अध्याय ग्यारह (Chapter -11)
भगवद गीता अध्याय 11.8 में शलोक 51 से शलोक 55 तक बिना अनन्य भक्तिके चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का वर्णन !
अर्जुन उवाच
दृष्ट्दं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ ५१ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; दृष्ट्वा – देखकर ; इदम् – इस ; मानुषम् – मानवी ; रूपम् – रूप को ; तब – आपके ; सौम्यम् – अत्यन्त सुन्दर ; जनार्दन – हे शत्रुओं को दण्डित करने वाले ; इदानीम् – अब ; अस्मि – हूँ ; संवृत्त: – स्थिर ; स-चेता: – अपनी चेतना में ; प्रकृतिम् – अपनी प्रकृति को ; गतः – पुनः प्राप्त हूँ ।
जब अर्जुन ने कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा – हे जनार्दन ! आपके इस अतीव सुन्दर मानवी रूप को देखकर में अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है ।
तात्पर्य :- यहाँ पर प्रयुक्त मानुषं रूपम् शब्द स्पष्ट सूचित करते हैं कि भगवान् मूलतः दो भुजाओं वाले हैं । जो लोग कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानकर उनका उपहास करते हैं , उनको यहाँ पर भगवान् की दिव्य प्रकृति से अनभिज्ञ बताया गया है । यदि कृष्ण सामान्य मनुष्य होते तो उनके लिए पहले विश्वरूप और फिर चतुर्भुज नारायण रूप दिखा पाना कैसे सम्भव हो पाता ?
अतः भगवद्गीता में यह स्पष्ट उल्लेख है कि जो कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानता है और पाठक को यह कहकर भ्रान्त करता है कि कृष्ण के भीतर का निर्विशेष ब्रह्म बोल रहा है , वह सबसे बड़ा अन्याय करता है । कृष्ण ने सचमुच अपने विश्वरूप को तथा चतुर्भुज विष्णुरूप को प्रदर्शित किया ।
तो फिर वे किस तरह सामान्य पुरुष हो सकते हैं ? शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी गुमराह करने वाली टीकाओं से विचलित नहीं होता , क्योंकि वह वास्तविकता से अवगत रहता है । भगवद्गीता के मूल श्लोक सूर्य की भाँति स्पष्ट हैं , मूर्ख टीकाकारों को उन पर प्रकाश डालने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः॥ ५२ ॥
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा ; सु-दुर्दर्शम् – देख पाने में अत्यन्त कठिन ; इदम् – इस ; रूपम् – रूप को ; दृष्टवान् असि – जैसा तुमने देखा ; यत् – जो ; मम – मेरे ; देवा: – देवता ; अपि – भी ; अस्य – इस ; रूपस्य – रूप का ; नित्यम् – शाश्वत ; दर्शन-काङ्क्षिणः – दर्शनाभिलाषी ।
श्रीभगवान् ने कहा हे अर्जुन ! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो , उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है । यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं ।
तात्पर्य :- इस अध्याय के ४८ वें श्लोक में भगवान् कृष्ण ने अपना विश्वरूप दिखाना बन्द किया और अर्जुन को बताया कि अनेक तप , यज्ञ आदि करने पर भी इस रूप को देख पाना असम्भव है । अब सुदुर्दर्शम् शब्द का प्रयोग किया जा रहा है जो सूचित करता है कि कृष्ण का द्विभुज रूप और अधिक गुह्य है ।
कोई तपस्या , वेदाध्ययन तथा दार्शनिक चिंतन आदि विभिन्न क्रियाओं के साथ थोड़ा सा भक्ति – तत्त्व मिलाकर कृष्ण के विश्वरूप का दर्शन संभवतः कर सकता है , लेकिन ‘ भक्ति – तत्त्व ‘ के बिना यह संभव नहीं है , इसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है ।
