भगवद गीता अध्याय 10.4 || भगवान की विभूतियों और योगशक्ति || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय दस (Chapter -10)

भगवद गीता अध्याय 10.4 में शलोक 19 से  शलोक 42 तक भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन !

श्रीभगवानुवाच

हन्त  ते  कथयिष्यामि  दिव्या  ह्यात्मविभूतयः । 

       प्राधान्यतः  कुरुश्रेष्ठ  नास्त्यन्तो  विस्तरस्य  मे ॥ १९ ॥ 

श्रीभगवान् उवाच    –   भगवान ने कहा   ;    हन्त   –   हाँ   ;  ते   –  तुमसे   ;   कथयिष्यामि  –   कहूँगा   ;    दिव्याः   –   देवी   ;   हि   –   निश्चय ही   ;   आत्म-विभूतयः   –   अपने ऐश्वयों को  ;   प्राधान्यतः   –   प्रमुख रूप से  ;   कुरुश्रेष्ठ  –   है कुरुश्रेष्ठ   ;    न  अस्ति   –  नहीं है  ;   अन्तः  – सीमा   ;   विस्तरस्य   –   विस्तार की  ;   मे  –  मेरे । 

श्रीभगवान् ने कहा- हाँ , अब मैं तुमसे अपने मुख्य – मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूंगा , क्योंकि हे अर्जुन ! मेरा ऐश्वर्य असीम है । 

तात्पर्य :- कृष्ण की महानता तथा उनके ऐश्वर्य को समझ पाना सम्भव नहीं है । जीव की इन्द्रियाँ सीमित हैं , अतः उनसे कृष्ण के कार्य – कलापों की समग्रता को समझ पाना सम्भव नहीं है । तो भी भक्तजन कृष्ण को जानने का प्रयास करते हैं , किन्तु यह मानकर नहीं कि वे किसी विशेष समय में या जीवन – अवस्था में उन्हें पूरी तरह समझ सकेंगे ।

बल्कि कृष्ण के वृत्तान्त इतने आस्वाद्य है कि भक्तों को अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं । इस प्रकार भक्तगण उनका आनन्द उठाते हैं । भगवान् के ऐश्वयों तथा उनकी विविध शक्तियों की चर्चा चलाने में शुद्ध भक्तों को दिव्य आनन्द मिलता है , अतः वे उनको सुनते रहना ओर उनकी चर्चा चलाते रहना चाहते हैं ।

कृष्ण जानते हैं कि जीव उनके ऐश्वर्य के विस्तार को नहीं समझ सकते , फलतः वे अपनी विभिन्न शक्तियों के प्रमुख स्वरूपों का ही वर्णन करने के लिए राजी होते हैं । प्राधान्यतः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि हम भगवान् के प्रमुख विस्तारों को ही समझ पाते हैं , जबकि उनके स्वरूप अनन्त हैं । इन सबको समझ पाना सम्भव नहीं है ।

इस श्लोक में प्रयुक्त विभूति शब्द उन ऐश्वयों का सूचक है , जिनके द्वारा भगवान् सारे विश्व का नियन्त्रण करते हैं । अमरकोश में विभूति का अर्थ विलक्षण ऐश्वर्य है ।

निर्विशेषवादी या सर्वश्वरवादी न तो भगवान् के विलक्षण ऐश्वयों को समझ पाता है , न उनकी देवी शक्तियों के स्वरूपों को भौतिक जगत् में तथा बैकुण्ठ लोक में उनकी शक्तियों अनेक रूपों में फैली हुई हैं ।

अब कृष्ण उन रूपों को बताने जा रहे हैं , जो सामान्य व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है । इस प्रकार उनकी रंगविरंगी शक्ति का आंशिक वर्णन किया गया है । 

अहमात्मा   गुडाकेश  सर्वभूताशयस्थितः । 

     अहमादिश्च  मध्यं  च  भूतानामन्त   एव च ॥ २० ॥  

अहम्  –  मैं  ;   आत्मा  –  आत्मा  ;   गुडाकेश  –   हे अर्जुन  ;   सर्व-भूत   –   समस्त जीव  ;   आशय-स्थितः   –   हृदय में स्थित  ;   अहम्   –   मैं  ;  आदिः   – उद्गम  ;   च  –  भी  ;   मध्यम्   – मध्य  ;   च  –  भी  ;   भूतानाम्  –  समस्त जीवों का  ;   अन्तः  –  अन्त  ;   एव  –  निश्चय ही  ;   च  –   तथा । 

हे अर्जुन ! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ । मैं ही समस्त जीवों का आदि , मध्य तथा अन्त हूँ । 

तात्पर्य :- इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहकर सम्बोधित किया गया है जिसका अर्थ है , ” निद्रा रूपी अन्धकार को जीतने वाला । ” जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार में सोये हुए हैं , उनके लिए यह समझ पाना सम्भव नहीं है कि भगवान् किन – किन विधियों से इस लोक में तथा वैकुण्ठलोक में प्रकट होते हैं । अतः कृष्ण द्वारा अर्जुन के लिए इस प्रकार का सम्बोधन महत्त्वपूर्ण है ।

चूँकि अर्जुन ऐसे अन्धकार से ऊपर है , अतः भगवान् उससे विविध ऐचयों को बताने के लिए तैयार हो जाते हैं । सर्वप्रथम कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वे अपने मूल विस्तार के कारण समग्र दृश्यजगत की आत्मा हैं । भौतिक सृष्टि के पूर्व भगवान् अपने मूल विस्तार के द्वारा पुरुष अवतार धारण करते हैं और उन्हीं से सब कुछ आरम्भ होता है ।

अतः वे प्रधान महत्तत्व की आत्मा हैं । इस सृष्टि का कारण महत्तत्त्व नहीं होता , वास्तव में महाविष्णु सम्पूर्ण भांतिक शक्ति या महत्तत्व में प्रवेश करते हैं । ये आत्मा है । जब महाविष्णु इन प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में प्रवेश करते हैं तो वे प्रत्येक जीव में पुनः परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं । हमें ज्ञात है कि जीव का शरीर आत्मा के स्फुलिंग की उपस्थिति के कारण विद्यमान रहता है ।

विना आध्यात्मिक स्कूलिंग के शरीर विकसित नहीं हो सकता । उसी प्रकार भौतिक जगत् का तब तक विकास नहीं होता , जब तक परमात्मा कृष्ण का प्रवेश नहीं हो जाता । जैसा कि सुबल उपनिषद् में कहा गया है प्रकृत्यादि सर्वभूतान्तर्यामी सर्वशेषीच नारायण : – परमात्मा रूप में भगवान् समस्त प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में विद्यमान हैं ।

