भगवद गीता अध्याय 11.6 || भयभीत अर्जुन द्वारा भगवान स्तुति || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय ग्यारह (Chapter -11)

भगवद गीता अध्याय 11.6  में शलोक 35 से  शलोक 46 तक भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना का वर्णन !

सञ्जय उवाच 

एतच्छ्रुत्वा      वचनं      केशवस्य 

कृताञ्जलिर्वेपमानः          किरीटी  । 

नमस्कृत्वा   भूय   एवाह    कृष्णं 

सगद्गदं      भीतभीतः       प्रणम्य ॥ ३५ ॥ 

सञ्जयः  उवाच    –   संजय ने कहा   ;    एतत्   –   इस प्रकार   ;    श्रुत्वा   –   सुनकर  ;   वचनम्   – वाणी  ;   केशवस्य   –   कृष्ण की  ;  कृत-अञ्जलिः   –   हाथ जोड़कर   ;    वेपमानः   –   काँपते हुए ;    किरीटी   –   अर्जुन ने   ;   नमस्कृत्वा   –   नमस्कार करके   ;   भूयः  –   फिर   ;   एव   –   भी   ;   आह   –   बोला   ;    कृष्णम्   –   कृष्ण से  ;   स-गद्गदम्   –   अवरुद्ध स्वर से   ;     भीत  भीत:   –   डरा डरा सा  ;   प्रणम्य   –   प्रणाम करके । 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा- हे राजा ! भगवान् के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया । फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा । 

तात्पर्य :-  जैसा कि पहले कहा जा चुका है , भगवान् के विश्वरूप के कारण अर्जुन आश्चर्यचकित था , अतः वह कृष्ण को बारम्बार नमस्कार करने लगा और अवरुद्ध कंठ से आश्चर्य से वह कृष्ण की प्रार्थना मित्र के रूप में नहीं , अपितु भक्त के रूप में करने लगा । 

अर्जुन उवाच 

स्थाने   हृषीकेश   तव   प्रकीर्त्या 

जगत्प्रहृष्यत्यनुज्यते              च । 

रक्षांसि   भीतानि  दिशो  द्रवन्ति

सर्वे   नमस्यन्ति  च    सिद्धसङ्घाः ॥ ३६ ॥ 

अर्जुनः  उवाच   –   अर्जुन ने कहा   ;   स्थाने   –   यह ठीक है   ;   हृषीक-ईश   –   हे इन्द्रियों के स्वामी   ;    तब  –  आपके  ;   प्रकीर्त्या –    कीर्ति से   ; जगत्   –   सारा संसार  ;   प्रहष्यति   – हर्षित हो रहा है   ;   अनुरज्यते   –   अनुरक्त हो रहा है   ;   च   –   तथा  ;  रक्षांसि   –  असुरगण  ;   भीतानि   –  डर से  ;   दिश:   –  सारी दिशाओं में  ;   द्रवन्ति   –   भाग रहे हैं   ;    सर्वे  –   सभी   ; नमस्यन्ति –   नमस्कार करते हैं   ;   च   –   भी  ;   सिद्ध-सड्याः   –   सिद्धपुरुष । 

अर्जुन ने कहा हे हृषीकेश ! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं । यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं , किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर – उधर भाग रहे हैं । यह ठीक ही हुआ  

तात्पर्य :-  कृष्ण से कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम को सुनकर अर्जुन प्रबुद्ध हो गया और भगवान् के परम भक्त तथा मित्र के रूप में उनसे बोला कि कृष्ण जो कुछ करते हैं , वह सव उचित है । अर्जुन ने पुष्टि की कि कृष्ण ही पालक हैं और भक्तों के आराध्य तथा अवांछित तत्त्वों के संहारकर्ता हैं । उनके सारे कार्य सवाँ के लिए समान रूप से शुभ होते हैं ।

यहाँ पर अर्जुन यह समझ पाता है कि जब युद्ध निश्चित रूप से होना था तो अन्तरिक्ष से अनेक देवता , सिद्ध तथा उच्चतर लोकों के बुद्धिमान प्राणी युद्ध को देख रहे थे , क्योंकि युद्ध में कृष्ण उपस्थित थे । जब अर्जुन ने भगवान् का विश्वरूप देखा तो देवताओं को आनन्द हुआ , किन्तु अन्य लोग जो असुर तथा नास्तिक थे , भगवान् की प्रशंसा सुनकर सहन न कर सके ।

