अध्याय तेरह (Chapter -13)
भगवद गीता अध्याय 13.2 में शलोक 19 से शलोक 34 तक ज्ञान सहित प्रकृति-पुरुष का वर्णन !
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १९ ॥
इति – इस प्रकार ; क्षेत्रम् – कर्म का क्षेत्र ( शरीर ) ; तथा – भी ; ज्ञानम् – ज्ञान ; ज्ञेयम् – जानने योग्य ; च – भी ; उक्तम् – कहा गया ; समासतः – संक्षेप में ; मत्-भक्त: – मेरा भक्त ; एतत् – यह सब ; विज्ञाय – जान कर ; मत्-भावाय – मेरे स्वभाव को ; उपपद्यते – प्राप्त करता है ।
इस प्रकार मैंने कर्म क्षेत्र ( शरीर ) , ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है । इसे केवल मेरे भक्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्य :- भगवान् ने शरीर , ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है । यह ज्ञान तीन वस्तुओं का है- ज्ञाता , ज्ञेय तथा जानने की विधि । ये तीनों मिलकर विज्ञान कहलाते हैं । पूर्ण ज्ञान भगवान् के अनन्य भक्तों द्वारा प्रत्यक्षतः समझा जा सकता है ।
अन्य इसे समझ पाने में असमर्थ रहते हैं । अद्वैतवादियों का कहना है कि अन्तिम अवस्था में ये तीनों बातें एक हो जाती हैं , लेकिन भक्त इसे नहीं मानते । ज्ञान तथा ज्ञान के विकास का अर्थ है , अपने आपको कृष्णभावनामृत में समझना ।
हम भौतिक चेतना द्वारा संचालित होते हैं , लेकिन ज्योंही हम अपनी सारी चेतना कृष्ण के कार्यों में स्थानान्तरित कर देते हैं , और इसका अनुभव करते हैं कि कृष्ण ही सब कुछ हैं , तो हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में , ज्ञान तो भक्ति को पूर्णतया समझने के लिए प्रारम्भिक अवस्था है ।
पन्द्रहवें अध्याय में इसकी विशद व्याख्या की गई है । अब हम सारांश रूप में कह सकते हैं कि श्लोक ६ तथा ७ के महाभूतानि से लेकर चेतना धृतिः तक भौतिक तत्त्वों तथा जीवन के लक्षणों की कुछ अभिव्यक्तियों का विश्लेषण हुआ है ।
ये सब मिलकर शरीर अथवा कार्यक्षेत्र का निर्माण करते हैं , तथा श्लोक ८ से लेकर १२ तक अमानित्वम् से लेकर तत्त्वज्ञानार्थ – दर्शनम् तक कार्यक्षेत्र के दोनों प्रकार के ज्ञाताओं , अर्थात् आत्मा तथा परमात्मा के ज्ञान की विधि का वर्णन हुआ है ।
श्लोक १३ से १८ में अनादि मत्परम् से लेकर हृदि सर्वस्य वितिम्तक जीवात्मा तथा परमात्मा का वर्णन हुआ है । इस प्रकार तीन बातों का वर्णन हुआ है – कार्यक्षेत्र ( शरीर ) , जानने की विधि तथा आत्मा एवं परमात्मा । यहाँ इसका विशेष उल्लेख हुआ है कि भगवान् के अनन्य भक्त ही इन तीनों बातों को ठीक से समझ सकते हैं ।
अतएव ऐसे भक्तों के लिए भगवद्गीता अत्यन्त लाभप्रद है , वे ही परम लक्ष्य , अर्थात् परमेश्वर कृष्ण के स्वभाव को प्राप्त कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में , केवल भक्त ही भगवद्गीता को समझ सकते हैं और वांछित फल प्राप्त कर सकते हैं — अन्य लोग नहीं ।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ २० ॥
प्रकृतिम् – भौतिक प्रकृति को ; पुरुषम् – जीव को ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; विद्धि – जानो ; अनादी – आदिरहित ; उभौ – दोनों ; अपि – भी ; विकारान् – विकारों को ; च – भी ; गुणान् – प्रकृति के तीन गुण ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; विद्धि – जानो ; प्रकृति – भौतिक प्रकृति से ; सम्भवान् – उत्पन्न ।
प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए । उनके विकार तथा गुण प्रकृतिजन्य है ।
तात्पर्य :- इस अध्याय के ज्ञान से मनुष्य शरीर ( क्षेत्र ) तथा शरीर के ज्ञाता ( जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों ) को जान सकता है । शरीर क्रियाक्षेत्र है और प्रकृति से निर्मित है । शरीर के भीतर बद्ध तथा उसके कार्यों का भोग करने वाला आत्मा ही पुरुष या जीव है । वह ज्ञाता है और इसके अतिरिक्त भी दूसरा ज्ञाता होता है , जो परमात्मा है ।
निस्सन्देह यह समझना चाहिए कि परमात्मा तथा आत्मा एक ही भगवान की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । जीवात्मा उनकी शक्ति है ओर परमात्मा उनका साक्षात् अंश ( स्वांश ) है । 1 प्रकृति तथा जीव दोनों ही नित्य हैं । तात्पर्य यह है कि ये सृष्टि के पहले से विद्यमान हैं ।