श्रीमद्भागवत में तीनों पुरुष अवतारों का वर्णन हुआ है । साचत तन्त्र में भी इनका वर्णन मिलता है । विष्णस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यायो विदुः भगवान् इस लोक में अपने तीन स्वरूपों को प्रकट करते हैं कारणोदकशायी विष्णु , गर्भादकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु ब्रह्मसंहिता में ( ५.४७ ) महाविष्णु या कारणोदकशायी विष्णु का वर्णन मिलता है ।

यः कारणावजले भजति स्म योगनिद्राम सर्वकारण कारण भगवान् कृष्ण महाविष्णु के रूप में कारणार्णव में शयन करते हैं । अतः भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड के आदि कारण , पालक तथा समस्त शक्ति के अवसान हैं । 

आदित्यानामहं  विष्णुज्योतिषां  रविरंशुमान् ।

         मरीचिर्मरुतामस्मि     नक्षत्राणामहं     शशी ॥ २१ ॥

आदित्यानाम्   –   आदित्यों में   ;  अहम्  –  मैं हूँ  ;   विष्णुः   –  परमेश्वर   ;   ज्योतिषाम्   –  समस्त ज्योतियों में   ;   रवि  –  सूर्य  ;  अंशुमान्   –   किरणमाली , प्रकाशमान  ;   मरीचिः  –  मरीचि   ;   मरुताम्  –   मरुतों में   ;   अस्मि  –  हूँ  ;   नक्षत्राणाम्    –   तारों में   ;  अहम्  –  मैं हूँ  ;  शशी  –  चन्द्रमा । 

मैं आदित्यों में विष्णु , प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य , मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ । 

तात्पर्य :- आदित्य वारह हैं , जिनमें कृष्ण प्रधान हैं । आकाश में टिमटिमाते ज्योतिपुंजों में सूर्य मुख्य है और ब्रह्मसंहिता में तो सूर्य को भगवान् का तेजस्वी नेत्र कहा गया है । अन्तरिक्ष में पचास प्रकार के वायु प्रवहमान हैं , जिनमें से वायु अधिष्ठाता मरीचि कृष्ण का प्रतिनिधि है ।

नक्षत्रों में रात्रि के समय चन्द्रमा सर्वप्रमुख नक्षत्र है , अतः वह कृष्ण का प्रतिनिधि है । इस श्लोक से प्रतीत होता है कि चन्द्रमा एक नक्षत्र है , अतः आकाश में टिमटिमाने वाले तारे भी सूर्यप्रकाश को परावर्तित करते हैं ।

वैदिक वाङ्मय में ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत अनेक सूर्यो के सिद्धान्त को स्वीकृति प्राप्त नहीं है । सूर्य एक है और सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित है , तथा अन्य नक्षत्र भी चूंकि भगवद्गीता से सूचित होता है कि चन्द्रमा एक नक्षत्र है , अतः टिमटिमाते तारे सूर्य न होकर चन्द्रमा के सदृश हैं ।

वेदानां  सामवेदोऽस्मि  देवानामस्मि  वासवः । 

       इन्द्रियाणां  मनश्चास्मि  भूतानामस्मि   चेतना ॥ २२ ॥ 

वेदानाम्  –  वेदों में  ;   सामवेदः  –  सामवेद   ;  अस्मि  –  हूँ  ;   देवानाम्   –  देवताओं में  ;   अस्मि  –   हूँ   ;   वासवः   –  स्वर्ग का राजा  ;    इन्द्रियाणाम्   –   इन्द्रियों में  ;   मनः  –  मन  ;   च  –  भी   ; अस्मि   –   हूँ  ;    भूतानाम्   –   जीवों में   ;   अस्मि   –  हूँ  ;   चेतना  –  प्राण  ,  जीवनी शक्ति

मैं वेदों में सामवेद हूँ , देवों में स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ , इन्द्रियों में मन हूँ , तथा समस्त जीवों में जीवनीशक्ति ( चेतना ) हूँ । 

तात्पर्य :- पदार्थ तथा जीव में यह अन्तर है कि पदार्थ में जीवा के समान चेतना नहीं होती , अतः यह चेतना परम तथा शाश्वत है । पदार्थों के संयोग से चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती । 

रुद्राणां   शंकरचास्मि  वित्तेशो  यक्षरक्षसाम् । 

       वसूनां  पावकश्चास्मि  मेरुः   शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥ 

रुद्राणाम्   –   समस्त रुद्रों में   ;     शङ्करः  –  शिवजी   ;   च  –  भी  ;   अस्मि  –  हूँ  ;   वित्त-ईश:   –   देवताओं का कोषाध्यक्ष   ;   यक्ष-रक्षसाम्  –  यक्षो तथा राक्षसों में  ;   बसूनाम्   –   वसुओं में  ;   पावकः   –   अग्नि  ;   च   –   भी  ;   अस्मि  –  हूँ  ;   मेरु:  –  मेरु  ;   शिखरिणाम्  –  समस्त पर्वतों में  ;   अहम्   –   मैं हूँ । 

मैं समस्त रुद्रों में शिव हूँ , यक्षों तथा राक्षसों में सम्पत्ति का देवता ( कुबेर ) हूँ , वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ । 

तात्पर्य :- ग्यारह रुद्रों में शंकर या शिव प्रमुख हैं । वे भगवान् के अवतार हैं , जिन पर ब्रह्माण्ड के तमोगुण का भार है । यक्षों तथा राक्षसों के नायक कुबेर हैं जो देवताओं के कोषाध्यक्ष तथा भगवान् के प्रतिनिधि हैं । मेरु पर्वत अपनी समृद्ध प्राकृत सम्पदा के लिए विख्यात है । 

पुरोधसां  च  मुख्यं  मां  विद्धि  पार्थ  बृहस्पतिम् । 

        सेनानीनामहं    स्कन्दः    सरसामस्मि    सागरः ॥ २४ ॥ 

पुरोधसाम्   –   समस्त पुरोहितों में  ;   मुख्यम्   –   प्रमुख   ;    माम्   –   मुझको   ;   विद्धि  –  जानो  ;   पार्थ   –   हे पृथापुत्र   ;  बृहस्पतिम्   –   बृहस्पति  ;   सेनानीनाम्   –   समस्त सेनानायकों में से  ;   अहम्   –  मैं हूँ  ;   स्कन्दः   –   कार्तिकेय  ;   सरसाम्   –  समस्त जलाशयों में  ;   अस्मि   – मैं हूँ   ;   सागरः   –  समुद्र । 

