अध्याय ग्यारह (Chapter -11)
भगवद गीता अध्याय 11.6 में शलोक 35 से शलोक 46 तक भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना का वर्णन !
सञ्जय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥ ३५ ॥
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा ; एतत् – इस प्रकार ; श्रुत्वा – सुनकर ; वचनम् – वाणी ; केशवस्य – कृष्ण की ; कृत-अञ्जलिः – हाथ जोड़कर ; वेपमानः – काँपते हुए ; किरीटी – अर्जुन ने ; नमस्कृत्वा – नमस्कार करके ; भूयः – फिर ; एव – भी ; आह – बोला ; कृष्णम् – कृष्ण से ; स-गद्गदम् – अवरुद्ध स्वर से ; भीत भीत: – डरा डरा सा ; प्रणम्य – प्रणाम करके ।
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा- हे राजा ! भगवान् के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया । फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा ।
तात्पर्य :- जैसा कि पहले कहा जा चुका है , भगवान् के विश्वरूप के कारण अर्जुन आश्चर्यचकित था , अतः वह कृष्ण को बारम्बार नमस्कार करने लगा और अवरुद्ध कंठ से आश्चर्य से वह कृष्ण की प्रार्थना मित्र के रूप में नहीं , अपितु भक्त के रूप में करने लगा ।
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्प्रहृष्यत्यनुज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ॥ ३६ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; स्थाने – यह ठीक है ; हृषीक-ईश – हे इन्द्रियों के स्वामी ; तब – आपके ; प्रकीर्त्या – कीर्ति से ; जगत् – सारा संसार ; प्रहष्यति – हर्षित हो रहा है ; अनुरज्यते – अनुरक्त हो रहा है ; च – तथा ; रक्षांसि – असुरगण ; भीतानि – डर से ; दिश: – सारी दिशाओं में ; द्रवन्ति – भाग रहे हैं ; सर्वे – सभी ; नमस्यन्ति – नमस्कार करते हैं ; च – भी ; सिद्ध-सड्याः – सिद्धपुरुष ।
अर्जुन ने कहा हे हृषीकेश ! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं । यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं , किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर – उधर भाग रहे हैं । यह ठीक ही हुआ ।
तात्पर्य :- कृष्ण से कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम को सुनकर अर्जुन प्रबुद्ध हो गया और भगवान् के परम भक्त तथा मित्र के रूप में उनसे बोला कि कृष्ण जो कुछ करते हैं , वह सव उचित है । अर्जुन ने पुष्टि की कि कृष्ण ही पालक हैं और भक्तों के आराध्य तथा अवांछित तत्त्वों के संहारकर्ता हैं । उनके सारे कार्य सवाँ के लिए समान रूप से शुभ होते हैं ।
यहाँ पर अर्जुन यह समझ पाता है कि जब युद्ध निश्चित रूप से होना था तो अन्तरिक्ष से अनेक देवता , सिद्ध तथा उच्चतर लोकों के बुद्धिमान प्राणी युद्ध को देख रहे थे , क्योंकि युद्ध में कृष्ण उपस्थित थे । जब अर्जुन ने भगवान् का विश्वरूप देखा तो देवताओं को आनन्द हुआ , किन्तु अन्य लोग जो असुर तथा नास्तिक थे , भगवान् की प्रशंसा सुनकर सहन न कर सके ।
वे भगवान् के विनाशकारी रूप से डर कर भाग गये । भक्तों तथा नास्तिकों के प्रति भगवान् के व्यवहार की अर्जुन द्वारा प्रशंसा की गई है । भक्त प्रत्येक अवस्था में भगवान् का गुणगान करता है , क्योंकि वह जानता है कि वे जो कुछ भी करते हैं , वह सर्वो के हित में है ।
कस्माच ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ ३७ ॥