वे भगवान् के विनाशकारी रूप से डर कर भाग गये । भक्तों तथा नास्तिकों के प्रति भगवान् के व्यवहार की अर्जुन द्वारा प्रशंसा की गई है । भक्त प्रत्येक अवस्था में भगवान् का गुणगान करता है , क्योंकि वह जानता है कि वे जो कुछ भी करते हैं , वह सर्वो के हित में है । 

कस्माच    ते  न   नमेरन्महात्मन्  

गरीयसे         ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।

अनन्त       देवेश       जगन्निवास 

त्वमक्षरं       सदसत्तत्परं       यत् ॥ ३७ ॥ 

कस्मात्   –   क्यों   ;    च   –  भी   ;  ते   –   आपको   ;   न   –   नहीं   ;    नभेरन्   –   नमस्कार करें   ;    महा-आत्मन्    –   हे महापुरुष ;   गरीयसे  – श्रेष्ठतर लोग   ;    ब्रह्मणः   –   ब्रह्मा की अपेक्षा  ;   अपि   –   यद्यपि   ;    आदि-कर्त्रे   –    परम स्रष्टा को   ;   अनन्त    – हे अनन्त   ;   देव-ईश   –   हे ईशों के ईश   ;   जगत्-निवास   –   हे जगत के आश्रय   ;   त्वम्   –   आप हैं   ;    अक्षरम्   –  अविनाशी   ;   सत्-असत्    –   कार्य तथा कारण   ;    तत्-परम्    – दिव्य   ;   यत्   –   क्योंकि । 

हे महात्मा ! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं , आप आदि स्रष्टा हैं । तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें ? हे अनन्त , हे देवेश , हे जगन्निवास ! आप परम स्त्रोत , अक्षर , कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं ।

तात्पर्य :-  अर्जुन इस प्रकार नमस्कार करके यह सूचित करता है कि कृष्ण सबों के पूजनीय हैं । वे सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक जीव की आत्मा हैं । अर्जुन कृष्ण को महात्मा कहकर सम्बोधित करता है , जिसका अर्थ है कि वे उदार तथा अनन्त हैं ।

अनन्त सूचित करता है कि ऐसा कुछ भी नहीं जो भगवान् की शक्ति और प्रभाव से आच्छादित न हो । और देवेश का अर्थ है कि वे समस्त देवताओं के नियन्ता हैं और उन सबके ऊपर हैं । वे समग्र विश्व के आश्रय हैं ।

अर्जुन ने भी सोचा कि यह सर्वथा उपयुक्त है कि सारे सिद्ध तथा शक्तिशाली देवता भगवान् को नमस्कार करते हैं , क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं है ।

अर्जुन विशेष रूप से उल्लेख करता है कि कृष्ण ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं , क्योंकि ब्रह्मा उन्हीं के द्वारा उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्मा का जन्म कृष्ण के पूर्ण विस्तार गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से निकले कमलनाल से हुआ ।

अतः ब्रह्मा तथा ब्रह्मा से उत्पन्न शिव एवं अन्य सारे देवताओं को चाहिए कि उन्हें नमस्कार करें । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि शिव , ब्रह्मा तथा इन जैसे अन्य देवता भगवान् का आदर करते हैं ।

अक्षरम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि यह जगत् विनाशशील है , किन्तु भगवान् इस जगत् से परे हैं । वे समस्त कारणों के कारण हैं , अतएव वे इस भौतिक प्रकृति के तथा इस दृश्यजगत के समस्त बद्धजीवों से श्रेष्ठ हैं । इसलिए वे परमेश्वर हैं ।

त्वमादिदेवः      पुरुषः     पुराण- 

स्त्वमस्य  विश्वस्य  परं  निधानम् । 

वेत्तासि   वेद्यं   च   परं   च  धाम 

त्वया      ततं       विश्वमनन्तरूप ॥ ३८ ॥ 

त्वम्  – आप   ;   आदि  देव:    –   आदि परमेश्वर  ;   पुरुषः   –  पुरुष   ;   पुराण:   –   प्राचीन  ;   सनातन   ;   त्वम्   –   आप  ;   अस्य  – इस   ;    विश्वस्य    –    विश्व का  ;   परम्   –   दिव्य   ;  निधानम्    –   आश्रय  ;   वेत्ता   –  जानने वाला   ;   असि   –    हो   ;   वेधम्    – जानते योग्य , ज्ञेय   ;    च   –  तथा   ;   परम्   –   दिव्य    ;   च   –   और  ;    धाम   –   वास , आश्रय   ;   त्वया  –आपके द्वारा   ;    ततम् –   व्याप्त    ;    विश्वम्   –   विश्व  ;   अनन्त-रूप   –   हे अनन्त रूप वाले । 

