अध्याय बारह (Chapter -12)
भगवद गीता अध्याय 12.2 में शलोक 13 से शलोक 20 तक भगवत्-प्राप्त पुरुषों के लक्षण का वर्णन !
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १३ ॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १४ ॥
अद्वेष्टा – ईर्ष्याविहीन ; सर्व-भूतानाम् – समस्त जीवों के प्रति ; मैत्रः – मैत्रीभाव वाला ; करुणः – दयालु ; एव – निश्चय ही ; च – भी ; निर्ममः – स्वामित्व की भावना से रहित ; निरहंकारः – मिथ्या अहंकार से रहित ; सम – समभाव ; दुःख – दुख ; सुखः – तथा सुख में ; क्षमी – क्षमावान ।
सन्तुष्टः – प्रसन्न , तुष्ट ; सततम् – निरन्तर ; योगी – भक्ति में निरत ; यत-आत्मा – आत्मसंयमी ; दृढ निश्चयः – संकल्प सहित ; मयि – मुझमें ; अर्पित – संलग्न ; मनः – मन को ; बुद्धिः – तथा बुद्धि को ; यः – जो ; मत्-भक्त: – मेरा भक्त ; सः – वह ; मे – मेरा ; प्रियः – प्यारा ।
जो किसी से द्वेष नहीं करता , लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है , जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है , जो सुख – दुख में समभाव रहता है , सहिष्णु है , सदैव आत्मतुष्ट रहता है , आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है , ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
तात्पर्य :- शुद्ध भक्ति पर पुनः आकर भगवान् इन दोनों श्लोकों में शुद्ध भक्त के दिव्य गुणों का वर्णन कर रहे हैं । शुद्ध भक्त किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता , न ही वह किसी के प्रति ईर्ष्यालु होता है । न वह अपने शत्रु का शत्रु बनता है ।
वह तो सोचता है ” यह व्यक्ति मेरे विगत दुष्कर्मों के कारण मेरा शत्रु बना हुआ है , अतएव विरोध करने की अपेक्षा कष्ट सहना अच्छा है ।
” श्रीमद्भागवत में ( १०.१४.८ ) कहा गया है – तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । जब भी कोई भक्त मुसीबत में पड़ता है , तो वह सोचता है कि यह भगवान् की मेरे ऊपर कृपा ही है ।
मुझे अपने विगत दुष्कर्मों के अनुसार इससे कहीं अधिक कष्ट भोगना चाहिए था । यह तो भगवत्कृपा है कि मुझे मिलने वाला पूरा दण्ड नहीं मिल रहा है । भगवत्कृपा से थोड़ा ही दण्ड मिल रहा है ।
अतएव अनेक कष्टपूर्ण परिस्थितियों में भी वह सदेव शान्त तथा धीर बना रहता है । भक्त सदैव प्रत्येक प्राणी पर , यहाँ तक कि अपने शत्रु पर भी , दयालु होता है । निर्मम का अर्थ यह है कि भक्त शारीरिक कष्टों को प्रधानता नहीं प्रदान करता , क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि वह भौतिक शरीर नहीं है ।
वह अपने को शरीर नहीं मानता है , अतएव वह मिथ्या अहंकार के बोध से मुक्त रहता है , और सुख तथा दुख में समभाव रखता है । वह सहिष्णु होता है और भगवत्कृपा से जो कुछ प्राप्त होता है , उसी से सन्तुष्ट रहता है ।
वह ऐसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता जो कठिनाई से मिले । अतएव वह सदैव प्रसन्नचित्त रहता है । वह पूर्णयोगी होता है , क्योंकि वह अपने गुरु के आदेशों पर अटल रहता है , और चूँकि उसकी इन्द्रियाँ वश में रहती हैं , अतः वह दृढ़निश्चय होता है ।
वह झूठे तर्कों से विचलित नहीं होता , क्योंकि कोई उसे भक्ति के दृढ़ संकल्प से हटा नहीं सकता । वह पूर्णतया अवगत रहता है कि कृष्ण उसके शाश्वत प्रभु हैं , अतएव कोई भी उसे विचलित नहीं कर सकता । इन समस्त गुणों के फलस्वरूप वह अपने मन तथा बुद्धि को पूर्णतया परमेश्वर पर स्थिर करने में समर्थ होता है ।
भक्ति का ऐसा आदर्श अत्यन्त दुर्लभ है , लेकिन भक्त भक्ति के विधि – विधानों का पालन करते हुए उसी अवस्था में स्थित रहता है और फिर भगवान् कहते हैं कि ऐसा भक्त उन्हें अति प्रिय है , क्योंकि भगवान् उसकी कृष्णभावना से युक्त कार्यकलापों से सदैव प्रसन्न रहते हैं ।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥
यस्मात् – जिससे ; न – कभी नहीं ; उद्विजते – उद्विग्न होते हैं ; लोकः – लोग ; लोकात् – लोगों से ; न – कभी नहीं ; उद्विजते – विचलित होता है ; च – भी ; यः – जो ; हर्ष – सुख ; अमर्ष – दुख ; भय – भय ; उद्वेगेः – तथा चिन्ता से ; मुक्त: – मुक्त ; यः – जो ; सः – वह ; च – भी ; मे – मेरा ; प्रियः – प्रिय ।
जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं किया जाता , जो सुख – दुख में , भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है , वह मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में भक्त के कुछ अन्य गुणों का वर्णन हुआ है । ऐसे भक्त द्वारा कोई व्यक्ति कष्ट , चिन्ता , भय या असन्तोष को प्राप्त नहीं होता । चूँकि भक्त सबों पर दयालु होता है , अतएव वह ऐसा कार्य नहीं करता , जिससे किसी को चिन्ता हो । साथ ही , यदि अन्य लोग भक्त को चिन्ता में डालना चाहते हैं , तो वह विचलित नहीं होता ।
यह भगवत्कृपा ही है कि वह किसी बाह्य उपद्रव से क्षुब्ध नहीं होता । वास्तव में सदेव कृष्णभावनामृत में लीन रहने तथा भक्ति में रत रहने के कारण ही ऐसे भौतिक उपद्रव भक्त को विचलित नहीं कर पाते । सामान्य रूप से विषयी व्यक्ति अपने शरीर तथा
इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी वस्तु को पाकर अत्यन्त प्रसन्न होता है , लेकिन जब वह देखता है कि अन्यों के पास इन्द्रियतृप्ति के लिए ऐसी वस्तु है , जो उसके पास नहीं है , तो वह दुख तथा ईर्ष्या से पूर्ण हो जाता है ।
जब वह अपने शत्रु से बदले की शंका करता है , तो वह भयभीत रहता है , और जब वह कुछ भी करने में सफल नहीं होता , तो निराश हो जाता है । ऐसा भक्त , जो इन समस्त उपद्रवों से परे होता है , कृष्ण को अत्यन्त प्रिय होता है ।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥
अनपेक्ष: – इच्छारहित ; शुचि: – शुद्ध ; दक्षः – पटु ; उदासीन: – चिन्ता से मुक्त ; गत व्यथः – सारे कष्टों से मुक्त ; सर्व-आरम्भ – समस्त प्रयत्नों का ; परित्यागी – परित्याग करने वाला ; यः – जो ; मत् भक्तः – मेरा भक्त ; सः – वह ; मे – मेरा ; प्रियः – अतिशय प्रिय ।
मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य – कलापों पर आश्रित नहीं है , जो शुद्ध है , दक्ष है , चिन्तारहित हैं , समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता , मुझे अतिशय प्रिय है ।
तात्पर्य :- भक्त को धन दिया जा सकता है , किन्तु उसे धन अर्जित करने के लिए संघर्ष नहीं करना चाहिए । भगवत्कृपा से यदि उसे स्वयं धन की प्राप्ति हो , तो वह उद्विग्न नहीं होता ।
स्वाभाविक है कि भक्त दिनभर में दो बार स्नान करता है और भक्ति के लिए प्रातःकाल जल्दी उठता है । इस प्रकार वह बाहर तथा भीतर से स्वच्छ रहता है । भक्त सदैव दक्ष होता है , क्योंकि वह जीवन के समस्त कार्यकलापों के सार को जानता है और प्रामाणिक शास्त्रों में दृढ़विश्वास रखता है ।
भक्त कभी किसी दल में भाग नहीं लेता , अतएव यह चिन्तामुक्त रहता है । समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण कभी व्यथित नहीं होता , वह जानता है कि उसका शरीर एक उपाधि है , अतएव शारीरिक कष्टों के आने पर वह मुक्त रहता है ।
शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी किसी वस्तु के लिए प्रयास नहीं करता , जो भक्ति के नियमों के प्रतिकूल हो । उदाहरणार्थ , किसी विशाल भवन को बनवाने में काफी शक्ति लगती है , अतएव वह कभी ऐसे कार्य में हाथ नहीं लगाता , जिससे उसकी भक्ति में प्रगति न होती हो ।
वह भगवान् के लिए मन्दिर का निर्माण करा सकता है और उसके लिए वह सभी प्रकार की चिन्ताएँ उठा सकता है , लेकिन वह अपने परिवार वालों के लिए बड़ा सा मकान नहीं बनाता ।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ १७ ॥