कस्मात् – क्यों ; च – भी ; ते – आपको ; न – नहीं ; नभेरन् – नमस्कार करें ; महा-आत्मन् – हे महापुरुष ; गरीयसे – श्रेष्ठतर लोग ; ब्रह्मणः – ब्रह्मा की अपेक्षा ; अपि – यद्यपि ; आदि-कर्त्रे – परम स्रष्टा को ; अनन्त – हे अनन्त ; देव-ईश – हे ईशों के ईश ; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय ; त्वम् – आप हैं ; अक्षरम् – अविनाशी ; सत्-असत् – कार्य तथा कारण ; तत्-परम् – दिव्य ; यत् – क्योंकि ।
हे महात्मा ! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं , आप आदि स्रष्टा हैं । तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें ? हे अनन्त , हे देवेश , हे जगन्निवास ! आप परम स्त्रोत , अक्षर , कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं ।
तात्पर्य :- अर्जुन इस प्रकार नमस्कार करके यह सूचित करता है कि कृष्ण सबों के पूजनीय हैं । वे सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक जीव की आत्मा हैं । अर्जुन कृष्ण को महात्मा कहकर सम्बोधित करता है , जिसका अर्थ है कि वे उदार तथा अनन्त हैं ।
अनन्त सूचित करता है कि ऐसा कुछ भी नहीं जो भगवान् की शक्ति और प्रभाव से आच्छादित न हो । और देवेश का अर्थ है कि वे समस्त देवताओं के नियन्ता हैं और उन सबके ऊपर हैं । वे समग्र विश्व के आश्रय हैं ।
अर्जुन ने भी सोचा कि यह सर्वथा उपयुक्त है कि सारे सिद्ध तथा शक्तिशाली देवता भगवान् को नमस्कार करते हैं , क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं है ।
अर्जुन विशेष रूप से उल्लेख करता है कि कृष्ण ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं , क्योंकि ब्रह्मा उन्हीं के द्वारा उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्मा का जन्म कृष्ण के पूर्ण विस्तार गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से निकले कमलनाल से हुआ ।
अतः ब्रह्मा तथा ब्रह्मा से उत्पन्न शिव एवं अन्य सारे देवताओं को चाहिए कि उन्हें नमस्कार करें । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि शिव , ब्रह्मा तथा इन जैसे अन्य देवता भगवान् का आदर करते हैं ।
अक्षरम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि यह जगत् विनाशशील है , किन्तु भगवान् इस जगत् से परे हैं । वे समस्त कारणों के कारण हैं , अतएव वे इस भौतिक प्रकृति के तथा इस दृश्यजगत के समस्त बद्धजीवों से श्रेष्ठ हैं । इसलिए वे परमेश्वर हैं ।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ ३८ ॥
त्वम् – आप ; आदि देव: – आदि परमेश्वर ; पुरुषः – पुरुष ; पुराण: – प्राचीन ; सनातन ; त्वम् – आप ; अस्य – इस ; विश्वस्य – विश्व का ; परम् – दिव्य ; निधानम् – आश्रय ; वेत्ता – जानने वाला ; असि – हो ; वेधम् – जानते योग्य , ज्ञेय ; च – तथा ; परम् – दिव्य ; च – और ; धाम – वास , आश्रय ; त्वया –आपके द्वारा ; ततम् – व्याप्त ; विश्वम् – विश्व ; अनन्त-रूप – हे अनन्त रूप वाले ।
आप आदि देव , सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं । आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं , जो जानने योग्य है । आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं । हे अनन्त रूप ! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है ।
तात्पर्य :- प्रत्येक वस्तु भगवान् पर आश्रित है , अतः वे ही परम आश्रय हैं । निधानम् का अर्थ है – ब्रह्म तेज समेत सारी वस्तुएँ भगवान् कृष्ण पर आश्रित हैं । वे इस संसार में घटित होने वाली प्रत्येक घटना को जानने वाले हैं और यदि ज्ञान का कोई अन्त है , वे ही समस्त ज्ञान के अन्त है ।