यह भौतिक अभिव्यक्ति परमेश्वर की शक्ति से है , और उसी प्रकार जीव भी हैं , किन्तु जीव श्रेष्ठ शक्ति है । जीव तथा प्रकृति इस ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने के पूर्व से विद्यमान हैं । प्रकृति तो महाविष्णु में लीन हो गई और जब इसकी आवश्यकता पड़ी तो यह महत् तत्त्व के द्वारा प्रकट हुई ।
इसी प्रकार से जीव भी उनके भीतर रहते हैं , और चूँकि वे बद्ध हैं , अतएव वे परमेश्वर की सेवा करने से विमुख हैं । इस तरह उन्हें वैकुण्ठ – लोक में प्रविष्ट होने नहीं दिया जाता ।
लेकिन प्रकृति के व्यक्त होने पर इन्हें भौतिक जगत् में पुनः कर्म करने और वैकुण्ठ – लोक में प्रवेश करने की तैयारी करने का अवसर दिया जाता है । इस भौतिक सृष्टि का यही रहस्य है । वास्तव में जीवात्मा मूलतः परमेश्वर का अंश है , लेकिन अपने विद्रोही स्वभाव के कारण वह प्रकृति के भीतर वद्ध रहता है ।
इसका कोई महत्त्व नहीं है कि ये जीव या श्रेष्ठ जीव किस प्रकार प्रकृति के सम्पर्क में आये । किन्तु भगवान् जानते हैं कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ । शास्त्रों में भगवान् का वचन है कि जो लोग प्रकृति द्वारा आकृष्ट हैं , वे कठिन जीवन संघर्ष कर रहे हैं ।
लेकिन इन कुछ श्लोकों के वर्णनों से यह निश्चित समझ लेना होगा कि प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा उत्पन्न विकार प्रकृति की ही उपज है । जीवों के सारे विकार तथा प्रकार शरीर के कारण है । जहां तक आत्मा का सम्बन्ध है , सारे जीव एक से है ।
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २१ ॥
कार्य – कार्य ; कारण – तथा कारण का ; कर्तृत्वे – सृजन के मामले में ; हेतुः – कारण ; प्रकृतिः – प्रकृति ; कच्यते – कही जाती है ; पुरुषः – जीवात्मा ; सुख: – सुख ; दुःखानाम् – तथा दुख का ; भोक्तृत्वे – भोग में ; हेतु: – कारण ; उच्यते – कहा जाता है ।
प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों ( परिणामों ) की हेतु कही जाती है , और जीव ( पुरुष ) इस संसार में विविध सुख – दुख के भोग का कारण कहा जाता है ।
तात्पर्य :- जीवों में शरीर तथा इन्द्रियों की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रकृति के कारण हैं । कुल मिलाकर ८४ लाख भिन्न – भिन्न योनियाँ हैं और ये सब प्रकृतिजन्य हैं ।
जीव के विभिन्न इन्द्रिय – सुखों से ये योनियाँ मिलती हैं जो इस प्रकार इस शरीर या उस शरीर में रहने की इच्छा करता है । जब उसे विभिन्न शरीर प्राप्त होते हैं , तो वह विभिन्न प्रकार के सुख तथा दुख भोगता है ।
उसके भौतिक सुख – दुख उसके शरीर के कारण होते हैं , स्वयं उसके कारण नहीं । उसकी मूल अवस्था में भोग में कोई सन्देह नहीं रहता , अतएव वही उसकी वास्तविक स्थिति है ।
वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए भौतिक जगत् में आता है । वैकुण्ठ – लोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं होती । वैकुण्ठ – लोक शुद्ध है , किन्तु भौतिक जगत् में प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न प्रकार के शरीर – सुखों को प्राप्त करने के लिए कठिन संघर्ष में रत रहता है ।
यह कहने से वात और स्पष्ट हो जाएगी कि यह शरीर इन्द्रियों का कार्य है । इन्द्रियाँ इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं । यह शरीर तथा हेतु रूप इन्द्रियाँ प्रकृति द्वारा प्रदत्त हैं , और जैसा कि अगले श्लोक से स्पष्ट हो जाएगा , जीव को अपनी पूर्व आकांक्षा तथा कर्म के अनुसार परिस्थितियों के वश वरदान या शाप मिलता है ।
जीव की इच्छाओं तथा कर्मों के अनुसार प्रकृति उसे विभिन्न स्थानों में पहुँचाती है । जीव स्वयं ऐसे स्थानों में जाने तथा मिलने वाले सुख – दुख का कारण होता है । एक प्रकार का शरीर प्राप्त हो जाने पर वह प्रकृति के वश में हो जाता है , क्योंकि शरीर , पदार्थ होने के कारण , प्रकृति के नियमानुसार कार्य करता है ।
उस समय शरीर में ऐसी शक्ति नहीं कि वह उस नियम को बदल सके । मान लीजिये कि जीव को कुत्ते का शरीर प्राप्त हो गया । ज्याही वह कुत्ते के शरीर में स्थापित किया जाता है , उसे कुत्ते की भाँति आचरण करना होता है । वह अन्यथा आचरण नहीं कर सकता ।
यदि जीव को सुकर का शरीर प्राप्त यदि जीव को देवता का शरीर प्राप्त हो जाता है , तो उसे अपने शरीर के अनुसार कार्य करना होता है । यही प्रकृति का नियम है । लेकिन समस्त परिस्थितियों में परमात्मा जीव के साथ रहता है ।