फिर भी विश्वरूप से आगे कृष्ण का द्विभुज रूप है , जिसे ब्रह्मा तथा शिव जैसे बड़े – बड़े देवताओं द्वारा भी देख पाना और भी कठिन है । वे उनका दर्शन करना चाहते हैं और श्रीमद्भागवत में प्रमाण है कि जब भगवान् अपनी माता देवकी के गर्भ में थे , तो स्वर्ग के सारे देवता कृष्ण के चमत्कार को देखने के लिए आये और उन्होंने उत्तम स्तुतियाँ कीं , यद्यपि उस समय वे दृष्टिगोचर नहीं थे ।
वे उनके दर्शन की प्रतीक्षा करते रहे । मूर्ख व्यक्ति उन्हें सामान्य जन समझकर भले ही उनका उपहास कर ले और उनका सम्मान न करके उनके भीतर स्थित किसी निराकार ‘ कुछ ‘ का सम्मान करे , किन्तु यह सब मूर्खतापूर्ण व्यवहार है ।
कृष्ण के द्विभुज रूप का दर्शन तो ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवता तक करना चाहते हैं । भगवद्गीता ( ९ .११ ) में इसकी पुष्टि हुई है- अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् – जो लोग उनका उपहास करते हैं , वे उन्हें दृश्य नहीं होते । जैसा कि ब्रह्मसंहिता में तथा स्वयं कृष्ण द्वारा भगवद्गीता में पुष्टि हुई है , कृष्ण का शरीर सच्चिदानन्द स्वरूप है ।
उनका शरीर कभी भी भौतिक शरीर जैसा नहीं होता । किन्तु जो लोग भगवद्गीता या इसी प्रकार के वैदिक शास्त्रों को पढ़कर कृष्ण का अध्ययन करते हैं , उनके लिए कृष्ण समस्या बने रहते हैं ।
जो भौतिक विधि का प्रयोग करता है उसके लिए कृष्ण एक महान ऐतिहासिक पुरुष तथा अत्यन्त विद्वान चिन्तक हैं , यद्यपि वे सामान्य व्यक्ति हैं और इतने शक्तिमान होते हुए भी उन्हें भौतिक शरीर धारण करना पड़ा ।
अन्ततोगत्वा वे परमसत्य को निर्विशेष मानते हैं , अतः वे सोचते हैं कि भगवान् ने अपने निराकार रूप से ही साकार रूप धारण किया । परमेश्वर के विषय में ऐसा अनुमान नितान्त भौतिकतावादी है । दूसरा अनुमान भी काल्पनिक है । जो लोग ज्ञान की खोज में हैं , वे भी कृष्ण का चिन्तन करते हैं और उन्हें उनके विश्वरूप से कम महत्त्वपूर्ण मानते हैं ।
इस प्रकार कुछ लोग सोचते हैं कि अर्जुन के समक्ष कृष्ण का जो रूप प्रकट हुआ था , वह उनके साकार रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण है । उनके अनुसार कृष्ण का साकार रूप काल्पनिक है । उनका विश्वास है कि परमसत्य व्यक्ति नहीं है ।
किन्तु भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में दिव्य विधि का वर्णन है और वह कृष्ण के विषय में प्रामाणिक व्यक्तियों से श्रवण करने की है । यही वास्तविक वैदिक विधि है और जो लोग सचमुच वैदिक परम्परा में हैं , वे किसी अधिकारी से ही कृष्ण के विषय में श्रवण करते हैं और बारम्बार श्रवण करने से कृष्ण उनके प्रिय हो जाते हैं ।
जैसा कि हम कई बार बता चुके हैं कि कृष्ण अपनी योगमाया शक्ति से आच्छादित हैं । उन्हें हर कोई नहीं देख सकता । वही उन्हें देख पाता है , जिसके समक्ष वे प्रकट होते हैं । इसकी पुष्टि वेदों में हुई है , किन्तु जो शरणागत हो चुका है , वह परमसत्य को सचमुच समझ सकता है ।
निरन्तर कृष्णभावनामृत से तथा कृष्ण की भक्ति से आध्यात्मिक आँखें खुल जाती हैं और वह कृष्ण को प्रकट रूप में देख सकता है । ऐसा प्राकट्य देवताओं तक के लिए दुर्लभ है , अतः वे भी उन्हें नहीं समझ पाते और उनके द्विभुज रूप के दर्शन की ताक में रहते हैं ।
निष्कर्ष यह निकला कि यद्यपि कृष्ण के विश्वरूप का दर्शन कर पाना अत्यन्त दुर्लभ है और हर कोई ऐसा नहीं कर सकता , किन्तु उनके श्यामसुन्दर रूप को समझ पाना तो और भी कठिन है ।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ ५३ ॥
न – कभी नहीं ; अहम् – मैं ; वेदैः – वेदाध्ययन से ; न – कभी नहीं ; तपसा – कठिन तपस्या द्वारा ; न – कभी नहीं ; दानेन – दान से ; न – कभी नहीं ; च – भी ; इज्यया – पूजा से ; शक्यः – सम्भव है ; एवम्-विधः – इस प्रकार से ; द्रष्टुम् – देख पाना ; दृष्टवान् – देख रहे ; असि – तुम हो ; माम् – मुझको ; यथा – जिस प्रकार ।
तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो , उसे न तो वेदाध्ययन से , न कठिन तपस्या से , न दान से , न पूजा से ही जाना जा सकता है । कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता ।
तात्पर्य :- कृष्ण पहले अपनी माता देवकी तथा पिता वसुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए थे और तब उन्होंने अपना द्विभुज रूप धारण किया था । जो लोग नास्तिक हैं , या भक्तिविहीन हैं , उनके लिए इस रहस्य को समझ पाना अत्यन्त कठिन है ।
जिन विद्वानों ने केवल व्याकरण विधि से या कोरी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया है , वे कृष्ण को नहीं समझ सकते । न ही वे लोग कृष्ण को समझ सकेंगे , जो औपचारिक पूजा करने के लिए मन्दिर जाते हैं ।
वे भले ही वहाँ जाते रहें , वे कृष्ण के असली रूप को नहीं समझ सकेंगे । कृष्ण को तो केवल भक्तिमार्ग से समझा जा सकता है , जैसा कि कृष्ण ने स्वयं अगले श्लोक में बताया है ।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ ५४ ॥
भक्त्या – भक्ति से ; तु – लेकिन ; अनन्यया – सकामकर्म तथा ज्ञान से रहित ; शक्यः – सम्भव ; अहम् – मैं ; एवम्-विधः – इस प्रकार ; अर्जुन – हे अर्जुन ; ज्ञातुम् – जानने ; द्रष्टुम् – देखने ; च – तथा ; तत्त्वेन – वास्तव में ; प्रवेष्टुम् – प्रवेश करने ; च – भी ; परन्तप – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले ।
हे अर्जुन ! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है , जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है । केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो ।
तात्पर्य :- कृष्ण को केवल अनन्य भक्तियोग द्वारा समझा जा सकता है । इस श्लोक में वे इसे स्पष्टतया कहते हैं , जिससे ऐसे अनधिकारी टीकाकार जो भगवद्गीता को केवल कल्पना के द्वारा समझना चाहते हैं , यह जान सकें कि वे समय का अपव्यय कर रहे हैं ।
कोई यह नहीं जान सकता कि वे किस प्रकार चतुर्भुज रूप में माता के गर्भ से उत्पन्न हुए और फिर तुरन्त ही दो भुजाओं वाले रूप में बदल गये । ये बातें न तो वेदों के अध्ययन से समझी जा सकती हैं , न दार्शनिक चिन्तन द्वारा ।
अतः यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है कि न तो कोई उन्हें देख सकता है और न इन बातों का रहस्य ही समझ सकता है । किन्तु जो लोग वैदिक साहित्य के अनुभवी विद्यार्थी हैं वे अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथों के माध्यम से उन्हें जान सकते हैं ।
इसके लिए अनेक विधि – विधान हैं और यदि कोई सचमुच उन्हें जानना चाहता है तो उसे प्रामाणिक ग्रंथों में उल्लिखित विधियों का पालन करना चाहिए । वह इन नियमों के अनुसार तपस्या कर सकता है ।
उदाहरणार्थ , कठिन तपस्या के हेतु वह कृष्णजन्माष्टमी को , जो कृष्ण का आविर्भाव दिवस है , तथा मास की दोनों एकादशियों को उपवास कर सकता है । जहाँ तक दान का सम्बन्ध है , यह बात साफ है कि उन कृष्ण भक्तों को यह दान दिया जाय जो संसार भर में कृष्ण दर्शन को या कृष्णभावनामृत को फैलाने में लगे हुए हैं ।
कृष्णभावनामृत मानवता के लिए वरदान है । रूप गोस्वामी ने भगवान् चैतन्य की प्रशंसा परम दानवीर के रूप में की है , क्योंकि उन्होंने कृष्ण प्रेम का मुक्तरीति से विस्तार किया , जिसे प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है ।
