अध्याय चौदह (Chapter -14)
भगवद गीता अध्याय 14.3 में शलोक 01 से शलोक 04 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण का वर्णन !
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९ ॥
न – नहीं ; अन्यम् – दूसरा ; गुणेभ्यः – गुणों के अतिरिक्त ; कर्तारम् – कर्ता ; यदा – जब ; द्रष्टा – देखने वाला ; अनुपश्यति – ठीक से देखता है ; गुणेभ्यः – गुणों से ; च – तथा ; परम् – दिव्य ; वेत्ति – जानता है ; मत्-भावम् – मेरे दिव्य स्वभाव को ; सः – वह ; अधिगच्छति – प्राप्त होता है ।
जब कोई यह अच्छी तरह जान लेता है कि समस्त कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है और जब वह परमेश्वर को जान लेता है , जो इन तीनों गुणों से परे है , तो वह मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है
तात्पर्य :- समुचित महापुरुषों से केवल समझकर तथा समुचित ढंग से सीख कर मनुष्य प्रकृति के गुणों के सारे कार्यकलापों को लाँघ सकता है । वास्तविक गुरु कृष्ण हैं और वे अर्जुन को यह दिव्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं । इसी प्रकार जो लोग पूर्णतया कृष्णभावना भावित हैं , उन्हीं से प्रकृति के गुणों के कार्यों के इस ज्ञान को सीखना होता है ।
अन्यथा मनुष्य का जीवन कुमार्ग में चला जाता है । प्रामाणिक गुरु के उपदेश से जीव अपनी आध्यात्मिक स्थिति , अपने भौतिक शरीर , अपनी इन्द्रियों , तथा प्रकृति के गुणों के अपनी बद्धावस्था होने के बारे में जान सकता है । वह इन गुणों की जकड़ में होने से असहाय होता है लेकिन अपनी वास्तविक स्थिति देख लेने पर वह दिव्य स्तर को प्राप्त कर सकता है , जिसमें आध्यात्मिक जीवन के लिए अवकाश होता है ।
वस्तुतः जीव विभिन्न कर्मों का कर्ता नहीं होता । उसे वाध्य होकर कर्म करना पड़ता है , क्योंकि वह विशेष प्रकार के शरीर में स्थित रहता है , जिसका संचालन प्रकृति का कोई गुण करता है । जब तक मनुष्य को किसी आध्यात्मिक मान्यता प्राप्त व्यक्ति की सहायता नहीं मिलती , तब तक वह यह नहीं समझ सकता कि वह वास्तव में कहाँ स्थित है ।
प्रामाणिक गुरु की संगति से वह अपनी वास्तविक स्थिति समझ सकता है और इसे समझ लेने पर , वह पूर्ण कृष्णभावनामृत में स्थिर हो सकता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी प्रकृति के गुणों के चमत्कार से नियन्त्रित नहीं होता । सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि जो कृष्ण की शरण में जाता है , वह प्रकृति के कार्यों से मुक्त हो जाता है । जो व्यक्ति वस्तुओं को यथारूप में देख सकता है , उस पर प्रकृति का प्रभाव क्रमशः घटता जाता है ।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥
गुणान् – गु णों को ; एतान् – इन सव ; अतीत्य – लाँध कर ; त्रीन् – तीन ; देही – देहधारी ; देह – शरीर ; समुद्भवान् – उत्पन्न ; जन्म – जन्म ; मृत्युः – मृत्यु ; जरा – बुढ़ापे का ; दुःखे: – दुखों से ; विमुक्तः – मुक्त ; अमृतम् – अमृत ; अश्नुते – भोगता है ।