वेदों में ( मुण्डक उपनिषद् ३.१.१ ) इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है – द्वा सुपर्णा सयुजा सखायः । परमेश्वर जीव पर इतना कृपालु है कि वह सदा जीव के साथ रहता है और सभी परिस्थितियों में परमात्मा रूप में विद्यमान रहता है ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्गे प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २२ ॥
पुरुषः – जीव ; प्रकृतिस्थ: – भौतिक शक्ति में स्थित होकर ; हि – निश्चय ही ; भुङ्क्ते – भोगता है ; प्रकृति-जान् – प्रकृति से उत्पन्न ; गुणान् – गुणों को ; कारणम् – कारण ; गुण-सङ्गः – प्रकृति के गुणों की संगति ; अस्य – जीव की ; सत्-असत् – अच्छी तथा बुरी ; योनि – जीवन की योनियाँ ; जन्मसु – जन्मों में ।
इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है । यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है । इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं ।
तात्पर्य :- यह श्लोक यह समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है कि जीव एक शरीर से दूसरे में किस प्रकार देहान्तरण करता है । दूसरे अध्याय में बताया गया है कि जीव एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर उसी तरह धारण करता है , जिस प्रकार कोई वस्त्र बदलता है । वस्त्र का परिवर्तन इस संसार के प्रति आसक्ति के कारण है ।
जब तक जीव इस मिथ्या प्राकट्य पर मुग्ध रहता है , तब तक उसे निरन्तर देहान्तरण करना पड़ता है । प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के फलस्वरूप वह ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में फँसता रहता है ।
भौतिक इच्छा के वशीभूत हो , उसे कभी देवता के रूप में , तो कभी मनुष्य के रूप में , कभी पशु , कभी पक्षी , कभी कीड़े , कभी जल – जन्तु , कभी सन्त पुरुष , तो कभी खटमल के रूप में जन्म लेना होता है ।
यह क्रम चलता रहता है और प्रत्येक परिस्थिति में जीव अपने को परिस्थितियों का स्वामी मानता रहता है , जबकि वह प्रकृति के वश में होता है । यहाँ पर बताया गया है कि जीव किस प्रकार विभिन्न शरीरों को प्राप्त करता है ।
यह प्रकृति के विभिन्न गुणों की संगति के कारण है । अतएव इन गुणों से ऊपर उठकर दिव्य पद पर स्थित होना होता है । यही कृष्णभावनामृत कहलाता है । कृष्णभावनामृत में स्थित हुए बिना भौतिक चेतना मनुष्य को एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण करने के लिए बाध्य करती रहती है , क्योंकि अनादि काल से उसमें भौतिक आकांक्षाएँ व्याप्त हैं ।
लेकिन उसे इस विचार को बदलना होगा । यह परिवर्तन प्रामाणिक स्रोतों से सुनकर ही लाया जा सकता है । इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अर्जुन है , जो कृष्ण से ईश्वर – विज्ञान का श्रवण करता है ।
यदि जीव इस श्रवण – विधि को अपना ले , तो प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चिर – अभिलषित आकांक्षा समाप्त हो जाय , और क्रमशः ज्यों – ज्यों वह प्रभुत्व जताने की इच्छा को कम करता जाएगा , त्यों – त्यों उसे आध्यात्मिक सुख मिलता जाएगा । एक वैदिक मंत्र में कहा गया है कि ज्यों – ज्यों जीव भगवान् की संगति से विद्वान् बनता जाता है , त्यों – त्यों उसी अनुपात में वह आनन्दमय जीवन का आस्वादन करता है ।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ २३ ॥
उपद्रष्टा – साक्षी ; अनुमन्ता – अनुमति देने वाला ; च – भी ; भर्ता – स्वामी ; भोक्ता – परम भोक्ता ; महा-ईश्वरः – परमेश्वर ; परम्-आत्मा – परमात्मा ; इति – भी ; च – तथा ; अपि – निस्सन्देह ; उक्त: – कहा गया है ; देहे – शरीर में ; अस्मिन् – इस ; पुरुषः – भोक्ता ; परः – दिव्य ।
तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है , जो ईश्वर है , परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है ।
तात्पर्य :- यहाँ पर कहा गया है कि जीवात्मा के साथ निरन्तर रहने वाला परमात्मा परमेश्वर का प्रतिनिधि है । वह सामान्य जीव नहीं है । चूँकि अद्वैतवादी चिन्तक शरीर के ज्ञाता को एक मानते हैं , अतएव उनके विचार से परमात्मा तथा जीवात्मा में कोई अन्तर नहीं है । इसका स्पष्टीकरण करने के लिए भगवान् कहते हैं कि वे प्रत्येक शरीर में परमात्मा – रूप में विद्यमान हैं ।