हे अर्जुन ! मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित बृहस्पति जानो । में ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ ।

तात्पर्य :- इन्द्र स्वर्ग का प्रमुख देवता है और स्वर्ग का राजा कहलाता है । जिस लोक में उसका शासन है वह इन्द्रलोक कहलाता है । बृहस्पति राजा इन्द्र के पुरोहित हैं और चूँकि इन्द्र समस्त राजाओं का प्रधान है , इसीलिए बृहस्पति समस्त पुरोहितों में मुख्य हैं ।

जैसे इन्द्र सभी राजाओं के प्रमुख हैं , इसी प्रकार पार्वती तथा शिव के पुत्र स्कन्द या कार्तिकेय समस्त सेनापतियों के प्रधान हैं । समस्त जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है । कृष्ण के ये स्वरूप उनकी महानता के ही सूचक है । 

महर्षीणां       भृगुरहं      गिरामस्म्येकमक्षरम् । 

          यज्ञानां  जपयज्ञोऽस्मि  स्थावराणां  हिमालयः ॥ २५ ॥

महा-ऋषीणाम्    –   महर्षियों में    ;   भृगुः   –   भृगु  ;   अहम्  –  मैं हूँ   ;   गिराम्   –   वाणी में   ; अस्मि  –  हूं   ;   एकम्-अक्षरम्   –   प्रणव  ;   यज्ञानाम्  –   समस्त यक्षों में  ;   जप-यज्ञः  –  कीर्तन , जप   ;   अस्मि   –  हूँ   ;   स्थावराणाम्   –  जह पदार्थों में  ;   हिमालय:   –   हिमालय पर्वत । 

मैं महर्षियों में भृगु हूँ , वाणी में दिव्य ओंकार हूँ , समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन ( जप ) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ । 

तात्पर्य :-  ब्रह्माण्ड के प्रथम जीव ब्रह्मा ने विभिन्न योनियों के विस्तार के लिए कई पुत्र उत्पन्न किये । इनमें से भृगु सबसे शक्तिशाली मुनि थे । समस्त दिव्य ध्वनियों में ओंकार कृष्ण का रूप है ।

समस्त यज्ञों में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप कृष्ण का सर्वाधिक शुद्ध रूप है । कभी – कभी पशु यज्ञ की भी संस्तुति की जाती है , किन्तु हरे कृष्ण यज्ञ में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता । यह सबसे सरल तथा शुद्धतम यज्ञ है ।

समस्त जगत में जो कुछ शुभ है , वह कृष्ण का रूप है । अतः संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिमालय भी उन्हीं का स्वरूप है । पिछले श्लोक में मेरु का उल्लेख हुआ है , परन्तु मेरु तो कभी – कभी सचल होता है , लेकिन हिमालय कभी चल नहीं है । अतः हिमालय मेरु से बढ़कर है ।

अश्वत्थः   सर्ववृक्षाणां    देवर्षीणां   च    नारदः । 

        गन्धर्वाणां  चित्ररथः  सिद्धानां  कपिलो  मुनिः ॥ २६ ॥ 

अश्वत्थः   –   अश्वत्थ वृक्ष   ;   सर्व-वृक्षाणाम्   –   सारे वृक्षों में  ;   देव-ऋषीणाम्   –  समस्त देवर्षियों में   ;   च  –  तथा   ; नारद:   –   नारद  ;   गन्धर्वाणाम्   –  गन्धर्वलोक के वासियों में  ;   चित्ररथः  –    चित्ररथ  ;    सिद्धानाम्   –   समस्त सिद्धि प्राप्त हुओं में   ;    कपिलः मुनिः   –   कपिल मुनि 

मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ । में गन्धवों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ । 

तात्पर्य :-  अश्वत्थ वृक्ष सबसे ऊँचा तथा सुन्दर वृक्ष है , जिसे भारत में लोग नित्यप्रति नियमपूर्वक पूजते हैं । देवताओं में नारद विश्वभर के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं और पूजित होते हैं । इस प्रकार के भक्त के रूप में कृष्ण के स्वरूप हैं । गन्धर्वलोक ऐसे निवासियों से पूर्ण है , जो बहुत अच्छा गाते हैं , जिनमें से चित्ररथ सर्वश्रेष्ठ गायक है ।

सिद्ध पुरुषों में से देवहूति के पुत्र कपिल मुनि कृष्ण के प्रतिनिधि हैं । वे कृष्ण के अवतार माने जाते हैं । इनका दर्शन भागवत में उल्लिखित है । बाद में भी एक अन्य कपिल प्रसिद्ध हुए , किन्तु वे नास्तिक थे , अतः इन दोनों में महान अन्तर है ।

उच्चैः  श्रवसमश्वानां  विद्धि  माममृतोद्भवम् । 

         ऐरावतं  गजेन्द्राणां  नराणां  च   नराधिपम् ॥ २७ ॥  

उच्चैः श्रवसम्   –   उच्चैःश्रवा  ;   अश्वानाम्  –   घोड़ों में  ;   विद्धि   –  जानो   ;   माम्  –  मुझको   ;   अमृत-उद्भवम्   –   समुद्र मन्थन से उत्पन्न  ;    ऐरावतम्   –   ऐरावत   ;   गज-इन्द्राणाम्   –   मुख्य हाथियों में   ;    नराणाम्   –   मनुष्यों में   ;   च   –  तथा    ;   नर-अधिपम्   –  राजा । 

घोड़ों में मुझे उच्चैःश्रवा जानो , जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न  हुआ था । गजराजों में में ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ । 

तात्पर्य :- एक बार देवों तथा असुरों ने समुद्र मन्थन में भाग लिया । इस मन्थन से अमृत तथा विष प्राप्त हुए विष को तो शिवजी ने पी लिया , किन्तु अमृत के साथ अनेक जीव उत्पन्न हुए , जिनमें उच्चे श्रवा नामक घोड़ा भी था इसी अमृत के साथ एक अन्य पशु ऐरावत नामक हाथी भी उत्पन्न हुआ था ।

चूँकि ये दोनों पशु अमृत के साथ उत्पन्न हुए थे , अतः इनका विशेष महत्त्व है और वे कृष्ण के प्रतिनिधि हैं । मनुष्यों में राजा कृष्ण का प्रतिनिधि है , क्योंकि कृष्ण ब्रह्माण्ड के पालक हैं और अपने दैवी गुणों के कारण नियुक्त किये गये राजा भी अपने राज्यों के पालनकर्ता होते है ।

