अध्याय ग्यारह (Chapter -11)
भगवद गीता अध्याय 11.4 में शलोक 15 से शलोक 31 तक अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति का वर्णन !
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ –
मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥ १५ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; पश्यामि – देखता हूँ ; देवान् – समस्त देवताओं को ; तब – आपके ; देव – हे प्रभु ; देहे – शरीर में ; सर्वान् – समस्त ; तथा – भी ; भूत – जीव ; विशेष-सड्यान् – विशेष रूप से एकत्रित ; ब्रह्माणम् – ब्रह्मा को ; ईशम् – शिव को ; कमल-आसन-स्थम् – कमल के ऊपर आसीन ; ऋषीन् – ऋषियों को ; च – भी ; सर्वान् – समस्त ; उरगान् – सर्पों को ; च – भी ; दिव्यान् – दिव्य ।
अर्जुन ने कहा हे भगवान् कृष्ण ! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ । मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा , शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ ।
तात्पर्य :- अर्जुन ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु देखता है , अतः वह ब्रह्माण्ड के प्रथम प्राणी ब्रह्मा को तथा उस दिव्य सर्प को , जिस पर गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्माण्ड के अधोतल में शयन करते हैं , देखता है । इस शेष- शय्या के नाग को वासुकि भी कहते है । अन्य सर्पों को भी वासुकि कहा जाता है ।
अर्जुन गर्भोदकशायी विष्णु से लेकर कमललोक स्थित ब्रह्माण्ड के शीर्षस्थ भाग को जहाँ ब्रह्माण्ड के प्रथम जीव ब्रह्मा निवास करते हैं , देख सकता है । इसका अर्थ यह है कि अर्जुन आदि से अन्त तक की सारी वस्तुएँ अपने रथ में एक ही स्थान पर बैठे – बैठे देख सकता था । यह सब भगवान् कृष्ण की कृपा से ही सम्भव हो सका ।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ १६ ॥
अनेक – कई ; बाहु – भुजाएँ ; उदर – पेट ; वका – मुख ; नेत्रम् – आँखें ; पश्यामि – देख रहा हूँ ; त्वाम् – आपको ; सर्वतः – चारों ओर ; अनन्त-रूपम् – असंख्य रूप ; न अन्तम् – अन्तहीन, कोई अन्त नहीं है ; न मध्यम् – मध्य रहित ; न पुनः – न फिर ; तव – आपका ; आदिम् – प्रारम्भ ; पश्यामि – देखता हूँ ; विश्व-ईश्वर – हे ब्रह्माण्ड के स्वामी ; विश्वरूप – ब्रह्माण्ड के रूप में ।
हे विश्वेश्वर , हे विश्वरूप ! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ , पेट , मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ , जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है । आपमें न अन्त दीखता है , न मध्य और न आदि ।
तात्पर्य :- कृष्ण भगवान् हैं और असीम हैं , अतः उनके माध्यम से सब कुछ देखा जा सकता था ।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥ १७ ॥
किरीटिनम् – मुकुट युक्त ; गदिनम् – गदा धारण किये ; चक्रिणम् – चक्र समेत ; च – तथा ; तेज: राशिम् – तेज ; सर्वतः – चारों ओर ; दीप्ति-मन्तम् – प्रकाश युक्त ; पश्यामि – देखता हूँ ; त्वाम् – आपको ; दुर्निरीक्ष्यम् – देखने में कठिन ; समन्तात् – सर्वत्र ; दीप्त-अनल – प्रज्ज्वलित अग्नि ; अर्क – सूर्य की ; द्युतिम् – धूप ; अप्रमेयम् – अनन्त ।
आपके रूप को उसके चकाचौंध तेज के कारण देख पाना कठिन है , क्योंकि वह प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फैल रहा है । तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ , जो अनेक मुकुटों , गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है ।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता
शाश्वतधर्मगोप्ता पुरुषो मतो मे ॥ १८ ॥
त्वम् – आप ; अक्षरम् – अच्युत ; परमम् – परम ; वेदितव्यम् – जानने योग्य ; त्वम् – आप ; अस्य – इस ; विश्वस्य – विश्व के ; परम् – परम ; निधानम् – आधार ; त्वम् – आप ; अव्ययः – अविनाशी ; शाश्वत-धर्म-गोप्ता – शाश्वत धर्म के पालक ; सनातनः – शाश्वत ; त्वम् – आप ; पुरुष: – परमपुरुष ; मतः मे – मेरा मत है ।