वे जीवात्मा से भिन्न हैं , वे पर हैं , दिव्य हैं । जीवात्मा किसी विशेष क्षेत्र के कार्यों को भोगता है , लेकिन परमात्मा किसी सीमित भोक्ता के रूप में या शारीरिक कर्मों में भाग लेने वाले के रूप में विद्यमान नहीं रहता , अपितु वह साक्षी , अनुमतिदाता तथा परम भोक्ता के रूप में स्थित रहता है । उसका नाम परमात्मा है , आत्मा नहीं । वह दिव्य है ।
अतः यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आत्मा तथा परमात्मा भिन्न भिन्न हैं । परमात्मा के हाथ – पैर सर्वत्र रहते हैं , लेकिन जीवात्मा के ऐसा नहीं होता । चूँकि परमात्मा परमेश्वर है , अतएव वह अन्दर से जीव की भौतिक भोग की आंकाक्षा पूर्ति की अनुमति देता है । परमात्मा की अनुमति के बिना जीवात्मा कुछ भी नहीं कर सकता । जीव भुक्त है और भगवान् भोक्ता या पालक हैं ।
जीव अनन्त हैं और भगवान् उन सबमें मित्र – रूप में निवास करता है । तथ्य यह है कि प्रत्येक जीव परमेश्वर का नित्य अंश है और दोनों मित्र रूप में घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित हैं । लेकिन जीव में परमेश्वर के आदेश को अस्वीकार करने की , प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के उद्देश्य से स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करने की प्रवृत्ति पाई जाती है । चूँकि उसमें यह प्रवृत्ति होती है , अतएव वह परमेश्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है ।
जीव या तो भौतिक शक्ति में या आध्यात्मिक शक्ति में स्थित हो सकता है । जब तक वह भौतिक शक्ति द्वारा वद्ध रहता है , तब तक परमेश्वर मित्र रूप में परमात्मा की तरह उसके भीतर रहते हैं , जिससे उसे आध्यात्मिक शक्ति में वापस ले जा सकें ।
भगवान् उसे आध्यात्मिक शक्ति में वापस ले जाने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं , लेकिन अपनी अल्प स्वतन्त्रता के कारण जीव निरन्तर आध्यात्मिक प्रकाश की ठुकराता है । स्वतन्त्रता का यह दुरुपयोग ही बद्ध प्रकृति में उसके भौतिक संघर्ष का कारण है ।
अतएव भगवान् निरन्तर वाहर तथा भीतर से आदेश देते रहते हैं । बाहर से वे भगवद्गीता के रूप में उपदेश देते हैं और भीतर से वे जीव को यह विश्वास दिलाते हैं कि भौतिक क्षेत्र में उसके कार्यकलाप वास्तविक सुख के लिए अनुकूल नहीं हैं । उनका वचन है ” इसे त्याग दो और मेरे प्रति श्रद्धा करो तभी तुम सुखी होगे । ”
इस प्रकार जो बुद्धिमान व्यक्ति परमात्मा में अथवा भगवान् में श्रद्धा रखता है , वह सच्चिदानन्दमय जीवन की ओर प्रगति करने लगता है ।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २४ ॥
यः – जो ; एवम् – इस प्रकार ; वेत्ति – जानता है ; पुरुषम् – जीव को ; प्रकृतिम् – प्रकृति को ; च – तथा ; गुणैः – प्रकृति के गुणों के ; सह – साथ ; सर्वथा – सभी तरह से ; वर्तमान – स्थित होकर ; अपि – के बावजूद ; न – कभी नहीं ; सः – वह ; भूयः – फिर से ; अभिजायते – जन्म लेता है ।
जो व्यक्ति प्रकृति , जीव तथा प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रिया से सम्बन्धित इस विचारधारा को समझ लेता है , उसे मुक्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है । उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो , यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा ।
तात्पर्य :- प्रकृति , परमात्मा , आत्मा तथा इनके अन्तःसम्बन्ध की स्पष्ट जानकारी हो जाने पर मनुष्य मुक्त होने का अधिकारी बनता है और वह इस भौतिक प्रकृति में लौटने के लिए बाध्य हुए विना वैकुण्ठ वापस चले जाने का अधिकारी बन जाता है ।
यह ज्ञान का फल है । ज्ञान यह समझने के लिए ही होता है कि दैवयोग से जीव इस संसार में आ गिरा है । उसे प्रामाणिक व्यक्तियों , साधु – पुरुषों तथा गुरु की संगति में निजी प्रयास द्वारा अपनी स्थिति समझनी है , और तब जिस रूप में भगवान् ने भगवद्गीता कही है , उसे समझ कर आध्यात्मिक चेतना या कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना है ।
तब यह निश्चित है कि वह इस संसार में फिर कभी नहीं आ सकेगा , वह सच्चिदानन्दमय जीवन विताने के लिए वैकुण्ठ – लोक भेज दिया जायेगा ।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्य सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २५ ॥
