भगवद गीता अध्याय 14.2 || ज्ञान की महिमा और सत्‌-रज-तम तीनों गुण || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय चौदह  (Chapter -14)

भगवद गीता अध्याय 14.2 में शलोक 05 से शलोक 18 तक ज्ञान की महिमा और सत्‌-रज-तम तीनों गुणों का वर्णन !

सत्त्वं  रजस्तम  इति  गुणाः  प्रकृतिसम्भवाः । 

निबध्नन्ति   महाबाहो   देहे   देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥ 

सत्त्वम्    –    सतोगुण    ;    रजः    –   रजोगुण    ;     तमः   –    तमोगुण   ;   इति    –  इस प्रकार   ; गुणा:    –   गुण  ;   प्रकृति   – भौतिक प्रकृति से    ; सम्भवाः   –    उत्पन्न    ;    निबध्नन्ति    –  बांधते हैं    ;      महा-बाहो     –     हे बलिष्ठ भुजाओं वाले     ;     देहे    – इस शरीर में    ;   देहिनम्    –    जीव को    ;    अव्ययम्     –     नित्य , अविनाशी । 

भौतिक प्रकृति तीन गुणों से युक्त है । ये हैं – सतो , रजो तथा तमोगुण । हे महाबाहु अर्जुन ! जब शाश्वत जीव प्रकृति के संसर्ग में आता है , तो वह इन गुणों से बँध जाता है । 

तात्पर्य :-  दिव्य होने के कारण जीव को इस भौतिक प्रकृति से कुछ भी लेना – देना नहीं है । फिर भी भौतिक जगत् द्वारा बद्ध हो जाने के कारण वह प्रकृति के तीनों गुणों के जादू के वशीभूत होकर कार्य करता है । चूँकि जीवों को प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार भिन्न – भिन्न प्रकार के शरीर मिले हुए हैं , अतएव वे उसी प्रकृति के अनुसार कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं । यही अनेक प्रकार के सुख – दुख का कारण है । 

तंत्र   सत्त्वं   निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।  

सुखसङ्गेन    बध्नाति    ज्ञानसङ्गेन    चानघ ॥ ६ ॥ 

तत्र   –   वहाँ    ;    सत्त्वम्   –   सतोगुण  ;   निर्मलत्वात्   –   भौतिक जगत् में शुद्धतम होने के कारण   ; प्रकाशकम्     –    प्रकाशित करता हुआ ; अनामयम्     –     किसी पापकर्म के बिना     ;     सुख  –  सुख की  ; सङ्गेन    –    संगति के द्वारा    ;     बध्नाति  – बाँधता है   ;    ज्ञान   – ज्ञान की    ;   सङ्गेन  –   संगति से  ; च   –   भी    ;   अनघ    –    हे पापरहित । 

हे निष्पाप ! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है । जो लोग इस गुण में स्थित होते हैं , वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बँध जाते हैं । 

तात्पर्य :-  प्रकृति द्वारा वद्ध किये गये जीव कई प्रकार के होते हैं । कोई सुखी है और कोई अत्यन्त कर्मठ है , तो दूसरा असहाय है । इस प्रकार के मनोभाव ही प्रकृति में जीव की वदावस्था के कारणस्वरूप हैं । भगवद्गीता के इस अध्याय में इसका वर्णन हुआ है कि वे किस प्रकार भिन्न – भिन्न प्रकार से बद्ध हैं ।

सर्वप्रथम सतोगुण पर विचार किया गया है । इस जगत् में सतोगुण विकसित करने का लाभ यह होता है कि मनुष्य अन्य वद्धजीवों की तुलना में अधिक चतुर हो जाता है । सतोगुणी पुरुष को भौतिक कष्ट उतना पीड़ित नहीं करते और उसमें भौतिक ज्ञान की प्रगति करने की सूझ होती है । इसका प्रतिनिधि ब्राह्मण है , जो सतोगुणी माना जाता है ।

सुख का यह भाव इस विचार के कारण है कि सतोगुण में पापकमों से प्रायः मुक्त रहा जाता है । वास्तव में वैदिक साहित्य में यह कहा गया है कि सतोगुण का अर्थ ही है अधिक ज्ञान तथा सुख का अधिकाधिक अनुभव । सारी कठिनाई यह है कि जब मनुष्य सतोगुण में स्थित होता है , तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि वह ज्ञान में आगे है और अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ है ।

इस प्रकार वह बद हो जाता है । इसके उदाहरण वैज्ञानिक तथा दार्शनिक हैं । इनमें से प्रत्येक को अपने ज्ञान का गर्व रहता है और चूँकि वे अपने रहन – सहन को सुधार लेते हैं , अतएव उन्हें भौतिक सुख की अनुभूति होती है । बद्ध जीवन में अधिक सुख का यह भाव उन्हें भौतिक प्रकृति के गुणों से बाँध देता है ।

