अध्याय ग्यारह (Chapter -10)
भगवद गीता अध्याय 11.1 में शलोक 04 से शलोक 04 तक विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना का वर्णन !
विराट रूप
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; मत्-अनुग्रहाय – मुझपर कृपा करने के लिए ; परमम् – परम ; गुह्यम् – गोपनीय ; अध्यात्म – आध्यात्मिक ; संज्ञितम् – नाम से जाना जाने वाला , विषयक ; यत् – जो ; त्वया – आपके द्वारा ; उक्तम् – कहे गये ; वचः – शब्द ; तेन – उससे ; मोहः – मोह ; अयम् – यह ; विगतः – हट गया ; मम – मेरा ।
अर्जुन ने कहा – आपने जिन अत्यन्त गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है , उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है ।
तात्पर्य :- इस अध्याय में कृष्ण को समस्त कारणों के कारण के रूप में दिखाया गया है । यहाँ तक कि वे उन महाविष्णु के भी कारण स्वरूप हैं , जिनसे भौतिक ब्रह्माण्डों का उद्भव होता है । कृष्ण अवतार नहीं हैं , वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं । इसकी पूर्ण व्याख्या पिछले अध्याय में की गई है ।
अब जहाँ तक अर्जुन की बात है , उसका कहना है कि उसका मोह दूर हो गया है । इसका अर्थ यह हुआ कि वह कृष्ण को अपना मित्र स्वरूप सामान्य मनुष्य नहीं मानता , अपितु उन्हें प्रत्येक वस्तु का कारण मानता है ।
अर्जुन अत्यधिक प्रवुद्ध हो चुका है और उसे प्रसन्नता है कि उसे कृष्ण जैसा मित्र मिला है , किन्तु अब वह यह सोचता है कि भले ही वह कृष्ण को हर एक वस्तु का कारण मान ले , किन्तु दूसरे लोग नहीं मानेंगे ।
अतः इस अध्याय में वह सबों के लिए कृष्ण की अलोकिकता स्थापित करने के लिए कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपना विराट रूप दिखलाएँ । वस्तुतः जब कोई अर्जुन की ही तरह कृष्ण के विराट रूप का दर्शन करता है , तो वह डर जाता है , किन्तु कृष्ण इतने दयालु हैं कि इस स्वरूप को दिखाने के तुरन्त बाद वे अपना मूलरूप धारण कर लेते हैं ।
अर्जुन कृष्ण के इस कथन को बार बार स्वीकार करता है कि वे उसके लाभ के लिए ही सब कुछ बता रहे हैं । अतः अर्जुन इसे स्वीकार करता है कि यह सब कृष्ण की कृपा से घटित हो रहा है । अब उसे पूरा विश्वास हो चुका है कि कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं और परमात्मा के रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान है ।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ २ ॥
भव – उत्पत्ति ; अप्ययो – लय ( प्रलय ) ; हि – निश्चय ही ; भूतानाम् – समस्त जीवों का ; श्रुती – सुना है ; विस्तरशः – विस्तारपूर्वक ; मया – मेरे द्वारा ; त्वत्तः – आपसे ; कमल-पत्र-अक्ष – हे कमल नयन ; माहात्म्यम् – महिमा ; अपि – भी ; च – तथा ; अव्ययम् – अक्षय , अविनाशी ।
हे कमलनयन ! मैंने आपसे प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तथा लय के विषय में विस्तार से सुना है और आपकी अक्षय महिमा का अनुभव किया है ।
तात्पर्य :- अर्जुन यहाँ पर प्रसन्नता के मारे कृष्ण को कमलनयन ( कृष्ण के नेत्र कमल के फूल की पंखड़ियों जैसे दिखते हैं ) कहकर सम्बोधित करता है क्योंकि उन्होंने किसी पिछले अध्याय में उसे विश्वास दिलाया है- अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा – मैं इस सम्पूर्ण भौतिक जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय का कारण हूँ ।
अर्जुन इसके विषय में भगवान् से विस्तारपूर्वक सुन चुका है । अर्जुन को यह भी ज्ञात है कि समस्त उत्पत्ति तथा प्रलय के कारण होने के अतिरिक्त वे इन सबसे पृथक् ( असंग ) रहते हैं । जैसा कि भगवान् ने नवें अध्याय में कहा है कि वे सर्वव्यापी हैं , तो भी वे सर्वत्र स्वयं उपस्थित नहीं रहते । यही कृष्ण का अचिन्त्य ऐश्वर्य है , जिसे अर्जुन स्वीकार करता है कि उसने भलीभाँति समझ लिया है ।
एवमेतद्यथात्य त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥ ३ ॥