ध्यानेन – ध्यान के द्वारा ; आत्मनि – अपने भीतर ; पश्यन्ति – देखते हैं ; केचित् – कुछ लोग ; आत्मानम् – परमात्मा को ; आत्मना – मन से ; अन्ये – अन्य लोग ; साङ्ख्येन – दार्शनिक विवेचना द्वारा ; योगेन – योग पद्धति के द्वारा ; कर्म-योगेन – निष्काम कर्म के द्वारा ; च – भी ; अपरे – अन्य ।
कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते हैं , तो दूसरे लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा और कुछ ऐसे हैं जो निष्काम कर्मयोग द्वारा देखते हैं ।
तात्पर्य :- भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि जहाँ तक मनुष्य द्वारा आत्म – साक्षात्कार की खोज का प्रश्न है , वद्धजीवों की दो श्रेणियाँ हैं । जो लोग नास्तिक , अज्ञेयवादी तथा संशयवादी हैं , वे आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन हैं । किन्तु अन्य लोग , जो आध्यात्मिक जीवन सम्बन्धी अपने ज्ञान के प्रति श्रद्धावान हैं , वे आत्मदर्शी भक्त , दार्शनिक तथा निष्काम कर्मयोगी कहलाते हैं ।
जो लोग सदेव अद्वैतवाद की स्थापना करना चाहते हैं , उनकी भी गणना नास्तिकों एवं अजेयवादियों में की जाती है । दूसरे शब्दों में , केवल भगवद्भक्त ही आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त होते हैं , क्योंकि वे समझते हैं कि इस प्रकृति के भी परे वैकुण्ठ – लोक तथा भगवान् है , जिसका विस्तार परमात्मा के रूप में प्रत्येक व्यक्ति में हुआ है , और जो सर्वव्यापी है ।
निस्सन्देह कुछ लोग ऐसे भी हैं , जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा भगवान् को समझने का प्रयास करते हैं । इन्हें श्रद्धावानों की श्रेणी में गिना जा सकता है । सांख्य दार्शनिक इस भौतिक जगत का विश्लेषण २४ तत्त्वों के रूप में करते हैं , और वे आत्मा को पच्चीसवाँ तत्त्व मानते हैं ।
जब वे आत्मा की प्रकृति को भौतिक तत्त्वों से परे समझने में समर्थ होते हैं , तो वे यह भी समझ जाते हैं कि आत्मा के भी ऊपर भगवान् है , और वह छब्बीसवाँ तत्त्व है । इस प्रकार वे भी क्रमशः कृष्णभावनामृत की भक्ति के स्तर तक पहुँच जाते हैं । जो लोग निष्काम भाव से कर्म करते हैं , उनकी भी मनोवृत्ति सही होती है ।
उन्हें कृष्णभावनामृत की भक्ति के पद तक बढ़ने का अवसर दिया जाता है । यहाँ पर यह कहा गया है कि कुछ लोग ऐसे होते हैं , जिनकी चेतना शुद्ध होती है , और वे ध्यान द्वारा परमात्मा की खोजने का प्रयत्न करते हैं , और जब वे परमात्मा को अपने अन्दर खोज लेते हैं , तो वे दिव्य पद को प्राप्त होते हैं ।
इसी प्रकार अन्य लोग हैं , जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा परमात्मा को जानने का प्रयास करते हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो हठयोग द्वारा अपने बालकों जैसे क्रियाकलापों द्वारा , भगवान् को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं ।
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ २६ ॥
अन्ये – अन्य लोग ; तु – लेकिन ; एवम् – इस प्रकार ; अजानन्तः – आध्यात्मिक ज्ञान से रहित ; श्रुत्वा – सुनकर ; अन्येभ्यः – अन्यों से ; उपासते – पूजा करना प्रारम्भ कर देते हैं ; ते – वे ; अपि – भी ; च – तथा ; अतितरन्ति – पार कर जाते हैं ; एव – निश्चय ही ; मृत्युम् – मृत्यु का मार्ग ; श्रुति-परायणाः – श्रवण विधि के प्रति रुचि रखने वाले ।
ऐसे भी लोग हैं जो यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत नहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के विषय में सुनकर उनकी पूजा करने लगते हैं । ये लोग भी प्रामाणिक पुरुषों से श्रवण करने की मनोवृत्ति होने के कारण जन्म तथा मृत्यु के पथ को पार कर जाते हैं ।
तात्पर्य :- यह श्लोक आधुनिक समाज पर विशेष रूप से लागू होता है , क्योंकि आधुनिक समाज में आध्यात्मिक विषयों की शिक्षा नहीं दी जाती । कुछ लोग नास्तिक प्रतीत होते हैं , तो कुछ अजेयवादी तथा दार्शनिक , लेकिन वास्तव में इन्हें दर्शन का कोई ज्ञान नहीं होता । जहाँ तक सामान्य व्यक्ति की बात है , यदि वह पुण्यात्मा है , तो श्रवण द्वारा प्रगति कर सकता है ।
यह श्रवण विधि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । आधुनिक जगत् में कृष्णभावनामृत का उपदेश करने वाले भगवान् चैतन्य ने श्रवण पर अत्यधिक वल दिया था , क्योंकि यदि सामान्य व्यक्ति प्रामाणिक स्रोतों से केवल श्रवण करे , तो वह प्रगति कर सकता है – विशेषतया चैतन्य महाप्रभु से श्रद्धापूर्वक यदि यह हरे कृष्ण , हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण , हरे हरे / हरे राम , हरे राम , राम राम , हरे हर- दिव्य ध्वनि को सुने ।
