भगवद गीता अध्याय 13.1 || भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के ज्ञान सहित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय तेरह (Chapter -13)

भगवद गीता अध्याय 13.1 में शलोक 01 से शलोक 18 तक भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के ज्ञान सहित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन !

प्रकृति , पुरुष तथा चेतना 

अर्जुन उवाच 

प्रकृतिं   पुरुषं   चैव   क्षेत्रं   क्षेत्रज्ञमेव  च । 

एतद्वेदितुमिच्छामि  ज्ञानं  ज्ञेयं  च  केशव ॥ १ ॥ 

अर्जुनः  उवाच  –   अर्जुन ने कहा   ;   प्रकृतिम्   –  प्रकृति   ;   पुरुषम्   –  भोक्ता   ;   च   –  भी   ;    एव   –    निश्चय ही   ;    क्षेत्रम्   –    क्षेत्र , खेत    ;   क्षेत्र-ज्ञम्   –   खेत को जानने वाला   ;   एव    –    निश्चय ही   ;   च    –   भी   ;   एतत्   –   यह सारा   ;    वेदितुम्   –  जानने के लिए   ;   इच्छामि   – इच्छुक हूँ   ;   ज्ञानम्   –   ज्ञान   ;   ज्ञेयम्   –   ज्ञान का लक्ष्य  ;   च   –   भी   ;   केशव   –    हे कृष्ण   ।  

अर्जुन ने कहा — हे कृष्ण ! मैं प्रकृति एवं पुरुष ( भोक्ता ) , क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान  एवं ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ । 

तात्पर्य :-  अर्जुन प्रकृति , पुरुष , क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ , ज्ञान तथा ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक था । जब उसने इन सबों के विषय में पूछा , तो कृष्ण ने कहा कि यह शरीर क्षेत्र कहलाता है , और इस शरीर को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है । यह शरीर वद्धजीव के लिए कर्म – क्षेत्र है । बद्धजीव इस संसार में बँधा हुआ है , और वह भौतिक प्रकृति पर अपना प्रभुत्व प्राप्त करने का प्रयत्न करता है ।

इस प्रकार प्रकृति पर प्रभुत्व दिखाने की क्षमता के अनुसार उसे कर्म क्षेत्र प्राप्त होता है । यह कर्म – क्षेत्र शरीर है । और यह शरीर क्या है ? शरीर इन्द्रियों से बना हुआ है । बद्धजीव इन्द्रियतृप्ति चाहता है , और इन्द्रियतृप्ति को भोगने की क्षमता के अनुसार ही उसे शरीर या कर्म – क्षेत्र प्रदान किया जाता है । इसीलिए बद्धजीव के लिए यह शरीर क्षेत्र अथवा कर्मक्षेत्र कहलाता है ।

श्रीभगवानुवाच 

इदं   शरीरं   कौन्तेय   क्षेत्रमित्यभिधीयते । 

एतद्यो  वेत्ति  तं  प्राहुः  क्षेत्रज्ञ  इति  तद्विदः ॥ २ ॥  

श्रीभगवान्  उवाच   –    भगवान् ने कहा   ;   इदम्   –   यह   ;    शरीरम्   –   शरीर  ;   कौन्तेय   –  हे कुन्तीपुत्र   ;   क्षेत्रम्   –   खेत   ;   इति  –   इस प्रकार  ;   अभिधीयते   –    कहलाता है   ;   एतत्   –   यह   ;    यः   –   जो   ;    वेत्ति   –   जानता है   ;     तम्   –   उसको   ;    प्राहुः   –   कहा जाता है   ;    क्षेत्रज्ञः –    खेत को जानने वाला   ;    इति   –   इस प्रकार   ;    तत्  विदः   –    इसे जानने वालों के द्वारा । 

श्री भगवान् ने कहा — हे कुन्तीपुत्र ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है । 

तात्पर्य :- अब , जो व्यक्ति अपने आपको शरीर मानता है , वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है । क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ अथवा शरीर और शरीर के ज्ञाता ( देही ) का अन्तर समझ पाना कठिन नहीं है । कोई भी व्यक्ति यह सोच सकता है कि बाल्यकाल से वृद्धावस्था तक उसमें अनेक परिवर्तन होते रहते हैं , फिर भी वह व्यक्ति वही रहता है ।

इस प्रकार कर्म – क्षेत्र के ज्ञाता तथा वास्तविक कर्म – क्षेत्र में अन्तर है । एक वद्धजीव यह जान सकता है कि वह अपने शरीर से भिन्न है । प्रारम्भ में ही बताया गया है कि देहिनोऽस्मिन् जीव शरीर के भीतर है , और यह शरीर वालक से किशोर , किशोर से तरुण तथा तरुण से वृद्ध के रूप में बदलता जाता है , और शरीरधारी जानता है कि शरीर परिवर्तित हो रहा है

स्वामी स्पष्टतः क्षेत्रज्ञ है । कभी कभी हम सोचते हैं ” मैं सुखी हूँ , ” ” मैं पुरुष हूँ , ” ” मैं स्त्री हूँ , ” “ मैं कुत्ता हूँ , ” मैं बिल्ली हूँ । ” ये ज्ञाता की शारीरिक उपाधियाँ हैं , लेकिन ज्ञाता शरीर से भिन्न होता है ।

भले ही हम तरह – तरह की वस्तुएँ प्रयोग में लाएँ – जैसे कपड़े इत्यादि , लेकिन हम जानते हैं कि हम इन वस्तुओं से भिन्न हैं । इसी प्रकार , थोड़ा विचार करने पर हम यह भी जानते हैं । कि हम शरीर से भिन्न हैं ।

मैं , तुम या अन्य कोई , जिसने शरीर धारण कर रखा है , क्षेत्रज्ञ कहलाता है – अर्थात् वह कर्म – क्षेत्र का ज्ञाता है और यह शरीर क्षेत्र है- साक्षात् कर्म – क्षेत्र है । भगवद्गीता के प्रथम छह अध्यायों में शरीर के ज्ञाता ( जीव ) , तथा जिस स्थिति में वह भगवान् को समझ सकता है , उसका वर्णन हुआ है ।

बीच के छह अध्यायों में भगवान् तथा भगवान् के साथ जीवात्मा के सम्बन्ध एवं भक्ति के प्रसंग में परमात्मा का वर्णन है । इन अध्यायों में भगवान की श्रेष्ठता तथा जीव की अधीन अवस्था की निश्चित रूप से परिभाषा की गई है । जीवात्माएँ सभी प्रकार से अधीन हैं , और अपनी विस्मृति के कारण वे कष्ट उठा रही है ।

जब पुण्य कर्मा द्वारा उन्हें प्रकाश मिलता है , तो वे विभिन्न परिस्थितियों में – यथा आर्त , धनहीन , जिज्ञासु तथा ज्ञान – पिपासु के रूप में भगवान् पास पहुंचती है , इसका भी वर्णन हुआ है ।

अब तेरहवं अध्याय से आगे इसकी व्याख्या हुई है कि किस प्रकार जीवात्मा प्रकृति के सम्पर्क में आता है , और किस प्रकार कर्म , के ज्ञान तथा भक्ति के विभिन्न साधनों के द्वारा परमेश्वर उसका उद्धार करते हैं । यद्यपि जीवात्मा भौतिक शरीर से सर्वथा भिन्न है , लेकिन वह किस तरह उससे सम्बद्ध हो जाता है , इसकी भी व्याख्या की गई है ।

क्षेत्रज्ञं  चापि  मां  विद्धि  सर्वक्षेत्रेषु  भारत ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं    यत्तज्ज्ञानं    मतं   मम ॥ ३ ॥ 

क्षेत्र-ज्ञम्   –    क्षेत्र का ज्ञाता   ;   च   –  भी   ;   अपि   –   निश्चय ही  ;   माम्   –   मुझको  ;   विद्धि   –   जानो     ;   सर्व  –   समस्त   ;   क्षेत्रेषु   –    शरीर रूपी क्षेत्रों में   ;   भारत   –   हे भरत के पुत्र ;  क्षेत्र   –    कर्म-क्षेत्र ( शरीर )   ;    क्षेत्र-जयो:   –    तथा क्षेत्र के ज्ञाता का   ;    ज्ञानम्    –    ज्ञान   ;   यत्   –   जो   ; तत्  –   वह   ;   ज्ञानम्   –   ज्ञान   ;   मतम्    –   अभिमत  ;   मम  –  मेरा 

हे भरतवंशी ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि में भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है । ऐसा मेरा मत है । 

तात्पर्य :-  शरीर , शरीर के ज्ञाता , आत्मा तथा परमात्मा विषयक व्याख्या के दौरान हमें तीन विभिन्न विषय मिलेंगे- भगवान् , जीव तथा पदार्थ प्रत्येक कर्म क्षेत्र में , प्रत्येक शरीर में दो आत्माएँ होती हैं – आत्मा तथा परमात्मा । चूँकि परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण का स्वांश है , अतः कृष्ण कहते हैं ” मैं भी ज्ञाता हूँ , लेकिन मैं शरीर का व्यष्टि ज्ञाता नहीं हूँ ।

मैं परम ज्ञाता हूँ । मैं शरीर में परमात्मा के रूप में विद्यमान रहता हूँ । ” जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का अध्ययन भगवद्गीता के माध्यम से सूक्ष्मता से करता है , उसे यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।