जब देहधारी जीव भौतिक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लाँघने में समर्थ होता है , तो वह जन्म , मृत्यु , बुढ़ापा तथा उनके कष्टों से मुक्त हो सकता है और इसी जीवन में अमृत का भोग कर सकता है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में बताया गया है कि किस प्रकार इसी शरीर में कृष्णभावनाभावित होकर दिव्य स्थिति में रहा जा सकता है । संस्कृत शब्द देही का अर्थ है देहधारी । यद्यपि मनुष्य इस भौतिक शरीर के भीतर रहता है , लेकिन अपने आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति के द्वारा वह प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो सकता है ।
वह इसी शरीर में आध्यात्मिक जीवन का सुखोपभोग कर सकता है , क्योंकि इस शरीर के बाद उसका वैकुण्ठ जाना निश्चित है । लेकिन वह इसी शरीर में आध्यात्मिक सुख उठा सकता है । दूसरे शब्दों में , कृष्णभावनामृत में भक्ति करना भव – पाश से मुक्ति का संकेत है और अध्याय १८ में इसकी व्याख्या की जायेगी । जब मनुष्य प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है , तो वह भक्ति में प्रविष्ट होता है ।
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ २१ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; कैः – किन ; लिङ्गैः – लक्षणों से ; त्रीन् – तीनों ; गुणान् – गुणों को ; एतान् – ये सव ; अतीतः – लाँघा हुआ ; भवति – है ; प्रभो – हे प्रभु ; किम् – क्या ; आचार: – आचरण ; कथम् – कैसे ; च – भी ; एतान् – ये ; त्रीन् – तीनों ; गुणान् – गुणों को ; अतिवर्तते – लाँघता है ।
अर्जुन ने पूछा – हे भगवान् ! जो इन तीनों गुणों से परे है , वह किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है ? उसका आचरण कैसा होता है ? और वह प्रकृति के गुणों को किस प्रकार लाँघता है ?
तात्पर्य :- इस श्लोक में अर्जुन के प्रश्न अत्यन्त उपयुक्त हैं । वह उस पुरुष के लक्षण जानना चाहता है , जिसने भौतिक गुणों को लाँध लिया है । सर्वप्रथम वह ऐसे दिव्य पुरुष के लक्षणों के विषय में जिज्ञासा करता है कि कोई कैसे समझे कि उसने प्रकृति के गुणों के प्रभाव को लाँघ लिया है ?
उसका दूसरा प्रश्न है कि ऐसा व्यक्ति किस प्रकार रहता है और उसके कार्यकलाप क्या हैं ? क्या वे नियमित होते हैं , या अनियमित ? फिर अर्जुन उन साधनों के विषय में पूछता है , जिससे वह दिव्य स्वभाव ( प्रकृति ) प्राप्त कर सके । यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
जब तक कोई उन प्रत्यक्ष साधनों को नहीं जानता , जिनसे वह सदेव दिव्य पद पर स्थित रहे , तब तक लक्षणों के दिखने का प्रश्न ही नहीं उठता । अतएव अर्जुन द्वारा पूछे गये ये सारे प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं और भगवान् उनका उत्तर देते हैं ।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ २२ ॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३ ॥
समदुःखसुखः स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा ; प्रकाशम् – प्रकाश ; च – तथा ; प्रवृत्तिम् – आसक्ति ; च – तथा ; मोहम् – मोह ; एव च – भी ; पाण्डव – हे पाण्डुपुत्र ; न द्वेष्टि – घृणा नहीं करता ; सम्प्रवृत्तानि – यद्यपि विकसित होने पर ; न निवृत्तानि – न ही विकास के रुकने पर ; काङ्ङ्क्षति – चाहता है ।
उदासीन वत् – निरपेक्ष की भाँति ; आसीन: – स्थित ; गुणै – गुणों के द्वारा ; यः – जो ; न – कभी नहीं ; विचाल्यते – विचलित होता है ; गुणाः – गुण ; वर्तन्ते – कार्यशील होते हैं ; इति एवम् – इस प्रकार जानते हुए ; य: – जो ; अवतिष्ठति – रहा आता है ; न – कभी नहीं ; इङ्गते – हिलता डुलता है ।