इसीलिए कहा गया है कि सभी व्यक्तियों को सिद्ध पुरुषों से श्रवण करने का लाभ उठाना चाहिए , और इस तरह क्रम से प्रत्येक वस्तु समझने में समर्थ बनना चाहिए । तब निश्चित रूप से परमेश्वर की पूजा हो सकेगी ।
भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि इस युग में मनुष्य को अपना पद बदलने की आवश्यकता नहीं है , अपितु उसे चाहिए कि वह मनोधार्मिक तर्क द्वारा परमसत्य को समझने के प्रयास को त्याग दे ।
उसे उन व्यक्तियों का दास बनना चाहिए , जिन्हें परमेश्वर का ज्ञान है । यदि कोई इतना भाग्यशाली हुआ कि उसे शुद्ध भक्त की शरण मिल सके और वह उससे आत्म – साक्षात्कार के विषय में श्रवण करके उसके पदचिन्हों पर चल सके , तो उसे क्रमशः शुद्ध भक्त का पद प्राप्त हो जाता है ।
इस श्लोक में श्रवण विधि पर विशेष रूप से बल दिया गया है , और यह सर्वथा उपयुक्त है । यद्यपि सामान्य व्यक्ति तथाकथित दार्शनिकों की भाँति प्रायः समर्थ नहीं होता , लेकिन प्रामाणिक व्यक्ति से श्रद्धापूर्वक श्रवण करने से इस भवसागर को पार करके भगवद्धाम वापस जाने में उसे सहायता मिलेगी ।
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ २७ ॥
यावत् – जो भी ; सञ्जायते – उत्पन्न होता है ; किञ्चित् – कुछ भी ; सत्त्वम् – अस्तित्व ; स्थावर –अचर ; जङ्गमम् – चर ; क्षेत्र – शरीर का ; क्षेत्र-ज्ञ – तथा शरीर के ज्ञाता के ; संयोगात् – संयोग ( जुड़ने ) से ; तत् – तुम उसे जानो ; भरत-ऋषभ – हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ! यह जान लो कि चर तथा अचर जो भी तुम्हें अस्तित्व में दीख रहा है , वह कर्मक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में ब्रह्माण्ड की सृष्टि के भी पूर्व से अस्तित्व में रहने वाली प्रकृति तथा जीव दोनों की व्याख्या की गई है । जो कुछ भी उत्पन्न किया जाता है , वह जीव तथा प्रकृति का संयोग मात्र होता है । वृक्ष , पर्वत आदि ऐसी अनेक अभिव्यक्तियाँ हैं , जो गतिशील नहीं हैं ।
इनके साथ ही ऐसी अनेक वस्तुएँ हैं , जो गतिशील हैं और ये सव भौतिक प्रकृति तथा परा प्रकृति अर्थात् जीव के संयोग मात्र हैं । परा प्रकृति , जीव के स्पर्श के बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता ।
भौतिक प्रकृति तथा आध्यात्मिक प्रकृति का सम्बन्ध निरन्तर चल रहा है और यह संयोग परमेश्वर द्वारा सम्पन्न कराया जाता है । अतएव वे ही परा तथा अपरा प्रकृतियों के नियामक हैं । अपरा प्रकृति उनके द्वारा सृष्ट है और परा प्रकृति उस अपरा प्रकृति में रखी जाती है । इस प्रकार सारे कार्य तथा अभिव्यक्तियाँ घटित होती हैं ।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २८ ॥
समम् – समभाव से ; सर्वेषु – समस्त ; भूतेषु – जीवों में ; तिष्ठन्तम् – वास करते हुए ; परम-ईश्वरम् – परमात्मा को ; विनश्यत्सु – नाशवान ; अविनश्यन्तम् – नाशरहित ; यः – जो ; पश्यति – देखता है ; सः – वही ; पश्यति – वास्तव में देखता है ।
जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा , न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है , वही वास्तव में देखता है ।
तात्पर्य :- जो व्यक्ति सत्संगति से तीन वस्तुओं को – शरीर , शरीर का स्वामी या आत्मा , तथा आत्मा के मित्र को – एकसाथ संयुक्त देखता है , वही सच्चा ज्ञानी है । जब तक आध्यात्मिक विषयों के वास्तविक ज्ञाता की संगति नहीं मिलती , तब तक कोई इन तीनों वस्तुओं को नहीं देख सकता ।
जिन लोगों की ऐसी संगति नहीं होती , वे अज्ञानी हैं , वे केवल शरीर को देखते हैं , और जब यह शरीर विनष्ट हो जाता है , तो समझते हैं कि सब कुछ नष्ट हो गया । लेकिन वास्तविकता यह नहीं है । शरीर के विनष्ट होने पर आत्मा तथा परमात्मा का अस्तित्व बना रहता है , और वे अनेक विविध चर तथा अचर रूपों में सदैव जाते रहते हैं ।
कभी – कभी संस्कृत शब्द परमेश्वर का अनुवाद जीवात्मा के रूप में किया जाता है , क्योंकि आत्मा ही शरीर का स्वामी है और शरीर के विनाश होने पर वह अन्यत्र देहान्तरण कर जाता है । इस तरह वह स्वामी है । लेकिन कुछ लोग इस परमेश्वर शब्द का अर्थ परमात्मा लेते हैं । प्रत्येक दशा में परमात्मा तथा आत्मा दोनों रह जाते हैं । वे विनष्ट नहीं होते । जो इस प्रकार देख सकता है , वही वास्तव में देख सकता है कि क्या घटित हो रहा है ।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २९ ॥