अतः वे ज्ञाता है और ज्ञेय ( वेद्यं ) भी । वे जानने योग्य हैं , क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं । वैकुण्ठलोक में कारण स्वरूप होने से वे दिव्य हैं । वे दिव्यलोक में भी प्रधान पुरुष हैं ।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क:
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ ३ ९ ॥
बायुः – वायु ; यमः – नियन्ता ; अग्निः – अग्नि ; वरुणः – जल ; प्रजापतिः – ब्रह्मा ; त्वम् – आप ; प्र-पितामहः – परवावा ; च – तथा ; नमः – मेरा नमस्कार ; नमः – पुन ; शश-अङ्कः – चन्द्रमा नमस्कार ; ते – आपको ; अस्तु – हो ; सहस्त्र-कृत्व: – हजार बार ; पुनः च – तथा फिर ; भूयः – फिर ; अपि – भी ; नमः – नमस्कार ; नमः ते – आपको मेरा नमस्कार है ।
आप वायु तथा परम नियन्ता भी हैं । आप अग्नि हैं , जल हैं तथा चन्द्रमा हैं । आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं । अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनःपुनः नमस्कार है ।
तात्पर्य :- भगवान् को वायु कहा गया है , क्योंकि वायु सर्वव्यापी होने के कारण समस्त देवताओं का मुख्य अधिष्ठाता है । अर्जुन कृष्ण को प्रपितामह ( परवाबा ) कहकर सम्बोधित करता है , क्योंकि वे विश्व के प्रथम जीव ब्रह्मा के पिता है ।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ ४० ॥
नमः – नमस्कार ; पुरस्तात् – सामने से ; अथ – भी ; पृष्ठतः – पीछे से ; ते – आपको ; नमः-अस्तु – में नमस्कार करता हूँ ; ते – आपको ; सर्वतः – सभी दिशाओं से ; एव – निम्सन्देह ; सर्व – क्योंकि आप सब कुछ हैं ; अनन्त-वीर्य – असीम पौरुष ; अमित-विक्रमः – तथा असीम बल ; त्वम् – आप ; सर्वम् – सब कुछ ; समाप्नोषि – आच्छादित करते हो ; ततः – अतएव ; असि – हो ; सर्व: – सब कुछ ।
आपको आगे , पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है । हे असीम शक्ति ! आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं । आप सर्वव्यापी हैं , अतः आप सब कुछ हैं ।
तात्पर्य :- कृष्ण के प्रेम से अभिभूत उनका मित्र अर्जुन सभी दिशाओं से उनको नमस्कार कर रहा है । वह स्वीकार करता है कि कृष्ण समस्त बल तथा पराक्रम के स्वामी हैं और युद्धभूमि में एकत्र समस्त योद्धाओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । विष्णुपुराण में ( १.९ .६ ९ ) कहा गया है योऽयं तवागतो देव समीपं देवतागणः । स त्वमेव जगत्स्रष्टा यतः सर्वगतो भवान् ॥ ” आपके समक्ष जो भी आता है , चाहे वह देवता ही क्यों न हो , हे भगवान् ! वह आपके द्वारा ही उत्पन्न है । ”
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥ ४१ ॥
यञ्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ ४२ ॥
सखा – मित्र ; इति – इस प्रकार ; मत्वा – मानकर ; प्रसभम् – हठपूर्वक ; यत् – जो भी ; उक्तम् – कहा गया ; हे कृष्ण – हे कृष्ण ; हे यादव – हे यादव ; हे सखा – हे मित्र ; इति – इस प्रकार ; अजानता – विना जाने ; महिमानम् – महिमा को ; तब – आपकी ; इदम् – यह ; मया – मेरे द्वारा ; प्रमादात् – मूर्खतावश ; प्रणयेन – प्यार वश ।
वा अपि – या तो ; यत् – जो : च – भी ; अवहास-अर्थम् – हँसी के लिए ; असत्-कृत: – अनादर किया गया ; असि – हो ; विहार – आराम में ; शय्या – लेटे रहने पर ; आसन – बैठे रहने पर ; भोजनेषु – या भोजन करते समय ; एकः – अकेले ; अथवा – या ; अपि – भी ; अच्युत – हे अच्युत ; तत्-समक्षम् – साथियों के बीच ; तत् – उन सभी ; क्षामये – क्षमाप्रार्थी हूँ ; त्वाम् – आपसे ; अहम् – मैं ; अप्रमेयम् – अचिन्त्य ।
आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण , हे यादव , हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है , क्योंकि में आपकी महिमा को नहीं जानता था । मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है , कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें ।
यही नहीं , मैंने कई बार आराम करते समय , एकसाथ लेटे हुए या साथ – साथ खाते या बैठे हुए , कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है । हे अच्युत ! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें ।
तात्पर्य :- यद्यपि अर्जुन के समक्ष कृष्ण अपने विराट रूप में हैं , किन्तु उसे कृष्ण के साथ अपना मैत्रीभाव स्मरण है । इसीलिए वह मित्रता के कारण होने वाले अनेक अपराधों को क्षमा करने के लिए प्रार्थना कर रहा है । वह स्वीकार करता है कि पहले उसे ज्ञात न था कि कृष्ण ऐसा विराट रूप धारण कर सकते हैं , यद्यपि मित्र के रूप में कृष्ण ने उसे यह समझाया था ।
अर्जुन को यह भी पता नहीं था कि उसने कितनी बार ‘ हे मेरे मित्र ‘ ‘ हे कृष्ण ‘ ‘ हे यादव ‘ जैसे सम्बोधनों के द्वारा उनका अनादर किया है और उनकी महिमा स्वीकार नहीं की । किन्तु कृष्ण इतने कृपालु हैं कि इतने ऐश्वर्यमण्डित होने पर भी अर्जुन से मित्र की भूमिका निभाते रहे ।
ऐसा होता है भक्त तथा भगवान् के बीच दिव्य प्रेम का आदान – प्रदान । जीव तथा कृष्ण का सम्बन्ध शाश्वत रूप से स्थिर है , इसे भुलाया नहीं जा सकता , जैसा कि हम अर्जुन के आचरण में देखते हैं । यद्यपि अर्जुन विराट रूप का ऐश्वर्य देख चुका है , किन्तु वह कृष्ण के साथ अपनी मैत्री नहीं भूल सकता ।
पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ ४३ ॥
पिता – पिता ; असि – हो ; लोकस्य – पूरे जगत के ; चर – सचल ; अचरस्य – तथा अचलों के ; त्वम् – आप हैं ; अस्य – इसके ; पूज्य: – पूज्य ; च – भी ; गुरु: – गुरु ; गरीयान् – यशस्वी ; महिमामय ; न – कभी नहीं ; त्वत्-सम: – आपके तुल्य ; अस्ति – है ; अभ्यधिक – बढ़ कर ; कुतः – किस तरह सम्भव है ; अन्यः – दूसरा ; लोक-त्रये – तीनों लोकों में ; अपि – भी ; अप्रतिम-प्रभाव – हे अचिन्त्य शक्ति वाले ।
आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं । आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं । न तो कोई आपके तुल्य है , न ही कोई आपके समान हो सकता है । हे अतुल शक्ति वाले प्रभु ! भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है ?
तात्पर्य :- भगवान् कृष्ण उसी प्रकार पूज्य हैं , जिस प्रकार पुत्र द्वारा पिता पूज्य होता है । वे गुरु हैं क्योंकि सर्वप्रथम उन्हीं ने ब्रह्मा को वेदों का उपदेश दिया और इस समय वे अर्जुन को भी भगवद्गीता का उपदेश दे रहे हैं , अतः वे आदि गुरु हैं और इस समय किसी भी प्रामाणिक गुरु को कृष्ण से प्रारम्भ होने वाली गुरु – परम्परा का वंशज होना चाहिए ।
कृष्ण का प्रतिनिधि हुए बिना कोई न तो शिक्षक और न आध्यात्मिक विषयों का गुरु हो सकता है । भगवान् को सभी प्रकार से नमस्कार किया जा रहा है । उनकी महानता अपरिमेय है । कोई भी भगवान् कृष्ण से बढ़कर नहीं , क्योंकि इस लोक में या वैकुण्ठलोक में कृष्ण के समान या उनसे बड़ा कोई नहीं है । सभी लोग उनसे निम्न हैं । कोई उनको पार नहीं कर सकता । श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( ६.८ ) कहा गया है कि
न कार्य करणं च विद्यते
न तत्समचाभ्यधिकथ दृश्यते ।
भगवान् कृष्ण के भी सामान्य व्यक्ति की तरह इन्द्रियाँ तथा शरीर हैं , किन्तु उनके लिए अपनी इन्द्रियों , अपने शरीर , अपने मन तथा स्वयं में कोई अन्तर नहीं रहता । जो लोग मूर्ख हैं , वे कहते हैं कि कृष्ण अपने आत्मा , मन , हृदय तथा अन्य प्रत्येक वस्तु से भिन्न हैं । कृष्ण तो परम हैं , अतः उनके कार्य तथा शक्तियाँ भी सर्वश्रेष्ठ हैं ।