अतएव वे सतोगुण में रहकर कर्म करने के प्रति आकृष्ट होते हैं । और जब तक इस प्रकार कर्म करते रहने का आकर्षण बना रहता है , तब तक उन्हें किसी न किसी प्रकार का शरीर धारण करना होता है । इस प्रकार उनकी मुक्ति की या वैकुण्ठलोक जाने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती । वे वारम्बार दार्शनिक , वैज्ञानिक या कवि बनते रहते हैं और बारम्बार जन्म – मृत्यु के उन्हीं दोषों में बँधते रहते हैं । लेकिन माया – मोह के कारण वे सोचते हैं कि इस प्रकार का जीवन आनन्दप्रद है ।

रजो  रागात्मकं  विद्धि  तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । 

तन्निबध्नाति    कौन्तेय   कर्मसङ्गेन   देहिनम् ॥ ७ ॥ 

रजो   –   रजोगुण    ;   राग-आत्मकम्    –   आकांक्षा या काम से उत्पन्न   ;   विद्धि   –   जानो   ;  तृष्णा   –   लोभ से   ;  सङ्ग    –  संगति से ;   समुद्भवम्   –  उत्पन्न    ;   तत्    –  वह  ;  निबध्नाति  –   बाँधता है  ;   कौन्तेय  –  हे कुन्तीपुत्र ;  कर्म-सङ्गेन    –   सकाम कर्म की संगति से    ;     देहिनम्    –    देहधारी को । 

हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णाओं से होती है और इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बँध जाता है । 

तात्पर्य :-  रजोगुण की विशेषता है , पुरुष तथा स्त्री का पारस्परिक आकर्षण । स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आकर्षित होता है । यह रजोगुण कहलाता है । जब इस रजोगुण में वृद्धि हो जाती है , तो मनुष्य भौतिक भोग के लिए लालायित होता है । वह इन्द्रियतृप्ति चाहता है ।

इस इन्द्रियतृप्ति के लिए वह रजोगुणी मनुष्य समाज में या राष्ट्र में सम्मान चाहता है और सुन्दर सन्तान , स्त्री तथा घर सहित सुखी परिवार चाहता है । ये सब रजोगुण के प्रतिफल हैं । जब तक मनुष्य इनकी लालसा करता रहता है , तब तक उसे कठिन श्रम करना पड़ता है ।

अतः यहाँ पर यह स्पष्ट कहा गया है । कि मनुष्य अपने कर्मफलों से सम्बद्ध होकर ऐसे कर्मों से बँध जाता है । अपनी स्त्री , पुत्रों तथा समाज को प्रसन्न करने तथा अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए मनुष्य को कर्म करना होता है ।

अतएव सारा संसार ही न्यूनाधिक रूप से रजोगुणी है । आधुनिक सभ्यता में रजोगुण का मानदण्ड ऊँचा है । प्राचीन काल में सतोगुण को उच्च अवस्था माना जाता था । यदि सतोगुणी लोगों को मुक्ति नहीं मिल पाती , तो जो रजोगुणी हैं । उनके विषय में क्या कहा जाये ?

तमस्त्वज्ञानजं  विद्धि  मोहनं  सर्वदेहिनाम् ।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति      भारत ॥ ८ ॥  

तमः    –     तमोगुण    ;     तु    –     लेकिन   ;   अज्ञान-जम्    –    अज्ञान से उत्पन्न   ;    विद्धि   – जानो     ;     मोहनम्   –    मोह    ;    सर्व-देहिनाम्     – समस्त देहधारी जीवों का   ;    प्रमाद  –     पागलपन    ;    आलस्य    –    आलस   ;    निद्राभिः    –     तथा नींद द्वारा     ;    तत्   –   वह   ;      निबध्नाति  –    बाँधता है    ;     भारत    –    हे भरतपुत्र । 

हे भरतपुत्र ! तुम जान लो कि अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण समस्त देहधारी जीवों का मोह है । इस गुण के प्रतिफल पागलपन ( प्रमाद ) , आलस तथा नींद हैं , जो बद्धजीव को बाँधते हैं ।

तात्पर्य :-  इस श्लोक में तु शब्द का प्रयोग उल्लेखनीय है । इसका अर्थ है कि तमोगुण देहधारी जीव का अत्यन्त विचित्र गुण है । यह सतोगुण के सर्वथा विपरीत है । सतोगुण में ज्ञान के विकास से मनुष्य यह जान सकता है कि कौन क्या है , लेकिन तमोगुण तो इसके सर्वथा विपरीत होता है । जो भी तमोगुण के फेर में पड़ता है , वह पागल हो जाता है और पागल पुरुष यह नहीं समझ पाता कि कौन क्या है ।

वह प्रगति करने के बजाय अधोगति को प्राप्त होता है । वैदिक साहित्य में तमोगुण की परिभाषा इस प्रकार दी गई है – वस्तुयाथात्म्यज्ञानावरकं विपर्ययज्ञानजनकं तमः- अज्ञान के वशीभूत होने पर कोई मनुष्य किसी वस्तु को यथारूप में नहीं समझ पाता ।