आप आदि देव , सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं । आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं , जो जानने योग्य है । आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं । हे अनन्त रूप ! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है ।

तात्पर्य :-  प्रत्येक वस्तु भगवान् पर आश्रित है , अतः वे ही परम आश्रय हैं । निधानम् का अर्थ है – ब्रह्म तेज समेत सारी वस्तुएँ भगवान् कृष्ण पर आश्रित हैं । वे इस संसार में घटित होने वाली प्रत्येक घटना को जानने वाले हैं और यदि ज्ञान का कोई अन्त है , वे ही समस्त ज्ञान के अन्त है ।

अतः वे ज्ञाता है और ज्ञेय ( वेद्यं ) भी । वे जानने योग्य हैं , क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं । वैकुण्ठलोक में कारण स्वरूप होने से वे दिव्य हैं । वे दिव्यलोक में भी प्रधान पुरुष हैं । 

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः       शशाङ्क: 

प्रजापतिस्त्वं          प्रपितामहश्च । 

नमो    नमस्तेऽस्तु  सहस्त्रकृत्वः 

पुनश्च   भूयोऽपि   नमो    नमस्ते ॥ ३ ९ ॥

बायुः   –  वायु   ;   यमः   –   नियन्ता   ;    अग्निः   –   अग्नि  ;   वरुणः   –   जल   ;   प्रजापतिः   –  ब्रह्मा   ;    त्वम्   –  आप   ;    प्र-पितामहः   –   परवावा   ;  च  –   तथा   ;    नमः  –   मेरा नमस्कार  ;    नमः   –  पुन  ;   शश-अङ्कः   –    चन्द्रमा नमस्कार  ;    ते  – आपको   ;   अस्तु   –   हो   ; सहस्त्र-कृत्व:   – हजार बार  ;   पुनः च   –  तथा फिर   ;   भूयः   –   फिर   ;   अपि   –   भी  ;   नमः   – नमस्कार  ;   नमः ते    –    आपको मेरा नमस्कार है । 

आप वायु तथा परम नियन्ता भी हैं । आप अग्नि हैं , जल हैं तथा चन्द्रमा हैं । आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं । अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनःपुनः नमस्कार है । 

तात्पर्य :-  भगवान् को वायु कहा गया है , क्योंकि वायु सर्वव्यापी होने के कारण समस्त देवताओं का मुख्य अधिष्ठाता है । अर्जुन कृष्ण को प्रपितामह ( परवाबा ) कहकर सम्बोधित करता है , क्योंकि वे विश्व के प्रथम जीव ब्रह्मा के पिता है ।

नमः     पुरस्तादथ     पृष्ठतस्ते

नमोऽस्तु  ते  सर्वत   एव  सर्व । 

अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं

सर्व  समाप्नोषि  ततोऽसि  सर्वः ॥ ४० ॥ 

नमः   –   नमस्कार  ;    पुरस्तात्   –   सामने से   ;   अथ   –   भी   ;   पृष्ठतः   –  पीछे से  ;   ते   –  आपको  ;   नमः-अस्तु    –   में नमस्कार करता हूँ   ;    ते  –  आपको    ;   सर्वतः   –  सभी दिशाओं से   ;    एव   –   निम्सन्देह   ;    सर्व   –   क्योंकि आप सब कुछ हैं ;   अनन्त-वीर्य    –   असीम पौरुष  ;   अमित-विक्रमः   –   तथा असीम बल   ;     त्वम्   –  आप   ;    सर्वम्   –   सब कुछ  ;  समाप्नोषि   –  आच्छादित करते हो   ;    ततः   –  अतएव   ;   असि   –  हो    ;  सर्व:   –    सब कुछ । 

आपको आगे , पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है । हे असीम शक्ति ! आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं । आप सर्वव्यापी हैं , अतः आप सब कुछ हैं । 

