत् में रहता है , तब तक वह बद्ध अवस्था में होता है । लेकिन ज्योंही वह इस भौतिक जगत् रूपी मिथ्या , विकृत वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक आकाश में पहुँचता है , त्योंही वह मुक्त हो जाता है ।

तब वह यहाँ वापस नहीं आता । इस बद्ध जीवन में जीव अपने को भौतिक जगत् का स्वामी मानता है , लेकिन अपनी मुक्त अवस्था में वह आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश करता है और परमेश्वर का पार्षद बन जाता है । वहाँ पर वह सच्चिदानन्दमय जीवन विताता है । इस सूचना से मनुष्य को मुग्ध हो जाना चाहिए । उसे उस शाश्वत जगत् में ले जाये जाने की इच्छा करनी चाहिए और सच्चाई के इस मिथ्या प्रतिबिम्ब से अपने आपको विलग कर लेना चाहिए ।

जो इस संसार से अत्यधिक आसक्त है , उसके लिए इस आसक्ति का छेदन करना दुष्कर होता है । लेकिन यदि वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर ले , तो उसके क्रमशः छूट जाने की सम्भावना है । उसे ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिए जो कृष्णभावनाभावित होते हैं । उसे ऐसा समाज खोजना चाहिए , जो कृष्णभावनामृत के प्रति समर्पित हो और उसे भक्ति करनी सीखनी चाहिए ।

इस प्रकार वह संसार के प्रति अपनी आसक्ति विच्छेद कर सकता है । यदि कोई चाहे कि केसरिया वस्त्र पहनने से भौतिक जगत् के आकर्षण से विच्छेद हो जाएगा , तो ऐसा सम्भव नहीं है । उसे भगवद्भक्ति के प्रति आसक्त होना पड़ेगा । अतएव मनुष्य को चाहिए कि गम्भीरतापूर्वक समझे कि वारहवें अध्याय में भक्ति का जैसा वर्णन है वही वास्तविक वृक्ष की इस मिथ्या अभिव्यक्ति से बाहर निकलने का एकमात्र साधन है ।

चौदहवें अध्याय में बताया गया है कि भौतिक प्रकृति द्वारा सारी विधियाँ दूषित हो जाती हैं , केवल भक्ति ही शुद्ध रूप से दिव्य है । यहाँ परमं मम शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं ।

वास्तव में जगत का कोना – कोना भगवान् की सम्पत्ति है , परन्तु दिव्य जगत परम है और छह ऐश्वयों से पूर्ण है । कठोपनिषद् ( २.२.१५ ) में भी इसकी पुष्टि की गई है कि दिव्य जगत में सूर्य प्रकाश , चन्द्र प्रकाश या तारागण की कोई आवश्यकता नहीं है , ( न तत्र सूयॉ भाति न चन्द्र तारकम् ) क्योंकि समस्त आध्यात्मिक आकाश भगवान की आन्तरिक शक्ति से प्रकाशमान है । उस परम घाम तक केवल शरणागति से ही पहुँचा जा सकता है , अन्य किसी साधन से नहीं । 

भगवद गीता अध्याय 15.1~ संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति के उपाय  का वर्णन  / Powerful Bhagavad Gita sarsnshroopi ashvtav Ch15.1    
भगवद गीता अध्याय 15.1

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