उदाहरणार्थ , प्रत्येक व्यक्ति देखता है कि उसका बाबा मरा है , अतएव वह भी मरेगा , मनुष्य मर्त्य है । उसकी सन्तानें भी मरेंगी । अतएव मृत्यु ध्रुव है । फिर भी लोग पागल होकर धन संग्रह करते हैं और नित्य आत्मा की चिन्ता किये विना अहर्निश कठोर श्रम करते रहते हैं । यह पागलपन ही तो है ,अपने पागलपन में वे आध्यात्मिक ज्ञान में कोई उन्नति नहीं कर पाते ।

ऐसे लोग अत्यन्त आलसी होते हैं । जब उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित किया जाता है , तो वे अधिक रुचि नहीं दिखाते । वे रजोगुणी व्यक्ति की तरह भी सक्रिय नहीं रहते । अतएव तमोगुण में लिप्त व्यक्ति का एक अन्य गुण यह भी है । कि वह आवश्यकता से अधिक सोता है ।

छह घंटे की नींद पर्याप्त है , लेकिन ऐसा व्यक्ति दिन भर में दस – बारह घंटे तक सोता है । ऐसा व्यक्ति सदैव निराश प्रतीत होता है और भोतिक द्रव्यों तथा निद्रा के प्रति व्यसनी वन जाता है । ये है तमोगुणी व्यक्ति के लक्षण । 

सत्त्वं  सुखे  सञ्जयति  रजः  कर्मणि  भारत ।  

ज्ञानमावृत्य   तु   तमः   प्रमादे   सञ्जयत्युत ॥ ९ ॥  

सत्त्वम्     –   सतोगुण   ;   सुखे  –  सुख में  ;   निबध्नाति   –   बाँधता है    ;    रजः   – रजोगुण    ;   कर्मणि    –    सकाम कर्म में    ;   भारत   –    हे भरतपुत्र   ;    ज्ञानम्    –    ज्ञान को  ;     आवृत्य    –    ढक कर   ;     तु    –    लेकिन    ;   तमः    –     तमोगुण   ;    प्रमादे     – पागलपन में   ;   निबध्नाति –    बाँधता है    ;     उत    –   ऐसा कहा जाता है । 

हे भरतपुत्र ! सतोगुण मनुष्य को सुख से बाँधता है , रजोगुण सकाम कर्म से बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बाँधता है । 

तात्पर्य :-  सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौद्धिक वृत्ति से उसी तरह सन्तुष्ट रहता है , जिस प्रकार दार्शनिक , वैज्ञानिक या शिक्षक अपनी अपनी विद्याओं में निरत रहकर सन्तुष्ट रहते हैं । रजोगुणी व्यक्ति सकाम कर्म में लग सकता है , वह यथासम्भव धन प्राप्त करके उसे उत्तम कार्यों में व्यय करता है ।

कभी – कभी वह अस्पताल खोलता है और धर्मार्थ संस्थाओं को दान देता है । ये लक्षण हैं , रजोगुणी व्यक्ति के , लेकिन तमोगुण तो ज्ञान को ढक लेता है । तमोगुण में रहकर मनुष्य जो भी करता है , वह न तो उसके लिए , न किसी अन्य के लिए हितकर होता है । 

रजस्तमश्चाभिभूय   सत्त्वं   भवति    भारत । 

रजः  सत्त्वं  तमश्चैव  तमः  सत्त्वं  रजस्तथा ॥ १० ॥

रजः     –      रजोगुण     ;     तमः    –    तमोगुण को    ;     च    –    भी     ;     अभिभूय    –    पार करके   ;  सत्त्वम्     – सतोगुण     ; भवति    – प्रधान बनता है    ;     भारत    –     हे भरतपुत्र    ;     रजः    –    रजोगुण     ;      सत्त्वम्     – सतोगुण को    ;     तमः   –   तमोगुण   ;  च    –   भी    ; एव    –   उसी तरह    ;     तमः    –    तमोगुण    ;    सत्त्वम्    –    सतोगुण को   ;      रजः    –   रजोगुण तथा इस प्रकार । 

हे भरतपुत्र ! कभी – कभी सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण को परास्त करके प्रधान बन जाता है तो कभी रजोगुण सतो तथा तमोगुणों को परास्त कर देता है और कभी ऐसा होता है कि तमोगुण सतो तथा रजोगुणों को परास्त कर देता है । इस प्रकार श्रेष्ठता के लिए निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है । 

तात्पर्य :-  जब रजोगुण प्रधान होता है , तो सतो तथा तमोगुण परास्त रहते हैं । जब सतोगुण प्रधान होता है तो रजो तथा तमोगुण परास्त हो जाते हैं । जब तमोगुण प्रधान होता है तो रजो तथा सतोगुण परास्त हो जाते हैं । यह प्रतियोगिता निरन्तर चलती रहती है ।