महाराज युधिष्ठिर महाराज परीक्षित तथा भगवान् राम जेसे राजा अत्यन्त धर्मात्मा थे , जिन्होंने अपनी प्रजा का सदेव कल्याण सोचा वैदिक साहित्य में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है । किन्तु इस युग में धर्म के ह्रास होने से राजतन्त्र का पतन हुआ और अन्ततः विनाश हो गया है किन्तु यह समझना चाहिए कि भूतकाल में लोग धर्मात्मा राजाओं के अधीन रहकर अधिक सुखी थे । 

आयुधानामहं   वज्रं   धेनूनामस्मि    कामधुक् । 

        प्रजनश्चास्मि  कन्दर्पः  सर्पाणामस्मि  वासुकिः ॥ २८ ॥

आयुधानाम्    –   हथियारों में   ;   अहम्  –   मैं हूँ  ;   वज्रम्   –  वज्र  ;   धेनूनाम्   –  गायों में   ;    अस्मि  –  हूँ  ;   काम-धुक्   –   सुरभि गाय  ;   प्रजनः  –  सन्तान उत्पत्ति का कारण  ;   च   –  तथा  ; अस्मि   –  हूँ  ;  कन्दर्पः   –  कामदेव  ;   सर्पाणाम्   –  सर्पों में  ;   अस्मि –  हूँ  ;   वासुकिः  – वासुकि  । 

मैं हथियारों में बज्र हूँ , गायों में सुरभि , सन्तति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सपों में वासुकि हूँ ।

तात्पर्य :- वज्र सचमुच अत्यन्त बलशाली हथियार है और यह कृष्ण की शक्ति का प्रतीक है । वैकुण्ठलोक में स्थित कृष्णलोक की गाएँ किसी भी समय दुही जा सकती हैं और उनसे जो जितना चाहे उतना दूध प्राप्त कर सकता है ।

निस्सन्देह इस जगत् में ऐसी गाएँ नहीं मिलतीं , किन्तु कृष्णलोक में इनके होने का उल्लेख है । भगवान् ऐसी अनेक गाएँ रखते हैं , जिन्हें सुरभि कहा जाता है । कहा जाता है कि भगवान् ऐसी गायों के बराने में व्यस्त रहते हैं । कन्दर्प काम वासना है , जिससे अच्छे पुत्र उत्पन्न होते हैं ।

कभी कभी केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए संभोग किया जाता है , किन्तु ऐसा संभोग कृष्ण का प्रतीक नहीं है । अच्छी सन्तान की उत्पत्ति के लिए किया गया संभोग कन्दर्प कहलाता है और वह कृष्ण का प्रतिनिधि होता है । 

अनन्तश्चास्मि  नागानां  वरुणो   यादसामहम् ।

       पितॄणामर्यमा    चास्मि    यमः  संयमतामहम् ॥ २ ९ ॥ 

अनन्त:  –  अनन्त  ;   च  –   भी  ;   अस्मि  –  हूँ  ;   नागानाम्   –   फणों वाले सपों में  ;   बरुण:  –   जल के अधिष्ठाता देवता  ;   वादसाम्     –   समस्न जलचरों में   ;   अहम्  –   मैं हूँ  ;   पितृणाम्   – पितरों में    ;   अर्थमा   – अर्थमा  ;  च  –  भी   ;   अस्मि –  हूँ   ;   यमः   –   मृत्यु का नियामक  ;  संयमताम्   – समस्त नियमनकर्ताओं में   ;  अहम्   –  मैं हूँ

अनेक फणों वाले नागों में मैं अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ । में पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में में मृत्युराज यम हूँ । 

तात्पर्य :- अनेक फणों वाले नागों में अनन्त सबसे प्रधान हैं और इसी प्रकार जलचरों में वरुण देव प्रधान हैं । ये दोनों कृष्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं । इसी प्रकार पितृलोक के अधिष्ठाता अर्यमा हैं जो कृष्ण के प्रतिनिधि हैं ।

ऐसे अनेक जीव है जो दुष्टों को दण्ड देते हैं , किन्तु इनमें यम प्रमुख हैं । यम पृथ्वीलोक के निकटवर्ती लोक में रहते हैं । मृत्यु के बाद पापी लोगों को वहाँ ले जाया जाता है और यम उन्हें तरह – तरह का दण्ड देने की व्यवस्था करते हैं । 

प्रह्लादश्चास्मि  दैत्यानां   कालः कलयतामहम् । 

       मृगाणां   च  मृगेन्द्रोऽहं  वैनतेयश्च   पक्षिणाम् ॥ ३० ॥ 

प्रह्लादः   –   प्रह्लाद  ;   च  –  भी  ;   अस्मि   –  हूँ   ;   दैत्यानाम्   –   असुरों में   ;  कालः   –  काल   ;   कलयताम्    –   दमन करने वालों में   ;   अहम्   –  में हूँ   ;    मृगाणाम्   –  पशुओं में   ;  च   – तथा   ;    मृग-इन्द्रः   –    सिंह  ;   अहम्  –  मैं हूँ   ;   वैनतेयः  –   गरुड़  ; च  –  भी   ;   पक्षिणाम्  –   पक्षियों में । 

वैत्यों में मैं भक्तराज प्रह्लाद हूँ , दमन करने वालों में काल हूँ , पशुओं में सिंह हूँ , तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ । 

तात्पर्य :- दिति तथा अदिति दो बहनें थीं । अदिति के पुत्र आदित्य कहलाते हैं और दिति के दैत्य । सारे आदित्य भगवद्भक्त निकले और सारे दैत्य नास्तिक । यद्यपि प्रहलाद का जन्म देत्य कुल में हुआ था , किन्तु वे बचपन से ही परम भक्त थे । अपनी भक्ति तथा दैवी गुण के कारण वे कृष्ण के प्रतिनिधि माने जाते हैं ।

दमन के अनेक नियम हैं , किन्तु काल इस संसार की हर वस्तु को क्षीण कर देता है , अतः वह कृष्ण का प्रतिनिधित्व कर रहा है । पशुओं में सिंह सबसे शक्तिशाली तथा हिंस्र होता है और पक्षियों के लाखों प्रकारों में भगवान् विष्णु का वाहन गरुड़ सबसे महान है । 

पवनः   पवतामस्मि   रामः    शस्त्रभृतामहम् । 

        झषाणां  मकरश्चास्मि  स्रोतसामस्मि  जाह्नवी ॥ ३१ ॥ 

पवन:  –   वायु    ;   पवताम्   –   पवित्र करने वालों में   ;   अस्मि   –  हूँ  ;   रामः   –  राम  ;    शस्त्र-भृताम्    –    शस्त्रधारियों में   ;  अहम्   –   मैं   ;   झषाणाम्   –   मछलियों में  ;   मकर:   –मगर   ;   च   –  भी  ;   अस्मि  –   हूँ   ;   स्रोतसाम्   –   प्रवहमान नदियाँ में   ;   अस्मि  –  हूँ   ;   जाह्नवी   –   गंगा नदी

समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ , शस्त्रधारियों में राम , मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ । 

तात्पर्य :-  समस्त जलचरों में मगर सबसे बड़ा और मनुष्य के लिए सबसे घातक होता है । अतः मगर कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है ।

सर्गाणामादिरन्तश्च      मध्यं      चैवाहमर्जुन । 

        अध्यात्मविद्या  विद्यानां  वादः  प्रवदतामहम् ॥ ३२ ॥ 

सर्गाणाम्   –   सम्पूर्ण सृष्टियों का   ;    आदि   –  प्रारम्भ  ;   अन्तः  –   अन्त  ;   च  –  तथा  ;   मध्यम्   –   मध्य   ;   च  –  भी   ;   एव  –  निश्चय ही  ;   अहम्  –  मैं हूँ   ;   अर्जुन   –   हे अर्जुन   ;  अध्यात्म- विद्या   –  अध्यात्मज्ञान  ;   विद्यानाम्   –  विद्याओं में   ;   बादः  – स्वाभाविक निर्णय  ;   प्रवदताम्   –   तकों में  ;   अहम्  –   मैं हूँ 

हे अर्जुन ! मैं समस्त सृष्टियों का आदि , मध्य और अन्त हूँ । मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ ।

तात्पर्य :- सृष्टियों में सर्वप्रथम समस्त भौतिक तत्त्वों की सृष्टि की जाती है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है , यह दृश्यजगत महाविष्णु ‘ गर्भादकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु द्वारा उत्पन्न ओर संचालित है । बाद में इसका संहार शिवजी द्वारा किया जाता है । ब्रह्मा गौण खष्टा है ।

सृजन , पालन तथा संहार करने वाले ये सारे अधिकारी परमेश्वर के भौतिक गुणों के अवतार हैं । अतः वे ही समस्त सृष्टि के आदि , मध्य तथा अन्त हैं । उच्च विद्या के लिए ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं , यथा चारों वेद , उनके छहाँ वेदांग , वेदान्त सूत्र , तर्क ग्रंथ , धर्मग्रंथ , पुराण इस प्रकार कुल चोदह प्रकार के ग्रंथ हैं ।

इनमें से अध्यात्म विद्या सम्बन्धी ग्रंथ , विशेष रूप से वेदान्त सूत्र , कृष्ण का स्वरूप है । तर्कशास्त्रियों में विभिन्न प्रकार के तर्क होते रहते हैं । प्रमाण द्वारा तर्क की पुष्टि , जिससे विपक्ष का भी समर्थन हो , जल्प कहलाता है । प्रतिद्वन्द्वी को हराने का प्रयास मात्र वितण्डा है , किन्तु वास्तविक निर्णय वाद कहलाता है । यह निर्णयात्मक सत्य कृष्ण का स्वरूप है । 

अक्षराणामकारोऽस्मि   द्वन्द्वः   सामासिकस्य  च । 

        अहमेवाक्षयः     कालो     धाताह     विश्वतोमुखः ॥ ३३ ॥ 

अक्षराणाम्   –  अक्षरों में  ;   अ-कार:   –  अकार अर्थात् पहला अक्षर  ;   अस्मि  –  हूँ  ;  द्वन्द्व:  – द्वन्द्व समास   ;   सामासिकस्य   –   सामासिक शब्दों में  ;   च   –   तथा  ;   अहम्   –  मैं हूँ  ;   एव   –   निश्चय ही  ;   अक्षय:   –  शाश्वत  ;   काल:   –   काल , समय  ;    धाता   –   भ्रष्टा  ;   अहम्  –  मैं  ;   विश्वतः-मुख:  –    ब्रह्मा । 

अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में इन्द्व समास हूँ । में शाश्वत काल भी हूँ और भ्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ । 

तात्पर्य :- अ – कार , अर्थात् संस्कृत अक्षर माला का प्रथम अक्षर ( अ ) वैदिक साहित्य का शुभारम्भ है । अकार के बिना कोई स्वर उच्चरित नहीं हो सकता , इसीलिए वह आदि स्वर है । संस्कृत में कई तरह के सामासिक शब्द होते हैं , जिनमें से राम कृष्ण जैसे दोहरे शब्द द्वन्द्व कहलाते हैं ।

इस समास में राम तथा कृष्ण अपने उसी रूप में हैं , अतः यह समास द्वन्द्व कहलाता है । समस्त मारने वालों में काल सर्वोपरि है , क्योंकि यह सवों को मारता है । काल कृष्णस्वरूप है , क्योंकि समय आने पर प्रलयाग्नि से सब कुछ लय हो जाएगा । सृजन करने वाले जीवों में चतुर्मुख वा प्रधान है , अतः वे भगवान् कृष्ण के प्रतीक है । 

मृत्युः          सर्वहरचाहमुद्भवक्ष          भविष्यताम् ।

        कीर्तिः  श्रीर्वाांक्च  नारीणां  स्मृतिमेधा  धृतिः  क्षमा ॥ ३४ ॥

मृत्युः   –  मृत्यु  ;   सर्व-हर:    –   सर्वभक्षी   ;   च   –   भी   ;   अहम्  –  मैं हूं  ;   उद्भवः   –   सृष्टि  ;   च   –  भी   ;   भविष्यताम् –  भावी जगतों में  ;   कीर्तिः   –   यश   ;   श्रीः   –   ऐश्वर्व या सुन्दरता  ;   वाक्    –   वाणी  ;   च  –  भी   ;   नारीणाम्   –  स्त्रियों में   ;    स्मृतिः  –  स्मृति , स्मरणशक्ति  ;   मेधा   –   बुद्धि  ;   क्षमा   –   क्षमा , धैर्य  ।

मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और में ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ । स्त्रियों मे में कीर्ति , श्री , वाक् , स्मृति , मेघा , धृति तथा क्षमा हूँ । 

तात्पर्य :- ज्यों मनुष्य जन्म लेता है , वह क्षण – क्षण मरता रहता है । इस प्रकार मृत्यु समस्त जीवों का हर क्षण भक्षण करती रहती है , किन्तु अन्तिम आघात मृत्यु कहलाता है । यह मृत्यु कृष्ण ही है ।