भगवान् कहते हैं , ” मैं प्रत्येक शरीर के कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ । ” व्यक्ति भले ही अपने शरीर का ज्ञाता हो , किन्तु उसे अन्य शरीरों का ज्ञान नहीं होता । समस्त शरीरों में परमात्मा रूप में विद्यमान भगवान् समस्त शरीरों के विषय में जानते हैं । वे जीवन की विविध योनियों के सभी शरीरों को जानने वाले हैं ।

एक नागरिक अपने भूमि – खण्ड के विषय में सब कुछ जानता है , लेकिन राजा को न केवल अपने महल का , अपितु प्रत्येक नागरिक की भू – सम्पत्ति का ज्ञान रहता है । इसी प्रकार कोई भले ही अपने शरीर का स्वामी हो , लेकिन परमेश्वर समस्त शरीरों के अधिपति हैं ।

राजा अपने साम्राज्य का मूल अधिपति होता है और नागरिक गौण अधिपति । इसी प्रकार परमेश्वर समस्त शरीरों के परम अधिपति हैं । यह शरीर इन्द्रियों से युक्त है । परमेश्वर हृषीकेश हैं जिसका अर्थ है ” इन्द्रियों के नियामक ” । वे इन्द्रियों के आदि नियामक हैं , जिस प्रकार राजा अपने राज्य की समस्त गतिविधियों का आदि नियामक होता है , नागरिक तो गौण नियामक होते हैं ।

भगवान् का कथन है , ” में ज्ञाता भी हूँ । ” इसका अर्थ है कि वे परम ज्ञाता हैं , जीवात्मा केवल अपने विशिष्ट शरीर को ही जानता है । वैदिक ग्रन्थों में इस प्रकार का वर्णन हुआ है –

क्षेत्राणि  हि  शरीराणि  बीजं  चापि  शुभाशुभे ।

तानि  वेत्ति  स  योगात्मा  ततः  क्षेत्रज्ञ   उच्यते ॥

यह शरीर क्षेत्र कहलाता है , और इस शरीर के भीतर इसके स्वामी तथा साथ ही परमेश्वर का वास है , जो शरीर तथा शरीर के स्वामी दोनों को जानने वाला है । इसलिए उन्हें समस्त क्षेत्रों का ज्ञाता कहा जाता है । कर्म क्षेत्र , कर्म के ज्ञाता तथा समस्त कर्मों के परम ज्ञाता का अन्तर आगे बतलाया जा रहा है । वैदिक ग्रन्थों में शरीर , आत्मा तथा परमात्मा के स्वरूप की सम्यक जानकारी ज्ञान नाम से अभिहित की जाती है ।

ऐसा कृष्ण का मत है । आत्मा तथा परमात्मा को एक मानते हुए भी पृथक् – पृथक् समझना ज्ञान है । जो कर्मक्षेत्र तथा कर्म के ज्ञाता को नहीं समझता , उसे पूर्ण ज्ञान नहीं होता । मनुष्य को प्रकृति , पुरुष ( प्रकृति का भोक्ता ) तथा ईश्वर ( वह ज्ञाता जो प्रकृति एवं व्यष्टि आत्मा का नियामक है ) की स्थिति समझनी होती है ।

उसे इन तीनों के विभिन्न रूपों में किसी प्रकार का भ्रम पैदा नहीं करना चाहिए । मनुष्य को चित्रकार , चित्र तथा तूलिका में भ्रम नहीं करना चाहिए । यह भौतिक जगत् , जो कर्मक्षेत्र के रूप में है , प्रकृति है और इस प्रकृति का भोक्ता जीव है , और इन दोनों के ऊपर परम नियामक भगवान् हैं ।

वैदिक भाषा में इसे इस प्रकार कहा गया है ( श्वेताश्वतर उपनिषद १.१२ ) – भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा । सर्व प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् । ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं – प्रकृति कर्मक्षेत्र के रूप में ब्रह्म है , तथा जीव भी ब्रह्म है जो भौतिक प्रकृति को अपने नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न करता है , और इन दोनों का नियामक भी ब्रह्म है । लेकिन वास्तविक नियामक चही है ।

इस अध्याय में बताया जाएगा कि इन दोनों ज्ञाताओं में से एक अच्युत है , तो दूसरा च्युत । एक श्रेष्ठ है , तो दूसरा अधीन है । जो व्यक्ति क्षेत्र के इन दोनों ज्ञाताओं को एक मान लेता है , वह भगवान् के शब्दों का खण्डन करता है , क्योंकि उनका कथन है ” में भी कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ ” । जो व्यक्ति रस्सी को सर्प जान लेता है वह ज्ञाता नहीं है ।

शरीर कई प्रकार के हैं और इनके स्वामी भी भिन्न – भिन्न हैं । चूँकि प्रत्येक जीव की अपनी निजी सत्ता है , जिससे वह प्रकृति पर प्रभुता की सामर्थ्य रखता है , अतएव शरीर विभिन्न होते हैं । लेकिन भगवान् उन सबमें परम नियन्ता के रूप में विद्यमान रहते हैं । यहाँ पर च शब्द महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि यह समस्त शरीरों का द्योतक है ।

यह श्रील बलदेव विद्याभूषण का मत है । आत्मा के अतिरिक्त प्रत्येक शरीर में कृष्ण परमात्मा के रूप में रहते हैं , और यहाँ पर कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परमात्मा कर्मक्षेत्र तथा विशिष्ट भोक्ता दोनों का नियामक है ।

तत्क्षेत्रं  यच्च  यादृक्च  यद्विकारि  यतश्च  यत् । 

स  च  यो   यत्प्रभावश्च   तत्समासेन   मेशृणु ॥ ४ ॥   

तत्   –   वह   ;   क्षेत्रम्   –   कर्मक्षेत्र   ;   यत्   –   जो    ;   च  –   भी  ;   यादृक्   –   जैसा है   ;    च   –   भी  ;    यत्   –   जो   ;    विकारि   –   परिवर्तन   ; यतः   –   जिससे   ;   च  –  भी   ;   यत्   – जो   ;   सः   –   वह   ;   च   –   भी   ;   यः   –   जो   ;   यत्   –   जो   ;    प्रभाव:   –   प्रभाव   ;   च   –   भी   ;    तत् –   उस   ;   समासेन   –   संक्षेप में   ;    मे   –   मुझसे   ;   शृणु   –   समझो , सुनो । 

अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है , यह किस प्रकार बना है , इसमें क्या परिवर्तन होते हैं , यह कहाँ से उत्पन्न होता है , इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है और उसके क्या प्रभाव है । 

तात्पर्य :-  भगवान् कर्मक्षेत्र ( क्षेत्र ) तथा कर्मक्षेत्र के ज्ञाता ( क्षेत्रज्ञ ) की स्वाभाविक स्थितियों का वर्णन कर रहे हैं । मनुष्य को यह जानना होता है कि यह शरीर किस प्रकार बना हुआ है , यह शरीर किन पदार्थों से बना है , यह किसके नियन्त्रण में कार्यशील है , इसमें किस प्रकार परिवर्तन होते हैं , ये परिवर्तन कहाँ से आते हैं , वे कारण कौन से हैं , आत्मा का चरम लक्ष्य क्या है , तथा आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है ?

मनुष्य को आत्मा तथा परमात्मा , उनके विभिन्न प्रभावों , उनकी शक्तियों आदि के अन्तर को भी जानना चाहिए । यदि वह भगवान द्वारा दिये गये वर्णन के आधार पर भगवद्गीता समझ ले , तो ये सारी बातें स्पष्ट हो जाएँगी । लेकिन उसे ध्यान रखना होगा कि प्रत्येक शरीर में बास करने वाले परमात्मा को जीव का स्वरूप न मान बैठे । ऐसा तो सक्षम पुरुष तथा अक्षम पुरुष को एकसमान बताने जैसा है । 

ऋषिभिर्बहुधा  गीतं  छन्दोभिर्विविधैः  पृथक् । 

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव                हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥ ५ ॥ 

ऋषिभिः   –   बुद्धिमान ऋषियों द्वारा    ;    बहुधा   –   अनेक प्रकार से   ;    गीतम्   –   वर्णित   ; छन्दोभिः   –   वैदिक मन्त्रों द्वारा   ;    विविधेः   –   नाना प्रकार के  ;   पृथक्   –   भिन्न-भिन्न  ;   ब्रह्म-सूत्र    –    वेदान्त के   ;   पदे:   –   नीतिवचनों द्वारा   ;   च   –   भी   ;    एव   –   निश्चित रूप से   ;    हेतु-मद्भिः –   कार्य कारण से   ;    विनिश्चितैः   –   निश्चित

विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है । इसे विशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कार्य कारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है । 

तात्पर्य :-  इस ज्ञान की व्याख्या करने में भगवान् कृष्ण सर्वोच्च प्रमाण हैं । फिर भी विद्वान तथा प्रामाणिक लोग सदैव पूर्ववर्ती आचार्यों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । कृष्ण आत्मा तथा परमात्मा की द्वैतता तथा अद्वैतता सम्बन्धी इस अतीव विवादपूर्ण विषय की व्याख्या वेदान्त नामक शास्त्र का उल्लेख करते हुए कर रहे हैं , जिसे प्रमाण माना जाता है ।