अतएव जो कृष्णभावनामृत में वास्तव में उन्नति करने का इच्छुक है , उसे इन तीनों गुणों को लाँधना पड़ता है । प्रकृति के किसी एक गुण की प्रधानता मनुष्य के आचरण में , उसके कार्यकलापों में , उसके खान – पान आदि में प्रकट होती रहती है ।

इन सबकी व्याख्या अगले अध्यायों में की जाएगी । लेकिन यदि कोई चाहे तो वह अभ्यास द्वारा सतोगुण विकसित कर सकता है और इस प्रकार रजो तथा तमोगुणों को परास्त कर सकता है । इस प्रकार से रजोगुण विकसित करके तमो तथा सतो गुणों को परास्त कर सकता है । अथवा कोई चाहे तो वह तमोगुण को विकसित करके रजो तथा सतोगुणों को परास्त कर सकता है ।

यद्यपि प्रकृति के ये तीन गुण होते हैं , किन्तु यदि कोई संकल्प कर ले तो उसे सतोगुण का आशीर्वाद तो मिल ही सकता है और वह इसे लाँघ कर शुद्ध सतोगुण में स्थित हो सकता है , जिसे वासुदेव अवस्था कहते हैं , जिसमें वह ईश्वर के विज्ञान को समझ सकता है । विशिष्ट कार्यों को देख कर ही समझा जा सकता है कि कोन व्यक्ति किस गुण में स्थित है । 

सर्वद्वारेषु    देहेऽस्मिन्प्रकाश     उपजायते ।  

ज्ञानं  यदा  तदा  विद्याद्विवृद्धं  सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥ 

सर्व-द्वारेषु   –  सारे दरवाजों में   ;   देहे  अस्मिन्   –   इस शरीर में   ;    प्रकाश:  – प्रकाशित करने का गुण   ;    उपजायते   – उत्पन्न होता है    ; ज्ञानम्    –    ज्ञान  ;    यदा   – जब   ;    तदा   –   उस समय   ;    विद्यात्   –  जानो    ; विवृद्धम्    –   वड़ा हुआ   ;  सत्त्वम्   –    सतोगुण   ;     इति उत    –    ऐसा कहा गया है । 

सतोगुण की अभिव्यक्ति को तभी अनुभव किया जा सकता है , जब शरीर के सारे द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं । 

तात्पर्य :-  शरीर में नौ द्वार हैं – दो आँखें , दो कान , दो नथुने , मुँह , गुदा तथा उपस्थ । जय प्रत्येक द्वार सत्त्व के लक्षण से दीपित हो जायें , तो समझना चाहिए कि उसमें सतोगुण विकसित हो चुका है । सतोगुण में सारी वस्तुएँ अपनी सही स्थिति में दिखती हैं , सही – सही सुनाई पड़ता है और सही ढंग से उन वस्तुओं का स्वाद मिलता है । मनुष्य का अन्तः तथा बाह्य शुद्ध हो जाता है । प्रत्येक द्वार में सुख के लक्षण उत्पन्न दिखते हैं और यही स्थिति होती है सत्त्वगुण की । 

लोभः  प्रवृत्तिरारम्भः  कर्मणामशमः  स्पृहा । 

रजस्येतानि    जायन्ते    विवृद्ध    भरतर्षभ ॥ १२ ॥  

लोभः    –    लोभ   ;    प्रवृत्तिः    –    कार्य    ;     आरम्भः   –    उद्यम    ;     कर्मणाम्    –    कर्मी में    ;     अशमः    – अनियन्त्रित   ; स्पृहा    –    इच्छा    ;     रजसि    –     रजोगुण में    ;    एतानि  –    ये सव    ;     जायन्ते    –    प्रकट होते हैं    ;     विवृद्धे    – अधिकता होने पर   ;     भरत-ऋषभ     –     हे भरतवंशियों में प्रमुख  । 

हे भरतवंशियों में प्रमुख ! जब रजोगुण में वृद्धि हो जाती है , तो अत्यधिक आसक्ति , सकाम कर्म , गहन उद्यम तथा अनियन्त्रित इच्छा एवं लालसा के लक्षण प्रकट होते हैं । 

तात्पर्य :-  रजोगुणी व्यक्ति कभी भी पहले से प्राप्त पद से संतुष्ट नहीं होता , वह अपना पद बढ़ाने के लिए लालायित रहता है । यदि उसे मकान बनवाना है , तो वह महल बनवाने के लिए भरसक प्रयत्न करता है , मानो वह उस महल में सदा रहेगा । वह इन्द्रिय तृप्ति के लिए अत्यधिक लालसा विकसित कर लेता है ।