अतः यदि कोई कृष्णभावनामृत का प्रचार करने वाले व्यक्तियों को अपना धन दान में देता है , तो कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए दिया गया यह दान संसार का सबसे बड़ा दान है ।
और यदि कोई मन्दिर में जाकर विधिपूर्वक पूजा करता है ( भारत के मन्दिरों में सदा कोई न कोई मूर्ति , सामान्यतया विष्णु या कृष्ण की मूर्ति रहती है ) तो यह भगवान् की पूजा करके तथा उन्हें सम्मान प्रदान करके उन्नति करने का अवसर होता है । नौसिखियों के लिए भगवान् की भक्ति करते हुए मन्दिर – पूजा अनिवार्य है , जिसकी पुष्टि श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( ६.२३ ) हुई है
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥
जिसमें भगवान् के लिए अविचल भक्तिभाव होता है और जिसका मार्गदर्शन गुरु करता है , जिसमें भी उसकी वैसी ही अविचल श्रद्धा होती है , वह भगवान् का दर्शन प्रकट रूप में कर सकता है । मानसिक चिन्तन ( मनोधर्म ) द्वारा कृष्ण की नहीं समझा जा सकता ।
जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करता , उसके लिए कृष्ण को समझने का शुभारम्भ कर पाना भी कठिन है । यहाँ पर तु शब्द का प्रयोग विशेष रूप से यह सूचित करने के लिए हुआ है कि कोई अन्य विधि न तो बताई जा सकती है , न प्रयुक्त की जा सकती है , न ही कृष्ण को समझने में सफल हो सकती है ।
कृष्ण के चतुर्भुज तथा द्विभुज साक्षात् रूप अर्जुन को दिखाये गये क्षणिक विश्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं । नारायण का चतुर्भुज रूप तथा कृष्ण का द्विभुज रूप दोनों ही शाश्वत तथा दिव्य हैं , जबकि अर्जुन को दिखलाया गया विश्वरूप नश्वर है ।
सुदुर्दर्शम् शब्द का अर्थ ही है ” देख पाने में कठिन ” , जिससे पता चलता है कि इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा था । इससे यह भी पता चलता है कि भक्तों को इस रूप को दिखाने की आवश्यकता भी नहीं थी ।
इस रूप को कृष्ण ने अर्जुन की प्रार्थना पर दिखाया था , जिससे भविष्य में यदि कोई अपने को भगवान् का अवतार कहे तो लोग उससे कह सकें कि तुम अपना विश्वरूप दिखलाओ । पिछले श्लोक में न शब्द की पुनरुक्ति सूचित करती है कि मनुष्य को वैदिक ग्रंथों के पाण्डित्य का गर्व नहीं होना चाहिए ।
उसे कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए । तभी वह भगवद्गीता की टीका लिखने का प्रयास कर सकता है । कृष्ण विश्वरूप से नारायण के चतुर्भुज रूप में और फिर अपने सहज द्विभुज रूप में परिणत होते हैं । इससे यह सूचित होता है कि वैदिक साहित्य में उल्लिखित चतुर्भुज रूप तथा अन्य रूप कृष्ण के आदि द्विभुज रूप ही से उद्भूत हैं ।
वे समस्त उद्भवों के उद्गम हैं । कृष्ण इनसे भी भिन्न हैं , निर्विशेष रूप की कल्पना का तो कुछ कहना ही नहीं । जहाँ तक कृष्ण के चतुर्भुजी रूपों का सम्बन्ध है , यह स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण का सर्वाधिक निकट चतुर्भुजी रूप ( जो महाविष्णु के नाम से विख्यात हैं और जो कारणार्णव में शयन करते हैं तथा जिनके श्वास तथा प्रश्वास में अनेक ब्रह्माण्ड निकलते एवं प्रवेश करते रहते हैं ) भी भगवान् का अंश है । जैसा कि ब्रह्मसंहिता में ( ५.४८ ) कहा गया है –
यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ॥