समम् – समान रूप से ; पश्यन् – देखते हुए ; हि – निश्चय ही ; सर्वत्र – सभी जगह ; समवस्थितम् – समान रूप से स्थित ; ईश्वरम् – परमात्मा को ; न – नहीं ; हिनस्ति – नीचे गिराता है ; आत्मना – मन से ; आत्मानम् – आत्मा को ; ततः – तब ; याति – पहुँचता है ; पराम् – दिव्य ; गतिम् – गन्तव्य को ।
जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है , वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता । इस प्रकार वह दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है ।
तात्पर्य :- जीव , अपना भौतिक अस्तित्व स्वीकार करने के कारण , अपने आध्यात्मिक अस्तित्व से पृथक् स्थित हो गया है । किन्तु यदि वह यह समझता है कि परमेश्वर अपने परमात्मा स्वरूप में सर्वत्र स्थित हैं , अर्थात् यदि वह भगवान् की उपस्थिति प्रत्येक वस्तु में देखता है , तो वह विघटनकारी मानसिकता से अपने आपको नीचे नहीं गिराता , और इसलिए वह क्रमशः वैकुण्ठ – लोक की ओर बढ़ता जाता है ।
सामान्यतया मन इन्द्रियतृप्तिकारी कार्यों में लीन रहता है , लेकिन जब वही मन परमात्मा की ओर उन्मुख होता है , तो मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ जाता है ।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ ३० ॥
प्रकृत्या – प्रकृति द्वारा ; एव – निश्चय ही ; च – भी ; कर्माणि – कार्य ; क्रियमाणानि – सम्पन्न किये गये ; सर्वशः – सभी प्रकार से ; य: – जो ; पश्यति – देखता है ; तथा – भी ; आत्मानम् – अपने आपको ; अकर्तारम् – अकर्ता ; सः – वह ; पश्यति – अच्छी तरह देखता है ।
जो यह देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं , जिसकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है , और जो देखता है कि आत्मा कुछ भी नहीं करता , वही यथार्थ में देखता है ।
तात्पर्य :- यह शरीर परमात्मा के निर्देशानुसार प्रकृति द्वारा बनाया गया है और मनुष्य के शरीर के जितने भी कार्य सम्पन्न होते हैं , वे उसके द्वारा नहीं किये जाते मनुष्य जो भी करता है , चाहे सुख के लिए करे , या दुख के लिए , वह शारीरिक रचना के कारण उसे करने के लिए बाध्य होता है । लेकिन आत्मा इन शारीरिक कार्यों से विलग रहता है ।
यह शरीर मनुष्य को पूर्व इच्छाओं के अनुसार प्राप्त होता है । इच्छाओं की पूर्ति के लिए शरीर मिलता है , जिससे वह इच्छानुसार कार्य करता है । एक तरह से शरीर एक यंत्र है , जिसे परमेश्वर ने इच्छाओं की पूर्ति के लिए निर्मित किया है ।
इच्छाओं के कारण ही मनुष्य दुख भोगता है या सुख पाता है । जब जीव में यह दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है , तो वह शारीरिक कार्यों से पृथक् हो जाता है । जिसमें ऐसी दृष्टि आ जाती है , वही वास्तविक द्रष्टा है ।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३१ ॥
यदा – जव ; भूत – जीव के ; पृथक्-भावम् – पृथक् स्वरूपों को ; एक- स्थम् – एक स्थान पर ; अनुपश्यति – किसी अधिकारी के माध्यम से देखने का प्रयास करता है ; ततः-एव – तत्पश्चात् ; च – भी ; विस्तारम् – विस्तार को ; ब्रह्म – परब्रह्म ; सम्पद्यते – प्राप्त करता है ; तदा – उस समय ।
जब विवेकवान् व्यक्ति विभिन्न भौतिक शरीरों के कारण विभिन्न स्वरूपों को देखना बन्द कर देता है , और यह देखता है कि किस प्रकार से जीव सर्वत्र फैले तो वह ब्रह्म – बोध को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- जब मनुष्य यह देखता है कि विभिन्न जीवों के शरीर उस जीव की विभिन्न इच्छाओं के कारण उत्पन्न हुए हैं और वे आत्मा से किसी तरह सम्बद्ध नहीं हैं , तो वह वास्तव में देखता है । देहात्मबुद्धि के कारण हम किसी को देवता , किसी को मनुष्य , कुत्ता , विल्ली आदि के रूप में देखते हैं । यह भौतिक दृष्टि है , वास्तविक दृष्टि नहीं है ।
यह भौतिक भेदभाव देहात्मबुद्धि के कारण है । भौतिक शरीर के विनाश के बाद आत्मा एक रहता है । यही आत्मा भौतिक प्रकृति के सम्पर्क से विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है । जब कोई इसे देख पाता है , तो उसे आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त होती है । इस प्रकार जो मनुष्य , पशु , ऊँच , नीच आदि के भेदभाव से मुक्त हो जाता है ।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३४ ॥