आप परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं । आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार ( आश्रय ) हैं । आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं । आप सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं । यही मेरा मत है ।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ १९॥
अनादि – आदिरहित ; मध्य – मध्य ; वीर्यम् – महिमा ; अनन्त – असीम ; अनन्त – असंख्य ; बाहुम् – भुजाएँ ; शशि – चन्द्रमा ; सूर्य – तथा सूर्य ; नेत्रम् – आँखें ; पश्यामि – देखता हूँ ; त्वाम् – आपको ; दीप्त – प्रज्ज्वलित ; हुताश-वक्त्रम् – आपके मुख से निकलती अग्नि को ; स्व-तेजसा – अपने तेज से ; विश्वम् – विश्व को ; इदम् – इस ; तपन्तम् – तपाते हुए ।
आप आदि , मध्य तथा अन्त से रहित हैं । आपका यश अनन्त है । आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा आपकी आँखें हैं । मैं आपके मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देख रहा हूँ ।
तात्पर्य :- भगवान् के षड्ऐश्धयों की कोई सीमा नहीं है । यहाँ पर तथा अन्यत्र भी पुनरुक्ति पाई जाती है , किन्तु शास्त्रों के अनुसार कृष्ण की महिमा की पुनरुक्ति कोई साहित्यिक दोष नहीं है । कहा जाता है कि मोहग्रस्त होने या परम आहह्लाद के समय या आश्चर्य होने पर कथनों की पुनरुक्ति हुआ करती है । यह कोई दोष नहीं है ।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २०॥
द्यो – बाह्य आकाश से लेकर ; आ-पृथिव्योः – पृथ्वी तक ; इदम् – इस ; अन्तरम् – मध्य में ; हि – निश्चय ही ; व्याप्तम् – व्याप्त ; त्वया – आपके द्वारा ; एकेन – अकेला ; दिशः – दिशाएँ ; च – तथा ; सर्वा: – सभी ; दृष्ट्वा – देखकर ; अद्भुतम् – अद्भुत ; रूपम् – रूप को ; उग्रम् – भयानक ; तव – आपके ; इदम् – इस ; लोक – लोक ; त्रयम् – तीन ; प्रव्यथितम् – भयभीत , विचलित ; महा-आत्मन् – हे महापुरुष ।
यद्यपि आप एक हैं , किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं । हे महापुरुष ! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं ।
तात्पर्य :- इस श्लोक में द्याव् – आ – पृथिव्योः ( धरती तथा आकाश के बीच का स्थान ) तथा लोकत्रयम् ( तीनों संसार ) महत्त्वपूर्ण शब्द हैं , क्योंकि ऐसा लगता है कि न केवल अर्जुन ने इस विश्वरूप को देखा , बल्कि अन्य लोकों के वासियों ने भी इसे देखा । अर्जुन द्वारा विश्वरूप का दर्शन स्वप्न न था । भगवान् ने जिन जिनको दिव्य दृष्टि प्रदान की , उन्होंने युद्धक्षेत्र में उस विश्वरूप को देखा ।
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्धीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ २१ ॥
अमी – वे सब ; हि – निश्चय ही ; त्वाम् – आपको ; सुर-सङ्घाः – देव समूह ; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं ; केचित् – उनमें से कुछ ; भीताः – भयवशः ; प्राञ्जलय: – हाथ जोड़े ; गृणन्ति – स्तुति कर रहे हैं ; स्वस्ति – कल्याण हो ; इति – इस प्रकार ; उक्त्वा – कहकर ; महा-ऋषि – महर्षिगण ; सिद्ध-सया: – सिद्ध लोग ; स्तुवन्ति – स्तुति कर रहे हैं ; त्वाम् – आपकी ; स्तुतिभिः – प्रार्थनाओं से ; पुष्कलाभिः – वैदिक स्तोत्रों से ।
देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है । उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं । महर्षियों तथा सिद्धों के समूह ” कल्याण हो ” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं ।
तात्पर्य :- समस्त लोकों के देवता विश्वरूप की भयानकता तथा प्रदीप्त तेज से इतने भयभीत थे कि वे रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे ।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
विश्वेऽश्विनी मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥ २२ ॥
रुद्र – शिव का रूप ; आदित्या: – आदित्यगण ; वसवः – सारे वसु ; ये – जो ; च – तथा ; साध्या: – साध्य ; मरुतः – मरुद्गण ; च – तथा ; उष्म-पाः – पितर ; विश्वे – विश्वेदेवता ; अश्विनी – अश्विनीकुमार ; च – तथा ; गन्धर्व – गन्धर्व ; यक्ष – यक्ष ; असुर – असुर ; सिद्ध – तथा सिद्ध देवताओं के ; सड्याः – समूह ; बीक्षन्ते – देख रहे हैं ; त्वाम् – आपको ; विस्मिताः – आश्चर्यचकित होकर ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; सर्व – सब ।