” जिनके श्वास लेने से ही जिनमें अनन्त ब्रह्माण्ड प्रवेश करते हैं तथा पुनः बाहर निकल आते हैं , वे महाविष्णु कृष्ण के अंश रूप हैं । अतः मैं गोविन्द या कृष्ण की पूजा करता हूँ जो समस्त कारणों के कारण हैं । ” अतः मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साकार रूप को भगवान् मानकर पूजे , क्योंकि वही सच्चिदानन्द स्वरूप है । वे विष्णु के समस्त रूपों के उद्गम हैं , वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं और आदि महापुरुष हैं , जैसा कि भगवद्गीता से पुष्ट होता है ।
गोपाल – तापनी उपनिषद् में ( १.१ ) निम्नलिखित कथन आया है –
सचिदानन्दरूपाय कृष्णायाक्लिष्टकारिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे ॥
” मैं कृष्ण को प्रणाम करता हूँ जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि उनको जान लेने का अर्थ है , वेदों को जान लेना । अतः वे परम गुरु हैं । ” उसी प्रकरण में कहा गया है- कृष्णो वै परमं दैवतम् कृष्ण भगवान् है ( गोपाल तापनी उपनिषद् १.३ ) ।
एको वशी सर्वगः कृष्ण ईड्य : – वह कृष्ण भगवान् हैं और पूज्य हैं । एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति कृष्ण एक हैं , किन्तु वे अनन्त रूपों तथा अंश अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं ( गोपाल तापनी १.२१ ) । ब्रह्मसंहिता ( ५.१ ) का कथन है –
ईश्वरः परमः कृष्णः सञ्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिगोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥
” भगवान् तो कृष्ण हैं , जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं । उनका कोई आदि नहीं है , क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं । वे समस्त कारणों के कारण हैं । ” व्यक्ति अन्यत्र भी कहा गया है- यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म नराकृति भगवान् एक है , उसका नाम कृष्ण है और वह कभी – कभी इस पृथ्वी पर अवतरित होता है ।
इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भगवान् के सभी प्रकार के अवतारों का वर्णन मिलता है , जिसमें कृष्ण का भी नाम है । किन्तु तब यह कहा गया है कि यह कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं हैं , अपितु साक्षात् भगवान् हैं ( एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ) ।
इसी प्रकार भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं- मत्तः परतरं नान्यत् मुझ भगवान् कृष्ण के रूप से कोई श्रेष्ठ नहीं है । अन्यत्र भी कहा गया है- अहम् आदिर्हि देवानाम् में समस्त देवताओं का उद्गम हूँ । कृष्ण से भगवद्गीता ज्ञान प्राप्त करने पर अर्जुन भी इन शब्दों में इसकी पुष्टि करता है- परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् अब में भलीभाँति समझ गया कि आप परम सत्य भगवान् हैं और प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं ।
अतः कृष्ण ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखलाया वह उनका आदि रूप नहीं है । आदि रूप तो कृष्ण रूप है । हजारों हाथों तथा हजारों सिरों वाला विश्वरूप तो उन लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए दिखलाया गया , जिनका ईश्वर से तनिक भी प्रेम नहीं है ।
यह ईश्वर का आदि रूप नहीं है । विश्वरूप उन शुद्धभक्तों के लिए तनिक भी आकर्षक नहीं होता , जो विभिन्न दिव्य सम्बन्धों में भगवान् से प्रेम करते हैं ।
भगवान् अपने आदि कृष्ण रूप में ही प्रेम का आदान – प्रदान करते हैं । अतः कृष्ण से घनिष्ठ मैत्री भाव से सम्बन्धित अर्जुन को यह विश्वरूप तनिक भी रुचिकर नहीं लगा , अपितु उसे भयानक लगा । कृष्ण के चिर सखा अर्जुन के पास अवश्य ही दिव्य दृष्टि रही होगी , वह भी कोई सामान्य व्यक्ति न था ।