उसमें इन्द्रियतृप्ति की कोई सीमा नहीं है । वह सदेव अपने परिवार के बीच तथा अपने घर में रह कर इन्द्रियतृप्ति करते रहना चाहता है । इसका कोई अन्त नहीं है । इन सारे लक्षणों को रजोगुण की विशेषता मानना चाहिए ।  

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च   प्रमादो  मोह  एव  च । 

तमस्येतानि   जायन्ते   विवृद्धे   कुरुनन्दन ॥ १३ ॥ 

अप्रकाश:   –   अँधेरा  ;   अप्रवृत्तिः   –    निष्क्रियता    ;  च   –    तथा   ;   प्रमादः    – पागलपन   ;   मोहः    –    मोह    ;    एव    –     निश्चय ही    ;     च   –   भी    ;    तमसि    – तमोगुण   ;    एतानि    –    ये जायन्ते प्रकट होते हैं    ;    विवृद्धे    – बढ़ जाने पर   ;    कुरु  नन्दन   –     हे कुरुपुत्र । 

जब तमोगुण में वृद्धि हो जाती है , तो हे कुरुपुत्र ! अँधेरा , जड़ता , प्रमत्तता तथा मोह का प्राकट्य होता है । 

तात्पर्य :-  जहाँ प्रकाश नहीं होता , वहाँ ज्ञान अनुपस्थित रहता है । तमोगुणी व्यक्ति किसी नियम में बँधकर कार्य नहीं करता । वह अकारण ही अपनी सनक के अनुसार कार्य करना चाहता है । यद्यपि उसमें कार्य करने की क्षमता होती है , किन्तु वह परिश्रम नहीं करता । यह मोह कहलाता है । यद्यपि चेतना रहती है , लेकिन जीवन निष्क्रिय रहता है । ये तमोगुण के लक्षण हैं ।

यदा  सत्त्वे  प्रवृद्धे  तु  प्रलयं  याति  देहभृत् । 

तदोत्तमविदां          लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥ 

यदा    –    जब   ;    सत्त्वे    –    सतोगुण में   ;   प्रवृद्धे    –    बढ़ जाने पर   ;    तु   –    लेकिन   ;    प्रलयम्     –     संहार , विनाश को ; याति     –    जाता है    ;     देह-भृत्    –    देहधारी    ; तदा    –    उस समय   ;    उत्तम-विदाम्    – ऋषियों के   ;    लोकान्    –    लोकों को   ;   अमलान्    –    शुद्ध   ;   प्रतिपद्यते    –    प्राप्त करता है । 

जब कोई सतोगुण में मरता , तो उसे महर्षियों के विशुद्ध उच्चतर लोकों की प्राप्ति होती है । 

तात्पर्य :-  सतोगुणी व्यक्ति ब्रह्मलोक या जनलोक जैसे उच्च लोकों को प्राप्त करता है और वहाँ देवी सुख भोगता है । अमलान् शब्द महत्त्वपूर्ण है । इसका अर्थ है , ” रजो तथा तमोगुणों से मुक्त ” । भौतिक जगत् में अशुद्धियाँ हैं , लेकिन सतोगुण सर्वाधिक शुद्ध रूप है । विभिन्न जीवों के लिए विभिन्न प्रकार के लोक हैं । जो लोग सतोगुण में मरते हैं , वे उन लोकों को जाते हैं , जहाँ महर्षि तथा महान भक्तगण रहते हैं । 

रजसि    प्रलयं    गत्वा    कर्मसङ्गिषु    जायते । 

तथा   प्रलीनस्तमसि  मूढयोनिषु  तथा  जायते ॥ १५ ॥ 

रजसि     –     रजोगुण में    ;    प्रलयम्    –     प्रलय को    ;    गत्वा   –  प्राप्त करके    ;    कर्म- सङ्घिषु     –    सकाम कर्मियों की संगति  में    ;     जायते   –   जन्म लेता है   ;      तथा    –   उसी प्रकार    ;    प्रलीनः   –    विलीन होकर    ;    तमसि    –    अज्ञान में    ;    मूढ-योनिषु     –   पशुयोनि में    ;     जायते –   जन्म लेता है

जब कोई रजोगुण में मरता है , तो वह सकाम कर्मियों के बीच में जन्म ग्रहण करता है और जब कोई तमोगुण में मरता है , तो वह पशुयोनि में जन्म धारण करता है ।

तात्पर्य :- कुछ लोगों का विचार है कि एक बार मनुष्य जीवन को प्राप्त करके आत्मा कभी नीचे नहीं गिरता । यह ठीक नहीं है । इस श्लोक के अनुसार , यदि कोई तमोगुणी बन जाता है , तो वह मृत्यु के बाद पशुयोनि को प्राप्त होता है । वहाँ से मनुष्य को विकास प्रक्रम द्वारा पुनः मनुष्य जीवन तक आना पड़ता है ।