तात्पर्य :-  कृष्ण के प्रेम से अभिभूत उनका मित्र अर्जुन सभी दिशाओं से उनको नमस्कार कर रहा है । वह स्वीकार करता है कि कृष्ण समस्त बल तथा पराक्रम के स्वामी हैं और युद्धभूमि में एकत्र समस्त योद्धाओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । विष्णुपुराण में ( १.९ .६ ९ ) कहा गया है योऽयं तवागतो देव समीपं देवतागणः । स त्वमेव जगत्स्रष्टा यतः सर्वगतो भवान् ॥ ” आपके समक्ष जो भी आता है , चाहे वह देवता ही क्यों न हो , हे भगवान् ! वह आपके द्वारा ही उत्पन्न है । ” 

सखेति   मत्वा    प्रसभं  यदुक्तं 

हे   कृष्ण  हे  यादव   हे सखेति ।

अजानता    महिमानं       तवेदं 

मया     प्रमादात्प्रणयेन     वापि ॥ ४१ ॥

यञ्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि 

विहारशय्यासनभोजनेषु      ।

एकोऽथवाप्यच्युत   तत्समक्षं  

तत्क्षामये     त्वामहमप्रमेयम् ॥ ४२ ॥ 

सखा    –   मित्र     ;     इति   –   इस प्रकार   ;   मत्वा  –   मानकर  ;   प्रसभम्   –   हठपूर्वक   ;  यत्   –   जो भी   ;    उक्तम्   –   कहा गया   ;    हे कृष्ण   –  हे कृष्ण   ;    हे यादव   –   हे  यादव   ;    हे सखा    –   हे मित्र    ;     इति   –   इस प्रकार   ;   अजानता   –  विना जाने   ;   महिमानम्   – महिमा को  ;    तब –  आपकी   ;   इदम्  –   यह   ;   मया   –   मेरे द्वारा   ;  प्रमादात्   –   मूर्खतावश   ;   प्रणयेन   –   प्यार वश       

वा  अपि   –  या तो  ;   यत्   –   जो   :   च  –  भी   ;   अवहास-अर्थम्    –   हँसी के लिए    ;   असत्-कृत:  –   अनादर किया गया  ;   असि   –   हो   ; विहार   –   आराम में  ;   शय्या   –   लेटे रहने पर   ;    आसन   –   बैठे रहने पर   ;   भोजनेषु   –   या भोजन करते समय   ;    एकः   –   अकेले   ;    अथवा   –   या    ;   अपि    –   भी   ;   अच्युत   –  हे अच्युत  ;   तत्-समक्षम्   –    साथियों के बीच   ;    तत्   –   उन सभी  ;   क्षामये   –   क्षमाप्रार्थी हूँ   ;     त्वाम्   –   आपसे  ;   अहम्  –   मैं    ;   अप्रमेयम्   – अचिन्त्य  

आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण , हे यादव , हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है , क्योंकि में आपकी महिमा को नहीं जानता था । मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है , कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें ।

यही नहीं , मैंने कई बार आराम करते समय , एकसाथ लेटे हुए या साथ – साथ खाते या बैठे हुए , कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है । हे अच्युत ! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें । 

तात्पर्य :-  यद्यपि अर्जुन के समक्ष कृष्ण अपने विराट रूप में हैं , किन्तु उसे कृष्ण के साथ अपना मैत्रीभाव स्मरण है । इसीलिए वह मित्रता के कारण होने वाले अनेक अपराधों को क्षमा करने के लिए प्रार्थना कर रहा है । वह स्वीकार करता है कि पहले उसे ज्ञात न था कि कृष्ण ऐसा विराट रूप धारण कर सकते हैं , यद्यपि मित्र के रूप में कृष्ण ने उसे यह समझाया था ।

अर्जुन को यह भी पता नहीं था कि उसने कितनी बार ‘ हे मेरे मित्र ‘ ‘ हे कृष्ण ‘ ‘ हे यादव ‘ जैसे सम्बोधनों के द्वारा उनका अनादर किया है और उनकी महिमा स्वीकार नहीं की । किन्तु कृष्ण इतने कृपालु हैं कि इतने ऐश्वर्यमण्डित होने पर भी अर्जुन से मित्र की भूमिका निभाते रहे ।