सम – समान ; दुःख – दुख ; सुख: – तथा सुख में ; स्व-स्थः – अपने में स्थित ; सम – समान रूप से ; लोष्ट – मिट्टी का ढेला ; अश्म – पत्थर ; काञ्चन: – सोना ; तुल्य – समभाव ; प्रिय – प्रिय ; अप्रियः – तथा अप्रिय को ; धीर: – धीर ; तुल्य – समान ; निन्दा – बुराई ; आत्म-संस्तुतिः – तथा अपनी प्रशंसा में ।
मान – सम्मान ; अपमानवोः – तथा अपमान में ; तुल्यः – समान ; तुल्यः – समान ; मित्र – मित्र ; अरि – तथा शत्रु के ; पक्षयोः – पक्षों या दलों की ; सर्व – सबों का ; आरम्भ – प्रयत्न , उद्यम ; परित्यागी – त्याग करने वाला ; गुण-अतीत: – प्रकृति के गुणों से परे ; सः – वह ; उच्यते – कहा जाता है ।
भगवान् ने कहा- हे पाण्डुपुत्र ! जो प्रकाश , आसक्ति तथा मोह के उपस्थित होने पर न तो उनसे घृणा करता है और न लुप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करता है , जो भौतिक गुणों की इन समस्त प्रतिक्रियाओं से निश्चल तथा अविचलित रहता है और यह जानकर कि केवल गुण ही क्रियाशील हैं ।
उदासीन तथा दिव्य बना रहता है , जो अपने आपमें स्थित है और सुख तथा दुख को एकसमान मानता है , जो मिट्टी के ढेले , पत्थर एवं स्वर्ण के टुकड़े को समान दृष्टि से देखता है , जो अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्रति समान बना रहता है , जो धीर है और प्रशंसा तथा बुराई , मान तथा अपमान में समान भाव से रहता है , जो शत्रु तथा मित्र के साथ समान व्यवहार करता है और जिसने सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर दिया है , ऐसे व्यक्ति को प्रकृति के गुणों से अतीत कहते हैं ।
तात्पर्य :- अर्जुन ने भगवान् कृष्ण से तीन प्रश्न पूछे और उन्होंने क्रमशः एक – एक का उत्तर दिया । इन श्लोकों में कृष्ण पहले यह संकेत करते हैं कि जो व्यक्ति दिव्य पद पर स्थित है , वह न तो किसी से ईर्ष्या करता है और न किसी वस्तु के लिए लालायित रहता है ।
जब कोई जीव इस संसार में भौतिक शरीर से युक्त होकर रहता है , तो यह समझना चाहिए कि वह प्रकृति के तीन गुणों में से किसी एक के वश में है । जब वह इस शरीर से बाहर हो जाता है , तो वह प्रकृति के गुणों से छूट जाता है । लेकिन जब तक वह शरीर से बाहर नहीं आ जाता , तब तक उसे उदासीन रहना चाहिए ।
उसे भगवान् की भक्ति में लग जाना चाहिए जिससे भौतिक देह से उसका ममत्व स्वतः विस्मृत हो जाय । जब मनुष्य भौति क शरीर के प्रति सचेत रहता है तो वह केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है , लेकिन जब वह अपनी चेतना कृष्ण में स्थानान्तरित कर देता है , तो इन्द्रियतृप्ति स्वतः रुक जाती है ।
मनुष्य को इस भौतिक शरीर की आवश्यकता नहीं रह जाती है और न उसे इस भौतिक शरीर के आदेशों का पालन करने की आवश्यकता रह जाती है । शरीर के भौतिक गुण कार्य करेंगे , लेकिन आत्मा ऐसे कार्यों से पृथक् रहेगा । वह किस तरह पृथक् होता है ? वह न तो शरीर का भोग करना चाहता है , न उससे बाहर जाना चाहता है ।
इस प्रकार दिव्य पद पर स्थित भक्त स्वयमेव मुक्त हो जाता है । उसे प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त होने के लिए किसी प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । अगला प्रश्न दिव्य पद पर आसीन व्यक्ति के व्यवहार के सम्बन्ध में है । भौतिक पद पर स्थित व्यक्ति शरीर को मिलने वाले तथाकथित मान तथा अपमान से प्रभावित होता है , लेकिन दिव्य पद पर आसीन व्यक्ति कभी ऐसे मिथ्या मान तथा अपमान से प्रभावित नहीं होता ।