अतएव जो लोग मनुष्य जीवन के विषय में सचमुच चिन्तित हैं , उन्हें सतोगुणी बनना चाहिए और अच्छी संगति में रहकर गुणों को लाँघ कर कृष्णभावनामृत में स्थित होना चाहिए । यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है । अन्यथा इसकी कोई गारंटी ( निश्चितता ) नहीं कि मनुष्य को फिर से मनुष्ययोनि प्राप्त हो ।

कर्मणः  सुकृतस्याहुः  सात्त्विकं  निर्मलं  फलम् । 

रजसस्तु    फलं    दुःखमज्ञानं   तमसः   फलम् ॥ १६ ॥ 

कर्मणः  –   कर्म का  ;   सु-कृतस्य   –   पुण्य  ;   आहुः   –  कहा गया है   ;  सात्त्विकम्  –   सात्त्विक   ;  निर्मलम्    – विशुद्ध    ;    तु     – लेकिन   ;    फलम्    –   फल    ;    दुःखम्   –    दुख    ;     अज्ञानम्    –    व्यर्थ    ;    फलम्   –   फल     ;     रजसः   –    रजोगुण का   ;     तमसः    – तमोगुण का    ;     फलम्   –   फल । 

पुण्यकर्म का फल शुद्ध होता है और सात्त्विक कहलाता है । लेकिन रजोगुण में सम्पन्न कर्म का फल दुख होता है और तमोगुण में किये गये कर्म मूर्खता में प्रतिफलित होते हैं । 

तात्पर्य :-  सतोगुण में किये गये पुण्यकर्मों का फल शुद्ध होता है , अतएव वे मुनिगण , जो वे समस्त मोह से मुक्त हैं , सुखी रहते हैं । लेकिन रजोगुण में किये गये कर्म दुख के कारण बनते हैं । भौतिकसुख के लिए जो भी कार्य किया जाता है , उसका विफल होना निश्चित है ।

उदाहरणार्थ , यदि कोई गगनचुम्बी प्रासाद बनवाना चाहता है , तो उसके बनने के पूर्व अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है । मालिक को धन – संग्रह के लिए कष्ट उठाना पड़ता है । और प्रासाद बनाने वाले श्रमियों को शारीरिक श्रम करना होता है । इस प्रकार कष्ट तो होते ही हैं ।

अतएव भगवद्गीता का कथन है कि रजोगुण के अधीन होकर जो भी कर्म किया जाता है , उसमें निश्चित रूप से महान कष्ट भोगने होते हैं । इससे यह मानसिक तुष्टि हो सकती है कि मैंने यह मकान बनवाया या इतना धन कमाया , लेकिन यह कोई वास्तविक सुख नहीं है । जहाँ तक तमोगुण का सम्बन्ध है , कर्ता को कुछ ज्ञान नहीं रहता , अतएव उसके समस्त कार्य उस समय दुखदायक होते हैं और बाद में उसे पशु जीवन में जाना होता है ।

पशु जीवन सदेव दुखमय है , यद्यपि माया के वशीभूत होकर वे इसे समझ नहीं पाते । पशुओं का वध भी तमोगुण के कारण है । पशु – वधिक यह नहीं जानते कि भविष्य में इस पशु को ऐसा शरीर प्राप्त होगा , जिससे वह उनका वध करेगा । यही प्रकृति का नियम है । मानव समाज में यदि कोई किसी मनुष्य का वध कर दे तो उसे प्राणदण्ड मिलता है ।

यह राज्य का नियम है । अज्ञानवश लोग यह अनुभव नहीं करते कि परमेश्वर द्वारा नियन्त्रित एक पूरा राज्य है । प्रत्येक जीवित प्राणी परमेश्वर की सन्तान है और उन्हें एक चींटी तक का मारा जाना सह्य नहीं है । इसके लिए मनुष्य को दण्ड भोगना पड़ता है । अतएव स्वाद के लिए पशु – वध में रत रहना घोर अज्ञान है । मनुष्य को पशुओं के वध की आवश्यकता नहीं है , क्योंकि ईश्वर ने अनेक अच्छी वस्तुएँ प्रदान कर रखी हैं ।

यदि कोई किसी कारण से मांसाहार करता है , तो यह समझना चाहिए कि वह अज्ञानवश ऐसा कर रहा है और अपने भविष्य को अंधकारमय बना रहा है । समस्त प्रकार के पशुओं में से गोवध सर्वाधिक अधम है , क्योंकि गाव हमें दूध देकर सभी प्रकार का सुख प्रदान करने वाली है । गोवध एक प्रकार से सबसे अधम कर्म है । वैदिक साहित्य में ( ऋग्वेद ९ .४.६४ ) गोभिः प्रीणित – मत्सरम् सूचित करता है कि जो व्यक्ति दूध पीकर गाय को मारना चाहता है , वह सबसे बड़े अज्ञान में रहता है । वैदिक ग्रन्थों में ( विष्णु पुराण १.१ ९ .६५ ) एक प्रार्थना भी है , जो इस प्रकार है –

