भगवद गीता अध्याय 11.3 || संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय ग्यारह (Chapter -11)

भगवद गीता अध्याय 11.3  में शलोक 09 से  शलोक 14 तक संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन !

संजय उवाद

एवमुक्त्वा  ततो  राजन्महायोगेश्वरो  हरिः । 

        दर्शयामास   पार्थाय   परमं   रूपमेश्वरम् ॥ ९ ॥ 

सञ्जयः  उवाच    –    संजय ने कहा   ;     एवम्   –   इस प्रकार   ;    उक्त्वा    –   कहकर  ;   ततः   –    तत्पश्चात्   ;    राजन   –   हे राजा  ;    महा-योग-ईश्वर: –    परम शक्तिशाली योगी    ;   हरिः  –   भगवान् कृष्ण ने   ;    दर्शयाम्  आस   –   दिखलाया  ;   पार्थाय   – अर्जुन को   ;   परमम्   – दिव्य  ;    रूपम्  ऐश्वरम्   –   विश्वरूप । 

संजय ने कहा — हे राजा ! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान् ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया ।

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्           ।

अनेकदिव्याभरणं      दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ १० ॥

दिव्यमाल्याम्बरधरं      दिव्यगन्धानुलेपनम् । 

सर्वाश्चर्यमयं     देवमनन्तं      विश्वतोमुखम् ॥ ११ ॥ 

अनेक    –  कई    ;    वक्त्र   –   मुख  ;   नयनम्  –   नेत्र  ;   अनेक  –  अनेक   ;   अद्भुत    – विचित्र   ;   दर्शनम्   –   दृश्य   ;  अनेक   –  अनेक  ;   दिव्य –   दिव्य  , अलौकिक   ;   आभरणम्    –   आभूषण   ;   दिव्य   –  दैवी   ;   अनेक  –   विविध   ;   उद्यत   – उठाये हुए  ;   आयुधम्   –   हथियार  ;   दिव्य   –   दिव्य   ;  माल्य   –   मालाएँ  ;   अम्बर  –  वस्त्र   ;   धरम्   – धारण किये   ;   दिव्य  – दिव्य   ;    गन्ध   –   सुगन्धियाँ   ;   अनुलेपनम्   –   लगी थीं  ;   सर्व  –    समस्त    ;    आश्चर्य-मयम्    –   आश्चर्यपूर्ण  ;   देवम्   –  प्रकाशयुक्त  ;   अनन्तम्   –   असीम   ; विश्वतः-मुखम्     –    सर्वव्यापी । 

अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख , असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे । यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था । यह देवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं । सब कुछ आश्चर्यमय , तेजमय , असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था । 

तात्पर्य :-  इन दोनों श्लोकों में अनेक शब्द का बारम्बार प्रयोग हुआ है , जो यह सूचित करता है अर्जुन जिस रूप को देख रहा था उसके हाथों , मुखों , पाँवों की कोई सीमा न थी । ये रूप सारे ब्रह्माण्ड में फैले हुए थे , किन्तु भगवत्कृपा से अर्जुन उन्हें एक स्थान पर बैठे – बैठे देख रहा था । यह सब कृष्ण की अचिन्त्य शक्ति के कारण था । 

दिवि           सूर्यसहस्त्रस्य      भवेद्युगपदुत्थिता । 

       यदि  भाः  सदृशी  सा   स्याद्धासस्तस्य महात्मनः ॥ १२ ॥

दिवि   –   आकाश  में   ;    सूर्य   –   सूर्य का   ;    सहस्रस्य   –   हजारों   ;   भवेत्   –  थे   ;    युगपत्   –   एकसाथ  ;   उत्थिता  –  उपस्थित   ;   यदि   –  यदि   ;    भाः  –   प्रकाश   ;   सदृशी  – के समान   ;   सा   –  वह   ;    स्यात्   –   हो   ;   भासः  –   तेज   ;  तस्य   –  उस   ;   महात्मनः  – परम स्वामी का । 

यदि आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों , तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके । 

तात्पर्य :-  अर्जुन ने जो कुछ देखा वह अकथ्य था , तो भी संजय धृतराष्ट्र को उस महान दर्शन का मानसिक चित्र उपस्थित करने का प्रयत्न कर रहा है । न तो संजय वहाँ था , न धृतराष्ट्र , किन्तु व्यासदेव के अनुग्रह से संजय सारी घटनाओं को देख सकता है । अतएव इस स्थिति की तुलना वह एक काल्पनिक घटना ( हजारों सूयाँ ) से कर रहा है , जिससे इसे समझा जा सके । 