जहाँ तक भावी विकास का सम्बन्ध है , सारे जीवों में छह परिवर्तन होवे जन्मते हैं , पढ़ते हैं , कुछ काल तक संसार में रहते हैं , सन्तान उत्पन्न करते हैं , क्षीण होते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं । इन छहाँ परिवर्तनों में पहला गर्भ से मुक्ति है और यह कृष्ण है । प्रथम उत्पत्ति ही भावी कार्यों का शुभारम्भ है ।

यहाँ जिन सात ऐचयों का उल्लेख है , वे स्त्रीवाचक हैं – कीर्ति , श्री . वाक् , स्मृति , मेधा धृति तथा क्षमा यदि किसी व्यक्ति के पास ये सभी , या इनमें से कुछ ही होते हैं , तो यह यशस्वी होता है । यदि कोई मनुष्य धर्मात्मा है , तो यह यशस्वी होता है । संस्कृत पूर्ण भाषा है , अतः यह अत्यन्त यशस्विनी है ।

यदि कोई पढ़ने के बाद विषय को स्मरण रखता है तो उसे उत्तम स्मृति मिली होती है । केवल अनेक ग्रंथों को पढ़ना पर्याप्त नहीं होता किन्तु उन्हें समझकर आवश्यकता पड़ने पर उनका प्रयोग मेधा या बुद्धि कलती है । यह दूसरा ऐश्वर्य है । अस्थिरता पर विजय पाना धृति या दृढ़ता है । पूर्णतया योग्य होकर यदि कोई विनीत भी हो और सुख तथा दुख में समभाव से रहे तो यह ऐसा कहलाता है । 

बृहत्साम  तथा  साम्नां  गायत्री  छन्दसामहम् । 

       मासानां    मार्गशीर्षोऽहमृतूनां   कुसुमाकरः ॥ ३५ ॥ 

बृहतसाम्   –   बृहत्साम  ;    तथा  –  भी   ;   साम्नाम्  –   सामवेद के गीतों उन्दों में  ;   गायत्री  –   गायत्री मंत्र   ;   अहम्   –  मैं हूँ  ;     मासानाम्   –  महीनों में  ;   मार्ग-शीर्ष:   –   नवम्बर-दिसम्बर महीनों में    ;    ऋतुनाम्   –   समस्त ऋतुओं में    ;    कुसुम-आकर:   –  वसन्त

मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ । समस्त महीनों में में मार्गशीर्ष ( अगहन ) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ ।

तात्पर्य :-  जैसा कि भगवान् स्वयं बता चुके हैं , वे समस्त वेदों में सामवेद हैं । सामवेद विभिन्न देवताओं द्वारा गाये जाने वाले गीतों का संग्रह है । इन गीतों में से एक वृहत्साम है जिसकी ध्वनि सुमधुर है और जो अर्धरात्रि में गाया जाता है । संस्कृत में काव्य के निश्चित विधान है ।

इसमें लय तथा ताल बहुत सी आधुनिक कविता की तरह मनमाने नहीं होते । ऐसे नियमित काव्य में गायत्री मन्त्र , जिसका जप केवल सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा ही होता है , सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । गायत्री मन्त्र का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी हुआ है । चूँकि गायत्री मन्त्र विशेषतया ईश्वर साक्षात्कार के ही निमित्त है , इसीलिए यह परमेश्वर का स्वरूप है ।

यह मन्त्र अध्यात्म में उन्नत लोगों के लिए है । जब इसका जप करने में उन्हें सफलता मिल जाती है , तो वे भगवान् के दिव्य धाम में प्रविष्ट होते हैं । गायत्री मन्त्र के जप के लिए मनुष्य को पहले सिद्ध पुरुष के गुण या भौतिक प्रकृति के नियमों के अनुसार सात्त्विक गुण प्राप्त करने होते हैं ।

वैदिक सभ्यता में गायत्री मन्त्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उसे ब्रह्म का नाद अवतार माना जाता है । ब्रह्मा इसके गुरु हैं और शिष्य परम्परा द्वारा यह उनसे आगे बढ़ता रहा है । मासों में अगहन ( मार्गशीर्ष ) मास सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि भारत में इस मास में खेतों से अन्न एकत्र किया जाता है और लोग अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं ।

निस्सन्देह वसन्त ऐसी ऋतु है जिसका विश्वभर में सम्मान होता है क्योंकि यह न तो बहुत गर्म रहती है , न सर्द और इसमें वृक्षों में फूल आते हैं । वसन्त में कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित अनेक उत्सव भी मनाये जाते हैं , अतः इसे समस्त ऋतुओं में से सर्वाधिक उल्लासपूर्ण माना जाता है और यह भगवान् कृष्ण की प्रतिनिधि है । 

द्यूतं      छलयतामस्मि        तेजस्तेजस्विनामहम् । 

       जयोऽस्मि  व्यवसायोऽस्मि   सत्त्वं  सत्त्ववतामहम् ॥ ३६ ॥ 

द्यूतम्   –   जुआ   ;   छलयताम्   –   समस्त छलियों या धुतों में   ;   अस्मि  –  हूँ   ;    तेज:   –  तेज , चमकदमक  ;    तेजस्विनाम्   –   तेजस्वियों में  ;   अहम्   –  मैं हूँ  ;   जयः  –  विजय  ;   अस्मि  – हूँ   ;   व्यवसाय:   –   जोखिम या साहस   ;    अस्मि  –  हूँ   ;   सत्त्वम्   –  वल   ;   सत्त्व-वताम्   – बलवानों का   ;   अहम्  –  मैं हूँ 

मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ । में विजय हूँ , साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ । 

तात्पर्य :-  ब्रह्माण्ड में अनेक प्रकार के छलियाँ हैं । समस्त छल – कपट कर्मों में छूत – क्रीड़ा ( जुआ ) सर्वोपरि है और यह कृष्ण का प्रतीक है । परमेश्वर के रूप में कृष्ण किसी भी सामान्य पुरुष की अपेक्षा अधिक कपटी ( छल करने वाले ) हो सकते हैं ।

यदि कृष्ण किसी से छल करने की सोच लेते हैं तो कोई उनसे पार नहीं पा सकता । उनकी महानता एकागी न होकर सर्वांगी है । ये विजयी पुरुषों की विजय हैं । वे तेजस्वियों के तेज हैं । साहसी तथा कर्मठों में वे सर्वाधिक साहसी तथा कर्मठ हैं । वे बलवानों में सर्वाधिक बलवान हैं ।

जय कृष्ण इस घराधाम में विद्यमान थे तो कोई भी उन्हें बल में हरा नहीं सकता था । यहाँ तक कि अपने वाल्यकाल में उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा लिया था । उन्हें न तो कोई छल में हरा सकता है , न तेज में , न विजय में , न साहस तथा बल में ।