सर्वप्रथम वे कहते हैं ” यह विभिन्न ऋषियों के मतानुसार है । ” जहाँ तक ऋषियों का सम्बन्ध है , श्रीकृष्ण के अतिरिक्त व्यासदेव ( जो वेदान्त सूत्र के रचयिता हैं ) महान ऋषि हैं और वेदान्त सूत्र में द्वैत की भलीभाँति व्याख्या हुई है । व्यासदेव के पिता पराशर भी महर्षि हैं और उन्होंने धर्म सम्बन्धी अपने ग्रंथों में लिखा है- अहम् त्वं च तथान्ये ” तुम , मैं तथा अन्य सारे जीव अर्थात् हम सभी दिव्य हैं , भले ही हमारे शरीर भौतिक हों ।

हम अपने अपने कर्मों के कारण प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर पतित हो गये हैं । फलतः कुछ लोग उच्चतर धरातल पर हैं और कुछ निम्नतर धरातल पर हैं । ये उच्चतर तथा निम्नतर धरातल अज्ञान के कारण हैं , और अनन्त जीवों के रूप में प्रकट हो रहे हैं । किन्तु परमात्मा , जो अच्युत है , तीनों गुणों से अदूषित है , और दिव्य है ।

” इसी प्रकार मूल वेदों में , विशेषतया कठोपनिषद् में आत्मा , परमात्मा तथा शरीर का अन्तर बताया गया है । इसके अतिरिक्त अनेक महर्षियों ने इसकी व्याख्या की है , जिनमें पराशर प्रमुख माने जाते हैं । छन्दोभिः शब्द विभिन्न वैदिक ग्रंथों का सूचक है ।

उदाहरणार्थ , तैत्तिरीय उपनिषद् जो यजुर्वेद की एक शाखा दे , प्रकृति , जीव तथा भगवान् के विषय में वर्णन करती है ।जैसा कि पहले कहा जा चुका है क्षेत्र का अर्थ कर्मक्षेत्र है । क्षेत्रज्ञ की दो कोटियाँ हैं – जीवात्मा तथा परम पुरुष । जैसा कि तैत्तिरीय उपनिषद् में ( २.९ ) कहा गया है- ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा ।

भगवान् की शक्ति का प्राकट्य अन्नमय रूप में होता है , जिसका अर्थ है अस्तित्व के लिए भोजन ( अन्न ) पर निर्भरता । यह ब्रह्म की भौतिकतावादी अनुभूति है । अन्न में परम सत्य की अनुभूति करने के पश्चात् फिर प्राणमय रूप में मनुष्य सजीव लक्षणों या जीवन रूपों में परम सत्य की अनुभूति करता है ।

ज्ञानमय रूप में यह अनुभूति सजीव लक्षणों से आगे बढ़कर चिन्तन , अनुभव तथा आकांक्षा तक पहुँचती है । तब ब्रह्म की उच्चतर अनुभूति होती है , जिसे विज्ञानमय रूप कहते हैं , जिसमें जीव के मन तथा जीवन के लक्षणों को जीव से भिन्न समझा जाता है ।

इसके पश्चात् परम अवस्था आती है , जो आनन्दमय है , अर्थात् सर्व – आनन्दमय प्रकृति की अनुभूति है । इस प्रकार से ब्रह्म अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ हैं , जिन्हें ब्रह्म पुच्छं कहा जाता है । इनमें से प्रथम तीन अन्नमय , प्राणमय तथा ज्ञानमय अवस्थाएँ जीवों के कार्यकलापों के क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं । परमेश्वर इन कार्यकलापों के क्षेत्रों से परे है , और आनन्दमय है ।

वेदान्त सूत्र भी परमेश्वर को आनन्दमयोऽभ्यासात् कहकर पुकारता है । भगवान् स्वभाव से आनन्दमय हैं । अपने दिव्य आनन्द को भोगने के लिए वे विज्ञानमय , प्राणमय , ज्ञानमय , तथा अन्नमय रूपों में विस्तार करते हैं । कार्यकलापों के क्षेत्र में जीव भोक्ता ( क्षेत्रज्ञ ) माना जाता है , किन्तु आनन्दमय उससे भिन्न होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जीव आनन्दमय का अनुगमन करने में सुख मानता है , तो वह पूर्ण बन जाता है ।

क्षेत्र के ज्ञाता ( क्षेत्रज्ञ ) रूप में परमेश्वर की और उसके अधीन ज्ञाता के रूप में जीव की तथा कार्यकलापों के क्षेत्र की प्रकृति का यह वास्तविक ज्ञान है । वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र में इस सत्य की गवेषणा करनी होगी । यहाँ इसका उल्लेख हुआ है कि ब्रह्मसूत्र के नीतिवचन कार्य – कारण के अनुसार सुन्दर रूप में व्यवस्थित हैं ।

इनमें से कुछ सूत्र इस प्रकार हैं – न वियदश्रुतेः ( २.३.२ ) ; नात्मा श्रुतेः ( २.३.१८ ) तथा परात्तु तच्छ्रुतेः ( २.३.४० ) । प्रथम सूत्र कार्यकलापों के क्षेत्र को सूचित करता है , दूसरा जीव को और तीसरा परमेश्वर की , जो विभिन्न जीवों के आश्रयतत्त्व है । 

महाभूतान्यहङ्कारो     बुद्धिरव्यक्तमेव     च । 

इन्द्रियाणि    दशैकं   च  पञ्च  चेन्द्रियगोचराः॥ ६ ॥ 

इच्छा  द्वेषः  सुखं  दुःखं  सङ्घातश्चेतना  धृतिः । 

एतत्क्षेत्रं      समासेन     सविकारमुदाहृतम् ॥ ७ ॥ 

अव्यक्तम्   –   अप्रकट    ;    महा-भूतानि   –   स्थूल तत्त्व   ;   अहङ्कारः  –   मिथ्या  , अभिमान   ;   बुद्धिः   –   बुद्धि  ;   एव   –   निश्चय ही   ;    च   –   भी   ;   इन्द्रियाणि   –   इन्द्रियाँ   ;    दश-एकम्   –    ग्यारह    ;   च   –   भी   ;    पञ्च   –   पाँच   ;   च   –   भी  ;    इन्द्रिय-गो-चराः    –   इन्द्रियों के विषय   ;   इच्छा –   इच्छा   ;    द्वेषः  –   घृणा  ;    सुखम्  –   सुख     

दुःखम्   –   दुख  ;  सङ्घातः   –    समूह    ;     चेतना   –    जीवन के लक्षण   ;    धृतिः   –   धैर्य   ;    एतत्    –   यह सारा  ;   क्षेत्रम्    –    कर्म का क्षेत्र    ;   समासेन   –   संक्षेप में  ;   स-विकारम्   –   अन्तः क्रियाओं सहित    ;   उदाहृतम्   –    उदाहरणस्वरूप कहा गया

पंच महाभूत , अहंकार , बुद्धि , अव्यक्त ( तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था ) , दसों इन्द्रियाँ तथा मन , पाँच इन्द्रियविषय , इच्छा , द्वेष , सुख , दुख , संघात , जीवन के लक्षण तथा धैर्य- इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्तः क्रियाएँ ( विकार ) कहा जाता है । 

तात्पर्य :-  महर्षियों , वैदिक सूक्तों ( छान्दस ) एवं वेदान्त – सूत्र ( सूत्रों ) के प्रामाणिक कथनों के आधार पर इस संसार के अवयवों को इस प्रकार से समझा जा सकता है । पहले तो पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु तथा आकाश – ये पाँच महा – भूत हैं । फिर अहंकार , बुद्धि तथा तीनों गुणों की अव्यक्त अवस्था आती है ।

इसके पश्चात् पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं- नेत्र , कान , नाक , जीभ तथा त्वचा । फिर पाँच कर्मेन्द्रियाँ – वाणी , पाँव , हाथ , गुदा तथा लिंग- हैं । तब इन इन्द्रियों के ऊपर मन होता है जो भीतर रहने के कारण अन्तः इन्द्रिय कहा जा सकता है । इस प्रकार मन समेत कुल ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं । फिर इन इन्द्रियों के पाँच विषय हैं – गंध , स्वाद , रूप , स्पर्श तथा ध्वनि ।

इस तरह इन चौबीस तत्त्वों का समूह कार्यक्षेत्र कहलाता है । यदि कोई इन चौबीसों विषयों का विश्लेषण करे तो उसे कार्यक्षेत्र समझ में आ जाएगा । फिर इच्छा , द्वेष , सुख तथा दुख नामक अन्तः क्रियाएँ ( विकार ) हैं जो स्थूल देह के पाँच महाभूतों की अभिव्यक्तियाँ हैं । चेतना तथा धैर्य द्वारा प्रदर्शित जीवन के लक्षण सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन , अहंकार तथा बुद्धि के प्राकट्य हैं । ये सूक्ष्म तत्त्व भी कर्मक्षेत्र में सम्मिलित रहते हैं ।

पंच महाभूत अहंकार की स्थूल अभिव्यक्ति हैं , जो अहंकार की मूल अवस्था को ही प्रदर्शित करती है , जिसे भौतिकवादी बोध या तामस बुद्धि कहा जाता । यह और आगे प्रकृति के तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था की सूचक है । प्रकृति के अव्यक्त गुणों को प्रधान कहा जाता है । जो व्यक्ति इन चौवीस तत्त्वों को , उनके विकारों समेत जानना चाहता है , उसे विस्तार से दर्शन का अध्ययन करना चाहिए ।