ऐसा होता है भक्त तथा भगवान् के बीच दिव्य प्रेम का आदान – प्रदान । जीव तथा कृष्ण का सम्बन्ध शाश्वत रूप से स्थिर है , इसे भुलाया नहीं जा सकता , जैसा कि हम अर्जुन के आचरण में देखते हैं । यद्यपि अर्जुन विराट रूप का ऐश्वर्य देख चुका है , किन्तु वह कृष्ण के साथ अपनी मैत्री नहीं भूल सकता । 

पितासि        लोकस्य      चराचरस्य 

त्वमस्य        पूज्यश्च       गुरुर्गरीयान् । 

न  त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः  कुतोऽन्यो 

लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव                ॥ ४३ ॥ 

पिता   –   पिता   ;   असि   –   हो   ;    लोकस्य    –   पूरे जगत के   ;   चर  –   सचल  ;   अचरस्य   –    तथा अचलों के   ;   त्वम्   –  आप हैं  ;    अस्य   – इसके   ;   पूज्य:   –  पूज्य  ;   च   –   भी   ; गुरु:   –   गुरु   ;   गरीयान्   –   यशस्वी  ;  महिमामय   ;    न   –  कभी नहीं   ;   त्वत्-सम:  – आपके तुल्य   ;  अस्ति   –   है   ;   अभ्यधिक   –   बढ़ कर   ;   कुतः  –  किस तरह सम्भव है   ;  अन्यः   –   दूसरा  ;   लोक-त्रये   –   तीनों लोकों में   ;    अपि   –  भी   ; अप्रतिम-प्रभाव   –   हे अचिन्त्य शक्ति वाले । 

आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं । आप परम पूज्य महान  आध्यात्मिक गुरु हैं । न तो कोई आपके तुल्य है , न ही कोई आपके समान हो सकता है । हे अतुल शक्ति वाले प्रभु ! भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है ? 

तात्पर्य :-  भगवान् कृष्ण उसी प्रकार पूज्य हैं , जिस प्रकार पुत्र द्वारा पिता पूज्य होता है । वे गुरु हैं क्योंकि सर्वप्रथम उन्हीं ने ब्रह्मा को वेदों का उपदेश दिया और इस समय वे अर्जुन को भी भगवद्गीता का उपदेश दे रहे हैं , अतः वे आदि गुरु हैं और इस समय किसी भी प्रामाणिक गुरु को कृष्ण से प्रारम्भ होने वाली गुरु – परम्परा का वंशज होना चाहिए ।

कृष्ण का प्रतिनिधि हुए बिना कोई न तो शिक्षक और न आध्यात्मिक विषयों का गुरु हो सकता है । भगवान् को सभी प्रकार से नमस्कार किया जा रहा है । उनकी महानता अपरिमेय है । कोई भी भगवान् कृष्ण से बढ़कर नहीं , क्योंकि इस लोक में या वैकुण्ठलोक में कृष्ण के समान या उनसे बड़ा कोई नहीं है । सभी लोग उनसे निम्न हैं । कोई उनको पार नहीं कर सकता । श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( ६.८ ) कहा गया है कि 

न कार्य   करणं     च    विद्यते

न  तत्समचाभ्यधिकथ   दृश्यते ।

भगवान् कृष्ण के भी सामान्य व्यक्ति की तरह इन्द्रियाँ तथा शरीर हैं , किन्तु उनके लिए अपनी इन्द्रियों , अपने शरीर , अपने मन तथा स्वयं में कोई अन्तर नहीं रहता । जो लोग मूर्ख हैं , वे कहते हैं कि कृष्ण अपने आत्मा , मन , हृदय तथा अन्य प्रत्येक वस्तु से भिन्न हैं । कृष्ण तो परम हैं , अतः उनके कार्य तथा शक्तियाँ भी सर्वश्रेष्ठ हैं ।

यह भी कहा जाता है कि यद्यपि हमारे समान उनकी इन्द्रियाँ नहीं हैं , तो भी वे सारे ऐन्द्रिय कार्य करते हैं । अतः उनकी इन्द्रियाँ न तो सीमित हैं , न ही अपूर्ण हैं । न तो कोई उनसे बढ़ कर है , न उनके तुल्य कोई है । सभी लोग उनसे घट कर हैं । परम पुरुष का ज्ञान , शक्ति तथा कर्म सभी कुछ दिव्य है । भगवद्गीता में ( ४.९ ) कहा गया है

जन्म  कर्म  च  मे  दिव्यमेवं  यो  वेत्ति  तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा  देहं  पुनर्जन्म  नैति  मामेति  सोऽर्जुन ॥

