अध्याय ग्यारह (Chapter -11)
भगवद गीता अध्याय 11.5 में शलोक 32 से शलोक 34 तक भगवान द्वारा अपने प्रभाव का और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना का वर्णन !
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकान्समाहर्तुमिह
लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो प्रवृत्तः ।
ॠतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ ३२ ॥
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा ; कालः – काल ; अस्मि – हूँ ; लोक – लोकों का ; क्षय-कृत् – नाश करने वाला ; प्रवृद्धः – महान ; लोकान् – समस्त लोगों को ; समाहर्तुम् – नष्ट करने में ; इह – इस संसार में ; प्रवृत्तः – लगा हुआ ; ऋते – विना ; अपि – भी ; त्वाम् – आपको ; न – कभी नहीं ; भविष्यन्ति – होंगे ; सर्वे – सभी ; ये – जो ; अवस्थिताः – स्थित ; प्रति-अनीकेषु – विपक्ष में ; योधाः – सैनिक ।
भगवान् ने कहा – समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल में हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ । तुम्हारे ( पाण्डवों के ) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे ।
तात्पर्य :- यद्यपि अर्जुन जानता था कि कृष्ण उसके मित्र तथा भगवान् हैं , तो भी वह कृष्ण के विविध रूपों को देखकर चकित था । इसलिए उसने इस विनाशकारी शक्ति के उद्देश्य के बारे में पूछताछ की । वेदों में लिखा है कि परम सत्य हर वस्तु को , यहाँ तक कि ब्राह्मणों को भी , नष्ट कर देते हैं । कठोपनिषद् का ( १.२.२५ ) वचन है
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः ।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्या वेद यत्र सः ॥
अन्ततः सारे ब्राह्मण , क्षत्रिय तथा अन्य सभी परमेश्वर द्वारा काल – कवलित होते हैं । परमेश्वर का यह रूप सबका भक्षण करने वाला है और यहाँ पर कृष्ण अपने को सर्वभक्षी काल के रूप में प्रस्तुत करते हैं । केवल कुछ पाण्डवों के अतिरिक्त युद्धभूमि में आये सभी लोग उनके द्वारा भक्षित होंगे । अर्जुन लड़ने के पक्ष में न था , वह युद्ध न करना श्रेयस्कर समझता था , क्योंकि तब किसी प्रकार की निराशा न होती ।
किन्तु भगवान् का उत्तर है कि यदि वह नहीं लड़ता , तो भी सारे लोग उनके ग्रास बनते , क्योंकि यही उनकी इच्छा है । यदि अर्जुन नहीं लड़ता , तो वे सब अन्य विधि से मरते । मृत्यु रोकी नहीं जा सकती , चाहे वह लड़े या नहीं । वस्तुतः वे पहले से मृत हैं । काल विनाश है और परमेश्वर की इच्छानुसार सारे संसार को विनष्ट होना है । यह प्रकृति का नियम है ।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥
तस्मात् – अतएव ; त्वम् – तुम ; उत्तिष्ठ – उठो ; यशः – यश ; लभस्व – प्राप्त करो ; जित्वा – जीतकर ; शत्रून् – शत्रुओं को ; भुडव – भोग करो ; राज्यम् – राज्य का ; समृद्धम् – सम्पन्न ; मया – मेरे द्वारा ; एव – निश्चय ही ; एते – ये सब ; निहताः – मारे गये ; पूर्वम् एव – पहले ही ; निमित्त-मात्रम् – केवल कारण मात्र ; भव – वनो ; सव्यसाचिन् – हे सव्यसाची ।
अतः उठो ! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो । अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो । ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं । और हे सव्यसाची ! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो ।
तात्पर्य :- सव्यसाची का अर्थ है वह जो युद्धभूमि में अत्यन्त कौशल के साथ तीर छोड़ सके । इस प्रकार अर्जुन को एक पटु योद्धा के रूप में सम्बोधित किया गया है , जो अपने शत्रुओं को तीर से मारकर मोत के घाट उतार सकता है । निमित्तमात्रम्- ” केवल कारण मात्र ” यह शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
संसार भगवान् की इच्छानुसार गतिमान है । अल्पज्ञ पुरुष सोचते हैं कि यह प्रकृति बिना किसी योजना के गतिशील है और सारी सृष्टि आकस्मिक है । ऐसे अनेक तथाकथित विज्ञानी हैं , जो यह सुझाव रखते हैं कि सम्भवतया ऐसा था , या ऐसा हो सकता है , किन्तु इस प्रकार के ” शायद ” या ” हो सकता है ” का प्रश्न ही नहीं उठता ।
प्रकृति द्वारा विशेष योजना संचालित की जा रही है । यह योजना क्या है ? यह विराट जगत् बद्धजीवों के लिए भगवान् के धाम वापस जाने के लिए सुअवसर ( सुयोग ) है । जब तक उनकी प्रवृत्ति प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करने की रहती है , तब तक वे बद्ध रहते हैं । किन्तु जो कोई भी परमेश्वर की इस योजना ( इच्छा ) को समझ लेता है और कृष्णभावनामृत का अनुशीलन करता है , वह परम बुद्धिमान है ।
दृश्यजगत की उत्पत्ति तथा उसका संहार ईश्वर की परम अध्यक्षता में होता है । इस प्रकार कुरुक्षेत्र का युद्ध ईश्वर की योजना के अनुसार लड़ा गया । अर्जुन युद्ध करने से मना कर रहा था , किन्तु उसे बताया गया कि परमेश्वर की इच्छानुसार उसे लड़ना होगा । तभी वह सुखी होगा । यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूरित हो और उसका जीवन भगवान् की दिव्य सेवा में अर्पित हो , तो समझो कि वह कृतार्थ है ।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्ण तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥ ३४ ॥
द्रोणम् च – तथा द्रोण ; भीष्मम् च – भीष्म भी ; जयद्रथम् च – तथा जयद्रथ ; कर्णम् – कर्ण ; तथा – और ; अन्यान् – अन्य ; अपि – निश्चय ही ; योध-वीरान् – महान योद्धा ; मया – मेरे द्वारा ; हतान् – पहले ही मारे गये ; त्वम् – तुम ; जहि – मारो ; मा – मत ; व्यथिष्ठाः – विचलित होओ ; युध्यस्य – लड़ो ; जेता असि – जीतोगे ; रणे – युद्ध में ; सपत्नान् – शत्रुओं को ।
द्रोण , भीष्म , जयद्रथ , कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं । अतः तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ । तुम केवल युद्ध करो । युद्ध में तुम अपने शत्रुओं को परास्त करोगे ।
तात्पर्य :- प्रत्येक योजना भगवान् द्वारा बनती है , किन्तु वे अपने भक्तों पर इतने कृपालु रहते हैं कि जो भक्त उनकी इच्छानुसार उनकी योजना का पालन करते हैं , उन्हें ही वे उसका श्रेय देते हैं । अतः जीवन को इस प्रकार गतिशील होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करे और गुरु के माध्यम से भगवान् को जाने ।
भगवान् की योजनाएँ उन्हीं की कृपा से समझी जाती हैं और भक्तों की योजनाएँ उनकी ही योजनाएँ । हैं । मनुष्य को चाहिए कि ऐसी योजनाओं का अनुसरण करे और जीवन संघर्ष में विजयी बने ।
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