वह कृष्णभावनामृत में रहकर अपना कर्तव्य निवाहता है और इसकी चिन्ता नहीं करता कि कोई व्यक्ति उसका सम्मान करता है या अपमान । वह उन बातों को स्वीकार कर लेता है , जो कृष्णभावनामृत में उसके कर्तव्य के अनुकूल हैं , अन्यथा उसे किसी भौतिक वस्तु की आवश्यकता नहीं रहती , चाहे वह पत्थर हो या सोना ।
वह प्रत्येक व्यक्ति को जो कृष्णभावनामृत के सम्पादन में उसकी सहायता करता है , अपना मित्र मानता है और वह अपने तथाकथित शत्रु से भी घृणा नहीं करता । वह समभाव वाला होता है और सारी वस्तुओं को समान धरातल पर देखता है , क्योंकि वह इसे भलीभाँति जानता है कि उसे इस संसार से कुछ भी लेना – देना नहीं है ।
उसे सामाजिक तथा राजनीतिक विषय तनिक भी प्रभावित नहीं कर पाते , क्योंकि वह क्षणिक उथल पुथल तथा उत्पातों की स्थिति से अवगत रहता है । वह अपने लिए कोई कर्म नहीं करता । कृष्ण के लिए वह कुछ भी कर सकता है , लेकिन अपने लिए वह किसी प्रकार का प्रयास नहीं करता । ऐसे आचरण से मनुष्य वास्तव में दिव्य पद पर स्थित हो सकता है ।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥
माम् – मेरी ; च – भी ; यः – जो व्यक्ति ; अव्यभिचारेण – बिना विचलित हुए ; भक्ति-योगेन – भक्ति से ; सेवते – सेवा करता है ; सः – यह ; गुणान् – प्रकृति के गुणों को ; समतीत्य – लाँध कर ; एतान् – इन सव ; ब्रह्म भूवाय – ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ ; कल्पते – हो जाता है ।
जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है , वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है ।
तात्पर्य :- यह श्लोक अर्जुन के तृतीय प्रश्न के उत्तरस्वरूप है । प्रश्न है – दिव्य स्थिति प्राप्त 2 करने का साधन क्या है ? जैसा कि पहले बताया जा चुका है , यह भौतिक जगत् प्रकृति के गुणों के चमत्कार के अन्तर्गत कार्य कर रहा है । मनुष्य को गुणों के कर्मों से विचलित नहीं होना चाहिए , उसे चाहिए कि अपनी चेतना ऐसे कार्यों में न लगाकर उसे कृष्ण कार्यों में लगाए ।
कृष्णकार्य भक्तियोग के नाम से विख्यात हैं , जिनमें सदेव कृष्ण के लिए । कार्य करना होता है । इसमें न केवल कृष्ण ही आते हैं , अपितु उनके विभिन्न पूर्णांश भी सम्मिलित हैं – यथा राम तथा नारायण । उनके असंख्य अंश है । जो कृष्ण के किसी भी रूप या उनके पूर्णांश की सेवा में प्रवृत्त होता है , उसे दिव्य पद पर स्थित समझना चाहिए ।
यह ध्यान देना होगा कि कृष्ण के सारे रूप पूर्णतया दिव्य और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं । ईश्वर के ऐसे रूप सर्वशक्तिमान् तथा सर्वज्ञ होते हैं और उनमें समस्त दिव्यगुण पाये जाते हैं । अतएव यदि कोई कृष्ण या उनके पूर्णाशों की सेवा में दृढसंकल्प के साथ प्रवृत्त होता है , तो यद्यपि प्रकृति के गुणों को जीत पाना कठिन है , लेकिन वह उन्हें सरलता से जीत सकता है ।
इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में पहले ही की जा चुकी है । कृष्ण की शरण ग्रहण करने पर तुरन्त ही प्रकृति के गुणों के प्रभाव को लाँघा जा सकता हे कृष्णभावनामृत या कृष्ण – भक्ति में होने का अर्थ है , कृष्ण के साथ समानता प्राप्त करना । भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रकृति सच्चिदानन्द स्वरूप है और सारे जीव परम के अंश हैं , जिस प्रकार सोने के कण सोने की खान के अंश है ।