तत्रैकस्थं   जगत्कृत्स्नं   प्रविभक्तमनेकधा ।

      अपश्यदेवदेवस्य      शरी    पाण्डवस्तदा ॥ १३ ॥

तत्र   –  वहाँ   ;   एक-स्थम्   –   एकत्र    ;    जगत्   –   ब्रह्माण्ड    ;   कृत्स्नम्  –   सम्पूर्ण   ;  प्रविभक्तम्   –   विभाजित  ;   अनेकथा   – अनेक में   ;   अपश्यत्   –  देखा   ;   देव-देवस्य   – भगवान् के  ;    शरीरे   – विश्वरूप में  ;   पाण्डवः   –   अर्जुन ने   ;   तदा   –  तव  ।       

उस समय अर्जुन भगवान् के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सका । 

तात्पर्य :-  तत्र ( वहाँ ) शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इससे सूचित होता है कि जब अर्जुन ने विश्वरूप देखा , उस समय अर्जुन तथा कृष्ण दोनों ही रथ पर बैठे थे । युद्धभूमि के अन्य लोग इस रूप को नहीं देख सके , क्योंकि कृष्ण ने केवल अर्जुन को दृष्टि प्रदान की थी ।

वह कृष्ण के शरीर में हजारों लोक देख सका । जैसा कि वैदिक शास्त्रों से पता चलता है कि ब्रह्माण्ड अनेक हैं और लोक भी अनेक हैं । इनमें से कुछ मिट्टी के बने हैं , कुछ सोने के , कुछ रत्नों के , कुछ बहुत बड़े हैं , तो कुछ बहुत बड़े नहीं हैं । अपने रथ पर बैठकर अर्जुन इन सबों को देख सकता था । किन्तु कोई यह नहीं जान पाया कि अर्जुन तथा कृष्ण के बीच क्या चल रहा था । 

ततः  स  विस्मयाविष्टो  हृष्टरोमा  धनञ्जयः । 

         प्रणम्य   शिरसा   देवं   कृताञ्जलिरभाषत ॥ १४ ॥ 

ततः   –   तत्पश्चात्   ;   सः  –  वह  ;    विस्मय-आविष्टः   –     आश्चर्यचकित होकर   ;    हृष्ट-रोमा   – हर्ष से रोमांचित   ;    धनञ्जयः   –   अर्जुन   ;   प्रणम्य   – प्रणाम करके   ;   शिरसा   –   शिर के बल  ;   देवम्   –  भगवान् को    ;    कृत-अञ्जलिः   –   हाथ जोड़कर  ;    अभाषत   –   कहने लगा । 

तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करने लगा । 

तात्पर्य :-  एक बार दिव्य दर्शन हुआ नहीं कि कृष्ण तथा अर्जुन के पारस्परिक सम्बन्ध तुरन्त बदल गये । अभी तक कृष्ण तथा अर्जुन में मैत्री सम्बन्ध था , किन्तु दर्शन होते ही अर्जुन अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम कर रहा है और हाथ जोड़कर कृष्ण से प्रार्थना कर रहा है ।

वह उनके विश्वरूप की प्रशंसा कर रहा है । इस प्रकार अर्जुन का सम्बन्ध मित्रता का न रहकर आश्चर्य का बन जाता है । बड़े – बड़े भक्त कृष्ण को समस्त सम्बन्धों का आगार मानते हैं । शास्त्रों में १२ प्रकार के सम्बन्धों का उल्लेख है और ये सब कृष्ण में निहित हैं ।

यह कहा जाता है कि वे दो जीवों के बीच , देवताओं के बीच या भगवान् तथा भक्त के बीच के पारस्परिक आदान – प्रदान होने वाले सम्बन्धों के सागर हैं । यहाँ पर अर्जुन आश्चर्य – सम्बन्ध से प्रेरित है और उसीमें वह अत्यन्त गम्भीर तथा शान्त होते हुए भी अत्यन्त आह्लादित हो उठा ।

उसके रोम खड़े हो गये और वह हाथ जोड़कर भगवान् की प्रार्थना करने लगा । निस्सन्देह वह भयभीत नहीं था । वह भगवान् के आश्चर्यों से अभिभूत था । इस समय तो उसके समक्ष आश्चर्य था और उसकी प्रेमपूर्ण मित्रता आश्चर्य से अभिभूत थी । अतः उसकी प्रतिक्रिया इस प्रकार हुई ।

भगवद गीता अध्याय 11.3~संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन/Powerful Bhagavad Gita Sanjay vishavroop barnan Ch11.3
भगवद गीता अध्याय 11.3

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