इसीलिए वह विश्वरूप से मोहित नहीं हुआ । यह रूप उन लोगों को भले ही अलौकिक लगे , जो अपने को सकाम कर्मों द्वारा ऊपर उठाना चाहते हैं , किन्तु भक्ति में रत व्यक्तियों के लिए तो दोभुजा वाले कृष्ण का रूप ही अत्यन्त प्रिय है ।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ ५५ ॥
मत्-कर्म-कृत् – मेरा कर्म करने में रत ; मत्-परमः – मुझको परम मानते हुए ; मत्-भक्त: – मेरी भक्ति में रत ; सङ्ग-वर्जितः – सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त ; निर्वर: – किसी से शत्रुतारहित ; सर्व-भूतेषु – समस्त जीवों में ; यः – जो ; सः –वह ; माम् – मुझको ; एति – प्राप्त करता है ; पाण्डव – हे पाण्डु के पुत्र ।
हे अर्जुन ! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर , मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है , जो मेरे लिए ही कर्म करता है , जो मुझे ही जीवन – लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है , वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है ।
तात्पर्य :- जो कोई चिन्मय व्योम के कृष्णलोक में परम पुरुष को प्राप्त करके भगवान् कृष्ण से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है , उसे स्वयं भगवान् द्वारा बताये गये इस मन्त्र को ग्रहण करना होगा । अतः यह श्लोक भगवद्गीता का सार माना जाता है ।
भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है , जो उन वद्धजीवों की ओर लक्षित है , जो इस भौतिक संसार में प्रकृति पर प्रभुत्व जताने में लगे हुए हैं और वास्तविक आध्यात्मिक जीवन के बारे में नहीं जानते हैं ।
भगवद्गीता का उद्देश्य यह दिखाना है कि मनुष्य किस प्रकार अपने आध्यात्मिक अस्तित्व को तथा भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझ सकता है तथा उसे यह शिक्षा देना है कि वह भगवद्धाम को कैसे पहुँच सकता है ।
यह श्लोक उस विधि को स्पष्ट रूप से बताता है , जिससे मनुष्य अपने आध्यात्मिक कार्य में अर्थात् भक्ति में सफलता प्राप्त कर सकता है । भक्तिरसामृत सिन्धु में ( २.२५५ ) कहा गया है –
अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः ।
निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते ॥
ऐसा कोई कार्य न करे जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो । यह कृष्णकर्म कहलाता है । कोई भले ही कितने कर्म क्यों न करे , किन्तु उसे उनके फल के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए । यह फल तो कृष्ण को ही अर्पित किया जाना चाहिए ।
उदाहरणार्थ , यदि कोई व्यापार में व्यस्त है , तो उसे इस व्यापार को कृष्णभावनामृत में परिणत करने के लिए , कृष्ण को अर्पित करना होगा ।
यदि कृष्ण व्यापार के स्वामी हैं , तो इसका लाभ भी उन्हें ही मिलना चाहिए । यदि किसी व्यापारी के पास करोड़ों रुपए की सम्पत्ति हो और यदि वह इसे कृष्ण को अर्पित करना चाहे , तो वह ऐसा कर सकता है । यही कृष्णकर्म है ।
अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए विशाल भवन न वनवाकर , वह कृष्ण के लिए सुन्दर मन्दिर बनवा सकता है , कृष्ण का अर्चाविग्रह स्थापित कर सकता है और भक्ति के प्रामाणिक ग्रंथों में वर्णित अर्थाविग्रह की सेवा का प्रबन्ध करा सकता है । यह सव कृष्णकर्म है ।
मनुष्य को अपने कर्मफल में लिप्त नहीं होना चाहिए , अपितु इसे कृष्ण को अर्पित करके बची हुई वस्तु को केवल प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए । यदि कोई कृष्ण के लिए विशाल भवन बनवा देता है और उसमें कृष्ण का अर्चाविग्रह स्थापित कराता है , तो उसमें उसे रहने की मनाही नहीं रहती , लेकिन कृष्ण को ही इस भवन का स्वामी मानना चाहिए ।