नमो    ब्रह्मण्यदेवाय   गोब्राह्मणहिताय   च ।

जगद्धिताय  कृष्णाय  गोविन्दाय  नमो  नमः ॥

” हे प्रभु ! आप गायों तथा ब्राह्मणों के हितेषी हैं और आप समस्त मानव समाज तथा विश्व के हितैषी हैं । ”

तात्पर्य यह है कि इस प्रार्थना में गायों तथा ब्राह्मणों की रक्षा का विशेष उल्लेख है । ब्राह्मण आध्यात्मिक शिक्षा के प्रतीक हैं और गाएँ महत्त्वपूर्ण भोजन की , अतएव इन दोनों जीवों , ब्राह्मणों तथा गायों को पूरी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए । यही सभ्यता की वास्तविक प्रगति है । आधुनिक मानव समाज में आध्यात्मिक ज्ञान की उपेक्षा की जाती है और गोवध को प्रोत्साहित किया जाता है

इससे यही ज्ञात होता है कि मानव – समाज विपरीत दिशा में जा रहा है और अपनी भर्त्सना का पथ प्रशस्त कर रहा है । जो सभ्यता अपने नागरिकों को अगले जन्मों में पशु बनने के लिए मार्गदर्शन करती हो , वह निश्चित रूप से मानव सभ्यता नहीं है । निस्सन्देह , आधुनिक मानव सभ्यता रजोगुण तथा तमोगुण के कारण कुमार्ग पर जा रही है । यह अत्यन्त घातक युग है और समस्त राष्ट्रों को चाहिए कि मानवता को महानतम संकट से बचाने के लिए कृष्णभावनामृत की सरलतम विधि प्रदान करें । 

सत्त्वात्सञ्जायते  ज्ञानं  रजसो  लोभ  एव  च । 

प्रमादमोहौ    तमसो    भवतोऽज्ञानमेव   च ॥ १७ ॥ 

सत्त्वात्    –  सतोगुण से    ;   सञ्जायते     –  उत्पन्न होता है   ;  ज्ञानम्   –   ज्ञान    ;  रजसः   –   रजोगुण से   ; लोभ:    – लालच    ; एव –     निश्चय ही    ;   च    –    भी    ;   प्रमाद  –     पागलपन    ;       मोही    –    तथा मोह ;    तमसः   – तमोगुण से    ;     भवतः   –   होता है ;     अज्ञानम् –    अज्ञान   ;     एव    –    निश्चय ही    ;    च    –    भी । 

सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है , रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से अज्ञान , प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं । 

तात्पर्य :-  चूँकि वर्तमान सभ्यता जीवों के लिए अधिक अनुकूल नहीं है , अतएव उनके लिए कृष्णभावनामृत की संस्तुति की जाती है । कृष्णभावनामृत के माध्यम से समाज में सतोगुण विकसित होगा । सतोगुण विकसित हो जाने पर लोग वस्तुओं को असली रूप में देख सकेंगे । तमोगुण में रहने वाले लोग पशु – तुल्य होते हैं और वे वस्तुओं को स्पष्ट रूप में नहीं देख पाते ।

उदाहरणार्थ , तमोगुण में रहने के कारण लोग यह नहीं देख पाते कि जिस पशु का वे वध कर रहे हैं , उसी के द्वारा वे अगले जन्म में मारे जाएँगे । वास्तविक ज्ञान की शिक्षा न मिलने के कारण वे अनुत्तरदायी बन जाते हैं । इस उच्छृंखलता को रोकने के लिए जनता में सतोगुण उत्पन्न करने वाली शिक्षा देना आवश्यक है । सतोगुण में शिक्षित हो जाने पर वे गम्भीर बनेंगे और वस्तुओं को उनके सही रूप में जान सकेंगे ।

तब लोग सुखी तथा सम्पन्न हो सकेंगे । भले ही अधिकांश लोग सुखी तथा समृद्ध न बन पायें , लेकिन यदि जनता का कुछ भी अंश कृष्णभावनामृत विकसित कर लेता है और सतोगुणी बन जाता है , तो सारे विश्व में शान्ति तथा सम्पन्नता की सम्भावना है । नहीं तो , यदि विश्व के लोग रजोगुण तथा तमोगुण में लगे रहे तो शान्ति और सम्पन्नता नहीं रह पायेगी ।

रजोगुण में लोग लोभी वन जाते हैं और इन्द्रिय भोग की उनकी लालसा की कोई सीमा नहीं होती । कोई भी यह देख सकता है कि भले ही किसी के पास प्रचुर धन तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए पर्याप्त साधन हों , लेकिन उसे न तो सुख मिलता है , न मनःशान्ति । ऐसा संभव भी नहीं है , क्योंकि वह रजोगुण में स्थित है ।