भगवद्गीता में केवल सारांश दिया गया है । शरीर इन समस्त तत्त्वों की अभिव्यक्ति है । शरीर हैं – यह उत्पन्न होता है , बढ़ता है , टिकता है , सन्तान उत्पन्न करता है और तब यह क्षीण छह प्रकार के परिवर्तन होते होता है और अन्त में समाप्त हो जाता है । अतएव क्षेत्र अस्थायी भौतिक वस्तु है लेकिन क्षेत्र का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ इससे भिन्न रहता है । 

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा        क्षान्तिरार्जवम्  । 

आचार्योपासनं      शौचं      स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ८ ॥

इन्द्रियार्थेषु       वैराग्यमनहंकार       एव      च  । 

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्             ॥ ९ ॥

असक्तिरनभिष्वङ्गः                पुत्रदारगृहादिषु  ।  

नित्यं        च        समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ १० ॥ 

मयि         चानन्ययोगेन    भक्तिरव्यभिचारिणी ।

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि                  ॥ ११ ॥

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं           तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । 

एतज्ज्ञानमिति       प्रोक्तमज्ञानं     यदतोऽन्यथा ॥ १२ ॥ 

अमानित्वम्    –   विनम्रता   ;   अदम्भित्वम्    –   दम्भविहीनता   ;    अहिंसा   –   अहिंसा  ;   क्षान्ति:   –     सहनशीलता , सहिष्णुता   ; आर्जवम्   –   सरलता   ;    आचार्य-उपासनम्   –   प्रामाणिक गुरु के पास जाना   ;    शोचम्   –   पवित्रता   ;    स्थैर्यम्   –   दृढ़ता    ; आत्म-विनिग्रहः   –   आत्म संयम   ;    इन्द्रिय-अर्थेषु    –    इन्द्रियों के मामले में   ;    वैराग्यम्    –   वैराग्य  ;     अनहंकारः    – मिथ्या अभिमान से रहित     

एव    –   निश्चय ही    ;    च   –  भी   ;    जन्म   –   जन्म    ;  मृत्यु    –   मृत्यु   ;  जरा   –   बुढ़ापा    ;    व्याधि   –   तथा रोग का   ;    दुःख –   दुख का   ;    दोष   –    बुराई    ;   अनुदर्शनम्   –   देखते हुए   ;   असक्ति:   –   विना आसक्ति के   ;    अनभिष्वङ्गः   –     विना संगति के  ;   पुत्र   –   पुत्र  ;     दार   –   स्त्री   ;    गृह-आदिषु   –  घर आदि में  ।   

नित्यम्   –   निरन्तर   ;   च   –   भी   ;    सम-चित्तत्वम्   –   समभाव   ;    इष्ट   –  इच्छित   ;   अनिष्ट   –   अवांछित   ;     उपपत्तिषु –    प्राप्त करके   ;   मयि   –  मुझ में   ;   च   – भी   ;   अनन्य-योगेन   –   अनन्य भक्ति से   ;   भक्तिः   –   भक्ति   ;    अव्यभिचारिणी   – विना व्यवधान के   ;    विविक्त    –   एकान्त    ;    देश   –   स्थानों की   ;   सेवित्वम्    –   आकांक्षा करते हुए   ;     अरतिः   – अनासक्त भाव से   ;    जन-संसदि   –   सामान्य लोगों को      

अध्यात्म   – आत्मा सम्बन्धी   ;    ज्ञान   –   ज्ञान में   ;    नित्यत्वम्   –   शाश्चतता   ;    तत्त्वज्ञान   –    सत्य के ज्ञान के   ;    अर्थ   –   हेतु ;   दर्शनम्   –   दर्शनशास्त्र   ;    एतत्   –    यह सारा    ;   ज्ञानम्    –   ज्ञान  ;   इति   –   इस प्रकार  ;   प्रोक्तम्   –   घोषित   ; अज्ञानम्   –   अज्ञान   ;   यत्   –   जो    ;   अतः   –     इससे    ;    अन्यथा   –  अन्य , इतर । 

विनम्रता , दम्भहीनता , अहिंसा , सहिष्णुता , सरलता , प्रामाणिक गुरु के पास जाना , पवित्रता , स्थिरता , आत्मसंयम , इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग , अहंकार का अभाव , जन्म , मृत्यु , वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति , वैराग्य , सन्तान , स्त्री , घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति ,

अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव , मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति , एकान्त स्थान में रहने की इच्छा , जन समूह से विलगाव , आत्म – साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना , तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज – इन सबको में ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है , वह सब अज्ञान है । 

तात्पर्य :-  कभी – कभी अल्पज्ञ लोग ज्ञान की इस प्रक्रिया को कार्यक्षेत्र की अन्तःक्रिया ( विकार ) के रूप में मानने की भूल करते हैं । लेकिन वास्तव में यही असली ज्ञान की प्रक्रिया है । यदि कोई इस प्रक्रिया को स्वीकार कर लेता है , तो परम सत्य तक पहुँचने की सम्भावना हो जाती है । यह इसके पूर्व बताये गये चौबीस तत्त्वों का विकार नहीं है ।

यह वास्तव में इन तत्त्वों के पाश से बाहर निकलने का साधन है । देहधारी आत्मा चौबीस तत्त्वों से बने आवरण रूप शरीर में बन्द रहता है और यहाँ पर ज्ञान की जिस प्रक्रिया का वर्णन है वह इससे बाहर निकलने का साधन है ।

ज्ञान की प्रक्रिया के सम्पूर्ण वर्णन में से ग्यारहवें श्लोक की प्रथम पंक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है – मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी- ” ज्ञान की प्रक्रिया का अवसान भगवान् की अनन्य भक्ति में होता है ।”

अतएव यदि कोई भगवान् की दिव्य सेवा को नहीं प्राप्त कर पाता या प्राप्त करने में असमर्थ है , तो शेष उन्नीस बातें व्यर्थ हैं । लेकिन यदि कोई पूर्ण कृष्णभावना से भक्ति ग्रहण करता है , तो अन्य उन्नीस बातें उसके अन्दर स्वयमेव विकसित हो आती हैं । जैसा कि श्रीमद्भागवत में ( ५.१८.१२ ) कहा गया है- यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वगुणस्तत्र समासते सुराः ।

जिसने भक्ति की अवस्था प्राप्त कर ली है , उसमें ज्ञान के सारे गुण विकसित हो जाते हैं । जैसा कि आठवें श्लोक में उल्लेख हुआ है , गुरु – ग्रहण करने का सिद्धान्त अनिवार्य है । यहाँ तक कि जो भक्ति स्वीकार करते हैं , उनके लिए भी यह अत्यावश्यक है ।

आध्यात्मिक जीवन का शुभारम्भ तभी होता है , जब प्रामाणिक गुरु ग्रहण किया जाय । भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि ज्ञान की यह प्रक्रिया ही वास्तविक मार्ग है । इससे परे जो भी विचार किया जाता है , व्यर्थ होता है । यहाँ पर ज्ञान की जो रूपरेखा प्रस्तुत की गई है उसका निम्नलिखित प्रकार से विश्लेषण किया जा सकता है ।

विनम्रता ( अमानित्व ) का अर्थ है कि मनुष्य को , अन्यों द्वारा सम्मान पाने के लिए इच्छुक नहीं रहना चाहिए । हम देहात्मबुद्धि के कारण अन्यों से सम्मान पाने के भूखे रहते हैं , लेकिन पूर्णज्ञान से युक्त व्यक्ति की दृष्टि में , जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है , इस शरीर से सम्बद्ध कोई भी वस्तु , सम्मान या अपमान व्यर्थ होता है ।

इस भौतिक छल के पीछे – पीछे दौड़ने से कोई लाभ नहीं है । लोग अपने धर्म में प्रसिद्धि चाहते हैं , अतएव यह देखा गया है कि कोई व्यक्ति धर्म के सिद्धान्तों को जाने बिना ही ऐसे समुदाय में सम्मिलित हो जाता है , जो वास्तव में धार्मिक सिद्धान्तों का पालन नहीं करता और इस तरह वह धार्मिक गुरु के रूप में अपना प्रचार करना चाहता है ।

जहाँ तक आध्यात्मिक ज्ञान में वास्तविक प्रगति की बात है , मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी परीक्षा करे कि वह कहाँ तक उन्नति कर रहा है । वह इन बातों के द्वारा अपनी परीक्षा कर सकता है ।

अहिंसा का सामान्य अर्थ वध न करना या शरीर को नष्ट न करना लिया जाता है , लेकिन अहिंसा का वास्तविक अर्थ है , अन्यों को विपत्ति में न डालना । देहात्मबुद्धि के कारण सामान्य लोग अज्ञान द्वारा ग्रस्त रहते हैं और निरन्तर भौतिक कष्ट भोगते रहते हैं ।

अतएव जब तक कोई लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ऊपर नहीं उठाता , तब तक वह हिंसा करता रहता होता है । व्यक्ति को लोगों में वास्तविक ज्ञान वितरित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए जिससे वे प्रवुद्ध हों और इस भवबन्धन से छूट सकें । यही अहिंसा है ।