यही कृष्णभावनामृत है । किन्तु यदि कोई कृष्ण के लिए मन्दिर नहीं बनवा सकता तो वह कृष्ण मन्दिर की सफाई में तो लग सकता है , यह भी कृष्णकर्म है । वह बगीचे की देखभाल कर सकता है । जिसके पास थोड़ी सी भी भूमि है – जैसा कि भारत के निर्धन से निर्धन व्यक्ति के पास भी होती है तो वह उसका उपयोग कृष्ण के लिए फूल उगाने के लिए कर सकता है ।
वह तुलसी के वृक्ष उगा सकता है , क्योंकि तुलसीदल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं और भगवद्गीता में कृष्ण ने उनको आवश्यक बताया है । पत्रं पुष्पं फलं तोयम् । कृष्ण चाहते हैं कि लोग उन्हें पत्र , पुष्प , फल या थोड़ा जल भेंट करें और इस प्रकार की भेंट से वे प्रसन्न रहते हैं ।
यह पत्र विशेष रूप से तुलसीदल ही है । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह तुलसी का पौधा लगाकर उसे सींचे । इस तरह गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने को कृष्णसेवा में लगा सकता है । ये कतिपय उदाहरण हैं , जिस तरह कृष्णकर्म में लगा जा सकता है ।
मत्परमः शब्द उस व्यक्ति के लिए आता है जो अपने जीवन का परमलक्ष्य , भगवान् कृष्ण के परमधाम में उनकी संगति करना मानता है । ऐसा व्यक्ति चन्द्र , सूर्य या स्वर्ग जैसे उच्चतर लोकों में अथवा इस ब्रह्माण्ड के उच्चतम स्थान ब्रह्मलोक तक में भी जाने का इच्छुक नहीं रहता । उसे इसकी तनिक भी इच्छा नहीं रहती । उसकी आसक्ति तो आध्यात्मिक आकाश में जाने में रहती है ।
आध्यात्मिक आकाश में भी वह ब्रह्मज्योति से तादात्म्य प्राप्त करके भी संतुष्ट नहीं रहता , क्योंकि वह तो सर्वोच्च आध्यात्मिक लोक में जाना चाहता है , जिसे कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन कहते हैं । उसे उस लोक का पूरा ज्ञान रहता है , अतः वह अन्य किसी लोक को नहीं चाहता । जैसा कि मद्भक्तः शब्द से सूचित होता है , वह भक्ति में पूर्णतया रत रहता है ।
विशेष रूप से वह श्रवण , कीर्तन , स्मरण , पादसेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन – भक्ति के इन नौ साधनों में लगा रहता है । मनुष्य चाहे तो इन नवीं साधनों में रत रह सकता है । अथवा आठ में , सात में , नहीं तो कम से कम एक में तो रत रह सकता है । तब वह निश्चित रूप से कृतार्थ हो जाएगा । सङ्ग – वर्जितः शब्द भी महत्त्वपूर्ण है ।
मनुष्य को चाहिए कि ऐसे लोगों से सम्बन्ध तोड़ ले जो कृष्ण के विरोधी हैं । न केवल नास्तिक लोग कृष्ण के विरुद्ध रहते हैं , अपितु ये भी हैं , जो सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के प्रति आसक्त रहते हैं । अतः भक्तिरसामृत सिन्धु में ( १.१.११ ) शुद्धभक्ति का वर्णन इस प्रकार हुआ है-
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ।
इस श्लोक में श्रील रूप गोस्वामी स्पष्ट कहते हैं कि यदि कोई अनन्य भक्ति करना चाहता है , तो उसे समस्त प्रकार के भौतिक कल्मष से मुक्त होना चाहिए । उसे ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए जो सकामकर्म तथा मनोधर्म में आसक्त हैं । ऐसी अवांछित संगति तथा भौतिक इच्छाओं के कल्मष से मुक्त होने पर ही वह कृष्ण ज्ञान का अनुशीलन कर सकता है , जिसे शुद्ध भक्ति कहते हैं ।
आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ( हरि भक्ति विलास ११.६७६ ) । मनुष्य को चाहिए कि अनुकूल भाव से कृष्ण के विषय में सोचे और उन्हीं के लिए कर्म करे , प्रतिकूल भाव से नहीं । कंस कृष्ण का शत्रु था । वह कृष्ण के जन्म से ही उन्हें मारने की तरह – तरह की योजनाएँ बनाता रहा ।