शिव के विविध रूप , आदित्यगण , वसु , साध्य , विश्वेदेव , दोनों अश्विनीकुमार , मरुद्गण , पितृगण , गन्धर्व , यक्ष , असुर तथा सिद्धदेव सभी आपको आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं ।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं
महाबाहो बहुबाहूरुपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं
दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ २३ ॥
रूपम् – रूप ; महत् – विशाल ; ते – आपका ; बहु – अनेक ; वक्त्र – मुख ; नेत्रम् – तथा आँखें ; महा बाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले ; बहु – अनेक ; बाहु – भुजाएँ ; ऊरु – जाँघे ; पादम् – तथा पाँव ; बहु-उदरम् – अनेक पेट ; बहु-दंष्ट्रा – अनेक दाँत ; करालम् – भयानक ; दृष्ट्वा – देखकर ; लोका: – सारे लोक ; प्रव्यचिताः – विचलित ; तथा – उसी प्रकार ; अहम् – में ।
हे महाबाहु ! आपके इस अनेक मुख , नेत्र , बाहु , जंघा , पाँव , पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यन्त विचलित हैं और उन्हीं की तरह में भी हूँ ।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ २४ ॥
नभःस्पृशम् – आकाश छूता हुआ ; दीप्तम् – ज्योतिर्मय ; अनेक – कई ; वर्णम् – रंग ; व्यात – खुले हुए ; आननम् – मुख ; दीप्त – प्रदीप्त ; विशाल – वडी – बड़ी ; नेत्रम् – आँखें ; दृष्ट्वा – देखकर ; हि – निश्चय ही ; त्वाम् – आपको ; प्रव्यथितः – विचलित , भयभीत ; अन्तः – भीतर ; आत्मा – आत्मा ; धृतिम् – दृढता या धैर्य को ; न – नहीं ; विन्दामि – प्राप्त हूँ ; शमम् – मानसिक शान्ति को ; च – भी ; विष्णो – हे विष्णु ।
हे सर्वव्यापी विष्णु ! नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते , मुख फैलाये तथा बड़ी – बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है । मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ , न मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ ।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखान
दृष्ट्दैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ २५ ॥
दंष्ट्रा – दाँत ; करालानि – विकराल ; च – भी ; ते – आपके ; मुखानि – मुखों को ; दृष्ट्वा – देखकर ; एव – इस प्रकार ; काल-अनल – प्रलय की ; सन्नि-भानि – मानो ; दिशः – दिशाएँ ; न – नहीं ; जाने – जानता हूँ ; न – नहीं ; लभे – प्राप्त करता हूँ ; च – तथा ; शर्म – आनन्द ; प्रसीद – प्रसन्न हों ; देव-ईश – हे देवताओं के स्वामी ; जगत्-निवास – हे समस्त जगतों के आश्रय ।
हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप मुझ पर प्रसन्न हो । मैं इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना सन्तुलन नहीं रख पा रहा । मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ ।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः
सर्वे सहेवावनिपालसङ्घैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ २६ ॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ॥ २७ ॥
अमी – ये ; च – भी ; त्वाम् – आपको ; धृतराष्ट्रस्य – धृतराष्ट्र के ; पुत्राः – पुत्र ; सर्व – सभी ; सह – सहित ; एव – निस्सन्देह ; अवनि-पाल – वीर राजाओं के ; सङ्घः – समूह ; भीष्मः – भीष्मदेव ; अस्मदीये: – हमारे ; द्रोण: – द्रोणाचार्य ; सूत-पुत्रः – कर्ण ; तथा – भी ; असो – वह ; सह – साथ ; अपि – भी ; योध-मुख्यैः – मुख्य योद्धा ; वक्त्राणि – मुखों में ; ते – आपके ; त्वरमाणा: – तेजी से ; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं ; दंष्ट्रा – दाँत ; करालानि – विकराल ; भयानकानि – भयानक ; केचित् – उनमें से कुछ ; विलग्नाः – लगे रहकर ; दशन-अन्तरेषु – दाँतों के बीच में ; सन्दृश्यन्ते – दिख रहे हैं ; चूर्णितः – चूर्ण हुए ; उत्तम-अङ्गैः – शिरों से ।
धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म , द्रोण , कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं । उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतों के बीच चूर्णित हुआ देख रहा हूँ ।
तात्पर्य :- एक पिछले श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को वचन दिया था कि यदि वह कुछ देखने का इच्छुक हो तो वे उसे दिखा सकते हैं । अब अर्जुन देख रहा है कि विपक्ष के नेता ( भीष्म , द्रोण , कर्ण तथा धृतराष्ट्र के सारे पुत्र ) तथा उनके सैनिक और अर्जुन के भी सैनिक विनष्ट हो रहे हैं ।
यह इसका संकेत है कि कुरुक्षेत्र में एकत्र समस्त व्यक्तियों की मृत्यु के बाद अर्जुन विजयी होगा । यहाँ यह भी उल्लेख है कि भीष्म भी , जिन्हें अजेय माना जाता है , ध्वस्त हो जायेंगे । वही गति कर्ण की होनी है । न केवल विपक्ष के भीष्म जैसे महान योद्धा विनष्ट हो जाएँगे , अपितु अर्जुन के पक्ष वाले कुछ महान योद्धा भी नष्ट होंगे ।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा:
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥ २८ ॥
यथा – जिस प्रकार ; नदीनाम् – नदियों की ; बहवः – अनेक ; अम्बु-वेगा: – जल की तरंगें ; समुद्रम् – समुद्र ; एव – निश्चय ही ; अभिमुखाः – की ओर ; द्रवन्ति – दौड़ती हैं ; तथा – उसी प्रकार से ; तव – आपके ; अमी – ये सव ; नर-लोक-वीराः – मानव समाज के राजा ; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं ; वक्त्राणि – मुखों में ; अभिविज्वलन्ति – प्रज्ज्वलित हो रहे हैं ।
जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगें समुद्र में प्रवेश करती हैं , उसी प्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्ज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं ।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-
स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥ २ ९ ॥
यथा – जिस प्रकार ; प्रदीप्तम् – जलती हुई ; ज्वलनम् – अग्नि में ; पतङ्गाः – पतिंगे , कीड़े मकोड़े ; विशन्ति – प्रवेश करते हैं ; नाशाय – विनाश के लिए ; समृद्ध – पूर्ण ; वेगा: – वेग ; तथा एव – उसी प्रकार से ; नाशाय – विनाश के लिए ; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं ; लोका: – सारे लोग ; तब – आपके ; अपि – भी ; वक्त्राणि – मुखों में ; समृद्ध वेगा: – पूरे वेग से ।
मैं समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ , जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं ।
लेलिसे ग्रसमानः समन्ता –
ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ ३० ॥
लेलिसे – चाट रहे हैं ; ग्रसमानः – निगलते हुए ; समन्तात् – समस्त दिशाओं से ; लोकान् – लोगों को ; समग्रान् – सभी ; वदनेः – मुखों से ; ज्वलद्भिः – जलते हुए ; तेजोभिः – तेज से ; आपूर्य – आच्छादित करके ; जगत् –ब्रह्माण्ड को ; समग्रम् – समस्त ; भासः – किरणें ; तव – आपकी ; उग्रा: – भयंकर ; प्रतपन्ति – झुलसा रही हैं ; विष्णो – हे विश्वव्यापी भगवान् ।
हे विष्णु ! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगले जा रहे हैं । आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं ।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ ३१ ॥
आख्याहि – कृपया बताएँ ; मे – मुझको ; कः – कौन ; भवान् – आप उग्र-रूपः – भयानक रूप ; नमः-अस्तु – नमस्कार हो ; ते – आपको ; देव-वर – हे देवताओं में श्रेष्ठ ; प्रसीद – प्रसन्न हों ; विज्ञातुम् – जानने के लिए ; इच्छामि – इच्छुक हूँ ; भवन्तम् – आपको ; आद्यम् – आदि ; न – नहीं ; हि – निश्चय ही ; प्रजानामि – जानता हूँ ; तब – आपका ; प्रवृत्तिम् – प्रयोजन ।
हे देवेश ! कृपा करके मुझे बतलाइये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं ? मैं आपको नमस्कार करता हूँ , कृपा करके मुझपर प्रसन्न हों । आप आदि – भगवान् हैं । मैं आपको जानना चाहता हूँ , क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है ।
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