सहिष्णुता ( क्षान्तिः ) का अर्थ है कि मनुष्य अन्यों द्वारा किये गये अपमान तथा तिरस्कार को सहे । जो आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करने में लगा रहता है , उसे अन्यों के तिरस्कार तथा अपमान सहने पड़ते हैं । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह भौतिक स्वभाव है ।

यहाँ तक कि वालक प्रहलाद को भी जो पाँच वर्ष के थे और जो आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे थे संकट का सामना करना पड़ा था , जब उनका पिता उनकी भक्ति का विरोधी बन गया ।

उनके पिता ने उन्हें मारने के अनेक प्रयत्न किए , किन्तु प्रहलाद ने सहन कर लिया । अतएव आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं , लेकिन हमें सहिष्णु वन कर संकल्पपूर्वक प्रगति करते रहना चाहिए । सरलता ( आर्जवम् ) का अर्थ है कि बिना किसी कूटनीति के मनुष्य इतना सरल हो कि अपने शत्रु तक से वास्तविक सत्य का उद्घाटन कर सके ।

जहाँ तक गुरु बनाने का प्रश्न है , ( आचार्योपासनम् ) आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करने के लिए यह अत्यावश्यक है , क्योंकि बिना प्रामाणिक गुरु के यह सम्भव नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि विनम्रतापूर्वक गुरु के पास जाये और उसे अपनी समस्त सेवाएँ अर्पित करे , जिससे क शिष्य को अपना आशीर्वाद दे सके ।

चूँकि प्रामाणिक गुरु कृष्ण का प्रतिनिधि होता है , अतएव यदि वह शिष्य को आशीर्वाद देता है , तो शिष्य तुरन्त ही प्रगति करने लगता है , भले ही वह विधि – विधानों का पालन न करता रहा हो । अथवा जो बिना किसी स्वार्थ के अपने गुरु की सेवा करता है , उसके लिए सारे यम – नियम सरल वन जाते हैं । आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए पवित्रता ( शौचम् ) अनिवार्य है ।

पवित्रता दो प्रकार की होती है – आन्तरिक तथा बाह्य बाह्य पवित्रता का अर्थ है स्नान करना , लेकिन आन्तरिक पवित्रता के लिए निरन्तर कृष्ण का चिन्तन तथा हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करना होता है । इस विधि से मन में से पूर्व कर्म की संचित धूलि हट जाती है । दृढ़ता ( स्थैर्यम् ) का अर्थ है कि आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए मनुष्य दृढ़संकल्प हो ।

ऐसे संकल्प के बिना मनुष्य ठोस प्रगति नहीं कर सकता । आत्मसंयम ( आत्म – विनिग्रहः ) का अर्थ है कि आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर जो भी बाधक हो , उसे स्वीकार न करना । मनुष्य को इसका अभ्यस्त वन कर ऐसी किसी भी वस्तु को त्याग देना चाहिए , जो आध्यात्मिक उन्नति के पथ के प्रतिकूल हो । यह असली वैराग्य है ।

इन्द्रियाँ इतनी प्रवल हैं कि वे सदैव इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक रहती हैं । अनावश्यक मांगों की पूर्ति नहीं करनी चाहिए । इन्द्रियों की उतनी ही तृप्ति की जानी चाहिए , जिससे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने में अपने कर्तव्य की पूर्ति होती हो ।

सबसे महत्त्वपूर्ण , किन्तु वश में न आने वाली इन्द्रिय जीभ है । यदि जीभ पर संयम कर लिया गया तो समझो अन्य सारी इन्द्रियाँ वशीभूत हो गई । जीभ का कार्य है , स्वाद ग्रहण करना तथा उच्चारण करना ।

अतएव नियमित रूप से जीभ को कृष्णार्पित भोग के उच्छिष्ट का स्वाद लेने में तथा हरे कृष्ण का कीर्तन करने में प्रयुक्त करना चाहिए । जहाँ तक नेत्रों का सम्बन्ध है , उन्हें कृष्ण के सुन्दर रूप के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं देखने देना चाहिए । इससे नेत्र वश में होंगे ।

इसी प्रकार कानों को कृष्ण के विषय में श्रवण करने में लगाना चाहिए , और नाक को कृष्णार्पित फूलों को सूँघने में लगाना चाहिए । यह भक्ति की विधि है , और यहाँ यह समझना होगा कि भगवद्गीता केवल भक्ति के विज्ञान का प्रतिपादन करती है । भक्ति ही प्रमुख एवं एकमात्र लक्ष्य है ।

भगवद्गीता के बुद्धिहीन भाष्यकार पाठक के ध्यान को अन्य विषयों की ओर मोड़ना चाहते हैं , लेकिन भगवद्गीता में भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विषय नहीं है । मिथ्या अहंकार का अर्थ है , इस शरीर को आत्मा मानना ।

जब कोई यह जान जाता है कि वह शरीर नहीं , अपितु आत्मा हे तो वह वास्तविक अहंकार को प्राप्त होता है । अहंकार तो रहता ही है । मिथ्या अहंकार की भर्त्सना की जाती है , वास्तविक अहंकार की नहीं ।

वैदिक साहित्य में ( बृहदारण्यक उपनिषद् १.४.१० ) कहा गया है- अहं ब्रह्मास्मि – में ब्रह्म हूँ , में आत्मा हूँ । ” में हूँ ” ही आत्म भाव है , और यह आत्म – साक्षात्कार की मुक्त अवस्था में भी पाया जाता है ।

मैं हूँ ” का भाव ही अहंकार है लेकिन जब ” में हूँ ” भाव को मिथ्या शरीर के लिए प्रयुक्त किया जाता है , तो वह मिथ्या अहंकार होता है । जब इस आत्म भाव ( स्वरूप ) को वास्तविकता के लिए प्रयुक्त किया जाता है , तो वह वास्तविक अहंकार होता है । ऐसे कुछ दार्शनिक हैं , जो यह कहते है कि हमें अपना अहंकार त्यागना चाहिए ।

लेकिन हम अपने अहंकार को त्यागें कैसे ? क्योंकि अहंकार का अर्थ है स्वरूप । लेकिन हमें मिथ्या देहात्मबुद्धि का त्याग करना ही होगा । जन्म , मृत्यु , जरा तथा व्याधि को स्वीकार करने के कष्ट को समझना चाहिए । वैदिक ग्रन्थों में जन्म के अनेक वृत्तान्त हैं ।

श्रीमद्भागवत में जन्म से पूर्व की स्थिति , माता के गर्भ में बालक के निवास , उसके कष्ट आदि का सजीव वर्णन हुआ है । यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि जन्म बहुत कष्टपूर्ण है । चूँकि हम यह भूल जाते हैं कि माता के गर्भ में हमें कितना कष्ट मिला है , अतएव हम जन्म तथा मृत्यु की पुनरावृत्ति का कोई हल नहीं निकाल पाते ।

इसी प्रकार मृत्यु के समय भी सभी प्रकार के कष्ट मिलते हैं , जिनका उल्लेख प्रामाणिक शास्त्रों में हुआ है । इनकी विवेचना की जानी चाहिए । जहाँ तक रोग तथा वृद्धावस्था का प्रश्न है , सबों को इनका व्यावहारिक अनुभव है । कोई भी रोगग्रस्त नहीं होना चाहता , कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता , लेकिन इनसे बचा नहीं जा सकता ।

जब तक हम जन्म , मृत्यु , जरा तथा व्याधि के दुखों को देखते हुए इस भौतिक जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण नहीं बना पाते , तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता ।

जहाँ तक संतान , पत्नी तथा घर से विरक्ति की बात है , इसका अर्थ यह नहीं कि इनके लिए कोई भावना ही न हो । ये सब स्नेह की प्राकृतिक वस्तुएँ हैं । लेकिन जब ये आध्यात्मिक उन्नति में अनुकूल न हों , तो इनके प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए । घर को सुखमय बनाने की सर्वोत्तम विधि कृष्णभावनामृत है ।

यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूर्ण रहे , तो वह अपने घर को अत्यन्त सुखमय बना सकता है , क्योंकि कृष्णभावनामृत की विधि अत्यन्त सरल है ।

इसमें केवल हरे कृष्ण , हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण , हरे हरे हरे राम , हरे राम , राम राम , हरे हरे का कीर्तन करना होता है , कृष्णार्पित भोग का उच्छिष्ट ग्रहण करना होता है , भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रन्थों पर विचार – विमर्श करना होता है , और अर्चाविग्रह की पूजा करनी होती है । इन चारों बातों से मनुष्य सुखी होगा ।

मनुष्य को चाहिए कि अपने परिवार के सदस्यों को ऐसी शिक्षा दे । परिवार के सदस्य प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल बैठ कर साथ – साथ हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करें । यदि कोई इन चारों सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपने पारिवारिक जीवन को कृष्णभावनामृत विकसित करने में ढाल सके , तो पारिवारिक जीवन को त्याग कर विरक्त जीवन बिताने की आवश्यकता नहीं होगी ।

लेकिन यदि यह आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनुकूल न रहे , तो पारिवारिक जीवन का परित्याग कर देना चाहिए ।

मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साक्षात्कार करने या उनकी सेवा करने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दे , जिस प्रकार से अर्जुन ने किया था । अर्जुन अपने परिजनों को मारना नहीं चाह रहा था , किन्तु जब वह समझ गया कि ये परिजन कृष्णसाक्षात्कार में बाधक हो रहे हैं , तो उसने कृष्ण के आदेश को स्वीकार किया । वह उनसे लड़ा और उसने उनको मार डाला ।

इन  सब विषयों में मनुष्य को पारिवारिक जीवन के सुख – दुख से विरक्त रहना चाहिए , क्योंकि इस संसार में कोई कभी भी न तो पूर्ण सुखी रह सकता है , न दुखी । सुख – दुख भौतिक जीवन को दूषित करने वाले हैं । मनुष्य को चाहिए कि इन्हें सहना सीखे , जैसा कि भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है ।

कोई कभी भी सुख – दुख के आने जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता , अतः मनुष्य को चाहिए कि भौतिकवादी जीवन शैली से अपने को बिलग कर ले और दोनों ही दशाओं में समभाव बनाये रहे ।

सामान्यतया जब हमें इच्छित वस्तु मिल जाती है , तो हम अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब अनिच्छित घटना घटती है , तो हम दुखी होते हैं । लेकिन यदि हम वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त हों , तो ये बातें हमें विचलित नहीं कर पाएँगी ।

इस स्थिति तक पहुँचने के लिए हमें अटूट भक्ति का अभ्यास करना होता है । विपथ हुए बिना कृष्णभक्ति का अर्थ होता है भक्ति की नव विधियों – कीर्तन , श्रवण , पूजन आदि में प्रवृत्त होना , जैसा नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में वर्णन हुआ है । इस विधि का अनुसरण करना चाहिए ।

यह स्वाभाविक है कि आध्यात्मिक जीवन शैली का अभ्यस्त हो जाने पर मनुष्य भौतिकवादी लोगों से मिलना नहीं चाहेगा । इससे उसे हानि पहुँच सकती है । मनुष्य को चाहिए कि वह यह परीक्षा करके देख ले कि वह अवांछित संगति के बिना एकान्तवास करने में कहाँ तक सक्षम है ।

यह स्वाभाविक ही है कि भक्त में व्यर्थ के खेलकूद या सिनेमा जाने या किसी सामाजिक उत्सव में सम्मिलित होने की कोई रुचि नहीं होती , क्योंकि वह यह जानता है कि यह समय को व्यर्थ गँवाना है ।

कुछ शोध – छात्र तथा दार्शनिक ऐसे हैं जो कामवासनापूर्ण जीवन या अन्य विषय का अध्ययन करते हैं , लेकिन भगवद्गीता के अनुसार ऐसा शोध कार्य और दार्शनिक चिन्तन निरर्थक है । यह एक प्रकार से व्यर्थ होता है । भगवद्गीता के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि अपने दार्शनिक विवेक से वह आत्मा की प्रकृति के विषय में शोध करे ।

उसे चाहिए कि वह अपने आत्मा को समझने के लिए शोध करे । यहाँ पर इसी की संस्तुति की गई है । जहाँ तक आत्म – साक्षात्कार का सम्बन्ध है , यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भक्तियोग ही व्यावहारिक है । ज्योंही भक्ति की बात उठे , तो मनुष्य को चाहिए कि परमात्मा तथा आत्मा के सम्बन्ध पर विचार करे ।

आत्मा तथा परमात्मा कभी एक नहीं हो सकते , विशेषतया भक्तियोग में तो कभी नहीं । परमात्मा के प्रति आत्मा की यह सेवा नित्य है , जैसा कि स्पष्ट किया गया है । अतएव भक्ति शाश्वत ( नित्य ) है । मनुष्य को इसी दार्शनिक धारणा में स्थित होना चाहिए ।

श्रीमद्भागवत में ( १.२.११ ) व्याख्या की गई है- वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् – जो परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता है , वे जानते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपों में किया जाता है – ब्रह्म , परमात्मा तथा भगवान् । परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान् पराकाष्ठा होते हैं , अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान् को समझने के पद तक पहुँचे और भगवान की भक्ति में लग जाय ।

यही ज्ञान की पूर्णता विनम्रता से लेकर भगवत्साक्षात्कार तक की विधि भूमि से चल कर ऊपरी मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढ़ी के समान है । इस सीढ़ी में कुछ ऐसे लोग हैं , जो अभी पहली सीढ़ी पर हैं , कुछ दूसरी पर , तो कुछ तीसरी पर । किन्तु जब तक मनुष्य ऊपरी मंजिल पर नहीं पहुँच जाता , जो कि कृष्ण का ज्ञान है , तब तक वह ज्ञान की निम्नतर अवस्था में ही रहता है ।

यदि कोई ईश्वर की बराबरी करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है , तो उसका प्रयास विफल होगा । यह स्पष्ट कहा गया है कि विनम्रता के विना ज्ञान सम्भव नहीं है । अपने को ईश्वर समझना सर्वाधिक गर्व है ।

यद्यपि जीव सदैव प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा ठुकराया जाता है , फिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है कि ” मैं ईश्वर हूँ । ” ज्ञान का शुभारम्भ ‘ अमानित्व ‘ या विनम्रता से होता है ।

मनुष्य को विनम्र होना चाहिए । परमेश्वर के प्रति विद्रोह के कारण ही मनुष्य प्रकृति के अधीन हो जाता है । मनुष्य को इस सच्चाई को जानना और इससे विश्वस्त होना चाहिए । 

ज्ञेयं  यत्तत्प्रवक्ष्यामि  यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।  

अनादिमत्परं  ब्रह्म   न  सत्तन्नासदुच्यते ॥ १३ ॥ 

ज्ञेयम्   –  जानने योग्य  ;   यत्  –   जो   ;   तत्  –  वह   ;   प्रवक्ष्यामि   –   अब में बतलाऊँगा    ;   यत्   –   जिसे   ;    ज्ञात्वा   –   जानकर ;   अमृतम्   – अमृत का    ;    अश्नुते   –    आस्वादन करता है   ;   अनादि   –   आदि रहित    ;     मत्  परम्    –   मेरे अधीन   ;   ब्रह्म   –  आत्मा   ;   न   –   न तो   ;    सत्   –   कारण    ;    तत्   –   वह   ;    न   –    न तो    ;     असत्   –   कार्य प्रभाव   ;   उच्यते    – कहा जाता है । 

अब मैं तुम्हें ज्ञेय के विषय में बतलाऊँगा , जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे । यह ब्रह्म या आत्मा , जो अनादि है और मेरे अधीन है , इस भौतिक जगत् के कार्य – कारण से परे स्थित है । 

तात्पर्य :-  भगवान् ने क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ की व्याख्या की । उन्होंने क्षेत्रज्ञ को जानने की विधि की भी व्याख्या की । अब वे ज्ञेय के विषय में बता रहे हैं- पहले आत्मा के विषय में , फिर परमात्मा के विषय में ज्ञाता अर्थात् आत्मा तथा परमात्मा दोनों ही के ज्ञान से मनुष्य जीवन – अमृत का आस्वादन कर सकता है ।

जैसा कि द्वितीय अध्याय में कहा गया है , जीव नित्य है । इसकी भी यहाँ पुष्टि हुई है । जीव के उत्पन्न होने की कोई निश्चित तिथि नहीं है । न ही कोई परमेश्वर से जीवात्मा के प्राकट्य का इतिहास बता सकता है । अतएव वह अनादि है ।

इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है- न जायते म्रियते वा विपश्चित् ( कठोपनिषद् १.२.१८ ) । शरीर का ज्ञाता न तो कभी उत्पन्न होता है , और न मरता है । वह ज्ञान से पूर्ण होता 1 वैदिक साहित्य में ( श्वेताश्वतर उपनिषद ६.१६ ) भी परमेश्वर को परमात्मा रूप में प्रधान क्षेत्रज्ञपतिर्गुणेश : – शरीर का मुख्य ज्ञाता तथा प्रकृति के गुणों का स्वामी कहा गया है ।

स्मृति वचन हे – दासभूतो हरेरेव नान्यस्यैव कदाचन । जीवात्माएँ सदा भगवान् की सेवा में लगी रहती हैं । इसकी पुष्टि भगवान् चैतन्य के अपने उपदेशों में भी है । अतएव इस श्लोक में ब्रह्म का जो वर्णन है , वह आत्मा का है और जब ब्रह्म शब्द जीवात्मा के लिए व्यवहृत होता है , तो यह समझना चाहिए कि वह आनन्दब्रह्म न होकर विज्ञानब्रह्म है । आनन्द ब्रह्म ही परब्रह्म भगवान् है ।

सर्वतःपाणिपादं    तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । 

सर्वतःश्रुतिमल्लोके      सर्वमावृत्य    तिष्ठति ॥ १४ ॥ 

सर्वतः  –   सर्वत्र   ;    पाणि   –   हाथ   ;    पारम्   –   पैर  ;  सर्वतः   –   सर्वत्र   ;   अक्षि   –   आँखें   ;    शिरः    –   सिर  ;   मुखम्   –  मुँह   ;   सर्वतः   –    सर्वत्र  ;   श्रुति-मत्   –   कानों से युक्त    ;    लोके   –   संसार में  ;   सर्वम्    –   हर बस्तु  ;   आवृत्य   –   व्याप्त करके   ;   तिष्ठति   –   अवस्थित है