यह भी कहा जाता है कि यद्यपि हमारे समान उनकी इन्द्रियाँ नहीं हैं , तो भी वे सारे ऐन्द्रिय कार्य करते हैं । अतः उनकी इन्द्रियाँ न तो सीमित हैं , न ही अपूर्ण हैं । न तो कोई उनसे बढ़ कर है , न उनके तुल्य कोई है । सभी लोग उनसे घट कर हैं । परम पुरुष का ज्ञान , शक्ति तथा कर्म सभी कुछ दिव्य है । भगवद्गीता में ( ४.९ ) कहा गया है
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
जो कोई कृष्ण के दिव्य शरीर , कर्म तथा पूर्णता को जान लेता है , वह इस शरीर को छोड़ने के बाद उनके धाम को जाता है और फिर इस दुखमय संसार में वापस नहीं आता । अतः मनुष्य को जान लेना चाहिए कि कृष्ण के कार्य अन्यों से भिन्न होते हैं । सर्वश्रेष्ठ मार्ग तो यह है कि कृष्ण के नियमों का पालन किया जाय , इससे मनुष्य सिद्ध बनेगा ।
यह भी कहा गया है कि कोई ऐसा नहीं जो कृष्ण का गुरु बन सके , सभी तो उनके दास हैं । चैतन्य चरितामृत ( आदि ५.१४२ ) से इसकी पुष्टि होती है – एकले ईश्वर कृष्ण , आर सब भृत्य केवल कृष्ण ईश्वर हैं , शेष सभी उनके दास हैं । प्रत्येक व्यक्ति उनके आदेश का पालन करता है ।
कोई ऐसा नहीं जो उनके आदेश का उल्लंघन कर सके । प्रत्येक व्यक्ति उनकी अध्यक्षता में होने के कारण उनके निर्देश के अनुसार कार्य करता है । जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि वे समस्त कारणों के कारण हैं ।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कार्
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥ ४४ ॥
तस्मात् – अतः ; प्रणम्य – प्रणाम करके ; प्रणिधाय – प्रणत करके ; कायम् – शरीर को ; प्रसादये – कृपा की याचना करता हूँ ; त्वाम् – आपसे ; अहम् – मैं ; ईशम् – भगवान् से ; ईड्यम् – पूज्य ; पिता इव – पिता तुल्य ; पुत्रस्य – पुत्र का ; सखा इव – मित्रवत् ; सख्युः – मित्र का ; प्रियः – प्रेमी ; प्रियायाः – प्रिया का ; अर्हसि – आपको चाहिए ; देव – मेरे प्रभु ; सोम् – सहन करना ।
आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं । अतः में गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ । जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है , या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है , या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है , उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें ।
तात्पर्य :- कृष्ण के भक्त उनके साथ विविध प्रकार के सम्बन्ध रखते हैं कोई कृष्ण को पुत्रवत् , कोई पति रूप में , कोई मित्र रूप में या कोई स्वामी के रूप में मान सकता है । कृष्ण और अर्जुन का सम्बन्ध मित्रता का है । जिस प्रकार पिता , पति या स्वामी सब अपराध सहन कर लेते हैं उसी प्रकार कृष्ण सहन करते हैं ।
अदृष्टपूर्व हषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगनिवास ॥ ४५ ॥
अदृष्ट-पूर्वम् – पहले कभी न देखा गया ; हृषितः – हर्षित ; अस्मि – हूँ ; दृष्ट्वा – देखकर ; भयेन – भय के कारण ; च – भी ; प्रव्यथितम् – विचलित , भयभीत ; मनः – मन ; मे – मेरा ; एव – निश्चय ही ; मे – मुझको ; दर्शय – दिखलाइये ; देव – हे प्रभु ; रूपम् – रूप ; प्रसीद – प्रसन्न होइये ; देव-ईश – ईशों के ईश ; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय ।