यदि कोई रंचमात्र भी सुख चाहता है , तो धन उसकी सहायता नहीं कर सकता , उसे कृष्णभावनामृत के अभ्यास द्वारा अपने आपको सतोगुण में स्थित करना होगा । जब कोई रजोगुण में रत रहता है , तो वह मानसिक रूप से ही अप्रसन्न नहीं रहता अपितु उसकी वृत्ति तथा उसका व्यवसाय भी अत्यन्त कष्टकारक होते हैं ।

उसे अपनी मर्यादा बनाये रखने के लिए अनेकानेक योजनाएँ बनानी होती हैं । यह सब कष्टकारक है । तमोगुण में लोग पागल ( प्रमत्त ) हो जाते हैं । अपनी परिस्थितियों से ऊब कर के मद्य – सेवन की शरण ग्रहण करते हैं और इस प्रकार वे अज्ञान के गर्त में अधिकाधिक गिरते हैं । जीवन में उनका भविष्य जीवन अन्धकारमय होता है । 

ऊर्ध्वं  गच्छन्ति  सत्त्वस्था  मध्ये  तिष्ठन्ति  राजसाः । 

जघन्यगुणवृत्तिस्था     अधो     गच्छन्ति    तामसाः ॥ १८ ॥ 

ऊर्ध्वम्   –  ऊपर   ;    गच्छन्ति  –  जाते हैं   ;   सत्त्व-स्था:   –  जो सतोगुण में स्थित हैं    ; मध्ये    –    मध्य में    ;     तिष्ठन्ति    –   निवास करते हैं     ;     राजसा:    –    रजोगुणी    ;    जघन्य –     गर्हित    ;   गुण   –    गुण   ;     वृत्ति-स्थाः   –   जिनकी वृत्तियाँ या व्यवसाय    ; अधः    – नीचे , निम्नः   ;     गच्छन्ति    –     जाते हैं     ;     तामसा:    –    तमोगुणी लोग । 

सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं , रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं , और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं , वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं । 

तात्पर्य :-  इस श्लोक में तीनों गुणों के कर्मों के फल को स्पष्ट रूप से बताया गया है । ऊपर के लोकों या स्वर्गलोकों में प्रत्येक व्यक्ति अत्यन्त उन्नत होता है । जीवों में जिस मात्रा में सतोगुण का विकास होता है , उसी के अनुसार उसे विभिन्न स्वर्ग – लोकों में भेजा जाता है । सर्वोच्च – लोक सत्य – लोक या ब्रह्मलोक है , जहाँ इस ब्रह्माण्ड के प्रधान व्यक्ति , ब्रह्माजी निवास करते हैं

हम पहले ही देख चुके हैं कि ब्रह्मलोक में जिस प्रकार जीवन की आश्चर्यजनक परिस्थिति है , उसका अनुमान करना कठिन है । तो भी सतोगुण नामक जीवन की सर्वोच्च अवस्था हमें वहाँ तक पहुँचा सकती है । रजोगुण मिश्रित होता है । यह सतो तथा तमोगुणों के मध्य में होता है । मनुष्य  सदेव  शुद्ध नहीं होता , लेकिन यदि वह पूर्णतया रजोगुणी हो , तो वह इस पृथ्वी पर केवल राजा या धनी व्यक्ति के रूप में रहता है ।

लेकिन गुणों का मिश्रण होते रहने से वह नीचे भी जा सकता है । इस पृथ्वी पर रजो या तमोगुणी लोग बलपूर्वक किसी मशीन के द्वारा उच्चतर – लोकों में नहीं पहुँच सकते । रजोगुण में इसकी भी सम्भावना है कि अगले जीवन में कोई प्रमत्त हो जाये । यहाँ पर निम्नतम गुण , तमोगुण , को अत्यन्त गर्हित ( जघन्य ) कहा गया है । अज्ञानता ( तमोगुण ) विकसित करने का परिणाम अत्यन्त भयावह होता है ।

यह प्रकृति का निम्नतम गुण है । मनुष्य – योनि से नीचे पक्षियों , पशुओं , सरीसृपों , वृक्षों आदि की अस्सी लाख योनियाँ हैं , और तमोगुण के विकास के अनुसार ही लोगों को ये अधम योनियाँ प्राप्त होती रहती हैं ।

यहाँ पर तामसाः शब्द अत्यन्त सार्थक है । यह उनका सूचक है , जो उच्चतर गुणों तक ऊपर न उठ कर निरन्तर तमोगुण में ही बने रहते हैं । उनका भविष्य अत्यन्त अंधकारमय होता है । तमोगुणी तथा रजोगुणी लोगों के लिए सतोगुणी बनने का सुअवसर है और यह कृष्णभावनामृत विधि से मिल सकता है । लेकिन जो इस सुअवसर का लाभ नहीं उठाता , वह निम्नतर गुणों में बना रहेगा ।

भगवद गीता अध्याय 14.2~ज्ञान की महिमा और सत्‌-रज- तम तीनों गुणों का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita sat-raj-tam teen goon Ch14.2
भगवद गीता अध्याय 14.2

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