उनके हाथ , पाँव , आखें , सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं । इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है । 

तात्पर्य :-  जिस प्रकार सूर्य अपनी अनन्त रश्मियों को विकीर्ण करके स्थित है , उसी प्रकार परमात्मा या भगवान् भी हैं । वे अपने सर्वव्यापी रूप में स्थित रहते हैं , और उनमें आदि शिक्षक ब्रह्मा से लेकर छोटी सी चींटी तक के सारे जीव स्थित हैं ।

उनके अनन्त शिर , हाथ पाँव तथा नेत्र हैं , और अनन्त जीव हैं । ये सभी परमात्मा में ही स्थित है । अतएव परमात्मा सर्वव्यापक है । लेकिन आत्मा यह नहीं कह सकता कि उसके हाथ , पाँव तथा नेत्र चारों दिशाओं में हैं ।

यह सम्भव नहीं है । यदि वह अज्ञान के कारण यह सोचता है कि उसे इसका ज्ञान नहीं है कि उसके हाथ तथा पैर चतुर्दिक प्रसरित हैं , किन्तु समुचित ज्ञान होने पर वह ऐसी स्थिति में आ जायेगा तो उसका ऐसा सोचना उल्टा है ।

इसका अर्थ यही होता है कि प्रकृति द्वारा बद्ध होने के कारण आत्मा परम नहीं है । परमात्मा आत्मा से भिन्न है । परमात्मा अपना हाथ असीम दूरी तक फैला सकता है , किन्तु आत्मा ऐसा नहीं कर सकता । भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि यदि कोई उन्हें पत्र , पुष्प या जल अर्पित करता है , तो वे उसे स्वीकार करते हैं ।

यदि भगवान् दूर होते तो फिर इन वस्तुओं को वे कैसे स्वीकार कर पाते ? यही भगवान की सर्वशक्तिमत्ता है । यद्यपि वे पृथ्वी से बहुत दूर अपने धाम में स्थित हैं , तो भी वे किसी के द्वारा अर्पित कोई भी वस्तु अपना हाथ फैला कर ग्रहण कर सकते हैं । यही उनकी शक्तिमत्ता है ।

ब्रह्मसंहिता में ( ५.३७ ) कहा गया है – गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः – यद्यपि वे अपने दिव्य लोक में लीला – रत रहते हैं , फिर भी वे सर्वव्यापी हैं । आत्मा ऐसा घोषित नहीं कर मकता कि वह सर्वव्याप्त है । अतएव इस श्लोक में आत्मा ( जीव ) नहीं , अपितु परमात्मा या भगवान् का वर्णन हुआ है । 

सर्वेन्द्रियगुणाभासं    सर्वेन्द्रियविवर्जितम्  । 

असक्तं   सर्वभृञ्चैव  निर्गुणं  गुणभोक्तृ  च ॥ १५ ॥ 

सर्व    –   समस्त   ;   इन्द्रिय   –   इन्द्रियों का   ;   गुण  –   गुणों का   ;   आभासम्   –   मूल स्रोत   ; सर्व   –   समस्त   ; इन्द्रिय   –   इन्द्रियों से   ;  विवर्जितम्   –   विहीन    ;    असक्तम्   – अनासक्त   ;  सर्वभृत्   –   प्रत्येक का पालनकर्ता ;  च   –   भी   ;    एव    –   निश्चय ही   ;    निर्गुणम्   – गुणविहीन   ;   गुण-भोक्तृ   –    गुणों का स्वामी   ;   च   –   भी । 

परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्रोत हैं , फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं । वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं । वे प्रकृति के गुणों से परे हैं , फिर भी चे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं ।

तात्पर्य :-  यद्यपि परमेश्वर समस्त जीवों की समस्त इन्द्रियों के स्रोत हैं , फिर भी जीवों की तरह उनके भौतिक इन्द्रियों नहीं होतीं । वास्तव में जीवों में आध्यात्मिक इन्द्रियाँ होती हैं , लेकिन बद्ध जीवन में वे भौतिक तत्त्वों से आच्छादित रहती हैं , अतएव इन्द्रियकार्यो का प्राकट्य पदार्थ द्वारा होता है । परमेश्वर की इन्द्रियाँ इस तरह आच्छादित नहीं रहतीं ।

उनकी इन्द्रियाँ दिव्य होती है , अतएव निर्गुण कहलाती हैं । गुण का अर्थ है भौतिक गुण , लेकिन उनकी इन्द्रियाँ भौतिक आवरण से रहित होती हैं । यह समझ लेना चाहिए कि उनकी इन्द्रियों हमारी इन्द्रियों जैसी नहीं होतीं ।

यद्यपि वे हमारे समस्त ऐन्द्रिय कार्यों के स्रोत हैं , लेकिन उनकी इन्द्रियों दिव्य होती हैं , जो कल्पपरहित होती हैं । इसकी बड़ी ही सुन्दर व्याख्या वेताश्वतर उपनिषद् में ( ३.१ ९ ) अपाणिपादो जवनो ग्रहीता श्लोक में हुई है ।

भगवान् के हाथ भौतिक कल्मषों से ग्रस्त नहीं होते , अतएव उन्हें जो कुछ अर्पित किया जाता है , उसे वे अपने हाथों से ग्रहण करते हैं । बद्धजीव तथा परमात्मा में यही अन्तर है । उनके भौतिक नेत्र नहीं होते , फिर भी उनके नेत्र होते हैं , अन्यथा वे कैसे देख सकते ?

वे सब कुछ देखते हैं – भूत , वर्तमान तथा भविष्य वे जीवों के हृदय में वास करते हैं , और वे जानते हैं कि भूतकाल में हमने क्या किया , अब क्या कर रहे हैं और भविष्य में क्या होने वाला है । इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है । वे सब कुछ जानते है , किन्तु उन्हें कोई नहीं जानता ।

कहा जाता है कि परमेश्वर के हमारे जैसे पाँव नहीं हैं , लेकिन वे आकाश में विचरण कर सकते हैं , क्योंकि उनके आध्यात्मिक पाँव होते है । दूसरे शब्दों में , भगवान् निराकार नहीं हैं , उनके अपने नेत्र , पाँव , हाथ , सभी कुछ होते हैं , और चूँकि हम सभी परमेश्वर के अंश हैं , अतएव हमारे पास भी ये सारी वस्तुएँ होती हैं ।

लेकिन उनके हाथ , पाँव , नेत्र तथा अन्य इन्द्रियाँ प्रकृति द्वारा कल्मषग्रस्त नहीं होतीं । भगवद्गीता से भी पुष्टि होती है कि जब भगवान् प्रकट होते हैं , तो वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से यथारूप में प्रकट होते हैं ।

वे भौतिक शक्ति द्वारा कल्मषग्रस्त नहीं होते , क्योंकि वे भौतिक शक्ति के भी स्वामी हैं । वैदिक साहित्य से हमें पता चलता है । कि उनका सारा शरीर आध्यात्मिक है । उनका अपना नित्यस्वरूप होता है , जो सच्चिदानन्द विग्रह है । वे समस्त ऐश्वर्य से पूर्ण हैं ।

वे सारी सम्पत्ति के स्वामी हैं और सारी शक्ति के स्वामी हैं । वे सर्वाधिक बुद्धिमान तथा ज्ञान से पूर्ण हैं । ये भगवान् के कुछ लक्षण हैं । वे समस्त जीवों के पालक हैं और सारी गतिविधि के साक्षी हैं । जहाँ तक वैदिक साहित्य से समझा जा सकता है , परमेश्वर सदैव दिव्य हैं ।

यद्यपि हमें उनके हाथ , पाँव , सिर , मुख नहीं दीखते , लेकिन वे होते हैं और जब हम दिव्य पद तक ऊपर उठ जाते हैं , तो हमें भगवान् के स्वरूप के दर्शन होते हैं । कल्मषग्रस्त इन्द्रियों के कारण हम उनके स्वरूप को देख नहीं पाते । अतएव निर्विशेषवादी भगवान् को नहीं समझ सकते , क्योंकि वे भौतिक दृष्टि से प्रभावित होते हैं । 

बहिरन्तश्च      भूतानामचरं      चरमेव      च । 

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं  दूरस्थं  चान्तिके  च  तत् ॥ १६ ॥

बहिः   –   वाहर   ;    अन्तः   –   भीतर   ;   च   –  भी   ;   भूतानाम्   –   जीवों का   ;   अचरम्    – जड़   ;   चरम्   –   जंगम  ;   एव   –  भी   ;    च   –   तथा  ;   सूक्ष्मत्वात्   –   सूक्ष्म होने के कारण   ;    अविज्ञेयम्   –   अज्ञेय   ;    दूर-स्थम्   –   दूर स्थित    ; च   –   भी   ;   अन्तिके   –   पास  ;  च  –   तथा । 

परमसत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित हैं । सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं । यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं , किन्तु हम सबों के निकट भी हैं । 

तात्पर्य :-  वैदिक साहित्य से हम जानते हैं कि परम पुरुष नारायण प्रत्येक जीव के बाहर तथा भीतर निवास करने वाले हैं । वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही जगतों में विद्यमान रहते हैं ।