वृष्णीनां  वासुदेवोऽस्मि  पाण्डवानां  धनञ्जयः । 

       मुनीनामप्यहं    व्यासः कवीनामुशना  कविः ॥ ३७ ॥ 

वृष्णीनाम्   –  वृष्णि कुल में  ;   वासुदेव:  –   द्वारकावासी कृष्ण  ;   अस्मि  –  हूँ   ;   पाण्डवानाम्   –   पाण्डवों में   ;   धनञ्जयः  –   अर्जुन  ;   मुनीनाम्  –   मुनियों में  ;   अपि  –  भी  ;   अहम्  – मैं हूँ   ;    व्यासः   –   व्यासदेव , समस्त वेदों के  संकलनकर्ता  ;   कवीनाम्   –  महान विचारकों में  ;   उशना   –   उझाना , शुक्राचार्य  ;   कवि:   –  विचारक

में वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ । में समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ । 

तात्पर्य :-  कृष्ण आदि भगवान् है ओर बलदेव कृष्ण के निकटतम अंश – विस्तार हैं । कृष्ण तथा बलदेव दोनों ही वसुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए , अतः दोनों की वासुदेव कहा जा सकता है । दूसरी दृष्टि से चूँकि कृष्ण कभी वृन्दावन नहीं त्यागते , अतः उनके जितने भी रूप अन्यत्र पाये जाते हैं वे उनके विस्तार हैं । वासुदेव कृष्ण के निकटतम अंश विस्तार है , अत : वासुदेव कृष्ण से भिन्न नहीं हैं ।

अतः इस श्लोक में आगत वासुदेव शब्द का अर्थ वलदेव या वलराम माना जाना चाहिए क्योंकि वे समस्त अवतारों के उद्गम है और इस प्रकार वे वासुदेव के एकमात्र उद्गम हैं । भगवान् के निकटतम अंशों को स्वांश ( व्यक्तिगत या स्वकीय अंश ) कहते हैं और अन्य प्रकार के भी अंश हैं , जो विभिन्नांश ( पृथकीकृत अंश ) कहलाते हैं ।

पाण्डुपुत्रों में अर्जुन धनञ्जय नाम से विख्यात है । वह समस्त पुरुषों में श्रेष्ठतम है , अतः कृष्णस्वरूप है । मुनियों अर्थात् वैदिक ज्ञान में पटु विद्वानों में व्यास सबसे बड़े हैं , क्योंकि उन्होंने कलियुग में लोगों को समझाने के लिए वैदिक ज्ञान को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया और व्यास को कृष्ण के एक अवतार भी माने जाते हैं । अतः वे कृष्णस्वरूप हैं ।

कविगण किसी विषय पर गम्भीरता से विचार करने में समर्थ होते हैं । कवियों में उशना अर्थात् शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे , वे अत्यधिक बुद्धिमान तथा दूरदर्शी राजनेता थे । इस प्रकार शुक्राचार्य कृष्ण के ऐश्वर्य के दूसरे स्वरूप हैं ।

दण्डो  दमयतामस्मि  नीतिरस्मि  जिगीषताम् । 

      मौनं  चैवास्मि  गुह्यानां   ज्ञानं  ज्ञानवतामहम् ॥ ३८ ॥ 

दण्ड:  –  दण्ड  ;   दमयताम्   –   दमन के समस्त साधनों में से  ;   अस्मि   –  हूँ   ;   नीतिः   – सदाचार   ;  अस्मि   –   हूँ   ;    जिगीषताम्    –   विजय की आकांक्षा करने वालों में   ;  मौनम्   – चुप्पी , मौन   ;   च   –   तथा   ;   एव  –  भी   ;   अस्मि   –  हूँ  ;   गुयानाम्   –   रहस्यों में  ;   ज्ञानम् –   ज्ञान   ;   ज्ञान-वताम्  –   ज्ञानियों में   ;  अहम्  –  मैं हूँ । 

अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से में दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी है उनकी में नीति हूँ । रहस्यों में में मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ ।

तात्पर्य :-  वैसे तो दमन के अनेक साधन हैं , किन्तु इनमें सबसे महत्वपूर्ण हे दुष्टों का नाश । जब दुष्टों को दण्डित किया जाता है तो दण्ड देने वाला कृष्णस्वरूप होता है । किसी भी क्षेत्र में विजय की आकांक्षा करने वाले में नीति की ही विजय होती है ।

सुनने , सोचने तथा ध्यान करने की गोपनीय क्रियाओं में मौन धारण ही सबसे महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि मौन रहने से जल्दी उन्नति मिलती है । ज्ञानी व्यक्ति वह है , जो पदार्थ तथा आत्मा में , भगवान् की परा तथा अपरा शक्तियों में भेद कर सके । ऐसा ज्ञान साक्षात् कृष्ण है । 

यत्रापि     सर्वभूतानां     बीजं       तदहमर्जुन । 

        न  तदस्ति  विना  यत्स्यान्मया  भूतं  चराचरम् ॥ ३ ९ ॥ 

यत्   –  जो   ;   च  –  भी   ;   अपि   –   हो सकता है   ;   सर्व-भूतानाम्   –   समस्त सृष्टियों में   बीजम्   –  बीज   ;   अहम्   –   मैं हूँ   ;  अर्जुन   –   हे अर्जुन   ;   न   –   नहीं  ;   तत्   –  वह  ; अस्ति   –  है   ;    विना   –   रहित  ;   यत्   –  जो  ;   स्वात्  –  हो   ;   मया   – मुझसे  ;   भूतम्  – जीव  ;   चर-अचरम्   –   जंगम तथा जड़ 

यही नहीं , हे अर्जुन ! मैं समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ । ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है , जो मेरे बिना रह सके ।  

तात्पर्य :-  प्रत्येक वस्तु का कारण होता है और इस सृष्टि का कारण या बीज कृष्ण हैं । कृष्ण की शक्ति के बिना कुछ भी नहीं रह सकता , अतः उन्हें सर्वशक्तिमान कहा जाता है । उनकी शक्ति के बिना चर तथा अचर , किसी भी जीव का अस्तित्व नहीं रह सकता । जो कुछ कृष्ण की शक्ति पर आधारित नहीं है , वह माया है अर्थात् ” वह जो नहीं है । ” 