एवम् – इस प्रकार ; एतत् – यह ; यथा – जिस प्रकार ; आत्य – कहा है ; त्वम् – आपने ; आत्मानम् – अपने आपको ; परम-ईश्वर – हे परमेश्वर ; द्रष्टुम् – देखने के लिए ; इच्छामि – इच्छा करता हूँ ; ते – आपका ; रूपम् – रूप ; ऐश्वरम् – देवी ; पुरुष-उत्तम – हे पुरुषों में उत्तम ।
हे पुरुषोत्तम , हे परमेश्वर ! यद्यपि आपको में अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ , किन्तु में यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं । मैं आपके उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ I
तात्पर्य :- भगवान् ने यह कहा कि उन्होंने अपने साक्षात् स्वरूप में ब्रह्माण्ड के भीतर प्रवेश किया है , फलतः यह दृश्यजगत सम्भव हो सका है और चल रहा है । जहाँ तक अर्जुन का सम्बन्ध है , वह कृष्ण के कथनों से प्रोत्साहित है , किन्तु भविष्य में उन लोगों को विश्वास दिलाने के लिए , जो कृष्ण को सामान्य पुरुष सोच सकते हैं , अर्जुन चाहता है कि वह भगवान् को उनके विराट रूप में देखे जिससे वे ब्रह्माण्ड के भीतर से काम करते हैं , यद्यपि वे इससे पृथक् हैं ।
अर्जुन द्वारा भगवान् के लिए पुरुषोत्तम सम्बोधन भी महत्त्वपूर्ण है । चूंकि वे भगवान् हैं , इसलिए वे स्वयं अर्जुन के भी भीतर उपस्थित हैं , अतः वे अर्जुन की इच्छा को जानते हैं । वे यह समझते हैं कि अर्जुन को उनके विराट रूप का दर्शन करने की कोई लालसा नहीं है , क्योंकि वह उनको साक्षात् देखकर पूर्णतया संतुष्ट है । किन्तु भगवान् यह भी जानते हैं कि अर्जुन अन्यों को विश्वास दिलाने के लिए ही विराट रूप का दर्शन करना चाहता है ।
अर्जुन को इसकी पुष्टि के लिए कोई व्यक्तिगत इच्छा न थी । कृष्ण यह भी जानते हैं कि अर्जुन विराट रूप दर्शन एक आदर्श स्थापित करने के लिए करना चाहता है , क्योंकि भविष्य में ऐसे अनेक धूर्त होंगे जो अपने आपको ईश्वर का अवतार बताएँगे । अतः लोगों को सावधान रहना होगा । जो कोई अपने को कृष्ण कहेगा , उसे अपने दावे की पुष्टि के लिए विराट रूप दिखाने के लिए सन्नद्ध रहना होगा ।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ ४ ॥
मन्यसे – तुम सोचते हो ; यदि – यदि ; शक्यम् – समर्थ ; मया – मेरे द्वारा ; द्रष्टुम् – देखे जाने के लिए ; इति – इस प्रकार ; प्रभो – हे स्वामी ; योग-ईश्वर – हे योगेश्वर ; ततः – तब ; मे – मुझे ; त्वम् – आप ; दर्शय – दिखलाइये ; आत्मानम् – अपने स्वरूप को ; अव्ययम् – शाश्वत ।
हे प्रभु ! हे योगेश्वर ! यदि आप सोचते हैं कि मैं आपके विश्वरूप को देखने में समर्थ हो सकता हूँ , तो कृपा करके मुझे अपना असीम विश्वरूप दिखलाइये ।
तात्पर्य :- ऐसा कहा जाता है कि भौतिक इन्द्रियों द्वारा न तो परमेश्वर कृष्ण को कोई देख सकता है , न सुन सकता है और न अनुभव कर सकता है । किन्तु यदि कोई प्रारम्भ से भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा रहे , तो वह भगवान् का साक्षात्कार करने में समर्थ हो सकता है । प्रत्येक जीव आध्यात्मिक स्फुलिंग मात्र है , अतः परमेश्वर को जान पाना या देख पाना सम्भव नहीं है ।
भक्तरूप में अर्जुन को अपनी चिन्तनशक्ति पर भरोसा नहीं है , वह जीवात्मा होने के कारण अपनी सीमाओं को और कृष्ण की अकल्पनीय स्थिति को स्वीकार करता है । अर्जुन समझ चुका था कि एक क्षुद्रजीव के लिए असीम अनन्त को समझ पाना सम्भव नहीं है ।
यदि अनन्त स्वयं प्रकट हो जाए , तो अनन्त की कृपा से ही उसकी प्रकृति को समझा जा सकता है । यहाँ पर योगेश्वर शब्द भी अत्यन्त सार्थक है , क्योंकि भगवान् के पास अचिन्त्य शक्ति है । यदि वे चाहें तो असीम होकर भी अपने आपको प्रकट कर सकते हैं ।
अतः अर्जुन कृष्ण की अकल्पनीय कृपा की याचना करता है । यह कृष्ण को आदेश नहीं देता । जब तक कोई उनकी शरण नहीं जाता और भक्ति नहीं करता , कृष्ण अपने को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं हैं । अतः जिन्हें अपनी चिन्तनशक्ति ( मनोधर्म ) का भरोसा है , वे कृष्ण का दर्शन नहीं कर पाते ।
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