यद्यपि वे बहुत दूर हैं , फिर भी वे हमारे निकट रहते हैं । ये वैदिक साहित्य के वचन हैं । आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः ( कठोपनिषद् १.२.२१ ) । चूंकि वे निरन्तर दिव्य आनन्द भोगते रहते हैं , अतएव हम यह नहीं समझ पाते कि वे सारे ऐश्वर्य का भोग किस तरह करते हैं ।

हम इन भौतिक इन्द्रियों से न तो उन्हें देख पाते हैं , न समझ पाते हैं । अतएव वैदिक भाषा में कहा गया है कि उन्हें समझने में हमारा भौतिक मन तथा इन्द्रियाँ असमर्थ हैं । किन्तु जिसने , भक्ति में कृष्णभावनामृत का अभ्यास करते हुए , अपने मन तथा इन्द्रियों को शुद्ध कर लिया है , वह उन्हें निरन्तर देख सकता है ।

ब्रह्मसंहिता में इसकी पुष्टि हुई है कि परमेश्वर के लिए जिस भक्त में प्रेम उपज चुका है , वह निरन्तर उनका दर्शन कर सकता है । और भगवद्गीता में ( ११.५४ ) इसकी पुष्टि हुई है कि उन्हें केवल भक्ति द्वारा देखा तथा समझा जा सकता है । भक्त्या त्वनन्यया शक्यः । 

अविभक्तं  च  भूतेषु  विभक्तमिव  च  स्थितम् । 

भूतभर्तृ   च   तज्ज्ञेयं   ग्रसिष्णु   प्रभविष्णु   च ॥ १७ ॥ 

अविभक्तम्   –   विना विभाजन के    ;    च   –  भी   ;   भूतेषु   –  समस्त जीवों में   ;    विभक्तम्   – बँटा हुआ   ;    इव   –  मानो ;   च – भी   ;   स्थितम् –   स्थित   ;   भूत-भर्तृ    –   समस्त जीवों का पालक   ;   च   –   भी   ;    तत्  –   वह   ;   ज्ञेयम्   – जानने योग्य   ;  ग्रसिष्णु   –   निगलते हुए  , संहार करने वाला   ;    प्रभविष्णु  –   विकास करते हुए   ;    च   –  भी । 

यद्यपि परमात्मा समस्त जीवों के मध्य विभाजित प्रतीत होता है , लेकिन वह कभी भी विभाजित नहीं है । वह एक रूप में स्थित है । यद्यपि वह प्रत्येक जीव का पालनकर्ता है , लेकिन यह समझना चाहिए कि वह सबों का संहारकर्ता है और सबों को जन्म देता है । 

तात्पर्य :-  भगवान् सबों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं । तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि वे बँटे हुए हैं ? नहीं । वास्तव में वे एक हैं । यहाँ पर सूर्य का उदाहरण दिया जाता है । सूर्य मध्याह्न समय अपने स्थान पर रहता है , लेकिन यदि कोई चारों ओर पाँच हजार मील की दूरी पर घूमे और पूछे कि सूर्य कहाँ है , तो सभी लोग यही कहेंगे कि वह उसके सिर पर चमक रहा है ।

वैदिक साहित्य में यह उदाहरण यह दिखाने के लिए दिया गया है कि यद्यपि भगवान् अविभाजित हैं , लेकिन इस प्रकार स्थित हैं मानो विभाजित हो । यही नहीं , वैदिक साहित्य में यह भी कहा गया है कि अपनी सर्वशक्तिमत्ता के द्वारा एक विष्णु सर्वत्र विद्यमान हैं , जिस तरह अनेक पुरुषों को एक ही सूर्य की प्रतीति अनेक स्थानों में होती है ।

यद्यपि परमेश्वर प्रत्येक जीव के पालनकर्ता हैं , किन्तु प्रलय के समय सर्वो का भक्षण कर जाते हैं । इसकी पुष्टि ग्यारहवें अध्याय में हो चुकी है , जहाँ भगवान् कहते हैं कि वे कुरुक्षेत्र में एकत्र सारे योद्धाओं का भक्षण करने के लिए आये हैं । उन्होंने यह भी कहा कि वे काल के रूप में सब का भक्षण करते हैं । वे सबके प्रलयकारी और संहारकर्ता हैं ।

जब सृष्टि की जाती है , तो वे सर्वो को मूल स्थिति से विकसित करते हैं और प्रलय के समय उन सबको निगल जाते हैं । वैदिक स्तोत्र पुष्टि करते हैं कि वे समस्त जीवों के मूल तथा सबके आश्रय स्थल हैं । सृष्टि के बाद सारी वस्तुएँ उनकी सर्वशक्तिमत्ता पर टिकी रहती हैं और प्रलय के बाद सारी वस्तुएँ पुनः उन्हीं में विश्राम पाने के लिए लौट आती हैं ।

ये सब वैदिक स्तोत्रों की पुष्टि करने वाले हैं । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्ब्रह्म तद्विजिज्ञासस्व ( तैत्तिरीय उपनिषद् ३.१ ) । 

ज्योतिषामपि   तज्ज्योतिस्तमसः   परमुच्यते । 

ज्ञानं  ज्ञेयं  ज्ञानगम्यं  हृदि  सर्वस्य  विष्ठितम् ॥ १८ ॥ 

ज्योतिषाम्    –   समस्त प्रकाशमान वस्तुओं में   ;    अपि   –   भी   ;   तत्   –   वह  ;   ज्योतिः  – प्रकाश का स्रोत    ;    तमसः   – अन्धकार   ;   उच्यते   – कहलाता है   ;   ज्ञानम्    –   ज्ञान   ;  ज्ञेयम्   –   जानने योग्य   ;   ज्ञान-गम्यम्    –    ज्ञान द्वारा पहुँचने योग्य    ; हृदि   –   हृदय में   ; सर्वस्य   –   सव    ; विष्ठितम्   –   स्थित । 

वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्रोत हैं । वे भौतिक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं । वे ज्ञान हैं , ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं । वे सबके हृदय में स्थित हैं । 

तात्पर्य :-  परमात्मा या भगवान् ही सूर्य , चन्द्र तथा नक्षत्रों जैसी समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्रोत हैं । वैदिक साहित्य से हमें पता चलता है कि वैकुण्ठ राज्य में सूर्य या चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं पड़ती , क्योंकि वहाँ पर परमेश्वर का तेज जो है ।

भौतिक जगत् में वह ब्रह्मज्योति या भगवान् का आध्यात्मिक तेज महत्तत्त्व अर्थात भौतिक तत्त्वों से ढका रहता है । अतएव इस जगत् में हमें सूर्य , चन्द्र , बिजली आदि के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है , लेकिन आध्यात्मिक जगत् में ऐसी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती ।

वैदिक साहित्य में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् के प्रकाशमय तेज से प्रत्येक वस्तु प्रकाशित रहती है । अतः यह स्पष्ट है कि वे इस भौतिक जगत् में स्थित नहीं हैं , वे तो आध्यात्मिक जगत् ( वैकुण्ठ लोक ) में स्थित है , जो चिन्मय आकाश में बहुत ही दूरी पर है ।

इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है । आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८ ) । वे सूर्य की भाँति अत्यन्त तेजोमय हैं , लेकिन इस भौतिक जगत के अन्धकार से बहुत दूर हैं । उनका ज्ञान दिव्य है । वैदिक साहित्य पुष्टि करता है कि ब्रह्म घनीभूत दिव्य ज्ञान है । जो वैकुण्ठलोक जाने का इच्छुक है , उसे परमेश्वर द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाता है , जो प्रत्येक हृदय में स्थित हैं ।

एक वैदिक मन्त्र है ( श्वेताश्वतर – उपनिषद् ६.१८ ) – तं ह देवम् आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वे शरणमहं प्रपद्ये । मुक्ति के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् की शरण में जाय । जहाँ तक चरम ज्ञान के लक्ष्य का सम्बन्ध है , वैदिक साहित्य से भी पुष्टि होती है – तमेव विदित्वाति मृत्युमेति उन्हें जान लेने के बाद ही जन्म तथा मृत्यु की परिधि को लाँघा जा सकता है ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८ ) ।

वे प्रत्येक हृदय में परम नियन्ता के रूप में स्थित हैं । परमेश्वर के हाथ – पैर सर्वत्र फैले हैं , लेकिन जीवात्मा के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता । अतएव यह मानना ही पड़ेगा कि कार्य क्षेत्र को जानने वाले दो ज्ञाता हैं – एक जीवात्मा तथा दूसरा परमात्मा । पहले के हाथ – पैर केवल किसी एक स्थान तक सीमित ( एकदेशीय ) हैं , जबकि कृष्ण के हाथ – पैर सर्वत्र फैले हैं ।

इसकी पुष्टि श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( ३.१७ )  इस प्रकार हुई है सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत् । वह परमेश्वर या परमात्मा समस्त जीवों का स्वामी या प्रभु है , अतएव वह उन सबका चरम आश्रय है । अतएव इस बात से मना नहीं किया जा सकता कि परमात्मा तथा जीवात्मा सदैव भिन्न होते हैं ।

भगवद गीता अध्याय 13.1~भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के ज्ञान सहित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita kshetr or kshtrgya Ch13.1
भगवद गीता अध्याय 13.1

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