जो कोई कृष्ण के दिव्य शरीर , कर्म तथा पूर्णता को जान लेता है , वह इस शरीर को छोड़ने के बाद उनके धाम को जाता है और फिर इस दुखमय संसार में वापस नहीं आता । अतः मनुष्य को जान लेना चाहिए कि कृष्ण के कार्य अन्यों से भिन्न होते हैं । सर्वश्रेष्ठ मार्ग तो यह है कि कृष्ण के नियमों का पालन किया जाय , इससे मनुष्य सिद्ध बनेगा ।

यह भी कहा गया है कि कोई ऐसा नहीं जो कृष्ण का गुरु बन सके , सभी तो उनके दास हैं । चैतन्य चरितामृत ( आदि ५.१४२ ) से इसकी पुष्टि होती है – एकले ईश्वर कृष्ण , आर सब भृत्य केवल कृष्ण ईश्वर हैं , शेष सभी उनके दास हैं । प्रत्येक व्यक्ति उनके आदेश का पालन करता है ।

कोई ऐसा नहीं जो उनके आदेश का उल्लंघन कर सके । प्रत्येक व्यक्ति उनकी अध्यक्षता में होने के कारण उनके निर्देश के अनुसार कार्य करता है । जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि वे समस्त कारणों के कारण हैं । 

तस्मात्प्रणम्य   प्रणिधाय    कार्

प्रसादये      त्वामहमीशमीड्यम् । 

पितेव   पुत्रस्य    सखेव    सख्युः 

प्रियः  प्रियायार्हसि   देव   सोढुम् ॥ ४४ ॥ 

तस्मात्   –  अतः   ;   प्रणम्य   –  प्रणाम करके  ;   प्रणिधाय   –   प्रणत करके   ;   कायम्   –  शरीर को   ;   प्रसादये   –   कृपा की याचना करता हूँ  ;   त्वाम्  –   आपसे  ;   अहम्  –  मैं   ;    ईशम्   – भगवान् से  ;    ईड्यम्  –  पूज्य   ;    पिता  इव  –  पिता  तुल्य   ;  पुत्रस्य   –  पुत्र का   ;   सखा  इव –   मित्रवत्   ;   सख्युः  –  मित्र का  ;   प्रियः  –   प्रेमी  ;   प्रियायाः  –  प्रिया का  ;   अर्हसि   –  आपको चाहिए  ;   देव  –   मेरे प्रभु  ;  सोम्  –  सहन करना । 

आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं । अतः में गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ । जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है , या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है , या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है , उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें । 

तात्पर्य :-  कृष्ण के भक्त उनके साथ विविध प्रकार के सम्बन्ध रखते हैं कोई कृष्ण को पुत्रवत् , कोई पति रूप में , कोई मित्र रूप में या कोई स्वामी के रूप में मान सकता है । कृष्ण और अर्जुन का सम्बन्ध मित्रता का है । जिस प्रकार पिता , पति या स्वामी सब अपराध सहन कर लेते हैं उसी प्रकार कृष्ण सहन करते हैं ।

अदृष्टपूर्व   हषितोऽस्मि    दृष्ट्वा 

भयेन  च   प्रव्यथितं    मनो   मे । 

तदेव   मे    दर्शय    देव    रूपं 

प्रसीद      देवेश      जगनिवास ॥ ४५ ॥  

अदृष्ट-पूर्वम्   –   पहले कभी न देखा गया   ;   हृषितः  –   हर्षित  ;   अस्मि  –   हूँ  ;   दृष्ट्वा   – देखकर   ;    भयेन   –  भय के कारण  ;    च   –  भी   ;  प्रव्यथितम्   –  विचलित , भयभीत   ;   मनः   –   मन  ;    मे  –  मेरा  ;   एव   –  निश्चय ही  ;   मे  –  मुझको   ;   दर्शय  –  दिखलाइये  ;   देव  –   हे प्रभु  ;   रूपम्   –   रूप  ;   प्रसीद  –  प्रसन्न होइये   ;   देव-ईश   –  ईशों के ईश   ;   जगत्-निवास   –   हे जगत के आश्रय । 

पहले कभी न देखे गये आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ , किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृपा करें और देवेश , हे जगन्निवास ! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ । 