इस प्रकार जीव अपनी आध्यात्मिक स्थिति में सोने के समान या कृष्ण के समान ही गुण वाला होता है । किन्तु व्यष्टित्व का अन्तर बना रहता है अन्यथा भक्तियोग का प्रश्न ही नहीं उठता । भक्तियोग का अर्थ है कि भगवान् हैं , भक्त है तथा भगवान् ओर भक्त के बीच प्रेम का आदान प्रदान चलता रहता है ।
अतएव भगवान् में और भक्त में दो व्यक्तियों का व्यष्टिाच वर्तमान रहता है , अन्यथा भक्तियोग का कोई अर्थ नहीं है । यदि कोई भगवान् जैसे दिव्य स्तर पर स्थित नहीं है , तो वह भगवान् की सेवा नहीं कर सकता ।
उदाहरणार्थ , राजा का निजी सहायक बनने के लिए कुछ योग्यताएं आवश्यक हैं । इस तरह भगवत्सेवा के लिए योग्यता है कि ब्रह्म बना जाय या भौतिक कल्मष से मुक्त हुआ जाय । वैदिक साहित्य में कहा गया है ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति । इसका अर्थ है कि गुणात्मक रूप से मनुष्य को ब्रह्म से एकाकार हो जाना चाहिए । लेकिन ब्रह्मत्व प्राप्त करने पर मनुष्य व्यष्टि आत्मा के रूप में अपने शाश्वत ब्रह्म – स्वरूप को खोता नहीं ।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥
ब्रह्मणः – निराकार ब्रह्मज्योति का ; हि – निश्चय ही प्रतिष्ठा आश्रय ; अहम् – में हूँ ; अमृतस्य – अमर्त्य का ; अव्ययस्य – अविनाशी का ; च – भी ; शाश्वतस्य – शाश्वत का ; च – तथा ; धर्मस्य – स्वाभाविक स्थिति ( स्वरूप ) का ; सुखस्य – सुख का ; ऐकान्तिकस्य – चरम , अन्तिम ; च – भी ।
और में ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ , जो अमर्त्य , अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्वाभाविक पद है
तात्पर्य :- ब्रह्म का स्वरूप हे अमरता , अविनाशिता , शाश्वतता तथा सुख । ब्रह्म तो दिव्य साक्षात्कार का शुभारम्भ है । परमात्मा इस दिव्य साक्षात्कार की मध्य या द्वितीय अवस्था है और भगवान् परम सत्य के चरम साक्षात्कार हैं । अतएव परमात्मा तथा निराकार ब्रह्म दोनों ही परम पुरुष के भीतर रहते हैं ।
सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि प्रकृति परमेश्वर की अपरा शक्ति की अभिव्यक्ति है । भगवान् इस अपरा प्रकृति में परा प्रकृति के लिए यह आध्यात्मिक स्पर्श है । जब इस को गर्भस्थ करते हैं और प्रकृति द्वारा वद्धजीव आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन करना प्रारम्भ करता है , तो वह इस भौतिक जगत् के पद से ऊपर उठने लगता है और क्रमशः परमेश्वर के ब्रह्म बोध तक उठ जाता है ।
ब्रह्म – बोध की प्राप्ति आत्म – साक्षात्कार की दिशा में प्रथम अवस्था है । इस अवस्था में ब्रह्मभूत व्यक्ति भौतिक पद को पार कर जाता है , लेकिन वह ब्रह्म साक्षात्कार में पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता । यदि वह चाहे तो इस ब्रह्मपद पर बना रह सकता है और धीरे – धीरे परमात्मा के साक्षात्कार को और फिर भगवान के साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है ।