किन्तु असफल होने के कारण वह सदैव कृष्ण का चिन्तन करता रहा । इस तरह सोते जगते , काम करते वह सदेव कृष्णभावनाभावित रहा , किन्तु उसकी वह कृष्णभावना अनुकूल न थी , अतः चौबीस घंटे कृष्ण का चिन्तन करते रहने पर भी वह असुर ही माना जाता रहा और अन्त में कृष्ण द्वारा मार डाला गया ।
निस्सन्देह कृष्ण द्वारा वध किये गये । व्यक्ति को तुरन्त मोक्ष मिल जाता है , किन्तु शुद्धभक्त का उद्देश्य यह नहीं है । शुद्धभक्त तो मोक्ष की भी कामना नहीं करता । वह सर्वोच्चलोक , गोलोक वृन्दावन भी नहीं जाना चाहता । उसका एकमात्र उद्देश्य कृष्ण की सेवा करना है , चाहे वह जहाँ भी रहे ।
कृष्णभक्त प्रत्येक से मैत्रीभाव रखता है । इसीलिए यहाँ उसे निर्वैरः कहा गया है । अर्थात् उसका कोई शत्रु नहीं होता । यह कैसे सम्भव है ? कृष्णभावनामृत में स्थित भक्त जानता है कि कृष्ण की भक्ति ही मनुष्य को जीवन की समस्त समस्याओं से छुटकारा दिला सकती है ।
उसे इसका व्यक्तिगत अनुभव रहता है । फलतः वह इस प्रणाली को कृष्णभावनामृत को मानव समाज में प्रचारित करना चाहता है । भगवद्भक्तों का इतिहास साक्षी है कि ईश्वर चेतना का प्रचार करने में कई बार भक्तों को अपने जीवन को संकटों में डालना पड़ा ।
सबसे उपयुक्त उदाहरण जीसस क्राइस्ट का है । उन्हें अभक्तों ने शूली पर चढ़ा दिया , किन्तु उन्होंने अपना जीवन कृष्णभावनामृत के प्रसार में उत्सर्ग किया । निस्सन्देह यह कहना कि वे मारे गये ठीक नहीं है । इसी प्रकार भारत में भी अनेक उदाहरण हैं , यथा प्रहलाद महाराज तथा ठाकुर हरिदास । ऐसा संकट उन्होंने क्यों उठाया ?
क्योंकि वे कृष्णभावनामृत का प्रसार करना चाहते थे और यह कठिन कार्य है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि मनुष्य कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को भूलने के कारण ही कष्ट भोग रहा है । अतः मानव समाज की सबसे बड़ी सेवा होगी कि अपने पड़ोसी को समस्त भौतिक समस्याओं से उवारा जाय । इस प्रकार शुद्धभक्त भगवान् की सेवा में लगा रहता है ।
तभी हम समझ सकते हैं कि कृष्ण उन लोगों पर कितने कृपालु हैं , जो उनकी सेवा में लगे रहकर उनके लिए सभी प्रकार के कष्ट सहते हैं । अतः यह निश्चित है कि ऐसे लोग इस शरीर को छोड़ने के बाद परमधाम को प्राप्त होते हैं ।
सारांश यह कि कृष्ण ने अपने क्षणभंगुर विश्वरूप के साथ – साथ काल रूप को जो सब कुछ भक्षण करने वाला है और यहाँ तक कि चतुर्भुज विष्णुरूप को भी दिखलाया ।
इस तरह कृष्ण इन समस्त स्वरूपों के उद्गम हैं । ऐसा नहीं है कि वे आदि विश्वरूप या विष्णु की ही अभिव्यक्ति हैं । वे समस्त रूपों के उद्गम हैं । विष्णु तो हजारों लाखों हैं , लेकिन भक्त के लिए कृष्ण का कोई अन्य रूप उतना महत्त्वपूर्ण नहीं , जितना कि मूल दोभुजी श्यामसुन्दर रूप ।
ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि जो प्रेम या भक्तिभाव से कृष्ण के श्यामसुन्दर रूप के प्रति आसक्त हैं , वे सदैव उन्हें अपने हृदय में देख सकते हैं , और कुछ भी नहीं देख सकते । अतः मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि इस ग्यारहवें अध्याय का तात्पर्य यही है कि कृष्ण का रूप ही सर्वोपरि है एवं परम सार है ।
इस प्रकार भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय ” विराट रूप ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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