तात्पर्य :-  अर्जुन को कृष्ण पर विश्वास है , क्योंकि वह उनका प्रिय मित्र है और मित्र रूप में वह अपने मित्र के ऐश्वर्य को देखकर अत्यन्त पुलकित है । अर्जुन यह देख कर अत्यन्त प्रसन्न है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं और वे ऐसा विराट रूप प्रदर्शित कर सकते हैं । किन्तु साथ ही वह इस विराट रूप को देखकर भयभीत है कि उसने अनन्य मैत्रीभाव के कारण कृष्ण के प्रति अनेक अपराध किये हैं ।

इस प्रकार भयवश उसका मन विचलित है , यद्यपि भयभीत होने का कोई कारण नहीं है । अतएव अर्जुन कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपना नारायण रूप दिखाएँ , क्योंकि वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं । यह विराट रूप भौतिक जगत के ही तुल्य भौतिक एवं नश्वर है । किन्तु वैकुण्ठलोक में नारायण के रूप में उनका शाश्वत चतुर्भुज रूप रहता है ।

वैकुण्ठलोक में असंख्य लोक हैं और कृष्ण इन सबमें अपने भिन्न नामों से अंश रूप में विद्यमान हैं । इस प्रकार अर्जुन बैकुण्ठलोक के उनके किसी एक रूप को देखना चाहता था । निस्सन्देह प्रत्येक बैकुण्ठलोक में नारायण का स्वरूप चतुर्भुजी है , किन्तु इन चारों हाथों में वे विभिन्न क्रम में शंख , गदा , कमल तथा चक्र के चिन्ह धारण किये रहते हैं ।

विभिन्न हाथों में इन चारों चिन्हों के अनुसार नारायण भिन्न – भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं । ये सारे रूप कृष्ण के ही हैं , इसलिए अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता है । 

किरीटिनं      गदिनं     चक्रहस्त      

मिच्छामि    त्वां   द्रष्टुमहं  तथैव ।

तेनैव          रूपेण     चतुर्भुजेन  

सहस्त्रबाहो      भव      विश्वमूर्ते ॥ ४६ ॥ 

किरीटिनम्   –   मुकुट धारण किये   ;    गदिनम्   –   गदाधारी   ;   चक्रहस्तम्   –   चक्रधारण किये    ;     इच्छामि  –  इच्छुक हूँ   ;  त्वाम्   –  आपको   ;  द्रष्टुम्   –   देखना   ;   अहम्  –  मैं  ;   तथा एव    –   उसी स्थिति में   ;   तेन-एव   –   उसी  ;   रूपेण   –   रूप में   ;   चतुःभुजेन   –  चार हाथों वाले  ;   सहस्र-बाहो   –   हे हजार भुजाओं वाले   ;   भव  –  हो जाइये  ;  विश्व-मूर्त   –   हे विराट रूप । 

हे विराट रूप ! हे सहस्रभुज भगवान् ! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ , जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख , चक्र , गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों । मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ । 

तात्पर्य :-  ब्रह्मसंहिता में ( ५.३ ९ ) कहा गया है- रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्- भगवान् सेकड़ों हजारों रूपों में नित्य विद्यमान रहते हैं जिनमें से राम , नृसिंह , नारायण उनके मुख्य रूप हैं । रूप तो असंख्य किन्तु अर्जुन को ज्ञात था कि कृष्ण ही आदि भगवान् हैं , जिन्होंने यह क्षणिक विश्वरूप धारण किया है ।

अब वह प्रार्थना कर रहा है कि भगवान् अपने नारायण नित्यरूप का दर्शन दें । इस श्लोक से श्रीमद्भागवत के कथन की निस्सन्देह पुष्टि होती है कि कृष्ण आदि भगवान् हैं और अन्य सारे रूप उन्हीं से प्रकट होते हैं । वे अपने अंशों से भिन्न नहीं हैं और वे अपने असंख्य रूपों में भी ईश्वर ही बने रहते हैं ।

इन सारे रूपों में वे तरुण दिखते हैं । यही भगवान् का स्थायी लक्षण है । कृष्ण को जानने वाला इस भौतिक संसार के समस्त कल्मष से हो जाता मुक्त है I 

भगवद गीता अध्याय 11.6~भयभीत अर्जुन द्वारा भगवान स्तुति और चतुर्भुज रूप दर्शन कराने के लिए प्रार्थना / Powerful Bhagavad Gita Chaturbhuj darshan Ch11.6
भगवद गीता अध्याय 11.6

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