यथा – जिस तरह ; प्रकाशयति – प्रकाशित करता है ; एक: – एक ; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण ; लोकम् – ब्रह्माण्ड को ; इमम् – इस ; रवि: – सूर्य ; क्षेत्रम् – इस शरीर को ; क्षेत्री – आत्मा ; तथा – उसी तरह ; कृत्स्नम् – समस्त ; प्रकाशयति – प्रकाशित करता है ; भारत – हे भरतपुत्र ।
हे भरतपुत्र ! जिस प्रकार सूर्य अकेले इस सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है , उसी प्रकार शरीर के भीतर स्थित एक आत्मा सारे शरीर को चेतना से प्रकाशित करता है ।
तात्पर्य :- चेतना के सम्बन्ध में अनेक मत हैं । यहाँ पर भगवद्गीता में सूर्य तथा धूप का उदाहरण दिया गया है । जिस प्रकार सूर्य एक स्थान पर स्थित रहकर ब्रह्माण्ड को आलोकित करता है , उसी तरह आत्मा रूप सूक्ष्म कण शरीर के हृदय में स्थित रहकर चेतना द्वारा सारे शरीर को आलोकित करता है ।
इस प्रकार चेतना ही आत्मा का प्रमाण है , जिस तरह धूप या प्रकाश सूर्य की उपस्थिति का प्रमाण होता है । जब शरीर में आत्मा वर्तमान रहता है , तो सारे शरीर में चेतना रहती है । किन्तु ज्योंही शरीर से आत्मा चला जाता है त्योंही चेतना लुप्त हो जाती है । इसे बुद्धिमान् व्यक्ति सुगमता से समझ सकता है । अतएव चेतना पदार्थ के संयोग से नहीं बनी होती । यह जीव का लक्षण है ।
जीव की चेतना यद्यपि गुणात्मक रूप से परम चेतना से अभिन्न है , किन्तु परम नहीं है , क्योंकि एक शरीर की चेतना दूसरे शरीर से सम्बन्धित नहीं होती है । लेकिन परमात्मा , जो आत्मा के सखा रूप में समस्त शरीरों में स्थित हैं , समस्त शरीरों के प्रति सचेष्ट रहते हैं । परमचेतना तथा व्यष्टि-चेतना में यही अन्तर है ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३५ ॥
क्षेत्र – शरीर ; क्षेत्र-ज्ञयो: – तथा शरीर के स्वामी के ; एवम् – इस प्रकार ; अन्तरम् – अन्तर को ; ज्ञान-चक्षुषा – ज्ञान की दृष्टि से ; भूत – जीव का ; प्रकृति – प्रकृति से ; मोक्षम् – मोक्ष को ; च – भी ; ये – जो ; विदुः – जानते हैं ; यान्ति – प्राप्त होते हैं ; ते – वे ; परम् – परब्रह्म को ।
जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव – बन्धन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं , उन्हें परमलक्ष्य प्राप्त होता है ।
तात्पर्य :- इस तेरहवें अध्याय का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को शरीर , शरीर के स्वामी तथा परमात्मा के अन्तर को समझना चाहिए । उसे श्लोक ८ से लेकर श्लोक १२ तक में वर्णित मुक्ति की विधि को जानना चाहिए । तभी वह परमगति को प्राप्त हो सकता श्रद्धालु को चाहिए कि सर्वप्रथम वह ईश्वर का श्रवण करने के लिए सत्संगति करें , और धीर – धीरे प्रबुद्ध बने ।
यदि गुरु स्वीकार कर लिया जाये , तो पदार्थ तथा आत्मा के अन्तर को समझा जा सकता है और वही अग्रिम आत्म – साक्षात्कार के लिए शुभारम्भ वन जाता है । गुरु अनेक प्रकार के उपदेशों से अपने शिष्यों को देहात्मबुद्धि से मुक्त होने की शिक्षा देता है ।
उदाहरणार्थ- भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन को भौतिक बातों से मुक्त होने के लिए शिक्षा देते हैं । में मनुष्य यह तो समझ सकता है कि यह शरीर पदार्थ है और इसे चौबीस तत्त्वों में विश्लेषित किया जा सकता है ; शरीर स्थूल अभिव्यक्ति है और मन तथा मनोवैज्ञानिक प्रभाव सूक्ष्म अभिव्यक्ति हैं । जीवन के लक्षण इन्हीं तत्त्वों की अन्तः क्रिया ( विकार ) हैं , किन्तु इनसे भी ऊपर आत्मा और परमात्मा हैं ।
आत्मा तथा परमात्मा दो हैं । यह भौतिक जगत् आत्मा तथा चौबीस तत्त्वों के संयोग से कार्यशील है । जो सम्पूर्ण भौतिक जगत् की इस रचना को आत्मा तथा तत्त्वों के संयोग से हुई मानता है और परमात्मा की स्थिति को भी देखता है , वही वैकुण्ठ – लोक जाने का अधिकारी बन पाता है । ये बातें चिन्तन तथा साक्षात्कार की हैं । मनुष्य को चाहिए कि गुरु की सहायता से इस अध्याय को भली – भाँति समझ ले ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय ” प्रकृति , पुरुष तथा चेतना ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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