पहले कभी न देखे गये आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ , किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृपा करें और देवेश , हे जगन्निवास ! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ ।
तात्पर्य :- अर्जुन को कृष्ण पर विश्वास है , क्योंकि वह उनका प्रिय मित्र है और मित्र रूप में वह अपने मित्र के ऐश्वर्य को देखकर अत्यन्त पुलकित है । अर्जुन यह देख कर अत्यन्त प्रसन्न है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं और वे ऐसा विराट रूप प्रदर्शित कर सकते हैं । किन्तु साथ ही वह इस विराट रूप को देखकर भयभीत है कि उसने अनन्य मैत्रीभाव के कारण कृष्ण के प्रति अनेक अपराध किये हैं ।
इस प्रकार भयवश उसका मन विचलित है , यद्यपि भयभीत होने का कोई कारण नहीं है । अतएव अर्जुन कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपना नारायण रूप दिखाएँ , क्योंकि वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं । यह विराट रूप भौतिक जगत के ही तुल्य भौतिक एवं नश्वर है । किन्तु वैकुण्ठलोक में नारायण के रूप में उनका शाश्वत चतुर्भुज रूप रहता है ।
वैकुण्ठलोक में असंख्य लोक हैं और कृष्ण इन सबमें अपने भिन्न नामों से अंश रूप में विद्यमान हैं । इस प्रकार अर्जुन बैकुण्ठलोक के उनके किसी एक रूप को देखना चाहता था । निस्सन्देह प्रत्येक बैकुण्ठलोक में नारायण का स्वरूप चतुर्भुजी है , किन्तु इन चारों हाथों में वे विभिन्न क्रम में शंख , गदा , कमल तथा चक्र के चिन्ह धारण किये रहते हैं ।
विभिन्न हाथों में इन चारों चिन्हों के अनुसार नारायण भिन्न – भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं । ये सारे रूप कृष्ण के ही हैं , इसलिए अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता है ।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्त्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ ४६ ॥
किरीटिनम् – मुकुट धारण किये ; गदिनम् – गदाधारी ; चक्रहस्तम् – चक्रधारण किये ; इच्छामि – इच्छुक हूँ ; त्वाम् – आपको ; द्रष्टुम् – देखना ; अहम् – मैं ; तथा एव – उसी स्थिति में ; तेन-एव – उसी ; रूपेण – रूप में ; चतुःभुजेन – चार हाथों वाले ; सहस्र-बाहो – हे हजार भुजाओं वाले ; भव – हो जाइये ; विश्व-मूर्त – हे विराट रूप ।
हे विराट रूप ! हे सहस्रभुज भगवान् ! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ , जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख , चक्र , गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों । मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ ।
तात्पर्य :- ब्रह्मसंहिता में ( ५.३ ९ ) कहा गया है- रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्- भगवान् सेकड़ों हजारों रूपों में नित्य विद्यमान रहते हैं जिनमें से राम , नृसिंह , नारायण उनके मुख्य रूप हैं । रूप तो असंख्य किन्तु अर्जुन को ज्ञात था कि कृष्ण ही आदि भगवान् हैं , जिन्होंने यह क्षणिक विश्वरूप धारण किया है ।
अब वह प्रार्थना कर रहा है कि भगवान् अपने नारायण नित्यरूप का दर्शन दें । इस श्लोक से श्रीमद्भागवत के कथन की निस्सन्देह पुष्टि होती है कि कृष्ण आदि भगवान् हैं और अन्य सारे रूप उन्हीं से प्रकट होते हैं । वे अपने अंशों से भिन्न नहीं हैं और वे अपने असंख्य रूपों में भी ईश्वर ही बने रहते हैं ।
इन सारे रूपों में वे तरुण दिखते हैं । यही भगवान् का स्थायी लक्षण है । कृष्ण को जानने वाला इस भौतिक संसार के समस्त कल्मष से हो जाता मुक्त है I
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