यः – जो ; न – कभी नहीं ; हृष्यति – हर्षित होता है ; न – कभी नहीं ; द्वेष्टि – शोक करता है ; न – कभी नहीं ; शोचति – पछतावा करता है ; न – कभी नहीं ; काङ्क्षति – इच्छा करता है ; शुभ – शुभ ; अशुभ – तथा अशुभ का ; परित्यागी – त्याग करने वाला ; यः – जो ; सः – यह है ; मे – मेरा ; प्रियः – प्रिय ।
जो न कभी हर्षित होता है , न शोक करता है , जो न तो पछताता है , न इच्छा करता है , तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है , ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
तात्पर्य :- शुद्ध भक्त भौतिक लाभ से न तो हर्षित होता है और न हानि से दुखी होता हैं , वह पुत्र या शिष्य की प्राप्ति के लिए न तो उत्सुक रहता है , न ही उनके न मिलने पर दुखी होता है । वह अपनी किसी प्रिय वस्तु के खो जाने पर उसके लिए पछताता नहीं ।
इसी प्रकार यदि उसे अभीप्सित की प्राप्ति नहीं हो पाती तो वह दुखी नहीं होता । वह समस्त प्रकार के शुभ अशुभ तथा पापकर्मों से सदैव परे रहता है । वह परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए बड़ी से बड़ी विपत्ति सहने को तैयार रहता है । भक्ति के पालन में उसके लिए कुछ भी बाधक नहीं बनता । ऐसा भक्त कृष्ण को अतिशय प्रिय होता है ।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ १८ ॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ १९ ॥
समः – समान ; शत्रौ – शत्रु में ; च – तथा ; मित्रे – मित्र में ; च – भी ; तथा – उसी प्रकार ; मान – सम्मान ; अपमानयोः – तथा अपमान में ; शीत – जाड़ा ; उष्ण – गर्मी ; सुख – सुख ; दुःखेषु – तथा दुख में ; समः – समभाव ; सङ्ग-विवर्जितः – समस्त संगति से मुक्त ; तुल्य – समान ; निन्दा – अपयश ; स्तुतिः – तथा यश में ; मौनी – मौन ; सन्तुष्टः – सन्तुष्ट ; येन केनचित् – जिस किसी तरह ; अनिकेत: – विना घर-बार के ; स्थिर: – दृढ़ ; मतिः – संकल्प ; भक्तिमान् – भक्ति में रत ; मे – मेरा ; प्रियः – प्रिय ; नरः – मनुष्य ।
जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए समान है , जो मान तथा अपमान , शीत तथा गर्मी , सुख तथा दुख , यश तथा अपयश में समभाव रखता है , जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है , जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है , जो किसी प्रकार के घर – बार की परवाह नहीं करता , जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है- ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
तात्पर्य :- भक्त सदैव कुसंगति से दूर रहता है । मानव समाज का यह स्वभाव है कि कभी किसी की प्रशंसा की जाती है , तो कभी उसकी निन्दा की जाती है । लेकिन भक्त कृत्रिम यश तथा अपयश , दुख या सुख से ऊपर उठा हुआ होता है । वह अत्यन्त धैर्यवान् होता है ।
वह कृष्णकथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलता । अतः उसे मौनी कहा जाता है । मोनी का अर्थ यह नहीं कि वह बोले नहीं , अपितु यह कि वह अनर्गल आलाप न करे । मनुष्य को आवश्यकता पर बोलना चाहिए और भक्त के लिए सर्वाधिक अनिवार्य वाणी तो भगवान् के लिए बोलना है ।
भक्त समस्त परिस्थितियों में सुखी रहता है । कभी उसे स्वादिष्ट भोजन मिलता है तो कभी नहीं , किन्तु वह सन्तुष्ट रहता है । वह आवास की सुविधा की चिन्ता नहीं करता । वह कभी पेड़ के नीचे रह सकता है , तो कभी अत्यन्त उच्च प्रासाद में , किन्तु वह इनमें से किसी के प्रति आसक्त नहीं रहता ।
वह स्थिर कहलाता है , क्योंकि वह अपने संकल्प तथा ज्ञान में दृढ़ होता है । भले ही भक्त के लक्षणों की कुछ पुनरावृत्ति हुई हो , लेकिन यह इस बात पर बल देने के लिए है कि भक्त को ये सारे गुण अर्जित करने चाहिए ।