नान्तोऽस्ति  मम  दिव्यानां  विभूतीनां  परन्तप । 

        एष    तूडेशतः   प्रोक्तो    विभूतेर्विस्तरो   मया ॥ ४० ॥ 

न  –   न तो   ;   अन्तः   –  सीमा  ;  अस्ति  –  है  ;   मम  –   मेरे  ;   दिव्यानाम्  –  दिव्य  ;   विभूतीनाम्   –  ऐधयों की  ;  परन्तप   –  हे शत्रुओं के विजेता   ;   एष:   –   यह सब   ;   तु   – लेकिन  ;   उद्देशतः  –   उदाहरणस्वरूप  ;    प्रोक्तः  –  कडे गये  ;   विभूतेः  –  ऐश्वयों के  ;   विस्तर:   –   विशद वर्णन  ;   मया   –   मेरे द्वारा । 

हे परन्तप ! मेरी दैवी विभूतियों का अन्त नहीं है । मैंने तुमसे जो कुछ कहा , वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है । 

तात्पर्य :-  जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा गया है यद्यपि परमेश्वर की शक्तियाँ तथा विभूतियाँ अनेक प्रकार से जानी जाती हैं , किन्तु इन विभूतियों का कोई अन्त नहीं है , अतएव समस्त विभूतियों तथा शक्तियों का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है । अर्जुन की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए केवल थोड़े से उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । 

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं     श्रीमदूर्जितमेव     वा । 

      तत्तदेवावगच्छ  त्वं  मम  तेजोंऽशसम्भवम् ॥ ४२ ॥ 

यत्   यत्    – जो  जो   ;    विभूति   –   ऐश्वर्य   ;   मत्  –  युक्त   ;   सत्त्वम्   –   अस्तित्व   ;   ऊर्जितम्   –   तेजस्वी    ;    एव   –  निश्चय ही  ;   वा   –  अथवा  ;   तत्  तत्   – वे  वे  ;   एव   – निश्चय ही  ;   अवगच्छ   –   जानो   ;   त्वम्   –  तुम  ;   मम  –  मेरे   ;   तेज  –  तेज का  ;  अंश   – भाग , अंश से   ;    सम्भवम्   –  उत्पन्न  ;   श्री-मत्   –   सुन्दर ।

तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य , सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं ।

तात्पर्य :-  किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को , चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में , कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए । किसी भी अलोकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए । 

अथवा     बहुनेतेन    किं    ज्ञातेन    तवार्जुन । 

        विष्टभ्याहमिदं  कृत्स्नमेकांशेन  स्थितो  जगत् ॥ ४२ ॥ 

अथवा   –  या   ;   बहुना  –  अनेक  ;   एतेन  –  इस प्रकार से   ;   किम्   –  क्या   ;   ज्ञातेन  –  जानने से   ;    तब  –   तुम्हारा   ;   अर्जुन   –   हे अर्जुन  ;   विष्टभ्य  –   व्याप्त होकर  ;  इदम्  –  इस  ;  कृत्स्नम्  –   सम्पूर्ण   ;    एक:   –   एक   ;   अंशेन   –  अंश के द्वारा  ;   स्थितः  –   स्थित हूँ  ;   जगत्   –   ब्रह्माण्ड में । 

किन्तु हे अर्जुन ! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है ? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ । 

तात्पर्य :- परमात्मा के रूप में ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं में प्रवेश कर जाने के कारण परमेश्वर का सारे भौतिक जगत में प्रतिनिधित्व है । भगवान् यहाँ पर अर्जुन को बताते हैं कि यह जानने की कोई सार्थकता नहीं है कि सारी वस्तुएँ किस प्रकार अपने पृथक पृथक ऐश्वर्य तथा उत्कर्ष में स्थित है ।

उसे इतना ही जान लेना चाहिए कि सारी वस्तुओं का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि कृष्ण उनमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हैं । ब्रह्मा जैसे बिराट जीव से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक इसीलिए विद्यमान हैं क्योंकि भगवान् उन सबमें प्रविष्ट होकर उनका पालन करते हैं

एक ऐसी धार्मिक संस्था ( मिशन ) भी है जो यह निरन्तर प्रचार करती है कि किसी भी देवता की पूजा करने से भगवान् या परम लक्ष्य की प्राप्ति होगी । किन्तु यहाँ पर देवताओं की पूजा को पूर्णतया निरुत्साहित किया गया है , क्योंकि ब्रह्मा तथा शिव जैसे महानतम देवता भी परमेश्वर की विभूति के अंशमात्र हैं । वे समस्त उत्पन्न जीवों के उद्गम हैं और उनसे बढ़कर कोई भी नहीं है ।

वे असमांध्य है जिसका अर्थ है कि न तो कोई उनसे श्रेष्ठ है , न उनके तुल्य पद्मपुराण में कहा गया है कि जो लोग भगवान् कृष्ण को देवताओं की कोटि में चाहे वे ब्रह्मा या शिव ही क्यों न हो , मानते हैं वे पाखण्डी हो जाते हैं , किन्तु यदि कोई ध्यानपूर्वक कृष्ण की विभूतियों एवं उनकी शक्ति के अंशों का अध्ययन करता है तो वह बिना किसी संशय के भगवान् कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और अविचल भाव से कृष्ण की पूजा में स्थिर हो सकता है ।

भगवान् अपने अंश के विस्तार से परमात्मा रूप में सर्वव्यापी हैं , जो हर विद्यमान वस्तु में प्रवेश करता है । अतः शुद्धभक्त पूर्णभक्ति में कृष्णभावनामृत में अपने मन को एकाग्र करते हैं । अतएव वे नित्य दिव्य पद में स्थित रहते हैं । इस अध्याय के श्लोक ८ से ११ तक कृष्ण की भक्ति तथा पूजा का स्पष्ट संकेत है ।

शुद्धभक्ति की यही विधि है । इस अध्याय में इसकी भलीभांति व्याख्या की गई है कि मनुष्य भगवान् की संगति में किस प्रकार चरम भक्ति – सिद्धि प्राप्त कर सकता है । कृष्ण – परम्परा के महान आचार्य श्रील बलदेव विद्याभूषण इस अध्याय की टीका का समापन इस कथन से करते हैं-

यच्छक्तिलेशात्सूर्याचा     भवन्त्यत्युग्रतेजसः ।

यदंशेन  धृतं  विश्वं  स  कृष्णो  दशमेऽर्च्यते ।।

प्रवल सूर्य भी कृष्ण की शक्ति से अपनी शक्ति प्राप्त करता है और सारे संसार का पालन कृष्ण के एक लघु अंश द्वारा होता है । अतः श्रीकृष्ण पूजनीय हैं । 

इस प्रकार भगवद गीता अध्याय 10 ” श्रीभगवान का ऐश्वर्य ” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ । 

भगवद गीता अध्याय 10.4~भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita bhagban bibhuti or yogshakti Ch10.4
भगवद गीता अध्याय 10.4

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