वैदिक साहित्य में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं । चारों कुमार पहले निराकार ब्रह्म में स्थित थे , लेकिन क्रमशः वे भक्तिपद तक उठ गए । जो व्यक्ति निराकार ब्रह्मपद से ऊपर नहीं उठ पाता , उसके नीचे गिरने का डर बना रहता है । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि भले ही कोई निराकार ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त कर ले , किन्तु इससे ऊपर उठे विना तथा परम पुरुष के विषय में सूचना प्राप्त किये बिना उसकी बुद्धि विमल नहीं हो पाती ।
अतएव ब्रह्मपद तक उठ जाने के बाद भी यदि भगवान् की भक्ति नहीं की जाती , तो नीचे गिरने का भय बना रहता है । वैदिक भाषा में यह भी कहा गया है – रसो व सः रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति – रस के आगार भगवान् श्रीकृष्ण को जान लेने पर मनुष्य वास्तव में दिव्य आनन्दमय हो जाता है ( तैत्तिरीय – उपनिषद् २.७.१ ) । परमेश्वर छहों ऐश्वयों से पूर्ण हैं और जब भक्त निकट पहुँचता है तो इन छह एश्वयों का आदान – प्रदान होता है ।
राजा का सेवक लगभग राजा के ही समान पद का भाग करता है । इस प्रकार के शाश्वत सुख , अविनाशी सुख तथा शाश्वत जीवन भक्ति के साथ – साथ चलते हैं । अतएव भक्ति में ब्रह्म – साक्षात्कार या शाश्वतता या अमरता सम्मिलित रहते हैं । भक्ति में प्रवृत्त व्यक्ति में ये पहले से ही प्राप्त रहते हैं । जीव यद्यपि स्वभाव से ब्रह्म होता है , लेकिन उसमें भौतिक जगत् पर प्रभुत्व जताने की इच्छा रहती है , जिसके कारण वह नीचे गिरता है ।
अपनी स्वाभाविक स्थिति में जीव तीनों गुणों से परे होता है । लेकिन प्रकृति के संसर्ग से वह अपने को तीनों गुणों – सतो , रजो तथा तमोगुण – में बाँध लेता है । इन्हीं तीनों गुणों के संसर्ग के कारण उसमें भौतिक जगत् पर प्रभुत्व जताने की इच्छा होती है । पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति में प्रवृत्त होने पर वह तुरन्त दिव्य पद को प्राप्त होता है और उसमें प्रकृति को वश में करने की जो अवैध इच्छा है , वह दूर हो जाती है ।
अतएव भक्तों की संगति कर के भक्ति की नौ विधियों – श्रवण , कीर्तन , स्मरण आदि का अभ्यास करना चाहिए । धीरे – धीरे ऐसी संगति से तथा गुरु के प्रभाव से मनुष्य की प्रभुता जताने वाली इच्छा समाप्त हो जाएगी और वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में दृढ़तापूर्वक स्थित हो सकेगा । इस विधि की संस्तुति इस अध्याय के बाइसवें श्लोक से लेकर इस अन्तिम श्लोक तक की गई है ।
भगवान् की भक्ति अतीव सरल है , मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की सेवा में लगे , श्रीविग्रह को अर्पित भोजन का उच्छिष्ट खाए , भगवान् के चरणकमलों पर चढ़ाये गये पुष्पों की सुगंध सूंघे , भगवान् के लीलास्थलों का दर्शन करे , भगवान् के विभिन्न कार्यकलापों और उनके भक्तों के साथ प्रेम – विनिमय के बारे में पढ़े , सदा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
इस महामन्त्र की दिव्य ध्वनि का कीर्तन करे और भगवान् तथा उनके भक्तों के आविर्भाव तथा तिरोधानों को मनाने वाले दिनों में उपवास करे । ऐसा करने से मनुष्य समस्त भौतिक गतिविधियों से विरक्त हो जायेगा । इस प्रकार जो व्यक्ति अपने को ब्रह्मज्योति या ब्रह्म – बोध के विभिन्न प्रकारों में स्थित कर सकता है , वह गुणात्मक रूप में भगवान् के ” तुल्य है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय ” प्रकृति के तीन गुण ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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