सद्गुणों के बिना कोई शुद्ध भक्त नहीं बन सकता । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा : – जो भक्त नहीं है , उसमें सद्गुण नहीं होता । जो भक्त कहलाना चाहता है , उसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए । यह अवश्य है कि उसे इन गुणों के लिए अलग से वाह्य प्रयास नहीं करना पड़ता , अपितु कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में संलग्न रहने के कारण उसमें ये गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं
ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ २० ॥
ये – जो ; तु – लेकिन ; धर्म – धर्म रूपी ; अमृतम् – अमृत को ; इदम् – इस ; यथा – जिस तरह से ; जैसा उक्तम् – कहा गया ; पर्युपासते – पूर्णतया तत्पर रहते हैं ; श्रधानाः – श्रद्धा के साथ ; मत्-परमा: – मुझ परमेश्वर को सब कुछ मानते हुए ; भक्ताः – भक्तजन ; ते – वे ; अतीव – अत्यधिक ; मे – मेरे ; प्रियाः – प्रिय ।
जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते हैं , और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बना कर श्रद्धासहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं , वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं ।
तात्पर्य :- इस अध्याय में दूसरे श्लोक से अन्तिम श्लोक तक- मय्यावेश्य मनो ये माम् ( मुझ पर मन को स्थिर करके ) से लेकर ये तु धर्मामृतम् इदम् ( नित्य सेवा इस धर्म को ) तक – भगवान् ने अपने पास तक पहुँचने की दिव्य सेवा की विधियों की व्याख्या की है ।
ऐसी विधियाँ उन्हें अत्यन्त प्रिय हैं , और इनमें लगे हुए व्यक्तियों को वे स्वीकार कर लेते हैं । अर्जुन ने यह प्रश्न उठाया था कि जो निराकार ब्रह्म के पथ में लगा है , वह श्रेष्ठ है या जो साकार भगवान् की सेवा में भगवान् ने इसका बहुत स्पष्ट उत्तर दिया कि आत्म – साक्षात्कार की समस्त विधियों में भगवान् की भक्ति निस्सन्देह सर्वश्रेष्ठ है ।
दूसरे शब्दों में , इस अध्याय में यह निर्णय दिया गया है कि सुसंगति से मनुष्य में भक्ति के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है , जिससे वह प्रामाणिक गुरु बनाता है , और तब वह उससे श्रद्धा , आसक्ति तथा भक्ति के साथ सुनता है , कीर्तन करता है और भक्ति के विधि विधानों का पालन करने लगता है ।
इस तरह वह भगवान् की दिव्य सेवा में तत्पर हो जाता है । इस अध्याय में इस मार्ग की संस्तुति की गई है । अतएव इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि भगवत्प्राप्ति के लिए भक्ति ही आत्म – साक्षात्कार का परम मार्ग है ।
इस अध्याय में परम सत्य की जो निराकार धारणा वर्णित है , उसकी संस्तुति उस समय तक के लिए की गई है , जब तक मनुष्य आत्म – साक्षात्कार के लिए अपने आपको समर्पित नहीं कर देता है ।
दूसरे शब्दों में , जब तक उसे शुद्ध भक्त की संगति करने का अवसर प्राप्त नहीं होता तभी तक निराकार की धारणा लाभप्रद हो सकती है । परम सत्य की निराकार धारणा में मनुष्य कर्मफल के बिना कर्म करता है और आत्मा तथा पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ध्यान करता है ।
यह तभी तक आवश्यक है , जब तक शुद्ध भक्त की संगति प्राप्त न हो । सौभाग्यवश यदि कोई शुद्ध भक्ति में सीधे कृष्णभावनामृत में लगना चाहता है तो उसे आत्म – साक्षात्कार के इतने सोपान पार नहीं करने होते ।
भगवद्गीता के बीच के छः अध्यायों में जिस प्रकार भक्ति का वर्णन हुआ है , वह अत्यन्त हृदयग्राही है । किसी को जीवन निर्वाह के लिए वस्तुओं की चिन्ता नहीं करनी होती , क्योंकि भगवत्कृपा से सारी वस्तुएँ स्वतः सुलभ होती हैं ।
इस प्रकार भगवद गीता के बारहवें अध्याय ” भक्तियोग ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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